ईश्वर बोले- मण्डलके दक्षिणमें मनोहर व्याघ्रचर्म बिछाकर अस्त्र मन्त्रके द्वारा शुद्ध जलसे उसका प्रोक्षण करे। पहले प्रणवका उद्धार करके बादमें आधारका उद्धार करे। उसके अनन्तर शक्तिकमलका उद्धार करे। इन सबमें चतुर्थी विभक्ति लगाकर अन्तमें नमः पदका प्रयोग करे। इस प्रकार मन्त्रका उच्चारण करके वहाँपर उत्तरकी ओर मुख करके बैठकर प्रणवका उच्चारण करते हुए विधिवत् प्राणायाम करे ॥ 1-3 ॥
'अग्निरिति भस्म0 ' इत्यादि मन्त्रका उच्चारणकर मस्तकपर भस्म लगाये, उसके बाद गुरुको नमस्कारकरमण्डलकी रचना करे। मण्डलमें त्रिकोण तथा वृत्तकी रचनाकर उसे चतुरस्रके द्वारा बाहरसे आवेष्टित करे। फिर 'ओम्' मन्त्रसे उसपर आधारसहित शंख रखकर उसकी भी अर्चना करे ।। 4-5 ।।
तदनन्तर प्रणवका उच्चारणकर शुद्ध तथा सुगन्धि जलसे शंखको पूर्ण करके [प्रणवका उच्चारणकर] गन्ध- पुष्पादिसे शंखका पूजन करके पुनः सात बार प्रणवसे अभिमन्त्रितकर धेनुमुद्रा तथा शंखमुद्रा प्रदर्शित करे। पुनः अस्त्रमन्त्रसे अपना तथा गन्ध, पुष्प आदि पूजा सामग्रियोंका प्रोक्षण करे। इसके बाद तीन बार प्राणायाम करके ऋषि आदिका न्यास करे। इस सौरमन्त्रके देवभाग ऋषि हैं, गायत्री छन्द है और सूर्यरूप महेश्वर इसके देवता हैं ।। 6- 91/2 ।।
'ह्रां ह्रीं, हूं, हैं, ह्रीँ, हः' इत्यादि मन्त्रोंसे न्यास करे। फिर अस्त्रमन्त्रसे आग्नेय कोणके कमलको | प्रोक्षित करे। विद्वान् पुरुष उस कमलपर पूर्वादि क्रमसे प्रभूता, विमला तथा साराकी आराधनाकर उनका पूजन करे ॥ 10-11 ॥
इसके बाद कालाग्निरुद्र, आधारशक्ति, अनन्त, पृथ्वी, मणिद्वीप, कल्पवृक्षका उद्यान, मणिमय गृह एवं रक्तपीठकी पूजाकर उसके पादस्थानमें चारों ओर पूर्वादि क्रमसे धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्यका तथा आग्नेयादि चार कोणोंमें अधर्म आदिका पूजन करे ।। 12-14 ॥
माया [ बीज]- से नीचेके भागका आच्छादन और विद्या [बीज] से ऊर्ध्वभागका आच्छादनकर पूर्वादि दिशाओंमें क्रमशः सत्त्व, रज तथा तमका पूजन करे एवं मध्यमें क्रमशः दीप्ता, सूक्ष्मा, जया, भद्रा, विभूति, विमला, अमोघा और विद्युताकी भी पूजा करे ।। 15-16 ll
इसके बाद सर्वतोमुख, कन्दनाल, सुषिर, कण्टक, मूल, पत्र, किंजल्क तथा आत्मप्रकाशका पूजन करे, फिर पंचग्रन्थि, कर्णिका, कमलदल तथा केसरोंका पूजन करे। तदनन्तर कमलके केसरपर ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, आत्मा, अन्तरात्मा, ज्ञानात्मा तथा परमात्माका पूजनकर सौर नामक योगपीठकी पूजा करे। तदुपरान्त मन्त्रवेत्ता सिंहासनके ऊपर मूलमन्त्रसे मूर्तिकी स्थापना करे ॥ 17-20 ॥तत्पश्चात् संयतप्राण होकर उसी मूलमन्त्रसे मूलाधारमें स्थित आधारशक्तिको पिंगलानाडीके मार्गसे ऊपर उठाये ॥ 21 ॥
मण्डलमें स्थित अत्यन्त तेजस्वी तथा सिन्दूरके समान अरुणवर्णवाले पार्वतीसहित अर्धनारीश्वर भगवान्को पुष्पांजलिमें आकृष्ट करे, जिनके हाथोंमें रुद्राक्षकी माला, पाश, खट्वांग, कपाल, अंकुश, कमल, शंख और चक्र विराजमान हैं, जिनके चार मुख और बारह नेत्र हैं, उन सौररूप महादेवके हृदयकमलके मध्यमें सर्वप्रथम प्रणवका उद्धार करके पुनः ह्रां ह्रीं सःका उद्धार करे ।। 22-24 ।।
तत्पश्चात् 'प्रकाशशक्तिसहितं मार्तण्डमावाह यामि नमः' इस मन्त्रसे सूर्यरूप महेश्वरका आवाहन करके आवाहनी नामक मुद्राके द्वारा स्थापन [आदि क्रियाएँ सम्पन्न ] - कर मुद्रा प्रदर्शित करे। हां, ह्रीं, हूं, हैं, ह्रौं, हः – इन मन्त्रोंसे अंगन्यास तथा करन्यास करे ।। 25-26 ॥
पंचोपचारोंको परिकल्पित करके पद्मकेसरोंमें मूल- मन्त्रसे षडंग (ह्रां ह्रीं आदि) की तीन बार अर्चना करे। हे महेश्वरि ! तदुपरान्त विज्ञ साधक अग्नि, ईश्वर, राक्षस, वायु आदि चारों मूर्तियोंका क्रमशः दूसरे आवरणमें पूजन करे ।। 27-28 ॥
हे पार्वति! पूर्वसे लेकर उत्तर दलके मूल भागतकमें आदित्य, भास्कर, भानु तथा रविका एवं ईशानादि चारों कोणोंमें अर्क, ब्रह्मा, रुद्र तथा विष्णुका इसी प्रकार तृतीय आवरणमें पूजन करे। पूर्वादि दलोंके मध्यमें सोम, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनैश्चर, राहु तथा केतुका पूजन करना चाहिये अथवा द्वितीय आवरणमें ही द्वादश आदित्योंका पूजन करे। तीसरे आवरणमें बारह राशियोंका पूजन करे ।। 29-32 ॥ इसके बाहर चारों ओर सप्तसागर, गंगा, ऋषि, देवता, गन्धर्व, पन्नग, अप्सराएँ, ग्रामणी, यक्ष, यातुधान, सप्तछन्दरूप सात घोड़े तथा बालखिल्योंका भी पूजन करे ।। 33-34 ।।
इस प्रकार तीन आवरणवाले दिवाकर देवका पूजनकर समाहितचित्त हो चौकोर मण्डलका निर्माण करे। पुष्प आदिसे सुवासित शुद्ध जलसे परिपूर्ण,ताम्रनिर्मित, प्रस्थमात्र जल भरनेके योग्य विस्तारवाला | आधारसहित कलश स्थापित करके गन्ध, पुष्पादिसे ताम्रकलशका पूजनकर दोनों घुटनोंके बल पृथ्वीपर बैठकर हाथमें अर्घ्यपात्रको लेकर उसे भौंहपर्यन्त ऊपर उठाये और तब सविता देवताके सर्वसिद्धिप्रद इस मन्त्रका पाठ करे। हे महादेवि! सर्वदा भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाले इस मन्त्रको सुनो- ॥ 35-38 ॥
सिन्दूरकी-सी आभावाले, उत्तम मण्डलसे युक्त, कमलके समान कान्तिमय नेत्रोंवाले, कमलपुष्पसे शोभित तथा ब्रह्मा, इन्द्र और नारायणके उद्भवहेतु, हीरकभूषित आपको नमस्कार है। हे भगवन्! रोली, सुवर्ण, पुष्पमाला, कुश, पुष्प तथा कुंकुमसे युक्त, स्वर्णपात्रमें स्थित यह जलसहित उत्तम अर्घ्य [आपको] अर्पित है, इसे ग्रहणकर [आप] प्रसन्न होइये ।। 39-40 ।।
इस प्रकार सूर्यरूपी महेश्वरको अर्घ्य प्रदानकर सावधानीसे 'पार्वतीजी एवं प्रमथगणोंसे समन्वित, संसारके आदि कारण, ब्रह्मा-विष्णु- रुद्ररूप तीन विग्रहोंवाले आप शिवजीको नमस्कार है।' यह मन्त्र पढ़कर नमस्कार करे ।। 41-42 ।।
इस प्रकार बोलते हुए नमस्कार करनेके उपरान्त अपने आसनपर स्थित हो ऋषि आदिका न्यास करके तथा जलसे हाथोंको शुद्ध करके पूर्वोक्त विधिसे पुनः भस्म धारणकर शिवमें भावनाकी दृढ़ताके लिये नानाविध न्यास करे ।। 43-44 ।।
बुद्धिमान् साधकको चाहिये कि पंचोपचारसे गुरुदेवकी पूजाकर 'श्रीगुरवे नमः' मन्त्रका उच्चारण करके उन्हें सिरसे प्रणाम करे। पंचात्मक, बिन्दुयुक्त पंचम स्वर उकारसहित, वैसे ही बिन्दुसहित, पंचम स्वररहित तथा [पुनः] पंचमस्वरसहितका उद्धारकर बिन्दुसहित अकार तथा संवर्तक बीजका उच्चारण करे ।। 45 - 47 ।।
इस प्रकार क्रमशः बीजोंका उद्धारकर दोनों भुजा, तथा ऊरुको झुकाकर बुद्धिमान् पुरुष गुरु तथा गणपतिको प्रणाम करे। उसके अनन्तर हाथ जोड़कर दुर्गा तथा क्षेत्रपालको प्रणाम करे। ॐ अस्त्राय फट् ' - इस मन्त्रका छः बार उच्चारणकर हाथोंको शुद्ध करे ।। 48- 49 ।।'अपसर्पन्तु ते भूताः' - इस मन्त्रको पढ़कर प्रणवपूर्वक 'अस्त्राय फट् ' - इस मन्त्रका उच्चारणकर बगलमें तीन बार ताली बजाकर भूतलमें स्थित समस्त विघ्नोंको आकाशमें भगा दे। उसके बाद विघ्नोंको अन्तरिक्षमें गया हुआ तथा वहाँ स्थित हुआ | देखकर प्राणायाम करना चाहिये। फिर 'सोऽहम्' इस मन्त्रका उच्चारण करते हुए हृदयमें विराजमान जीवचैतन्यको सुषुम्ना नाड़ीद्वारा द्वादशान्तपर्यन्त विस्तारवाले सहस्र- दलकमलमें स्थित चैतन्यमय चन्द्रमण्डलमें विराजमान चिद्रूप परमेश्वरके साथ योजित कर दे ॥ 50 - 53 ॥
वायु, अग्नि तथा जलके बीजमन्त्रोंसहित सोलह, चौंसठ एवं बत्तीस प्राणायामोंके द्वारा रेचक आदिके क्रमसे शोषण, दाह तथा प्लावन अपनी- अपनी वेदशाखामें निर्दिष्ट मन्त्रोंसे करे ॥ 543 ॥
तदनन्तर प्राणायाम करके मूलाधारमें स्थित तथा ब्रह्मरन्ध्रकी ओर उन्मुख कुण्डलिनीको लाकर द्वादशान्तमें स्थित सहस्रारपद्मके मध्यमें विद्यमान चैतन्यमय चन्द्रमण्डलसे निकली हुई उत्कृष्ट अमृतधारासे आप्लुत हुए पवित्र देहवाला [ साधक] भलीभाँति 'सोऽहम्' इस प्रकारकी भावना करते हुए अपने आत्मतत्त्वको हृदयकमलमें उद्बुद्ध करे ॥ 55-57 ॥
उसके अनन्तर [ उस चैतन्यमय चन्द्रमण्डलसे] झरती हुई अमृतधारासे आप्लुत आत्मतत्त्वको परमात्मामें आविष्टकर एकाग्रचित्तसे विधिपूर्वक प्राणप्रतिष्ठा करे। इस प्रकार योगी एकाग्र मन हो मातृकाशक्तिका स्मरण करे और प्रणवसे सम्पुटित मातृकाओंको बाहर तथा भीतर न्यस्त करे। तत्पश्चात् प्राणवायुको रोककर बुद्धिमान् पुरुष ध्यान आदि करे और चित्तमें शंकरका स्मरण करते हुए मत्सरताका त्याग करके न्यास करे ।। 58- 60 ॥
हे देवि ! प्रणवके ऋषि ब्रह्मा तथा गायत्री छन्द कहा गया है। मैं परमात्मा सदाशिव उसका देवता हूँ। अकार उसका बीज कहा गया है, उकार शक्ति कहा गया है और मकार कीलक है तथा मोक्षकी कामनाके लिये इसका विनियोग किया जाता है ॥ 61-62 ॥हे देवेशि । दोनों अँगूठोंसे लेकर दोनों हाथोंके तल भागको शुद्धकर ॐ का उच्चारण करके करन्यास करे। दाहिने हाथके अँगूठेसे प्रारम्भकर बायें हाथकी कनिष्ठा अँगुलीपर्यन्त पूर्ववत् क्रमसे न्यास करे ।। 63-64 ॥
अकार, उकार और बिन्दुसहित मकार - इनके अन्तमें 'नमः' लगाकर हृदयादिका स्पर्शकर न्यास करे ॥ 65 ॥
सर्वप्रथम अकारका उद्धारकर चतुर्थी एकवचनान्त ब्रह्मात्म शब्द के अन्तमें नमः लगाकर 'ब्रह्मात्मने नमः ' इस प्रकार कह करके हृदयका स्पर्श करे। उकारपूर्वक 'विष्णु' शब्दका शिरः प्रदेशमें न्यास करे। मकारपूर्वक 'रुद्र' शब्दका शिखामें न्यास करे ॥ 66-67॥
हे देवदेवेशि! इस प्रकार कहकर मन्त्रको जाननेवाला मुनि सावधानीसे कवच, नेत्र तथा मस्तकका भी न्यास करे। इसी प्रकार अंग, वक्त्र तथा कलाभेदसे पंचब्रह्मको सिर, मुख, हृदय, गुह्य तथा चरणोंमें भी न्यस्त करना चाहिये ॥ 68-69 ॥
ईशानकी पाँच कलाओंका क्रमशः इन्हीं पाँचों स्थानोंमें क्रमसे न्यास करे। पुनः पूर्वादि क्रमसे स्थित शिवके चार मुखोंमें तत्पुरुषकी चार कलाओंका भी पूर्वादि दिशाओंमें न्यास करे। इसी प्रकार अघोरकी आठ कलाओंको भी हृदय, कण्ठ, दोनों कन्धों, नाभि, कुक्षि, पृष्ठ तथा वक्षःस्थलपर न्यस्त करे। उसके अनन्तर वामदेवकी तेरह कलाओंका भी पायु, मेढू, ऊरु, जानु, जंघा, स्फिक्, कटि और पार्श्वमें न्यास करे। इसी तरह विद्वान् सद्योजातकी आठ कलाओंका यथाक्रमसे नेत्र, पाद, हस्त, प्राण तथा सिरमें न्यास करे ॥ 70–74 ॥
इस तरह [ ईशानकी पाँच, तत्पुरुषकी चार, अघोरकी आठ, वामदेवकी तेरह और सद्योजातकी आठ] अड़तीस कलाओंका न्यास करके प्रणववेत्ता बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह प्रणवन्यास आरम्भ करे, हे परमात्मविबोधिनि दोनों बाहुओं, केहुनी, मणिबन्ध, पार्श्व, उदर, जंघा, दोनों पाद और पीठमें प्रणवन्यास करके न्यासज्ञाता हंसन्यास करे ।। 75- 77 ॥