जो परमात्मा सत्त्वगुणसे युक्त होकर अर्थात् सत्त्वगुणका आश्रय लेकर [चौदहों] भुवनोंको धारण करते हैं, रजोगुणका आश्रय लेकर सृष्टि करते हैं, तमोगुणसे समन्वित होकर संहार करते हैं एवं त्रिगुणमयी मायासे परे होकर स्थित हैं, उन सत्य आनन्दस्वरूप, अनन्तज्ञानसम्पन्न, निर्मल, ब्रह्मा आदि नामोंसे पुकारे जानेवाले, नित्य, सत्त्वगुणके आश्रयसे प्राप्त होनेवाले तथा अखण्ड शिवका हम ध्यान करते हैं ॥ 1 ॥
ऋषिगण बोले- हे सूतजी! हे महाप्राज्ञ! हे व्यासशिष्य ! आपको नमस्कार है, आपने हमें कोटिरुद्र नामक चतुर्थ संहिता सुनायी ॥ 2 ॥
अब आप उमासंहितामें विद्यमान विविध आख्यानोंसे युक्त पार्वतीसहित परमात्मा शिवके चरित्रका वर्णन कीजिये ॥ 3 ll
सूतजी बोले- हे शौनकादि महर्षियो ! अब आपलोग मंगलमय, भोग तथा मोक्षको देनेवाले, दिव्य एवं उत्तम शिवके चरित्रको प्रेमपूर्वक सुनिये ॥ 4 ॥ [[किसी समय ] मुनियों में श्रेष्ठ व्यासजीने ऐसा ही पवित्र प्रश्न सनत्कुमारसे पूछा था, तब उन्होंने शिवजीके सुन्दर चरित्रका वर्णन किया था ॥ 5॥ सनत्कुमार बोले- हे व्यासजी ! महर्षि उपमन्युने श्रीकृष्णसे जिस शिवचरित्रका वर्णन किया था, उसीको मैं कहता हूँ ॥ 6 ॥
पूर्वकालमें वसुदेवपुत्र श्रीकृष्ण पुत्रकी कामनासे शिवजीकी तपस्या करनेके लिये शंकरालय कैलासपर गये ॥ 7 ॥
वहाँ पर्वतके उत्तम शिखरपर मुनि उपमन्युको तप करते देखकर भक्तिपूर्वक उन्हें प्रणाम करके हाथ जोड़ उनसे वे पूछने लगे ॥ 8 ॥श्रीकृष्ण बोले- हे महाप्राज्ञ ! हे शैवप्रवर! हे सन्मते! हे उपमन्युजी ! मैं पुत्रप्राप्तिके लिये | शंकरजीकी तपस्या करनेके लिये यहाँ आया हूँ। हे मुने! निरन्तर आनन्द प्रदान करनेवाले शिवमाहात्म्यको | कहिये, जिसे सुनकर में भक्तिपूर्वक महेश्वरका उत्तम तप करूँ ॥ 9-10 ॥
सनत्कुमार बोले- उन बुद्धिमान् श्रीकृष्णको यह बात सुनकर [ महर्षि) उपमन्यु प्रसन्नचित्त होकर शिवजीका स्मरण करते हुए कहने लगे- ॥ 11 ॥
उपमन्यु बोले- हे महाशैव श्रीकृष्ण ! | महेश्वर शिवजीकी भक्तिको बढ़ानेवाली जिस उत्तम महिमाको मैंने [स्वयं] देखा है, उसे आप सुनिये। तपमें स्थित मैंने शंकर, उनके आयुधों, उनके समस्त परिवार एवं विष्णु आदि देवगणोंका प्रत्यक्ष दर्शन किया ।। 12-13 ।।
मैंने देखा कि वह [ पाशुपत] तीन फलकोंसे शोभित, शाश्वत सौख्यका हेतु, अविनश्वर, एकपादात्मक, विशाल दाढ़ोंसे युक्त, मुखोंसे मानों आग उगलता हुआ, सहस्रों [सूर्योकी] किरणोंके प्रकाशसे देदीप्यमान, सहस्रचरणान्वित, अनेक नेत्रोंसे युक्त तथा सभी प्रमुख आयुधोंको अभिभूत करता हुआ [भगवान् शंकरके समीपमें स्थित] है ।। 14-15 ll
जो कल्पके अन्तमें विश्वका संहार कर देता है, जिसके लिये इस चराचर त्रैलोक्यमें कोई भी अवध्य नहीं है, भगवान् महेश्वरकी भुजाओंसे छूटा हुआ वह [पाशुपत ] चराचरसहित सम्पूर्ण त्रिलोकीको शीघ्र ही - आधे पलमें दग्ध कर सकता है, इसमें सन्देह नहीं है ।। 16-17 ॥
तपमें स्थित मैंने रुद्रके समीपमें विद्यमान अविनाशी [उस] गुह्य अस्त्रको देखा, जिसके समान तथा बढ़कर कोई भी अस्त्र नहीं है, उन शिवजीका सभी लोकोंमें शूल नामसे प्रसिद्ध जो विजयास्त्र है, वह अत्यन्त उम्र है, समस्त शस्त्रास्त्रोंका विनाशक है और जो सम्पूर्ण पृथ्वीको विदीर्ण कर देता है, जो समुद्रको सुखा डालता है और जो सम्पूर्ण नक्षत्रमण्डलको गिरा देता है, इसमें संशय नहीं है ।। 18-20 ॥जिसने पूर्वकालमें महाबली, चक्रवर्ती, त्रैलोक्यविजयी एवं महातेजसे सम्पन्न युवनाश्वपुत्र मान्धाताको विनष्ट कर दिया, जिसने [परशुरामजीके माध्यमसे] महाभिमानी हैहय ( कार्तवीर्यार्जुन) - का संहार करवाया, जिसने युद्धके लिये स्वयं शत्रुघ्नको आमन्त्रितकर [अधर्मनिरत] लवणासुरका विनाश करवाया और उस दैत्य [ लवणासुर] का वध हो जानेपर जो पुनः शिवजीके हाथोंमें पहुँच गया, वह शूल तीक्ष्ण अग्रभागवाला तथा घोर भय उत्पन्न करनेवाला है ।। 21-23 ॥
[[हे श्रीकृष्ण !] तीन फलकोंवाला होनेसे मानो भौंहों को तीन जगहसे टेढ़ीकर विरोधियोंको डाँटता हुआ सा, धूमरहित अग्निके समान, उदयकालीन सूर्यके समान कान्तिमय, सर्पसे युक्त होनेके कारण पाशधारी यमराजके समान तथा अवर्णनीय वह त्रिशूल [ भगवान् शंकरके समीप ] स्थित था। [इसी प्रकार] सर्प आदिसे विभूषित, तीक्ष्ण धारवाला तथा प्रलयकालीन अग्निके समान स्वरूपवान् वह परशु भी साक्षात् पुरुष देह धारणकर [शिवजीके निकट ] उपस्थित था, जिसने भृगुवंशी परशुरामके क्षत्रिय शत्रुओंका युद्धमें संहार किया था। शिवजीके द्वारा प्रदत्त उसी परशुके सामर्थ्यका आश्रय लेकर प्राचीनकालमें परशुरामजी उत्साहपूर्वक इक्कीस बार क्षत्रियसमूहको भस्म कर सके थे ॥ 24-27 ॥
[ इसी प्रकार ] व्यापक स्वरूपवाले हजार मुखोंसे युक्त, हजार-हजार भुजाओं, नेत्रों तथा चरणोंवाले, करोड़ों सूर्योंके सदृश कान्तिमय, त्रिलोकीको भस्म कर देनेमें समर्थ तथा पुरुष शरीर धारणकर वहाँ उपस्थित
देवस्वरूप सुदर्शनचक्रको भी मैंने देखा ॥ 28-29 ॥ पुनः मैंने अति उज्ज्वल, सौ पर्ववाले, तीक्ष्ण तथा उत्तम वज्रको, प्रदीप्त कान्तिवाले तथा तरकससहित पिनाक नामक धनुषको और शक्ति, खड्ग, पाश, महाकान्तिमान् अंकुश, महान् दिव्य गदा तथा अन्य अस्त्रोंको भी वहाँ स्थित देखा ॥ 30-31 ॥
मैंने लोकपालोंके इन अस्त्रोंको तथा अन्य भी जितने अस्त्र हैं, उन सभीको भगवान् रुद्रके पासमें स्थित देखा ॥ 32 ॥लोकपितामह ब्रह्मा हंससे युक्त तथा इच्छानुसार चलनेवाले दिव्य विमानपर आरूढ़ होकर उन प्रभुके दाहिनी ओर विराजमान थे और शंख, चक्र तथा गा धारण किये भगवान् नारायण गरुड़पर विराजमान होकर उनके वामभागमें स्थित थे । ll 33-34 ॥
स्वायम्भुव आदि मनु, भृगु आदि ऋषि एवं इन्द्र आदि समस्त देवता भी उनके साथ आये थे ॥ 35 ॥ मोरपर सवार कार्तिकेय, शक्ति तथा घण्टा धारण करके देवी पार्वती के समीप दूसरी अग्नि समान स्थित थे। नन्दी त्रिशूल धारण करके सदाशिवके आगे स्थित थे। समस्त भूतगण तथा विविध मातृकाएँ भी विराजमान थीं ॥ 36-37 ॥
उस समय वे सभी देवता महेश्वर महादेवको चारों ओरसे घेरकर उन्हें नमस्कारकर अनेक प्रकारके स्तोत्रोंद्वारा उनकी स्तुति कर रहे थे ॥ 38 ॥
इस प्रकार जगत्में जो कुछ भी दिखायी देता है अथवा सुना जाता है, वह सब भगवान्के पास देखकर मैं अत्यधिक आश्चर्यचकित हो गया ।। 39 ।। हे श्रीकृष्ण ! मैं इस [शिवाराधन] यज्ञमें अत्यधिक धैर्य धारणकर हाथ जोड़ करके नानाविध स्तोत्रोंसे उनकी स्तुतिकर परम आनन्दमें निमग्न हो गया और शिवजीको सम्मुख देखकर श्रद्धासे युक्त हो आँसुओंके कारण गद्गद वाणीसे मैंने विधिवत् उनका पूजन किया ।। 40-41 ।।
तब अत्यन्त प्रसन्न हुए परमेश्वर सदाशिवने हँसते हुए प्रेमपूर्वक मधुर वाणीमें मुझसे कहा- ll 42 ॥
हे विप्र मैंने बारंबार आपकी परीक्षा ली, आप " भक्तिसे युक्त तथा दृढ़ हैं। मैं आपको अपनी भक्तिसे विचलित नहीं कर सका, आपका कल्याण हो ॥ 43 ॥
अतः हे सुव्रत! मैं बहुत प्रसन्न हूँ, आप सम्पूर्ण देवगणोंके लिये भी दुर्लभ वर माँगिये, आपके लिये कुछ भी अदेय नहीं है। तब शिवजीके उस प्रेमयुक्त वचनको सुनकर हाथ जोड़कर वह [में] भक्तोंपर कृपा करनेवाले उन प्रभुसे कहने लगा- ॥ 44-45 ॥
उपमन्यु बोले- हे भगवन्! यदि आप मुझसे सन्तुष्ट हैं और यदि आपमें मेरी दृढ़ भक्ति है, तो उस | सत्यसे मुझे त्रिकालज्ञता प्राप्त हो जाय ॥ 46 ॥आप मुझको अपने प्रति दृढ़ अनन्यभक्ति प्रदान करें, मुझे तथा मेरे वंशजोंको पर्याप्त दूध भात नित्य प्राप्त होता रहे ॥ 47 ॥
हे विभो। मुझे इस आश्रम में आपका नित्य सान्निध्य प्राप्त हो और आपके भक्तोंमें मेरी परस्पर मित्रता सदा बनी रहे तथा अन्य लोगोंके प्रति उदासीनता रहे ।। 48 ।।
हे यदुश्रेष्ठ ! मेरे द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर उन परमेश्वर सदाशिवने हँसकर कृपादृष्टिसे मेरी ओर देखकर शीघ्र ही कहा- ॥ 49 ॥
श्रीशिवजी बोले- हे उपमन्यो ! हे मुने! हे तात! आप जरा मरणजन्य दोषोंसे मुक्त रहेंगे और आपकी सारी कामनाएँ पूर्ण होंगी ॥ 50 ॥
आप सम्पूर्ण मुनियोंके पूजनीय, यश तथा धनसे परिपूर्ण होंगे और मेरी प्रसन्नतासे पद- पदपर आपको शील, रूप, गुण तथा ऐश्वर्यकी प्राप्ति होती रहेगी ॥ 51 ॥
हे मुने! तुम जहाँ जहाँ चाहोगे, वहाँ पयोराशिभूत क्षीरसागरका सान्निध्य आपको सदा प्राप्त होता रहेगा ॥ 52 ll
जबतक वैवस्वत मनुका यह कल्प समाप्त नहीं होगा, तबतक आप अपने बन्धुओंके साथ इस अमृतात्मक क्षीरसागरका दर्शन प्राप्त करते रहेंगे। हे महामुने। मेरी कृपासे आपका वंश सदा अक्षय रहेगा और मैं आपके इस आश्रम में सदैव निवास करूँगा ।। 53-54 ॥
हे वत्स मेरी भक्ति आपमें सदा स्थिर रहेगी और आपके द्वारा स्मरण किये जानेपर मैं निरन्तर दर्शन देता रहूँगा, हे वत्स! आप सब प्रकारसे मेरे प्रिय हैं ॥ 55 ॥
आप इच्छानुसार सुखपूर्वक रहें। किसी प्रकारकी उत्कण्ठा मत कीजिये, आपके सारे चिन्तित मनोरथ पूर्ण हो जायँगे, इसमें संशय नहीं है ॥ 56 ॥
उपमन्यु बोले- ऐसा कहकर करोड़ों सूर्योके समान देदीप्यमान वे भगवान् महेश्वर वर प्रदानकर वहीं अन्तर्धान हो गये ॥ 57 ॥
हे श्रीकृष्ण ! इस प्रकार मैंने भोग एवं मोक्ष देनेवाले भगवान् सदाशिवको सपरिवार देखा। हे देवदेव! उन महाबुद्धिमान् परमेश्वर सदाशिवने मुझसे जो कहा था, वह सब उनके ध्यानके द्वारा मैंने प्राप्त किया ।। 58-59 ।।आप अपने समक्ष उपस्थित हुए गन्धर्वों, अप्सराओं,
ऋषियों, विद्याधरों एवं सिद्धोंको देखिये ॥ 60 ॥ आप चिकने पत्तोंवाले, सुगन्धित, सभी ऋतुओं में फूलनेवाले तथा सर्वदा पुष्प फलसे युक्त इन मनोरम वृक्षोंको देखिये। हे महाबाहो ! अनेक पदार्थोंसे संयुक्त यह समस्त विश्व ही देवदेव महात्मा शंकरकी कृपासे उत्पन्न हुआ है । ll 61-62 ॥
मुझे तो सदाशिवकी कृपासे सम्पूर्ण ज्ञान है, मैं भूत, भविष्य एवं वर्तमान सभीको यथार्थरूपमें जानता हूँ॥63॥ इन्द्र आदि देवगण भी जिन्हें बिना आराधनाके नहीं
देख सकते, उन महेश्वर देवका मैंने दर्शन कर लिया,
अतः मुझसे अधिक धन्य कौन हो सकता है ? ॥ 64 ॥ छब्बीसवें तत्त्वके रूपमें प्रसिद्ध जो सनातन परमतत्त्व है, विद्वान् लोग उसी महान् परम अक्षर [ब्रह्म] का ध्यान करते हैं। वे भगवान् सदाशिव ही सभी तत्त्वोंके विधानको जाननेवाले एवं सभी तत्त्वोंके अर्थोंके द्रष्टा और प्रधान पुरुषेश्वर हैं ॥ 65-66 ॥
उन परमेश्वरने संसाररचनाके कारणभूत ब्रह्माको अपने दक्षिण पार्श्वसे तथा लोककी रक्षाके लिये विष्णुको अपने बायें भागसे उत्पन्न किया है। प्रभु सदाशिवने ही कल्पान्तके प्राप्त होनेपर [सृष्टिके विनाशके लिये] अपने हृदयसे रुद्रकी रचना की और उनको माध्यम बनाकर उन्होंने सम्पूर्ण चराचर संसारका संहार किया । ll 67-68 ॥
वे ही महादेव युगके अन्तमें संवर्तक अग्निके समान काल बनकर सभी प्राणियोंका भक्षण करते हुए स्थित रहते हैं ।। 69 ।।
वे प्रभु सर्वज्ञ, सर्वभूतात्मा, सभी प्राणियोंको उत्पन्न करनेवाले, सर्वव्यापक एवं सभी देवगणोंके दर्शनीय हैं ॥ 70 ॥
इसलिये [हे श्रीकृष्ण ! ] आप पुत्रप्राप्तिके लिये शिवकी आराधना करें, वे भक्तवत्सल शिव आपपर शीघ्र ही प्रसन्न होंगे ॥ 71 ॥