सनत्कुमार बोले- हे मुने! जो वनके कन्द मूल एवं फल खाकर अरण्यमें तपस्या करता है और जो वेदकी एक ऋचामात्रका अध्ययन करता है, उन दोनोंका समान फल होता है ॥ 1 ॥
श्रेष्ठ ब्राह्मण वेदके अध्ययनसे जो पुण्य प्राप्त करता है, उसके अध्यापनसे उसका दूना फल प्राप्त होता है। हे मुने! जैसे सूर्य और चन्द्रमाके बिना सम्पूर्ण संसार प्रकाशरहित हो जाता है, वैसे ही पुराणके अध्ययनके बिना लोग ज्ञानरहित हो जाते हैं, इसलिये सदा पुराणका अध्ययन करना चाहिये ॥ 2-3 ॥
पुराण जाननेवाला ही शास्त्रका उपदेश देकर अज्ञानके कारण नरकमें दुःख प्राप्त करनेवाले मनुष्यको भलीभाँति बोध कराता है, इसलिये पुराणका वक्ता [सर्वदा] पूजनीय होता है। सत्पात्रोंमें पुराण जाननेवाला ही सर्वश्रेष्ठ है; वह पतनसे रक्षा करता है, इसलिये उसे पात्र कहा गया है ॥ 4-5 ॥पुराणवेत्ताको कभी भी मनुष्यके रूपमें नहीं समझना चाहिये। पुराणका ज्ञाता सर्वज्ञ, ब्रह्मा, विष्णु, शिव एवं गुरु है। इस लोक एवं परलोकमें [अपने] कल्याणके लिये पुराण- वेत्ताको धन-धान्य, सुवर्ण एवं विविध वस्त्र देना चाहिये। जो सज्जन पुराण जाननेवालेको प्रेमपूर्वक शुभ वस्तुएँ प्रदान करता है, वह परम गतिको प्राप्त होता है ॥ 6-8 ॥
जो सत्पात्रको पृथ्वी, गौ, रथ, हाथी और श्रेष्ठ घोड़ा देता है, उसके पुण्यके फलका श्रवण करो। वह मनुष्य इस जन्ममें तथा परलोकमें सभी अक्षय कामनाओंको तथा अश्वमेधयज्ञके फलको प्राप्त करता है ॥ 9-10 ॥
जो पुराणवेत्ताको हलसे जोती गयी फसलयुक्त भूमि प्रदान करता है, वह अपनेसे पूर्वकी दस पीढ़ी तथा आगे आनेवाली दस पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है ॥ 11 ॥
वह व्यक्ति इस लोकमें सभी सुखोंका भोग करके दिव्य शरीरसे युक्त होकर दिव्य विमानसे शिवलोक जाता है। देवतालोग यज्ञ, प्रोक्षण, बलि, पुष्पार्पण तथा पूजासे उतने प्रसन्न नहीं होते, जितना पुराण- ग्रन्थके वाचनसे होते हैं ॥ 12-13 ॥
जो शिवालय, विष्णुमन्दिर, सूर्यमन्दिर अथवा किसी भी देवमन्दिरमें धर्मशास्त्रका वाचन कराता है, उसके फलका श्रवण कीजिये। वह मनुष्य राजसूय तथा अश्वमेधयज्ञका फल प्राप्त करता है और सूर्यलोकका भेदनकर ब्रह्मलोकको जाता है ॥ 14-15 ll
वहाँ सैकड़ों कल्पतक निवास करके वह यहाँ पृथ्वीपर राजा होता है और निष्कण्टक सभी सुखोंका भोग करता है; इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ 16 ॥ जो किसी देवताके सान्निध्यमें जप करता है, वह हजार अश्वमेधका जो फल कहा गया है, उस फलको प्राप्त करता है। शिवमन्दिरमें एवं अन्य देवमन्दिरोंमें इतिहास - पुराणोंके वाचनके बिना शिवजीको प्रसन्न करनेका अन्य कोई उपाय नहीं है। इसलिये सम्पूर्ण प्रयत्नसे देवमन्दिरोंमें धर्मपुस्तकोंका वाचन तथा श्रवण प्रेमपूर्वक करना चाहिये, वह सभी प्रकारकी कामनाओंका फल प्रदान करनेवाला है ॥ 17-19॥
शिवपुराणके सुननेसे पुरुष पापहीन हो जाता है। और सम्पूर्ण सुखोंको भोगकर [अन्तमें] शिवलोकको प्राप्त करता है ॥ 20 ॥सैकड़ों राजसूय एवं अग्निष्टोमयज्ञ करनेसे जो पुण्य प्राप्त होता है, उस पुण्यकी प्राप्ति शिवजीकी कथा सुनानेमात्रसे हो जाती है। हे मुने! सभी तीर्थों में स्नान करनेसे तथा करोड़ों गौओंका दान करनेसे जो फल मिलता है, उस फलको मनुष्य शिवकी कथा सुननेमात्र से ही प्राप्त करता है ।। 21-22 ॥
जो मनुष्य तीनों भुवनोंको पवित्र करनेवाली शिवकथाको सुनते हैं, उन्हें मनुष्य नहीं समझना चाहिये, वे साक्षात् रुद्र ही हैं, इसमें संशय नहीं है ॥ 23 ॥
मुनियोंने शिवजीके उत्तम यशका श्रवण करनेवाले तथा उसका कीर्तन करनेवाले सत्पुरुषोंके चरणकमलकी धूलिको ही तीर्थ कहा है। जो प्राणी मोक्षकी स्थिति प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें सदा भक्तिपूर्वक शिवपुराणकी कथा सुननी चाहिये ॥ 24-25 ।।
यदि मनुष्य पुराणकी कथाको सदा सुननेमें असमर्थ हो तो संयतचित्त होकर प्रतिदिन केवल एक मुहूर्त ही कथाका श्रवण करे। हे मुने! यदि मनुष्य प्रतिदिन कथा सुननेमें असमर्थ हो तो पवित्र महीनोंमें ही शिवकी कथाका श्रवण करे ।। 26- 27 ॥
हे मुनीश्वर ! शिवकी कथाका श्रवण करता हुआ वह पुरुष कर्मरूपी महारण्यको भस्म करके संसारसे पार हो जाता है। जो मनुष्य मुहूर्तमात्र अथवा उसका आधा या क्षणमात्र भी शिवकी कथाको भक्तिपूर्वक सुनते हैं, उनकी दुर्गति नहीं होती है ॥ 28-29 ॥
हे मुने! सभी दानों अथवा सभी यज्ञोंसे जो पुण्य मिलता है, वह शिवपुराणके श्रवणसे अचल हो जाता है ॥ 30 ॥
हे व्यासजी विशेष रूपसे कलियुगमें मनुष्योंके लिये पुराणके श्रवणसे अतिरिक्त और कोई भी श्रेष्ठ धर्म नहीं है, वही उनके लिये मोक्ष एवं ध्यानरूपी फल देनेवाला बताया गया है। शिवपुराणका श्रवण एवं शिवनामका कीर्तन मनुष्योंके लिये कल्पवृक्षका मनोरम फल है, इसमें संशय नहीं है ॥ 31-32 ॥
कलियुगमें धर्माचरणसे रहित चित्तवाले दुर्बुद्धि मनुष्योंके हितके लिये शिवजीने शिवपुराण | नामक अमृतरसका निर्माण किया है। अमृतका पानकरनेवाला मात्र एक ही व्यक्ति अजर अमर होता है, किंतु शिवकथारूपी सुधाके पानसे सम्पूर्ण कुल ही अजर-अमर हो जाता है । ll 33-34 ॥
हे तात! जो गति पुण्यात्माओं, यज्ञ करनेवालों एवं तपस्वियोंकी होती है, वह गति केवल पुराणके श्रवणमात्रसे ही हो जाती है। यदि ज्ञानकी प्राप्ति न हो सके, तो यत्नपूर्वक योगशास्त्रोंका अध्ययन करना चाहिये और पुराण- शास्त्रका श्रवण करना चाहिये ॥ 35-36 ॥
पुराणका श्रवण करनेसे पापका नाश होता है और धर्मकी अभिवृद्धि होती है एवं व्यक्ति ज्ञानवान् होकर पुनः संसारके आवागमनके बन्धनमें नहीं पड़ता है। इसलिये धर्म, अर्थ, कामकी सिद्धि तथा मोक्ष- मार्गकी प्राप्तिके लिये प्रयत्नपूर्वक पुराणोंको सुनना चाहिये ॥ 37-38 ॥
यज्ञ, दान, तप एवं तीर्थसेवनसे जो फल मिलता है, उस फलको मनुष्य केवल पुराणश्रवणसे प्राप्त कर लेता है। यदि धर्ममार्गका प्रदर्शन करनेवाले पुराण न होते तो लोक तथा परलोककी कथाको सुनानेवाला कौन व्रती रहता ? ॥ 39-40 ॥
छब्बीस पुराणोंमें एक भी पुराणको जो भक्तियुक्त | होकर सुनता है या पढ़ता है, वह मुक्त हो जाता है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ 41 ॥
अन्य कोई भी सुखप्रद मार्ग नहीं है, पुराणमार्ग ही सर्वदा श्रेष्ठ मार्ग है। [ पुराणरूप इस अनुशासक ] शास्त्रके बिना यह संसार आलोकित नहीं होता है, जैसे सूर्यके बिना जीवलोक आलोकयुक्त नहीं होता ॥ 42॥