श्रीब्रह्मण्य[ स्कन्दजी ] बोले- हे महाभाग ! हे मुनिश्रेष्ठ! हे वामदेवजी! आप धन्य हैं, आप शिवजीके परमभक्त हैं तथा शिवज्ञानियोंमें श्रेष्ठ हैं ॥ 1 ॥
सभी लोकोंमें कहीं भी आप [अन्तर्यामी] को कुछ भी अविदित नहीं है, फिर भी मैं लोकपर कृपा करनेवाले आपसे कह रहा हूँ ॥ 2 ॥इस लोक सभी जीव विविध शास्त्रक व्यामोहमें पड़े हुए हैं और परमेश्वरकी अति विचित्र मायासे ठगे गये हैं। वे महेश्वर सगुण, निर्गुण, परब्रह्मरूप तथा तीनों देवोंको उत्पन्न करनेवाले हैं। प्रणवके अर्थ साक्षात् शिव ही हैं। श्रुतियों, स्मृति शास्त्रों, पुराणों तथा आगमों में प्रधानतया उन्हींको प्रणवका वाच्यार्थ बताया गया है। जहाँसे मनसहित वाणी आदि सभी इन्द्रियाँ उस परमेश्वरको न पाकर लौट आती हैं, | जिसके आनन्दका अनुभव करनेवाला पुरुष किसीसे डरता नहीं, ब्रह्मा विष्णु तथा इन्द्रसहित यह सम्पूर्ण जगत् भूतों और इन्द्रियसमुदायके साथ सर्वप्रथम जिससे प्रकट होता है, जो परमात्मा स्वयं किसीसे और कभी भी उत्पन्न नहीं होता, जिसके निकट विद्युत्, सूर्य और चन्द्रमाका प्रकाश काम नहीं देता तथा जिसके ही प्रकाशसे यह सम्पूर्ण जगत् सब ओरसे प्रकाशित होता है, वह परब्रह्म परमात्मा सम्पूर्ण ऐश्वर्यसे सम्पन्न होनेके कारण स्वयं ही सर्वेश्वर 'शिव' नाम धारण करता है। जो सर्वव्यापी, प्रकाशात्मा, प्रकाशरूप एवं चिन्मय शम्भु के द्वारा हृदयाकाशमें ध्यान किये जानेयोग्य हैं, जिन परम पुरुषकी परा | शक्ति शिवा भावगम्य, मनोहर, निर्गुण, अपने गुणोंसे निगूढ़ तथा निष्कल हैं, हे मुने! उनके स्थूल, सूक्ष्म तथा उससे भी परे इन तीन प्रकारके रूपोंका ध्यान मोक्ष चाहनेवाले योगियोंको क्रमसे नित्य करना चाहिये ।। 3-13 ॥
वे सम्पूर्ण देवोंके आदिदेव, सनातन एवं निष्कल हैं, जो ज्ञान, क्रिया, स्वभाव एवं परमात्मा कहे जाते हैं; उन देवाधिदेवकी साक्षात् मूर्ति ही साक्षात् सदाशिव हैं। वे देव पंचमन्त्रात्मक शरीरवाले, पंचकलात्मक विग्रहवाले, शुद्ध स्फटिकके सदृश, प्रसन्न, शीतल कान्तिवाले, पाँच मुखवाले, दस भुजाओंसे युक्त तथा पन्द्रह नेत्रोंवाले हैं ।। 14–16 ॥
ईशानमन्त्र उनका मुकुटमण्डित शिरोभाग है, तत्पुरुषमन्त्र उन पुरातन पुरुषका मुख है, अघोरमन्त्र हृदय है, वामदेवमन्त्र गुह्यप्रदेश है तथा सद्योजातमन्त्र उनका पाददेश है। वे ही साक्षात् साकार तथा | निराकार परमात्मा हैं। सर्वज्ञत्व आदि छः शक्तियाँ हीउनके शरीर के छः अंग हैं, वे शब्दादि शक्तियोंसे स्फुरित हृदयकमलमें विराजमान हैं और वामभागमें अपनी शक्ति मनोन्मनीसे विभूषित हैं ।। 17- 19 ॥ अब मन्त्रादि छः प्रकारके अर्थोको प्रकट करनेके लिये अर्थोपन्यासमार्गसे समष्टि- व्यष्टिभावरूप प्रणवात्मक तत्त्वको कहूँगा ॥ 20 ॥
मैं पहले उपदेश क्रम कहता हूँ, इसे सुनिये। हे मुने! इस मनुष्यलोकमें चार वर्ण प्रसिद्ध हैं। इनमें तीन वर्णोंके लिये ही श्रुतियोंमें सदाचारका विधान है । वेदसे बहिष्कृत शूद्रोंको शुश्रूषामात्रका अधिकार है ।। 21-22 ।।
अपने- अपने आश्रमोचित कर्तव्योंमें निरत चित्तवाले तीनों वर्णोंको श्रुति एवं स्मृतिमें कहे गये धर्मका ही अनुष्ठान करना चाहिये, द्विज किसी अन्य धर्मका कभी भी अनुष्ठान नहीं करे। श्रुति तथा स्मृतिमें कहे गये कर्मको करनेवाला सिद्धि प्राप्त करेगा-वेदपथप्रदर्शक [भगवान् ] परमेश्वरने ऐसा कहा है ।। 23-24 ॥
वर्णाश्रमोचित आचारोंके पुण्यकर्मोंसे परमेश्वरको | पूजा करके बहुत से श्रेष्ठ मुनि शिव- सायुज्यको प्राप्त हुए हैं। मुनिगण ब्रह्मचर्यसे, देवतागण यज्ञकर्मानुष्ठानसे तथा पितरगण [ धर्मपूर्वक] सन्तानोत्पादनसे तृप्त होते हैं- ऐसा वेदने कहा है ।। 25-26 ॥
इस प्रकार तीनों ऋणोंसे मुक्ति पाकर पुरुषको वानप्रस्थ आश्रम में प्रविष्ट हो शीत-उष्ण, सुख-दुःखको सहते हुए जितेन्द्रिय तथा तपस्वी होकर एवं आहारपर विजय प्राप्तकर यम आदि योगोंका अभ्यास करना चाहिये, जिससे बुद्धि अत्यधिक दृढ़ तथा निश्चल हो जाय ।। 27-28 ll
इस प्रकार क्रमसे शुद्ध मनवाला होकर सभी कर्मोंका विन्यास करे; सभी कर्मोंका त्यागकर ज्ञानमयी पूजामें तत्पर हो जाय ॥ 29 ॥
वह ज्ञानमयी पूजा साक्षात् शिवजीसे ऐक्यके द्वारा जीवन्मुक्ति देनेवाली है; इसे जितेन्द्रियोंके लिये सर्वोत्तम एवं निर्विकार जानना चाहिये ॥ 30 ॥
हे महाप्राज्ञ ! अब मैं आपके स्नेह एवं लोकके ऊपर अनुग्रहकी कामनासे उस ज्ञानपूजाके प्रकारको | कह रहा हूँ; सावधानीपूर्वक सुनिये ॥ 31 ॥[ज्ञानपूजाकी इच्छा रखनेवाला] वह यति सभी शास्त्रोंके अर्थतत्त्वको जाननेवाले, वेदान्तज्ञानमें पारंगत तथा बुद्धिमानों में श्रेष्ठ आचार्यके समीप जाय। उनके पास जाकर वह बुद्धिमान् तथा विद्वान् [मुमुक्ष) यथाविधि दण्डवत् प्रणाम आदिसे यत्नपूर्वक उन्हें सन्तुष्ट करे ।। 32-33 ॥
जो गुरु हैं, वे ही शिव कहे गये हैं और जो शिव हैं, वे ही गुरु कहे गये हैं, ऐसा मनमें निश्चय करके उनसे अपना विचार प्रकट करना चाहिये ॥ 34 ॥
इसके पश्चात् उस विद्वान्को चाहिये कि गुस्से आज्ञा प्राप्तकर बारह दिनपर्यन्त दूध पीकर व्रत करे तथा शुक्लपक्षको चतुर्थी अथवा दशमीको विधानपूर्वक प्रातःकाल स्नान करके विशुद्ध होकर नित्यक्रिया सम्पन्न करे और गुरुको बुलाकर विधिपूर्वक नान्दी श्रद्ध करे ।। 35-36 ll
" उस श्राद्धमें सत्य वसुसंज्ञक विश्वेदेव कहे गये हैं और उस देवश्राद्धमें ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश ये तीन [देवता] कहे गये हैं। ऋषिश्राद्धदेवता, ऋषि तथा मनुष्यकी सन्तानें [पितृगण] कहे गये हैं। देवश्राद्धमें वसु, रुद्र एवं आदित्य [पितृगण] कहे गये हैं। मनुष्य श्राद्धमें सनक आदि चारों मुनीश्वर कहे गये हैं और भूतवाद्धमें पंच महाभूत तथा उसके बाद चक्षु आदि इन्द्रियसमूह और चार प्रकारके भूतसमूह कहे गये हैं। पितृश्राद्धमें पिता, पितामह एवं प्रपितामह ये तीन कहे गये हैं। मातृ श्राद्धमें माता पितामही एवं प्रपितामही कही गयी हैं। आत्मश्राद्धमें ये चारों स्वयं श्राद्धकर्ता, अपने पिता, पितामह एवं प्रपितामह सपत्नीक कहे गये हैं। मातामहके श्राद्धमें मातामह आदि ये तीन (मातामह, प्रमातामह तथा वृद्धप्रमातामह) ग्रहण किये जाते हैं ॥ 37-42 ॥
प्रत्येक श्राद्ध में दो ब्राह्मणोंको आमन्त्रित करना चाहिये; आमन्त्रित ब्राह्मणोंको बुलाकर यत्नपूर्वक आचमन कराकर उनके दोनों पैर धो करके [कहे- ] 'समस्त सम्पत्तिकी प्राप्तिके हेतुभूत, आनेवाली | विपत्तियों का विनाश करनेके लिये धूमकेतुसदृश और अपार संसाररूपी समुद्रको पार करने हेतु सेतुस्वरूप ब्राह्मणचरणरज मुझे पवित्र करे। आपदारूपी घनेअन्धकारको नष्ट करनेके लिये हजार सूर्योंके समान, वांछित फलको देने हेतु कामधेनुसदृश और समस्त तीर्थंके जलसदृश पवित्र मूर्तिवाले ब्राह्मणोंकी चरणरज मुझे पवित्र करे।' तदुपरान्त पृथ्वीपर साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करके पूर्वाभिमुख बैठकर शिवजी के चरणकमलोंका स्मरण करे; पुनः हाथमें पवित्री धारणकर शुद्ध हो और यज्ञोपवीत धारणकर आसनपर दृढ़तापूर्वक बैठ करके तीन प्राणायाम करे। उसके बाद तिथि आदिका स्मरणकर 'मत्संन्यासाङ्गभूतं विश्वेदेवादि मातामहान्तम्, अष्टविधश्राद्धं पार्वणेन विधानेन 'युष्मदाज्ञापुरस्सरं करिष्यामि'- इस प्रकारका संकल्पकर कुशाको उत्तरकी ओर त्याग दे ।। 43-49 ।।
तत्पश्चात् जलसे आचमन करके उठकर वरणक्रिया आरम्भ करे। हाथमें पवित्री धारणकर दो ब्राह्मणोंका हाथ स्पर्शकर उनसे इस प्रकार कहे 'विश्वेदेवार्थं भवन्तौ वृणे भवद्भ्यां क्षणः प्रसादनीयः ।' यही विधि सर्वत्र है। इस प्रकार वरणक्रम समाप्तकर मण्डलोंकी रचना करे। उत्तरसे लेकर दस मण्डल बनाकर, अक्षतोंसे पूजन करके उनमें क्रमसे ब्राह्मणोंको बैठाकर उनके पैरोंपर अक्षत आदि चढ़ाये और विश्वेदेवा आदि नामोंसे सम्बोधनपूर्वक यह कहे कि आप लोगोंके लिये कुश, पुष्प, अक्षत तथा जलसहित यह पाद्य * है । पाद्य देनेके बाद स्वयं भी पैर धोकर उत्तराभिमुख हो आचमनकर उन दो ब्राह्मणोंको आसनोंपर बैठाकर 'विश्वेदेवस्वरूप ब्राह्मणके लिये यह आसन है' ऐसा कहकर उन्हें कुशका आसन प्रदान करके स्वयं हाथमें कुश लेकर बैठे ll 50-56 ॥
'अस्मिन् नान्दीश्राद्धे विश्वेदेवार्थमिदं पाद्यं भवद्भ्यां क्षणः क्रियताम्, भवन्तौ प्राप्नुताम्' इस वाक्यको कहे। इसके पश्चात् ब्राह्मण कहें कि 'पाद्यं प्राप्नुयाव, दर्भ प्राप्नुयाव' इस प्रकार स्वीकारात्मक वाक्य कहना चाहिये ॥ 57-58 ।।इसके बाद उन श्रेष्ठ द्विजोंसे यह प्रार्थना करे 'मेरा कार्य पूर्ण हो, मेरे संकल्पकी सिद्धि हो और आप लोग मेरे ऊपर कृपा करें ॥ 59 ॥ इसके पश्चात् केलेके धुले हुए शुद्ध पत्तोंपर अन्न आदि भोज्य पदार्थोंको परोसकर अलग-अलग कुशा बिछाकर उसपर जल छिड़कनेके बाद प्रत्येक पात्रपर अपने दोनों हाथ रखकर आदरपूर्वक 'पृथिवी ते पात्रम्" आदि मन्त्र पढ़ना चाहिये और देवादिकोंमें चतुर्थी विभक्तिका उच्चारणकर अक्षतके साथ जल लेकर 'विश्वेभ्यः एतदन्नं स्वाहा इदं न मम ऐसा पढ़कर अक्षतसहित जल भोजनपात्रपर संकल्पित करे; सभी जगह (माता आदिके लिये) यही विधि है ll 60-63ll
इसके बाद जिनके चरणकमलके स्मरणसे तथा जिनके नाम जपसे न्यून कर्म भी पूर्ण हो जाता है, उन साम्ब शिवको मैं प्रणाम करता हूँ'- इस प्रकार प्रार्थनाकर फिर बोले कि मैंने जो यह नान्दीमुख श्राद्ध किया है, वह यथायोग्य है, ऐसा आप कहें; तब ब्राह्मण कहें कि 'ऐसा ही हो' तत्पश्चात् उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको प्रसन्न करके अपने हाथमें स्थित जलको पृथ्वीपर छोड़कर दण्डवत् प्रणाम करके फिर उठकर उदार बुद्धिवाला वह यजमान अत्यन्त प्रेमपूर्वक ब्राह्मणोंसे हाथ जोड़कर प्रार्थना करे कि यह अन्न अमृत हो। इसके बाद 'श्रीरुद्रसूक्त', चमकाध्याय तथा पुरुषसूक्तका यथाविधि पाठ करे और सदाशिवका ध्यानकर (ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव एवं सद्योजात) पाँच ब्रह्ममन्त्रोंका जप करे ।। 64-68 ॥
भोजनके अन्तमें सदसूक्तका पाठ कराकर ब्राह्मणोंसे क्षमा प्रार्थना करे और 'अमृतापिधानमसि स्वाहा' | मन्त्रसे उत्तरापोशनार्थं जल प्रदान करे। इसके बाद पैर धोकर आचमन करके पिण्डस्थानपर जाय और पूर्वाभिमुख बैठकर मौन धारण करके तीन बार प्राणायाम करे ।। 69-70 ॥'अब मैं नान्दीमुख श्राद्धका अंगभूत पिण्डदान करूँगा' - ऐसा संकल्पकर दक्षिणसे आरम्भकर उत्तरतक नौ रेखाएँ बनाकर उनके आगे पूर्वकी ओर अग्रभागवाले बारह कुशोंको क्रमशः दक्षिणकी ओरसे देवता आदिके पाँच स्थानों में बिछाकर तथा क्रमसे पितृवर्गके तीन स्थानोंमें मौनभावसे अक्षत और जल छोड़े। अन्य मातृपक्षके स्थानोंमें भी जलसे मार्जन कर देना चाहिये। इसके बाद 'अत्र पितरो मादयध्वम्' - यह कहकर अक्षतसहित जलसे पूजन करके इसी क्रमसे देवगणोंके पाँचों स्थानोंपर भी अक्षत, जल समर्पित करना चाहिये ।। 71–74 ।।
तदनन्तर उन-उन देवताओंके चतुर्थ्यन्त नामोंका उच्चारण करके पाँचों स्थानोंमें प्रत्येक स्थानपर तीन तीन पिण्ड प्रदान करे। (इसी तरह शेष स्थानोंपर भी पिण्ड प्रदान करे।) अपने गृह्यसूत्रमें बताये गये विधानसे पृथक् पृथक् पिण्डदान करे और पितरोंके साद्गुण्यके लिये इसे जल- अक्षतसहित दे ।। 75-76 ।।
इसके पश्चात् 'यत्पादपद्मस्मरणात्' इस श्लोकको पढ़ते हुए हृदयकमलके मध्यमें सदाशिवका ध्यान करे। ब्राह्मणोंको नमस्कारकर उन्हें अपने सामर्थ्यके अनुसार दक्षिणा प्रदान करके क्षमाप्रार्थना करे और उन्हें विदा करके क्रमसे पिण्डोंको उठाकर गौको खिला दें अथवा जलमें डाल दे। इसके अनन्तर पुण्याहवाचन [करा] कर बन्धुजनोंके साथ भोजन करे ।। 77-79 ।।
तत्पश्चात् दूसरे दिन प्रातः काल उठकर वह बुद्धिमान् नित्यक्रिया सम्पन्नकर उपवास करते हुए कक्ष (काँख) तथा उपस्थके बालोंको छोड़कर क्षौरकर्म कराये। कर्म करनेतक दाढ़ी, केश, मूँछ तथा नाखूनको न कटवाये बादमें विधिपूर्वक समस्त केशोंका वपन कराकर स्नानकर धौतवस्त्र धारण कर ले और शुद्ध होकर मौन भावसे दो बार आचमन करके विधिपूर्वक भस्म धारण करे पुण्याहवाचन करके स्वयंका प्रोक्षणकर उससे स्वभावतः शुद्धदेहवाला होकर होमसामग्री तथा आचार्य दक्षिणाके निमित्तभूत द्रव्योंको छोड़कर सम्पूर्ण द्रव्योंको महेश्वर, ब्राह्मणों, विशेषकर शिवभक्तों तथा गुरुस्वरूप शिवको समर्पितकरके वस्त्र आदि तथा दक्षिणा प्रदान करे, तदुपरान्त पृथ्वीपर दण्डवत् प्रणाम करके धुले हुए डोरा, कौपीन वस्त्र, दण्ड आदि धारण करके होमद्रव्य तथा समिधा आदिको क्रमसे लेकर समुद्रतटपर, नदीके किनारे, पर्वतपर, शिवालयमें, वनमें, गोशालामें-कहीं भी उत्तम स्थानका विचार करके वहाँ स्थित होकर आचमन करनेके अनन्तर सर्वप्रथम मनमें मालाकी परिकल्पनाकर ओंकारसहित ब्रह्ममन्त्र 'ॐ नमो ब्रह्मणे'- इस मन्त्रको तीन बार जपकर 'अग्निमीळे पुरोहितम्' इस मन्त्रका उच्चारण करे ॥ 80 - 88 ।।
इसके बाद 'अथ महाव्रतम्', 'अग्निवै देवानाम्', एतस्य समाम्नायम्', 'ॐ इषे त्वोर्जे त्वा वायवस्थ', 'अग्न आयाहि वीतये' तथा 'शं नो देवीरभीष्टये' इत्यादिका पाठ करे। तत्पश्चात् 'म य र स त ज भन लग' 'पञ्च संवत्सरमयम्', 'समाम्नायः समाम्नातः ', 'अथ शिक्षां प्रवक्ष्यामि', 'वृद्धिरादैच्', 'अथातो धर्मजिज्ञासा', 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' इन सबका पाठ करे। तदनन्तर यथासम्भव वेद, पुराण आदिका स्वाध्याय करे ।। 89-92 ॥
ब्रह्मा, इन्द्र, सूर्य, सोम, प्रजापति, आत्मा, अन्तरात्मा, ज्ञानात्मा, परमात्मा - इनके आदिमें 'ॐ' तथा अन्तमें चतुर्थ्यन्त विभक्ति लगाकर अन्तमें नमः ॐ इन्द्राय नमः' इत्यादि क्रमसे पद लगाकर जप करे। तदुपरान्त एक मुट्ठी सत्तू लेकर प्रणवका उच्चारण करके उसे खाये और दो बार आचमन करके नाभिका स्पर्श करे। इसके पश्चात् पूर्वमें प्रणव तथा अन्तमें स्वाहापदसे युक्त बताये जा रहे आत्मा आदि शब्दोंके [ चतुर्थ्यन्त] रूपोंका पुनः जप करे। 'आत्मने स्वाहा', 'अन्तरात्मने स्वाहा', 'ज्ञानात्मने स्वाहा', 'परमात्मने स्वाहा', 'प्रजापतये स्वाहा' [इन] मन्त्रोंका जपकर अलग-अलग दूध, दही एवं घीका तीन बार प्रणव- मन्त्र पढ़कर प्राशनकर दो बार आचमन करे और पूर्वदिशाकी ओर मुख करके एकाग्रचित्त हो स्थिरतापूर्वक आसनपर बैठकर यथोक्त विधिसे तीन प्राणायाम करे ।। 93-98 ॥