ब्रह्माजी बोले- इसी बीच विश्वरूप नामक प्रजापति शिवा शिवके इस निश्चयको जानकर प्रसन्नचित्त हुए ॥ 1 ॥
उन विश्वरूप प्रजापतिकी सिद्धि-बुद्धि नामक दो कन्याएँ थीं, जो सर्वांगसुन्दरी एवं दिव्य रूपवाली थीं। 2 ॥ गिरिजा एवं महेश्वरने आनन्दपूर्वक उन दोनोंके साथ गणेशजीका महोत्सवपूर्वक विवाह सम्पन्न कराया।
सभी देवता प्रसन्न होकर उस विवाहमें आये। जैसा पार्वती एवं शंकरका मनोरथ था, वैसे ही विश्वकर्माने [बड़ी प्रसन्नताके साथ] गणेशका विवाह किया। देवता तथा ऋषिगण अत्यन्त प्रसन्न हुए । ll 3-5 ॥
हे मुने! उस समय गणेशको भी उन दोनोंसे अति दुर्लभ सुख प्राप्त हुआ, उस सुखका वर्णन नहीं किया जा सकता है। कुछ समय बीतनेके बाद महात्मा गणेशजीको उन दोनों भाषाओंसे दो दिव्य पुत्र उत्पन्न हुए ॥ 6-7 ॥
गणेशजीकी सिद्धि नामक पत्नीसे' क्षेम' नामक पुत्र हुआ तथा बुद्धिसे 'लाभ' नामक परम सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुआ। इस प्रकार गणेशजी अचिन्त्य सुखका उपभोग करने लगे, इसके बाद शिवजीके दूसरे पुत्र [ कार्तिकेय ] पृथ्वीकी परिक्रमाकर वहाँ आ गये ।। 8-9 ॥
उसी समय महात्मा नारद उनके घर पहुँच गये और उन्होंने कहा- [ हे कार्तिकेय!] मैं यथार्थ कह रहा हूँ, असत्य नहीं, न छलसे अथवा न मत्सरसे कह रहा हूँ॥ 10 ॥तुम्हारे माता-पिता शिवा-शिवने जो कार्य किया है, उसे इस लोकमें कोई नहीं कर सकता। यह मैं सत्य सत्य कह रहा हूँ। उन लोगोंने पृथ्वीकी परिक्रमाका बहाना बनाकर तुम्हें घर के बाहर निकालकर गणेशजीका उत्तम तथा अत्यन्त शोभन विवाह कर दिया ।। 11-12 ॥
इस समय गणेशजीका विवाह हो गया है, उन्हें विश्वरूप प्रजापतिकी अत्यन्त मनोहर रत्नरूपा दो कन्याएँ स्वीके रूपमें प्राप्त हुई हैं। शुभ अंगोंवाली उन दोनों पत्नियोंसे उन्होंने दो पुत्र भी उत्पन्न किये हैं, सिद्धिसे क्षेम तथा बुद्धिसे लाभ नामक सर्वसुखप्रद पुत्र प्राप्त किये हैं ।। 13-14 ॥
इस प्रकार वे गणेश अपनी दोनों पत्नियोंसे दो पुत्र प्राप्तकर माता-पिताके मतमें रहकर निरन्तर सुखोपभोग कर रहे हैं। छलपूर्वक दी गयी माता-पिताकी आज्ञा से तुमने समुद्र वनसहित पृथ्वीकी परिक्रमा कर डाली। हे तात! उसका यह फल तुम्हें प्राप्त हुआ । ll15-16 ॥
हे तात! तुम्हारे माता-पिताने जो छल किया है, उसपर तुम विचार करो। जब अपने स्वामी ऐसा कर सकते हैं, तो दूसरा क्या नहीं कर सकता ॥ 17 ॥
तुम्हारे उन पिता माताने यह अनुचित कार्य किया है, तुम इसपर विचार करो, मेरे विचारसे तो यह मत ठीक नहीं है ॥ 18 ॥
यदि माता ही विष दे दे, पिता बेच दे और राजा सर्वस्व हर ले तो फिर किससे क्या कहा जा सकता है ॥ 19 ॥
हे तात! जिस किसीने भी इस प्रकारका अनर्थकारी कार्य किया हो, उसका मुख शान्तिकी इच्छा रखनेवाले बुद्धिमान् पुरुषको नहीं देखना चाहिये ॥ 20 ll
यह नीति श्रुतियों, स्मृतियों तथा शास्त्रों में सर्वत्र कड़ी गयी है। मैंने उसे तुमसे कह दिया, अब तुम जैसा चाहो, वैसा करो ॥ 21 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे नारद! महेश्वरके मनकी गति जाननेवाले आपने उन कुमारसे इस प्रकारका वचन कहकर मौन धारण कर लिया। तब कुमार स्कन्द भी माता-पिताको प्रणामकर क्रोधाग्निसे जलते हुए शिवा-शिवके मना करनेपर भी क्रौंच पर्वतपर चले गये ।। 22-23 ॥[माता-पिताने कहा-] हे कार्तिकेय ! मना करनेपर भी इस समय तुम क्यों जा रहे हो? किंतु इस प्रकार रोके जानेपर 'नहीं' ऐसा कहकर वे कुमार चलने लगे और बोले - ॥ 24 ॥
हे तात! मैं अब यहाँ क्षणमात्र भी नहीं रह सकता; क्योंकि आपने मुझपर प्रीति न कर ऐसा कपट किया है-इस प्रकार कहकर हे मुने! दर्शनमात्रसे ही सबका पाप हरनेवाले कुमार कार्तिकेय वहाँ चले गये और तभीसे वे आज भी वहींपर हैं ।। 25-26 ॥
हे देवर्षे! उसी दिनसे लेकर वे शिवपुत्र कार्तिकेय कुमार ही रह गये। उनका यह नाम तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध है, यह शुभदायक, सब पापोंको नष्ट करनेवाला, पुण्यस्वरूप तथा ब्रह्मचर्य प्रदान करनेवाला है ।। 27-28 ।।
कार्तिक पूर्णिमाके दिन सभी देवता, ऋषि, मुनि तथा सभी तीर्थ कुमारके दर्शनके निमित्त जाते हैं॥ 29 ॥
कृत्तिकानक्षत्रयुक्त कार्तिक पूर्णिमा तिथिमें जो कुमारका दर्शन करता है, उसके पाप भस्म हो जाते हैं और उसे मनोवांछित फलकी प्राप्ति होती है॥ 30 ॥
स्कन्दका वियोग होनेपर पार्वतीजी भी दुःखित हुईं और उन्होंने दीन होकर शिवजीसे कहा- हे प्रभो! आप मेरे साथ वहाँ चलिये ॥ 31 ॥ तब उनको सुखी करनेके लिये शंकरजी स्वयं अपने अंशसे [क्रौंच] पर्वतपर गये, वहाँ मल्लिकार्जुन नामक सुखदायक ज्योतिलिंग प्रतिष्ठित है ॥ 32 ॥
अपने भक्तोंकी अभिलाषा पूर्ण करनेवाले तथा सज्जनोंको शरण देनेवाले शिवजी पार्वतीके साथ आज भी वहाँ दिखायी पड़ते हैं ॥ 33 ॥
तब पार्वतीसहित उन शिवको आया हुआ जानकर वे कुमार विरक्त होकर वहाँसे अन्यत्र जानेको उद्यत हो गये ॥ 34 ॥
तब देवताओं तथा मुनियोंके बहुत प्रार्थना करनेपर भी वे कार्तिकेय उस स्थानसे तीन योजन दूर हटकर निवास करने लगे ॥ 35 ॥
हे नारद! पुत्रके स्नेहसे आतुर वे दोनों शिवा शिव कुमारके दर्शनके लिये पर्व पर्वपर वहाँ जाते रहते हैं ॥ 36 ॥अमावास्याके दिन वहाँ शिवजी स्वयं जाते हैं एवं पूर्णमासीके दिन पार्वती निश्चित रूपसे उनके स्थानपर जाती हैं॥ 37 ॥
हे मुनीश्वर। आपने कार्तिकेय तथा गणेश्वरका जो-जो वृत्तान्त पूछा, मैंने वह श्रेष्ठ वृत्तान्त आपसे वर्णित किया ॥ 38 ॥
इस कथाको सुनकर बुद्धिमान् मनुष्य समस्त पापोंसे छूट जाता है और अपनी सम्पूर्ण अभिलषित शुभ कामनाओंको प्राप्त कर लेता है ॥ 39 ॥ जो इस कथाको पढ़ता है अथवा पढ़ाता है, सुनता है अथवा सुनाता है, वह सभी मनोरथ प्राप्त कर लेता है, इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ 40 ॥ ब्राह्मण ब्रह्मवर्चस्वी तथा क्षत्रिय विजयी हो जाता है। वैश्य धनसे सम्पन्न हो जाता है और शूद्र श्रेष्ठता प्राप्त कर लेता है ॥ 41 ॥
रोगी रोगसे मुक्त हो जाता है और भयभीत | व्यक्ति भवसे मुक्त हो जाता है। वह मनुष्य भूत-प्रेत आदि बाधाओंसे पीड़ित नहीं होता है ।। 42 ।।
यह आख्यान पापरहित, यश तथा सुखको बढ़ानेवाला, आयुमें वृद्धि करनेवाला, स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाला, अतुलनीय तथा पुत्र-पौत्रादि प्रदान करनेवाला मोक्षदायक- शिवविषयक ज्ञानको देनेवाला, शिवाशिवका प्रीतिकारक तथा शिवकी भक्तिको बढ़ानेवाला है ।। 43-44 ॥
भक्तोंको तथा निष्काम मुमुक्षुओंको शिवजीके अद्वैतज्ञान देनेवाले, कल्याणकारक तथा सदा शिवमय इस आख्यानका सर्वदा श्रवण करना चाहिये ।। 45 ।।