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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 5 (युद्ध खण्ड) , अध्याय 51 - Sanhita 2, Khand 5 (युद्ध खण्ड) , Adhyaya 51

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प्रह्लादकी वंशपरम्परामें बलिपुत्र वाणासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवभक्त बाणासुरद्वारा ताण्डव नृत्यके प्रदर्शनसे शंकरको प्रसन्न करना, वरदानके रूपमें शंकरका बाणासुरकी नगरीमें निवास करना, शिव-पार्वतीका बिहार, पार्वतीद्वारा बाणपुत्री ऊषाको वरदान

व्यासजी बोले- हे सर्वज्ञ ! हे सनत्कुमार! आपने मुझपर अनुग्रहकर परम प्रीतिसे शिवके अनुग्रहसे पूर्ण यह अत्यन्त अद्भुत कथा सुनायी। अब शिवजीके उस चरित्रको सुनना चाहता हूँ, जिस प्रकार उन्होंने प्रीतिपूर्वक बाणासुरको गाणपत्यपद प्रदान किया ll 1-2 ॥

सनत्कुमार बोले- हे व्यास! जिस प्रकार शिवजीने प्रसन्नतापूर्वक बाणासुरको गाणपत्यपद प्रदान किया, परमात्मा शिवजीके उस चरित्रको अब आप आदरपूर्वक सुनिये इसी चरित्रके अन्तर्गत बाणासुरपर अनुग्रह करनेवाले महाप्रभु सदाशिवका श्रीकृष्णके साथ युद्ध भी हुआ ॥ 3-4 ॥

अब शिवकी लीलासे युक्त, मन तथा कानको सुख देनेवाले तथा महापुण्यदायक इतिहासको सुनिये ॥ 5 ॥पूर्वकालमें ब्रह्माजीके मानसपुत्र मरीचि नामक प्रजापति हुए, जो उनके सभी पुत्रोंमें ज्येष्ठ, श्रेष्ठ एवं महाबुद्धिमान मुनि थे। उनके पुत्र मुनिश्रेष्ठ महात्मा कश्यप हुए, जो इस सृष्टिके प्रवर्तक हैं। वे अपने पिता मरीचि तथा ब्रह्माजीके अत्यन्त भक्त थे ॥ 6-7 ॥ हे व्यासजी दक्षकी सुशील तेरह कन्याएँ थीं, जो उन कश्यपमुनिकी पतिव्रता स्त्रियाँ थीं ॥ 8 ॥ उनमें ज्येष्ठ कन्याका नाम दिति था, सभी दैत्य उसीके पुत्र कहे गये हैं और अन्य स्वियोंसे चराचरसहित सभी देवता आदि सन्तानें उत्पन्न हुई ॥ 9 ॥

ज्येष्ठ पत्नी दितिसे महाबलवान् दो पुत्र उत्पन्न हुए, जिनमें हिरण्यकशिपु ज्येष्ठ तथा हिरण्याक्ष कनिष्ठ था। उस हिरण्यकशिपुके क्रमसे हाद, अनुहाद, संहाद तथा प्रह्लाद नामक चार दैत्य श्रेष्ठ पुत्र हुए । ll 10-11 ॥

उन सभीमें प्रह्लाद अत्यन्त जितेन्द्रिय तथा भगवान् विष्णुका परम भक्त था, जिसका नाश करनेमें कोई भी दैत्य समर्थ नहीं हुआ। उस प्रह्लादका पुत्र विरोचन हुआ, जो दानियोंमें श्रेष्ठ था और जिसने ब्राह्मणरूपी इन्द्रके माँगनेपर अपना सिर ही दे दिया ।। 12-13 ॥

उस विरोचनका पुत्र महादानी एवं शिवप्रिय बलि हुआ, जिसने वामनावतार धारणकर याचना करनेवाले विष्णुको सम्पूर्ण पृथ्वी दान कर दी ॥ 14 ॥

उसी बलिका औरस पुत्र बाण हुआ, जो शिवभक्त, मान्य, दानी, बुद्धिमान्, सत्यप्रतिज्ञ एवं हजारोंका दान करनेवाला था वह दैत्यराज बाणासुर अपने बलसे तीनों लोकोंको तथा उसके स्वामियोंको जीतकर शोणित नामक पुरमें रहकर राज्य करता था । ll15-16 ॥

सभी देवगण शंकरजीकी कृपासे शिवभक्त उस बाणासुरके दासकी भाँति हो गये ॥ 17 ॥

उस बाणासुरके राज्यमें देवताओंको छोड़कर अन्य प्रजाएँ दुखी नहीं थीं। देवगणोंके दुःखका कारण यह था कि बाणासुर उनका शत्रु था एवं वह असुरकुलमें उत्पन्न हुआ था। एक समय उस महादैत्यने अपनी हजार भुजाओंको बजाकर ताण्डव नृत्यद्वारा उन महेश्वरको प्रसन्न कर लिया। भक्तवत्सल भगवान् शंकर उस नृत्यसे सन्तुष्ट तथा अत्यन्त प्रसन्न हो गये और उन्होंने | कृपादृष्टिसे उसकी ओर देखा ।। 18-20 ॥ सर्वलोकेश, शरणागतवत्सल एवं भक्तोंकी कामना पूर्ण करनेवाले भगवान् शंकरने उस बलिपुत्र बाणासुरको वर प्रदान करनेकी इच्छा की ॥ 21 ॥

सनत्कुमार बोले [हे] मुने!] अत्यन्त बुद्धिमान् एवं शिवभक्त वह बलि-पुत्र बाणासुर परमेश्वर शिवको भक्तिसे प्रणामकर स्तुति करने लगा ॥ 22 ॥ बाणासुर बोला- है देवदेव! हे महादेव! हे शरणागतवत्सल! हे महेशान! हे विभो! हे प्रभो। यदि आप मेरे ऊपर प्रसन्न हैं, तो मेरे नगरके अधिपति बनकर अपने पुत्रों एवं गणोंके सहित इसीके समीप निवासकर मेरा हित करते हुए मेरी रक्षा कीजिये ।। 23-24 ।।

सनत्कुमार बोले- शिवजीकी मायासे मोहित हुए बलिपुत्र बाणासुरने मुक्ति देनेवाले दुराराध्य शिवसे केवल इतना ही वर माँगा। भक्तवत्सल प्रभु शंकर उस बाणासुरको उन वरोंको देकर गणों तथा पुत्रोंसहित उसके पुरमें निवास करने लगे। किसी समय बाणासुरके शोणितपुर नामक मनोहर नगरमें नदीके तटपर शिवजीने देवगणों एवं दैत्योंके साथ क्रीड़ा की ।। 25-27 ॥

उस समय गन्धर्व एवं अप्सराएँ नाचने हँसने लगीं। मुनियोंने शिवको प्रणाम किया, उनका जप, पूजन तथा स्तवन किया। प्रमथगण अट्टहास करने लगे, ऋषिलोग हवन करने लगे एवं सिद्धगण यहाँ आये और शिवकी क्रीड़ा देखने लगे ॥ 28-29 ॥

म्लेच्छ, कुमार्गी तथा कुतर्की विनष्ट हो गये। समस्त देवमाताएँ शिवजीके सम्मुख उपस्थित हो गय तथा सभी प्रकारके भय नष्ट हो गये ॥ 30 ॥ उस क्रीड़ासे रुद्रमें सद्भावना रखनेवाले भक्तोंके सांसारिक दोष दूर हो गये। उस समय शिवजीका दर्शन करते ही सभी प्रजाएँ अत्यन्त प्रसन्न हो गयीं ॥ 31 ॥

मुनि तथा सिद्धगण स्त्रियोंकी अद्भुत चेष्टाको देखकर अट्टहास करने लगे। समस्त ऋतुएँ वहाँ अपना-अपना प्रभाव प्रकट करने लगीं ॥ 32 ॥

पुष्पों के परागसे मिश्रित सुगन्धित वायु बहने लगी, पक्षिसमूह कूजन करने लगे एवं पुष्पोंके भारसे अवनत वृक्षशाखाओं पर मधुलम्पट कोयले वनों तथा उपवनोंमें कामोत्पादक मधुर शब्द करने लगीं । ll 33-34॥उस समय क्रीडाविहारमें उन्मत्त तथा कामपर विजय न प्राप्तकर उससे देखे जानेमात्रसे ही कामके वशीभूत सदाशिवने नन्दीसे कहा- ॥ 35 ॥

चन्द्रशेखर बोले हे नन्दिन् तुम शीघ्र ही इस वनसे कैलास जाकर मेरा सन्देश कहकर श्रृंगारसे युक्त गौरीको यहाँ ले आओ || 36 ||

सनत्कुमार बोले- 'ऐसा ही करूँगा', इस प्रकारकी प्रतिज्ञाकर वहाँ जाकर शंकरके दूत नन्दीने हाथ जोड़कर एकान्तमें पार्वतीसे कहा- ॥ 37 ॥

नन्दीश्वर बोले- हे देवि! देवदेव महादेव महेश्वर श्रृंगारसे युक्त अपनी भार्याको देखना चाहते हैं, मैंने उनके आदेशसे ऐसा कहा है ll 38 ॥

सनत्कुमार बोले हे मुनिश्रेष्ठ! उनके इस वचनको सुनकर पतिव्रत धर्मपरायणा भगवती पार्वती बड़ी प्रसन्नतासे अपना शृंगार करने लगीं और नन्दीसे बोलीं- तुम मेरी आज्ञासे शीघ्र शिवजीके पास जाओ और उनसे कहो कि मैं अभी आ रही हूँ। यह सुनकर मनकी गतिके समान चलनेवाले नन्दीश्वर महादेवके पास चले आये ॥ 39-40ll

नन्दीको अकेले आया देख शिवजीने नन्दीसे पुनः कहा- हे तात! तुम पुनः जाओ और पार्वतीको शीघ्र लिवा लाओ। तब नन्दीने 'बहुत अच्छा' कहकर वहाँ जाकर मनोहर नेत्रवाली गौरीसे कहा- आपके पति शृंगार की हुई आप मनोरमाको देखना चाहते हैं। हे देवि विहार करनेकी उत्कण्ठासे वे उत्सुकतापूर्वक आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं, अतः हे गिरिनन्दिनि आप अपने पतिके पास शीघ्र चलिये ll 41-43 ॥

पार्वतीके आने में देर देखकर समग्र अप्सराओंने परस्पर मिलकर विचार किया कि शिवजी पार्वतीको शीघ्र देखना चाहते हैं। इस अवस्थामें वे जिस स्त्रीका वरण करेंगे, वह स्त्री निश्चय ही समस्त दिव्य स्त्रियोंकी रानी होगी ।। 44-45 ।।

इस समय कामशत्रु शिवको यह काम दुःख दे रहा है, इसलिये हम पार्वतीका रूप धारण करें, कदाचित् हमें पार्वतीके रूपमें देखकर वे मन्मथगणोंसहित हमारे साथ क्रीडा करें। वे आदरपूर्वक आपसमें ऐसा विचार करने लगीं ॥ 46 ॥अतः जो स्त्री दाक्षायणीसे रहित इन शंकरका स्पर्श कर सके, वही निःशंक भावसे पार्वतीपति
शिवजीके पास जाय और उन्हें मोहित करे ॥ 47 ॥ तब कृष्ण्ड (कुम्भाण्ड) की कन्या चित्र यह वचन कहा-'मैं गौरीका सुन्दर रूप धारणकर शिवजीका स्पर्श कर सकती हूँ ॥ 48 ॥

चित्रलेखा बोली- केशवने शिवजीको मोहित करनेकी इच्छासे परमार्थके लिये वैष्णवयोगका आश्रय लेकर जिस मोहिनीरूपको धारण किया, उसीको मैं धारण करती हूँ। तदनन्तर उसने उर्वशीके परिवर्तित रूपको देखा, इसी प्रकार उसने देखा कि घृताचीने कालीरूप, विश्वाचीने चण्डिकारूप, रम्भाने सावित्रीरूप मेनकाने गायत्रीरूप, सहजन्याने जयारूप, पुंजिकस्थलीने विजयाका रूप तथा समस्त अप्सराओंने मातृगणों का रूप यत्नपूर्वक बना लिया है। उनके रूपोंको देखकर कुम्भाण्डपुत्री चित्रलेखाने भी वैष्णवयोगसे सारे रहस्योंको जानकर अपने रूपको छिपा लिया ।। 49-53॥

दिव्य योगविशारद बाणासुरकी कन्या ऊषाने वैष्णवयोगके प्रभावसे अत्यन्त मनोहर, सुन्दर और अद्भुत पार्वतीका रूप धारण किया ॥ 54 ॥

ऊषाके चरण लाल कमलके समान दिव्य कान्तिवाले, उत्तम प्रभासे सम्पन्न, दिव्य लक्षणोंसे संयुक्त एवं मनके अभिलषित पदार्थोंको देनेवाले थे॥ 55 ll

उसके बाद सर्वान्तर्यामिनी तथा सब कुछ जाननेवाली शिवा गिरिजा शिवजीके साथ उसकी रमणकी इच्छा जानकर कहने लगीं- ॥ 56 ॥

गिरिजा बोलीं- हे सखि ऊचे हे मानिनि ! तुमने समय प्राप्त होनेपर सकामभावसे मेरा रूप धारण किया, अतः तुम इसी कार्तिक मासमें ऋतुधर्मिणी होओगी। वैशाख मासके शुक्लपक्षको द्वादशी तिथिको घोर अर्धरात्रिमें उपवासपूर्वक अन्तः पुरमें सोयी हुई अवस्थामें तुमसे जो कोई पुरुष आकर रमण करेगा. देवगणोंने उसीको तुम्हारा पति नियुक्त किया है। उसीके साथ तुम रमण करोगी; क्योंकि तुम बाल्यावस्थासे ही आलस्यरहित होकर सर्वदा विष्णुमें भक्ति रखनेवाली हो तब 'ऐसा ही हो'- इस प्रकार ऊषाने मनमें कहा और वह लज्जित हो गयी ।। 57-60 ।।इसके बाद शृंगारसे युक्त होकर रुद्रके समीप आकर वे देवी पार्वती उन शम्भुके साथ क्रीड़ा करने लगीं ॥ 61 ॥ हे मुने। तदनन्तर रमणके अन्तमें भगवान् सदाशिव स्त्रियों, गणों एवं देवताओंके साथ अन्तर्धान हो गये ।। 62 ।।

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] तारकासुरके पुत्र तारकाक्ष, विद्युन्माली एवं कमलाक्षकी तपस्यासे प्रसन्न ब्रह्माद्वारा उन्हें वरकी प्राप्ति, तीनों पुरोंकी शोभाका वर्णन
  2. [अध्याय 2] तारकपुत्रोंसे पीड़ित देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और उनके परामर्शके अनुसार असुर- वधके लिये भगवान् शंकरकी स्तुति करना
  3. [अध्याय 3] त्रिपुरके विनाशके लिये देवताओंका विष्णुसे निवेदन करना, विष्णुद्वारा त्रिपुरविनाशके लिये यज्ञकुण्डसे भूतसमुदायको प्रकट करना, त्रिपुरके भयसे भूतोंका पलायित होना, पुनः विष्णुद्वारा देवकार्यकी सिद्धिके लिये उपाय सोचना
  4. [अध्याय 4] त्रिपुरवासी दैत्योंको मोहित करनेके लिये भगवान् विष्णुद्वारा एक मुनिरूप पुरुषकी उत्पत्ति, उसकी सहायताके लिये नारदजीका त्रिपुरमें गमन, त्रिपुराधिपका दीक्षा ग्रहण करना
  5. [अध्याय 5] मायावी यतिद्वारा अपने धर्मका उपदेश, त्रिपुरवासियोंका उसे स्वीकार करना, वेदधर्मके नष्ट हो जानेसे त्रिपुरमें अधर्माचरणकी प्रवृत्ति
  6. [अध्याय 6] त्रिपुरध्वंसके लिये देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  7. [अध्याय 7] भगवान् शिवकी प्रसन्नताके लिये देवताओंद्वारा मन्त्रजप, शिवका प्राकट्य तथा त्रिपुर- विनाशके लिये दिव्य रथ आदिके निर्माणके लिये विष्णुजीसे कहना
  8. [अध्याय 8] विश्वकर्माद्वारा निर्मित सर्वदेवमय दिव्य रथका वर्णन
  9. [अध्याय 9] ब्रह्माजीको सारथी बनाकर भगवान् शंकरका दिव्य रथमें आरूढ़ होकर अपने गणों तथा देवसेनाके साथ त्रिपुर- वधके लिये प्रस्थान, शिवका पशुपति नाम पड़नेका कारण
  10. [अध्याय 10] भगवान् शिवका त्रिपुरपर सन्धान करना, गणेशजीका विघ्न उपस्थित करना, आकाशवाणीद्वारा बोधित होनेपर शिवद्वारा विघ्ननाशक गणेशका पूजन, अभिजित् मुहूर्तमें तीनों पुरोंका एकत्र होना और शिवद्वारा बाणाग्निसे सम्पूर्ण त्रिपुरको भस्म करना, मयदानवका बचा रहना
  11. [अध्याय 11] त्रिपुरदाहके अनन्तर भगवान् शिवके रौद्ररूपसे भयभीत देवताओं द्वारा उनकी स्तुति और उनसे भक्तिका वरदान प्राप्त करना
  12. [अध्याय 12] त्रिपुरदाहके अनन्तर शिवभक्त मयदानवका भगवान् शिवकी शरणमें आना, शिवद्वारा उसे अपनी भक्ति प्रदानकर वितललोकमें निवास करनेकी आज्ञा देना, देवकार्य सम्पन्नकर शिवजीका अपने लोकमें जाना
  13. [अध्याय 13] बृहस्पति तथा इन्द्रका शिवदर्शन के लिये कैलासकी ओर प्रस्थान, सर्वज्ञ शिवका उनकी परीक्षा लेनेके लिये दिगम्बर जटाधारी रूप धारणकर मार्ग रोकना, कुद्ध इन्द्रद्वारा उनपर वज्रप्रहारकी चेष्टा, शंकरद्वारा उनकी भुजाको स्तम्भित कर देना, बृहस्पतिद्वारा उनकी स्तुति, शिवका प्रसन्न होना और अपनी नेत्राग्निको क्षार-समुद्रमें फेंकना
  14. [अध्याय 14] क्षारसमुद्रमें प्रक्षिप्त भगवान् शंकरकी नेत्राग्निसे समुद्रके पुत्रके रूपमें जलन्धरका प्राकट्य, कालनेमिकी पुत्री वृन्दाके साथ उसका विवाह
  15. [अध्याय 15] राहुके शिरश्छेद तथा समुद्रमन्थनके समयके देवताओंके छलको जानकर जलन्धरद्वारा क्रुद्ध होकर स्वर्गपर आक्रमण, इन्द्रादि देवोंकी पराजय, अमरावतीपर जलन्धरका आधिपत्य, भयभीत देवताओंका सुमेरुकी गुफामें छिपना
  16. [अध्याय 16] जलन्धरसे भयभीत देवताओंका विष्णुके समीप जाकर स्तुति करना, विष्णुसहित देवताओंका जलन्धरकी सेनाके साथ भयंकर युद्ध
  17. [अध्याय 17] विष्णु और जलन्धरके युद्धमें जलन्धरके पराक्रमसे सन्तुष्ट विष्णुका देवों एवं लक्ष्मीसहित उसके नगरमें निवास करना
  18. [अध्याय 18] जलन्धरके आधिपत्यमें रहनेवाले दुखी देवताओंद्वारा शंकरकी स्तुति, शंकरजीका देवर्षि नारदको जलन्धरके पास भेजना, वहाँ देवोंको आश्वस्त करके नारदजीका जलन्धरकी सभा में जाना, उसके ऐश्वर्यको देखना तथा पार्वतीके सौन्दर्यका वर्णनकर उसे प्राप्त करनेके लिये
  19. [अध्याय 19] पार्वतीको प्राप्त करनेके लिये जलन्धरका शंकरके पास दूतप्रेषण, उसके वचनसे उत्पन्न क्रोधसे शम्भुके भ्रूमध्यसे एक भयंकर पुरुषकी उत्पत्ति, उससे भयभीत जलन्धरके दूतका पलायन, उस पुरुषका कीर्तिमुख नामसे शिवगण
  20. [अध्याय 20] दूतके द्वारा कैलासका वृत्तान्त जानकर जलन्धरका अपनी सेनाको युद्धका आदेश देना, भयभीत देवोंका शिवकी शरणमें जाना, शिवगणों तथा जलन्धरकी सेनाका युद्ध, शिवद्वारा कृत्याको उत्पन्न करना, कृत्याद्वारा शुक्राचार्यको छिपा लेना
  21. [अध्याय 21] नन्दी, गणेश, कार्तिकेय आदि शिवगणोंका कालनेमि, शुम्भ तथा निशुम्भ के साथ घोर संग्राम, वीरभद्र तथा जलन्धरका युद्ध, भयाकुल शिवगणोंका शिवजीको सारा वृत्तान्त बताना
  22. [अध्याय 22] श्रीशिव और जलन्धरका युद्ध, जलन्धरद्वारा गान्धर्वी मायासे शिवको मोहितकर शीघ्र ही पार्वतीके पास पहुँचना, उसकी मायाको जानकर पार्वतीका अदृश्य हो जाना और भगवान् विष्णुको जलन्धरपत्नी वृन्दाके पास जानेके लिये कहना
  23. [अध्याय 23] विष्णुद्वारा माया उत्पन्नकर वृन्दाको स्वप्नके माध्यमसे मोहित करना और स्वयं जलन्धरका रूप धारणकर वृन्दाके पातिव्रतका हरण करना, वृन्दाद्वारा विष्णुको शाप देना तथा वृन्दाके तेजका पार्वतीमें विलीन होना
  24. [अध्याय 24] दैत्यराज जलन्धर तथा भगवान् शिवका घोर संग्राम, भगवान् शिवद्वारा चक्रसे जलन्धरका शिरश्छेदन, जलन्धरका तेज शिवमें प्रविष्ट होना, जलन्धर- वधसे जगत्में सर्वत्र शान्तिका विस्तार
  25. [अध्याय 25] जलन्धरवधसे प्रसन्न देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  26. [अध्याय 26] विष्णुजीके मोहभंगके लिये शंकरजीकी प्रेरणासे देवोंद्वारा मूलप्रकृतिकी स्तुति मूलप्रकृतिद्वारा आकाशवाणीके रूपमें देवोंको आश्वासन, देवताओंद्वारा त्रिगुणात्मिका देवियोंका स्तवन, विष्णुका मोहनाश, धात्री (आँवला), मालती तथा तुलसीकी उत्पत्तिका आख्यान
  27. [अध्याय 27] शंखचूडकी उत्पत्तिकी कथा
  28. [अध्याय 28] शंखचूडकी पुष्कर - क्षेत्रमें तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरकी प्राप्ति, ब्रह्माकी प्रेरणासे शंखचूडका तुलसीसे विवाह
  29. [अध्याय 29] शंखचूडका राज्यपदपर अभिषेक, उसके द्वारा देवोंपर विजय, दुखी देवोंका ब्रह्माजीके साथ वैकुण्ठगमन, विष्णुद्वारा शंखचूडके पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना और विष्णु तथा ब्रह्माका शिवलोक गमन
  30. [अध्याय 30] ब्रह्मा तथा विष्णुका शिवलोक पहुँचना, शिवलोककी तथा शिवसभाकी शोभाका वर्णन, शिवसभाके मध्य उन्हें अम्बासहित भगवान् शिवके दिव्यस्वरूपका दर्शन और शंखचूडसे प्राप्त कष्टोंसे मुक्ति के लिये प्रार्थना
  31. [अध्याय 31] शिवद्वारा ब्रह्मा-विष्णुको शंखचूडका पूर्ववृत्तान्त बताना और देवोंको शंखचूडवथका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] भगवान् शिक्के द्वारा शंखचूडको समझानेके लिये गन्धर्वराज चित्ररथ (पुष्पदन्त ) को दूतके रूपमें भेजना, शंखचूडद्वारा सन्देशकी अवहेलना और युद्ध करनेका अपना निश्चय बताना, पुष्पदन्तका वापस आकर सारा वृत्तान्त शिवसे निवेदित करना
  33. [अध्याय 33] शंखचूडसे युद्धके लिये अपने गणोंके साथ भगवान् शिवका प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] तुलसीसे विदा लेकर शंखचूडका युद्धके लिये ससैन्य पुष्पभद्रा नदीके तटपर पहुँचना
  35. [अध्याय 35] शंखचूडका अपने एक बुद्धिमान् दूतको शंकरके पास भेजना, दूत तथा शिवकी वार्ता, शंकरका सन्देश लेकर दूतका वापस शंखचूडके पास आना
  36. [अध्याय 36] शंखचूडको उद्देश्यकर देवताओंका दानवोंके साथ महासंग्राम
  37. [अध्याय 37] शंखचूडके साथ कार्तिकेय आदि महावीरोंका युद्ध
  38. [अध्याय 38] श्रीकालीका शंखचूडके साथ महान् युद्ध, आकाशवाणी सुनकर कालीका शिवके पास आकर युद्धका वृत्तान्त बताना
  39. [अध्याय 39] शिव और शंखमूहके महाभयंकर युद्ध शंखचूडके सैनिकोंके संहारका वर्णन
  40. [अध्याय 40] शिव और शंखचूडका युद्ध, आकाशवाणीद्वारा शंकरको युद्धसे विरत करना, विष्णुका ब्राह्मणरूप धारणकर शंखचूडका कवच माँगना, कवचहीन शंखचूडका भगवान् शिवद्वारा वध, सर्वत्र हर्षोल्लास
  41. [अध्याय 41] शंखचूडका रूप धारणकर भगवान् विष्णुद्वारा तुलसीके शीलका हरण, तुलसीद्वारा विष्णुको पाषाण होनेका शाप देना, शंकरजीद्वारा तुलसीको सान्त्वना, शंख, तुलसी, गण्डकी एवं शालग्रामकी उत्पत्ति तथा माहात्म्यकी कथा
  42. [अध्याय 42] अन्धकासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवके वरदानसे हिरण्याक्षद्वारा अन्धकको पुत्ररूपमें प्राप्त करना, हिरण्याक्षद्वारा पृथ्वीको पाताललोकमें ले जाना, भगवान् विष्णुद्वारा वाराहरूप धारणकर हिरण्याक्षका वधकर पृथ्वीको यथास्थान स्थापित करना
  43. [अध्याय 43] हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्मासे वरदान पाकर उसका अत्याचार, भगवान् नृसिंहद्वारा उसका वध और प्रह्लादको राज्यप्राप्ति
  44. [अध्याय 44] अन्धकासुरकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे अनेक वरोंकी प्राप्ति, त्रिलोकीको जीतकर उसका स्वेच्छाचारमें प्रवृत्त होना, मन्त्रियोंद्वारा पार्वतीके सौन्दर्यको सुनकर मुग्ध हो शिवके पास सन्देश भेजना और शिवका उत्तर सुनकर
  45. [अध्याय 45] अन्धकासुरका शिवकी सेनाके साथ युद्ध
  46. [अध्याय 46] भगवान् शिव एवं अन्धकासुरका युद्ध, अन्धककी मायासे उसके रक्तसे अनेक अन्धकगणोंकी उत्पत्ति, शिवकी प्रेरणासे विष्णुका कालीरूप धारणकर दानवोंके रक्तका पान करना, शिवद्वारा अन्धकको अपने त्रिशूलमें लटका लेना, अन्धककी स्तुतिसे प्रसन्न हो शिवद्वारा उसे गाणपत्य पद प्रदान करना
  47. [अध्याय 47] शुक्राचार्यद्वारा युद्धमें मरे हुए दैत्योंको संजीवनी विद्यासे जीवित करना, दैत्योंका युद्धके लिये पुनः उद्योग, नन्दीश्वरद्वारा शिवको यह वृत्तान्त बतलाना, शिवकी आज्ञासे नन्दीद्वारा युद्ध-स्थलसे शुक्राचार्यको शिवके पास लाना, शिवद्वारा शुक्राचार्यको निगलना
  48. [अध्याय 48] शुक्राचार्यकी अनुपस्थितिसे अन्धकादि दैत्योंका दुखी होना, शिवके उदरमें शुक्राचार्यद्वारा सभी लोकों तथा अन्धकासुरके युद्धको देखना और फिर शिवके शुकरूपमें बाहर निकलना, शिव-पार्वतीका उन्हें पुत्ररूपमें स्वीकारकर विदा करना
  49. [अध्याय 49] शुक्राचार्यद्वारा शिवके उदरमें जपे गये मन्त्रका वर्णन, अन्धकद्वारा भगवान् शिवकी नामरूपी स्तुति प्रार्थना, भगवान् शिवद्वारा अन्धकासुरको जीवनदानपूर्वक गाणपत्य पद प्रदान करना
  50. [अध्याय 50] शुक्राचार्यद्वारा काशीमें शुक्रेश्वर लिंगकी स्थापनाकर उनकी आराधना करना, मूर्त्यष्टक स्तोत्रसे उनका स्तवन, शिवजीका प्रसन्न होकर उन्हें मृतसंजीवनी विद्या प्रदान करना और ग्रहोंके मध्य प्रतिष्ठित करना
  51. [अध्याय 51] प्रह्लादकी वंशपरम्परामें बलिपुत्र वाणासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवभक्त बाणासुरद्वारा ताण्डव नृत्यके प्रदर्शनसे शंकरको प्रसन्न करना, वरदानके रूपमें शंकरका बाणासुरकी नगरीमें निवास करना, शिव-पार्वतीका बिहार, पार्वतीद्वारा बाणपुत्री ऊषाको वरदान
  52. [अध्याय 52] अभिमानी बाणासुरद्वारा भगवान् शिवसे युद्धकी याचना, बाणपुत्री ऊषाका रात्रिके समय स्वप्नमें अनिरुद्ध के साथ मिलन, चित्रलेखाद्वारा योगबलसे अनिरुद्धका द्वारकासे अपहरण, अन्तःपुरमें अनिरुद्ध और ऊषाका मिलन तथा द्वारपालोंद्वारा यह समाचार बाणासुरको बताना
  53. [अध्याय 53] क्रुद्ध बाणासुरका अपनी सेनाके साथ अनिरुद्धपर आक्रमण और उसे नागपाशमें बांधना, दुर्गाके स्तवनद्वारा अनिरुद्धका बन्धनमुक्त होना
  54. [अध्याय 54] नारदजीद्वारा अनिरुद्धके बन्धनका समाचार पाकर श्रीकृष्णकी शोणितपुरपर चढ़ाई, शिवके साथ उनका घोर युद्ध, शिवकी आज्ञासे श्रीकृष्णका उन्हें जृम्भणास्त्रसे मोहित करके बाणासुरकी सेनाका संहार करना
  55. [अध्याय 55] भगवान् कृष्ण तथा बाणासुरका संग्राम, श्रीकृष्णद्वारा बाणकी भुजाओंका काटा जाना, सिर काटनेके लिये उद्यत हुए श्रीकृष्णको शिवका रोकना और उन्हें समझाना, बाणका गर्वापहरण, श्रीकृष्ण और बाणासुरकी मित्रता, ऊषा अनिरुद्धको लेकर श्रीकृष्णका द्वारका आना
  56. [अध्याय 56] बाणासुरका ताण्डवनृत्यद्वारा भगवान् शिवको प्रसन्न करना, शिवद्वारा उसे अनेक मनोऽभिलषित वरदानोंकी प्राप्ति, बाणासुरकृत शिवस्तुति
  57. [अध्याय 57] महिषासुर के पुत्र गजासुरकी तपस्या तथा ब्रह्माद्वारा वरप्राप्ति, उन्मत्त गजासुरद्वारा अत्याचार, उसका काशीमें आना, देवताओंद्वारा भगवान् शिवसे उसके बधकी प्रार्थना, शिवद्वारा उसका वध और उसकी प्रार्थनासे उसका धर्म धारणकर 'कृत्तिवासा' नामसे विख्यात होना एवं कृत्तिवासेश्वर लिंगकी स्थापना करना
  58. [अध्याय 58] काशीके व्याघ्रेश्वर लिंग-माहात्म्यके सन्दर्भमें दैत्य दुन्दुभिनिर्ह्रादके वधकी कथा
  59. [अध्याय 59] काशीके कन्दुकेश्वर शिवलिंगके प्रादुर्भावमें पार्वतीद्वारा बिदल एवं उत्पल दैत्योंके वधकी कथा, रुद्रसंहिताका उपसंहार तथा इसका माहात्म्य