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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 1, अध्याय 1 - Sanhita 1, Adhyaya 1

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प्रयागमें सूतजीसे मुनियों का शीघ्र पापनाश करनेवाले साधनके विषयमें प्रश्न

जो आदि और अन्तमें [तथा मध्यमें भी] नित्य मङ्गलमय हैं, जिनकी समानता अथवा तुलना कहीं भी नहीं है, जो आत्माके स्वरूपको प्रकाशित करनेवाले देवता (परमात्मा) हैं, जिनके पाँच मुख हैं और जो खेल ही खेलमें— अनायास जगत्की रचना, पालन, संहार, अनुग्रह एवं तिरोभावरूप- पाँच प्रबल कर्म करते रहते हैं, उन सर्वश्रेष्ठ अजर-अमर ईश्वर अम्बिकापति भगवान् शंकरका में मन-ही-मन चिन्तन करता हूँ।

व्यासजी बोले- जो धर्मका महान् क्षेत्र है, जहाँ गंगा-यमुनाका संगम हुआ है, जो ब्रह्मलोकका मार्ग है, उस परम पुण्यमय प्रयागमें सत्यव्रतमें तत्पर रहनेवाले महातेजस्वी महाभाग महात्मा मुनियोंने एक विशाल ज्ञानयज्ञका आयोजन किया ॥ 1-2॥

उस ज्ञानयज्ञका समाचार सुनकर पौराणिकशिरोमणि व्यासशिष्य महामुनि सूतजी वहाँ मुनियोंका दर्शन करनेके लिये आये ॥ 3 ॥

सूतजीको आते देखकर वे सब मुनि उस समय हर्षसे खिल उठे और अत्यन्त प्रसन्नचित्तसे उन्होंने उनका विधिवत् स्वागत-सत्कार किया ॥ 4 ॥ तत्पश्चात् उन प्रसन्न महात्माओंने उनकी विधिवत् स्तुति करके विनयपूर्वक हाथ जोड़कर उनसे इस प्रकार कहा- ॥ 5 ॥

हे सर्वज्ञ विद्वान् रोमहर्षणजी ! आपका भाग्य बड़ा भारी है, इसीसे आपने व्यासजीसे यथार्थरूपमें सम्पूर्ण पुराण-विद्या प्राप्त की, इसलिये आप आश्चर्यस्वरूप कथाओंके भण्डार हैं-ठीक उसी तरह, जैसे रत्नाकर समुद्र बड़े-बड़े सारभूत रत्नोंका आगार है ।। 6-7 ।।तीनों लोकोंमें भूत, वर्तमान और भविष्यकी से बात है तथा अन्य भी जो कोई वस्तु है, वह आपसे अज्ञात नहीं है ॥ 8 ॥

आप हमारे सौभाग्यसे इस यज्ञका दर्शन करनेके लिये यहाँ आ गये हैं और इसी व्याजसे हमारा कुछ कल्याण करनेवाले हैं; क्योंकि आपका आगमन निरर्थक नहीं हो सकता ॥ 9 ॥

हमने पहले भी आपसे शुभाशुभ-तत्त्वका पूरा पूरा वर्णन सुना है, किंतु उससे तृप्ति नहीं होती, हमें उसे सुननेकी बार-बार इच्छा होती है ॥ 10 ॥

उत्तम बुद्धिवाले हे सूतजी ! इस समय हमें एक ही बात सुननी है; यदि आपका अनुग्रह हो तो गोपनीय होनेपर भी आप उस विषयका वर्णन करें ॥ 11 ॥

घोर कलियुग आनेपर मनुष्य पुण्यकर्मसे दूर रहेंगे, दुराचारमें फँस जायेंगे, सब के सब सत्यभाषणसे विमुख हो जायेंगे, दूसरोंकी निन्दामें तत्पर होंगे। पराये धनको हड़प लेनेकी इच्छा करेंगे, उनका मन परायी स्त्रियोंमें आसक्त होगा तथा वे दूसरे प्राणियोंकी हिंसा किया करेंगे। वे अपने शरीरको ही आत्मा समझेंगे। ये मूढ, नास्तिक तथा पशु-बुद्धि रखनेवाले होंगे, माता पितासे द्वेष रखेंगे तथा वे कामवश स्त्रियोंकी सेवामें लगे रहेंगे । ll 12 - 14 ॥

ब्राह्मण लोभरूपी ग्रहके ग्रास बन जायेंगे, वेद बेचकर जीविका चलायेंगे, धनका उपार्जन करनेके लिये ही विद्याका अभ्यास करेंगे, मदसे मोहित रहेंगे अपनी जातिके कर्म छोड़ देंगे, प्रायः दूसरों को ठगे तीनों कालकी सन्योपासनासे दूर रहेंगे और ब्रह्मज्ञानसे शून्य होंगे। दयाहीन, अपनेको पण्डित माननेवाले अपने सदाचार-व्रतसे रहित, कृषिकार्यमें तत्पर | स्वभाववाले एवं दूषित विचारवाले होंगे ॥ 15-17॥ समस्त क्षत्रिय भी अपने धर्मका त्याग करनेवाले, कुसंगी, पापी और व्यभिचारी होंगे ॥ 18 ॥ उनमें शौर्यका अभाव होगा, वे युद्धसे विरत अर्थात् | रणमें प्रीति न होनेसे भागने वाले होंगे। वे कुत्सित चौर्य | कर्मसे जीविका चलायेंगे, शूद्रोंके समान बरताव करेंगे और उनका चित्त कामका किंकर बना रहेगा ॥ 19 ॥वे शस्त्रास्त्रविद्याको नहीं जाननेवाले, गी और ब्राह्मणकी रक्षा न करनेवाले, शरणागतकी रक्षा न करनेवाले तथा सदा कामिनीको खोजनेमें तत्पर रहेंगे ॥ 20 ॥

प्रजापालनरूपी सदाचारसे रहित, भोगमें तत्पर, प्रजका संहार करनेवाले दुष्ट और प्रसन्नतापूर्वक जीवहिंसा करनेवाले होंगे ll 21 ll

वैश्य संस्कार भ्रष्ट, स्वधर्मत्यागी, कुमार्गी, धनोपार्जनपरायण तथा नाप-तौलमें अपनी कुत्सित वृत्तिका परिचय देनेवाले होंगे ॥ 22 ॥

वे गुरु, देवता और द्विजातियोंके प्रति भक्तिशून्य, कुत्सित बुद्धिवाले, द्विजोंको भोजन न करनेवाले, प्रायः कृपणताके कारण मुट्ठी बाँधकर रखनेवाले, परायी स्त्रियोंके साथ कामरत, मलिन विचारवाले, लोभ और मोहसे भ्रमित चित्तवाले और वापी -कूप तड़ाग आदिके निर्माण तथा यज्ञादि सत्कर्मों में धर्मका त्याग करनेवाले होंगे ll 23-24 ।।

इसी तरह कुछ शूद्र ब्राह्मणोंके आचारमें तत्पर होंगे, उनकी आकृति उज्ज्वल होगी अर्थात् वे अपना कर्म-धर्म छोड़कर उज्ज्वल वेश-भूषासे विभूषित हो व्यर्थ घूमेंगे, वे मूढ़ होंगे और स्वभावतः ही अपने धर्मका त्याग करनेवाले होंगे ll 25 ll

वे भाँति-भाँति के तप करनेवाले होंगे, द्विजोंको अपमानित करेंगे, छोटे बच्चोंकी अल्पमृत्यु होनेके लिये आभिचारिक कर्म करेंगे, मन्त्रोंके उच्चारण करनेमें तत्पर रहेंगे, शालग्रामकी मूर्ति आदि पूजेंगे, होम करेंगे, किसी-न-किसीके प्रतिकूल विचार सदा करते रहेंगे, कुटिल स्वभाववाले होंगे और द्विजोंसे द्वेष भाव रखने वाले होंगे ।। 26-27 ।।

वे यदि धनी हुए तो कुकर्ममें लग जायेंगे, यदि विद्वान् हुए तो विवाद करनेवाले होंगे, कथा और उपासनाधर्मो के वक्ता होंगे और धर्मका लोप करनेवाले होंगे ॥ 28 ॥

वे सुन्दर राजाओंके समान वेष-भूषा धारण करनेवाले, दम्भी, दानमानी, अतिशय अभिमानी, विप्र आदिको अपना सेवक मानकर अपनेको स्वामी माननेवाले होंगे, वे अपने धर्मशून्य वर्ण वाले महाभिमानी और सदा चारों वर्णोंके धर्मका लोप करनेवाले होंगे ॥ 29-30 ।।वे अपनेको श्रेष्ठ कुलवाला मानकर चारों वर्णोंसे विपरीत व्यवहार करनेवाले, सभी वर्णोंको भ्रष्ट करनेवाले, मूढ़ और [अनुचित रूपसे] सत्कर्म करनेमें तत्पर होंगे ॥ 31 ॥

कलियुगकी स्त्रियाँ प्रायः सदाचारसे भ्रष्ट होंगी, पतिका अपमान करनेवाली होंगी, सास-ससुरसे द्रोह करेंगी। किसीसे भय नहीं मानेंगी और मलिन भोजन करेंगी ॥ 32 ॥

वे कुत्सित हाव-भावमें तत्पर होंगी, उनका शील-स्वभाव बहुत बुरा होगा। वे काम-विह्वल, परपतिसे रति करनेवाली और अपने पतिकी सेवासे सदा विमुख रहेंगी ॥ 33 ॥

सन्तानें माता-पिताके प्रति श्रद्धारहित, दुष्ट स्वभाववाली, असत् विद्या पढ़नेवाली और सदा रोगग्रस्त शरीरवाली होंगी ॥ 34 ॥

हे सूतजी ! इस तरह जिनकी बुद्धि नष्ट हो गयी है और जिन्होंने अपने धर्मका त्याग कर दिया है, ऐसे लोगोंको इहलोक और परलोकमें उत्तम गति कैसे प्राप्त होगी ? ॥ 35 ॥

इसी चिन्तासे हमारा मन सदा व्याकुल रहता है; परोपकारके समान दूसरा कोई धर्म नहीं है, अतः जिस छोटे उपायसे इन सबके पापोंका तत्काल नाश हो जाय, उसे इस समय कृपापूर्वक बताइये; क्योंकि आप समस्त सिद्धान्तोंके ज्ञाता हैं ॥ 36-37॥

व्यासजी बोले- उन भावितात्मा मुनियोंकी यह बात सुनकर सूतजी मन-ही-मन भगवान् शंकरका स्मरण | करके उन मुनियोंसे इस प्रकार कहने लगे- ॥ 38 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] प्रयागमें सूतजीसे मुनियों का शीघ्र पापनाश करनेवाले साधनके विषयमें प्रश्न
  2. [अध्याय 2] शिवपुराणका माहात्म्य एवं परिचय
  3. [अध्याय 3] साध्य-साधन आदिका विचार
  4. [अध्याय 4] श्रवण, कीर्तन और मनन इन तीन साधनोंकी श्रेष्ठताका प्रतिपादन
  5. [अध्याय 5] भगवान् शिव लिंग एवं साकार विग्रहकी पूजाके रहस्य तथा महत्त्वका वर्णन
  6. [अध्याय 6] ब्रह्मा और विष्णुके भयंकर युद्धको देखकर देवताओंका कैलास शिखरपर गमन
  7. [अध्याय 7] भगवान् शंकरका ब्रह्मा और विष्णु के युद्धमें अग्निस्तम्भरूपमें प्राकट्य स्तम्भके आदि और अन्तकी जानकारीके लिये दोनोंका प्रस्थान
  8. [अध्याय 8] भगवान् शंकरद्वारा ब्रह्मा और केतकी पुष्पको शाप देना और पुनः अनुग्रह प्रदान करना
  9. [अध्याय 9] महेश्वरका ब्रह्मा और विष्णुको अपने निष्कल और सकल स्वरूपका परिचय देते हुए लिंगपूजनका महत्त्व बताना
  10. [अध्याय 10] सृष्टि, स्थिति आदि पाँच कृत्योंका प्रतिपादन, प्रणव एवं पंचाक्षर मन्त्रकी महत्ता, ब्रह्मा-विष्णुद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति तथा उनका अन्तर्धान होना
  11. [अध्याय 11] शिवलिंगकी स्थापना, उसके लक्षण और पूजनकी विधिका वर्णन तथा शिवपदकी प्राप्ति करानेवाले सत्कर्मोका विवेचन
  12. [अध्याय 12] मोक्षदायक पुण्यक्षेत्रोंका वर्णन, कालविशेषमें विभिन्न नदियोंके जलमें स्नानके उत्तम फलका निर्देश तथा तीर्थों में पापसे बचे रहनेकी चेतावनी
  13. [अध्याय 13] सदाचार, शौचाचार, स्नान, भस्मधारण, सन्ध्यावन्दन, प्रणव- जप, गायत्री जप, दान, न्यायतः धनोपार्जन तथा अग्निहोत्र आदिकी विधि एवं उनकी महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 14] अग्नियज्ञ, देवयज्ञ और ब्रह्मयज्ञ आदिका वर्णन, भगवान् शिवके द्वारा सातों वारोंका निर्माण तथा उनमें देवाराधनसे विभिन्न प्रकारके फलोंकी प्राप्तिका कथन
  15. [अध्याय 15] देश, काल, पात्र और दान आदिका विचार
  16. [अध्याय 16] मृत्तिका आदिसे निर्मित देवप्रतिमाओंके पूजनकी विधि, उनके लिये नैवेद्यका विचार, पूजनके विभिन्न उपचारोंका फल, विशेष मास, बार, तिथि एवं नक्षत्रोंके योगमें पूजनका विशेष फल तथा लिंगके वैज्ञानिक स्वरूपका विवेचन
  17. [अध्याय 17] लिंगस्वरूप प्रणवका माहात्म्य, उसके सूक्ष्म रूप (अकार) और स्थूल रूप (पंचाक्षर मन्त्र) का विवेचन, उसके जपकी विधि एवं महिमा, कार्यब्रह्मके लोकोंसे लेकर कारणरुद्रके लोकोंतकका विवेचन करके कालातीत, पंचावरणविशिष्ट शिवलोकके अनिर्वचनीय वैभवका निरूपण तथा शिवभक्तोंके सत्कारकी महत्ता
  18. [अध्याय 18] बन्धन और मोक्षका विवेचन, शिवपूजाका उपदेश, लिंग आदिमें शिवपूजनका विधान, भस्मके स्वरूपका निरूपण और महत्त्व, शिवके भस्मधारणका रहस्य, शिव एवं गुरु शब्दकी व्युत्पत्ति तथा विघ्नशान्तिके उपाय और शिवधर्मका निरूपण
  19. [अध्याय 19] पार्थिव शिवलिंगके पूजनका माहात्म्य
  20. [अध्याय 20] पार्थिव शिवलिंगके निर्माणकी रीति तथा वेद-मन्त्रोंद्वारा उसके पूजनकी विस्तृत एवं संक्षिप्त विधिका वर्णन
  21. [अध्याय 21] कामनाभेदसे पार्थिवलिंगके पूजनका विधान
  22. [अध्याय 22] शिव- नैवेद्य-भक्षणका निर्णय एवं बिल्वपत्रका माहात्म्य
  23. [अध्याय 23] भस्म, रुद्राक्ष और शिवनामके माहात्म्यका वर्णन
  24. [अध्याय 24] भस्म-माहात्म्यका निरूपण
  25. [अध्याय 25] रुद्राक्षधारणकी महिमा तथा उसके विविध भेदोंका वर्णन