ईश्वर बोले- परमात्मा शिवजीके मुख्य नाम हैं-शिव, महेश्वर, रुद्र, विष्णु, पितामह, संसारवैद्य, सर्वज्ञ और परमात्मा । ये आठ नाम शिवजीके प्रतिपादकहैं इनमें आदिसे पितामहपर्यन्त पाँच नामोंमें शान्त्यतीतादि पाँच उपाधियोंके ग्रहणक्रमसे शिवादि संज्ञाएँ ग्रहण की गयी हैं। उपाधिके निवृत्त हो जानेपर संज्ञाकी भी निवृत्ति हो जाती है; क्योंकि पद तो नित्य है किंतु पदपर रहनेवाले अनित्य हैं। पदोंकी परिवृत्ति होती रहती है, जिससे पदपर रहनेवाले हटते रहते हैं ॥ 1-4॥
पदोंकी परिवृत्तिके मध्यमें इसी प्रकार वैसी ही उपाधिसे युक्त इन्हीं पाँच नामोंसे दूसरी दूसरी आत्माएँ पदस्थ होती रहती हैं ॥ 5 ॥
इन पाँच नामोंके अतिरिक्त शेष जो तीन नाम हैं, वे जगत्के उपादान आदिके भेदसे तीन प्रकारकी उपाधिके कारण शिव ही हैं ॥ 6 ॥
उन शिवमें अनादि मलके संश्लेषका पूर्व से ही अभाव होनेसे वे अत्यन्त परिशुद्ध आत्मावाले हैं, इसीलिये उन्हें शिव नामसे जाना जाता है अथवा सभी कल्याणकारी गुणोंका घनीभूत एकमात्र आधार होनेसे ही ईश्वरको शिवतत्त्वके ज्ञाता पुरुष शिव कहते हैं ॥ 7-8 ॥
तेईस तत्त्वोंके अतिरिक्त चौबीसवाँ तत्त्व पराप्रकृति है और इस चौबीसवें प्रकृतितत्त्वसे परे पचीसवें तत्त्वको पुरुष कहा जाता है, जिसको वेद आदिमें वाच्य वाचकभावसे स्वर कहा जाता है, जो केवल वेदके द्वारा ज्ञेय है और जो वेदान्त अर्थात् दो उपनिषदोंमें प्रतिष्ठित है। वही प्रकृतिमें लीन होकर प्रकृतिका भोग करता है। उस प्रकृतिलीन पुरुषसे जो परे हैं, वही महेश्वर जाने जाते हैं; क्योंकि पुरुष और प्रकृतिकी प्रवृत्ति उसके अधीन है अथवा अव्यय त्रिगुणतत्त्व ही माया है, माया ही प्रकृति है और जिसकी वह माया है, उसी मायीको महेश्वर जानना चाहिये, क्योंकि उन अनन्त महेश्वरको प्राप्त कर लेनेपर वे मायासे मुक्त कर देते हैं। रुत्को दुःख अथवा दुःखका कारण कहा जाता है, उसे वे प्रभावसम्पन्न तथा जगत्के परमकारण भगवान् शंकर विनष्ट कर देते हैं, अतः उनको 'रुद्र' कहा जाता है ॥ 9 - 14 ॥
शिवतत्त्वसे लेकर पृथ्वीतत्त्वपर्यन्त समस्त शरीरों में घटाकाशवत् शिवजी व्याप्त होकर स्थित हैं, अतः उन्हें 'विष्णु' कहा जाता है ॥ 15 ॥संसारको उत्पन्न करनेवाले पितृस्थानीय समस्त शरीरधारी ब्रह्मादिकोंके भी पिता होनेरी वे पितामह कहे गये हैं। जिस प्रकार निदान जाननेवाला वैद्य चिकित्सकीय उपायों तथा ओषधियौरी रोगको नष्ट कर देता है, उसी प्रकार मोक्ष तथा भोग देकर स्थूल संसारसे सर्वथा मुक्त कर देनेवाले उन जगदीश्वरको समस्त तत्त्वार्थविदोंने संसारका वैद्य कहा है ॥ 16- 18 ॥
शब्दादि पंचविषयोंके ज्ञानके लिये यद्यपि जीवको इन्द्रियाँ प्राप्त हैं तथापि तीनों कालोंमें होनेवाली स्थूल तथा सूक्ष्म क्रियाओंको मायार्णवमलसे आवृत मलिन वह जीव समग्रतया जाननेमें समर्थ नहीं होता। सिद्ध, साध्यादि सभी पदार्थोंका ज्ञान करानेवाली इन्द्रियोंसे रहित होकर भी सदाशिव जो वस्तु जिस रूपमें स्थित है, उसे उसी रूपमें बिना यत्नके ही जान लेते हैं, इसलिये उन्हें सर्वज्ञ कहा जाता है । ll 19-21 ॥
वे इन सर्वज्ञत्वादि गुणोंसे नित्य युक्त हैं, सर्वात्मस्वरूप हैं, उनमें अपनी आत्मा तथा परमात्माका भेद नहीं रहता, इसलिये वे शिव स्वयं परमात्मा हैं ॥ 22 ॥
इस प्रकार प्रणवस्वरूप अव्यय परमात्माकी स्तुतिकर उनके सम्मुख अर्घ्य तथा पाद्य प्रदान करके बादमें ईशानके मस्तकपर एकाग्रचित्त हो ॐकारमन्त्रसे देवेशका अर्चन करे और पूजाके पुष्पोंको लेकर अंजलि बाँधकर बायीं ओरकी नासिकाके मार्गसे उन्मनी नाड़ीपर्यन्त शिवको ले जाकर दाहिने नासापुटके मार्गसे देवीको ले जाकर 'मैं ही शिव हूँ' - इस प्रकारकी भावनाकर शिवजीसे तादात्म्य स्थापित करके सभी आवरण देवगणोंका हृदयमें ध्यान करे और | इसके बाद क्रमसे गुरु तथा विद्याकी पूजाकर शंखरूप अर्घ्यपात्रसे अर्घ्यपाद्यादि प्रदान करके मन्त्रद्वारा हृदयमें न्यास करे। तत्पश्चात् निर्माल्यको सदाशिवके समक्ष ही चण्डेश्वरको अर्पितकर पुनः प्राणायाम करके ऋषि आदिका उच्चारण करे ।। 23-28 ॥
इस प्रकार मैंने कैलासप्रस्तर नामक मण्डलका वर्णन किया, इसी प्रक्रियासे नित्य, पक्षमें, महीने- महीने, छः मासपर, वर्षमें या चातुर्मास्य आदि पर्वमें आस्तिकपुरुष मेरे लिंगकी पूजा अवश्य करे ।। 29-30 ॥हे महादेवि ! इस विषयमें कुछ लोगोंका विशेष विचार यह भी है कि दीक्षाके दिन गुरुके साथ पूजित लिंगको हाथमें ग्रहण करे और कहे कि मैं प्राणक्षयपर्यन्त निरन्तर शिवजीकी पूजा करता रहूँगा-इस प्रकार तीन बार गुरुके निकट प्रतिज्ञाकर हे प्रिये! पूर्वोक्त विधिसे शिवजीका नित्य पूजन करे। अर्ध्यादकके द्वारा लिंगके मस्तकपर अर्घ्य समर्पित करे और प्रणवसे पूजनकर धूप, दीप [तथा अन्य उपचार] अर्पित करे। ईशान दिशामें चण्डकी पूजाकर उन्हें निर्माल्य निवेदित करे ।। 31- 34 ॥
वस्त्रद्वारा छाने गये जलसे लिंग और वेदीका प्रक्षालन करे। फिर लिंगके मस्तकपर ॐकारका उच्चारणकर पुष्प अर्पित करके आधारशक्तिसे आरम्भकर शुद्ध विद्यासनपर्यन्त शक्तियोंका मनमें स्मरणकर परमेश्वरको स्नान कराये। अपने ऐश्वर्यानुसार पंचगव्यादि द्रव्योंसे अथवा सुगन्धित द्रव्यसे वासित शुद्ध जलसे 'पवमानसूक्त' द्वारा अथवा रुद्रसूक्तके द्वारा अथवा नीलसूक्तसे या त्वरित सूक्तसे अथवा सामवेदके मन्त्रोंसे अथवा सद्योजातादि पाँच मन्त्रोंसे अथवा 'ॐ नमः शिवाय'- इस मन्त्रसे या प्रणवसे शिवजीको स्नान कराये। प्रणवके द्वारा विशेषार्ध्यके जलसे शिवजीको स्नान कराये ।। 35-39 ॥ इसके पश्चात् वस्त्रके द्वारा लिंगका प्रोक्षणकर सुगन्धित पुष्पोंको लिंगके ऊपर चढ़ाये तथा पीठपर लिंगको स्थापितकर सूर्य आदिका अर्चन करे ॥ 40 ॥ पीठके नीचे आधारशक्ति तथा अनन्तकी पूजा करे। इसके पश्चात् उसके ऊपर सिंहासन रखकर यथाक्रम उसका भी पूजन करे ॥ 41 ॥
ऊर्ध्वच्छदनकी [पूजा ] तथा पीठपादमें स्कन्दकी पूजा करनेके अनन्तर लिंगमें मूर्तिकी कल्पनाकर तुम्हारे साथ मेरी पूजा करे ॥ 42 ॥
यह सब कार्य यति मेरे ध्यानमें तत्पर हो भक्तिपूर्वक करे। हे प्रिये! पूजाकी यह अतिगुह्य विधि मैंने तुमसे कही। इसे यत्नपूर्वक गुप्त रखना चाहिये और जिस किसीको नहीं दे देना चाहिये मेरे भक्त तथा रागरहित यतिको ही इसे प्रदान करे ।। 43-44 ॥गुरुभक्त, शान्तचित्त तथा मेरी प्राप्तिके लिये योगपरायण [ यति] को ही इसे प्रदान करे, किंतु मेरी आज्ञाका उल्लंघनकर जो बुद्धिहीन इसे अपात्रको देता है, वह मेरा द्रोही है और वह नरकमें जायगा, इसमें सन्देह नहीं है। हे देवेशि ! इस पूजाको जो मेरे भक्तोंको देता है, वह मेरा प्रिय होता है, वह इस लोकके सभी भोगोंको भोगकर अन्तमें मेरा सान्निध्य प्राप्त कर लेता है । ll 45-46 ।।
व्यासजी बोले- हे मुनिगणो! शिवजीके इस प्रकारके वचनको सुनकर अतिप्रसन्न हृदयवाली परमेश्वरी पार्वती वेदार्थयुक्त अनेक प्रकारके स्तोत्रोंसे स्तुतिकर तथा अपने पतिके श्रीसम्पन्न चरण कमलोंमें प्रेमपूर्वक नमस्कारकर बहुत ही हर्षित हुई ।। 47-48 ॥
हे ब्राह्मणो! प्रणवार्थकी प्रकाशिका यह विधि अत्यन्त गुप्त है, शिवज्ञानसे पूर्ण है और आपलोगोंके सभी दुःखोंको दूर करनेवाली है ॥ 49 ॥
सूतजी बोले- हे मुनिश्रेष्ठो ! इस प्रकार कहकर महातपस्वी पराशरपुत्र व्यासदेव वेदवेत्ता महर्षियोंसे परम भक्तिपूर्वक पूजित हो [शिवजीका] स्मरणकर उस तपोवनसे कैलासपर्वतकी ओर चले गये। ऋषिगण भी प्रसन्नचित्त होकर यज्ञके अन्तमें उत्तम भक्तिभावपूर्वक चन्द्रशेखर परमेश्वर शंकरका पूजनकर यमादि योगोंमें तत्पर हो शिवध्यानपरायण हो गये ll 50-52 ॥
हे मुनिश्रेष्ठो ! इस कथाको देवीने स्कन्दसे, स्कन्दने नन्दीसे, भगवान् नन्दीने मुनिवर सनत्कुमारसे | कहा था और सनत्कुमारने भगवान् वेदव्याससे कहा । इसके पश्चात् उन महातेजस्वी व्यासजीद्वारा यह पवित्र प्रसंग मैंने प्राप्त किया ।। 53-54 ll
[हे मुनिश्रेष्ठ!] मैंने यह गुह्यातिगुह्य तथा शिवप्रिय चरित्र आपलोगोंको शिवभक्त जानकर भक्तिपूर्वक सुनाया ॥ 55 ॥
शिवजीको प्रिय, अत्यन्त गुप्त तथा प्रणवार्थप्रकाशक, जो यह चरित्र है, उसे आपलोगोंको भी शिवजीके चरणोंमें भक्ति रखनेवाले शान्तचित्त यतियोंको ही देना चाहिये ॥ 56 ॥
पुराणवेत्ताओंमें श्रेष्ठ सूतजी इस प्रकार कहकर | तीर्थयात्राके प्रसंगसे पृथ्वीपर भ्रमण करने लगे ॥ 57 ॥इसके पश्चात् सूतजीसे इस गुप्त रहस्यको ग्रहणकर वे सभी ऋषि काशीमें निवासकर मुक्त हो गये और शिवजीके धामको चले गये ॥ 58 ॥