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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 1, अध्याय 18 - Sanhita 1, Adhyaya 18

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बन्धन और मोक्षका विवेचन, शिवपूजाका उपदेश, लिंग आदिमें शिवपूजनका विधान, भस्मके स्वरूपका निरूपण और महत्त्व, शिवके भस्मधारणका रहस्य, शिव एवं गुरु शब्दकी व्युत्पत्ति तथा विघ्नशान्तिके उपाय और शिवधर्मका निरूपण

ऋषिगण बोले- हे सर्वज्ञोंमें श्रेष्ठ! बन्धन और मोक्षका स्वरूप क्या है? यह हमें बताइये ॥ 2 ॥

सूतजी बोले - [ हे महर्षियो!] मैं बन्धन और मोक्षका स्वरूप तथा मोक्षके उपायका वर्णन करूंगा। आपलोग आदरपूर्वक सुनें जो प्रकृति आदि आठ बन्धनोंसे बँधा हुआ है, वह जीव बद्ध कहलाता है और जो उन आठों बन्धनोंसे छूटा हुआ है, उसे मुक्त कहते हैं। प्रकृति आदिको वशमें कर लेना मोक्ष कहलाता है। बन्धन आगन्तुक है और मोक्ष स्वतः सिद्ध है। बद्ध जीव जब बन्धनसे मुक्त हो जाता है, तब उसे मुक्त जीव कहते हैं ॥ 1-3 ॥

प्रकृति, बुद्धि (महतत्व), त्रिगुणात्मक अहंकार और पाँच तन्मात्राएँ - इन्हें ज्ञानी पुरुष प्रकृत्याद्यष्टक | मानते हैं। प्रकृति आदि आठ तत्त्वोंके समूहसे देहकीउत्पत्ति हुई है। देहसे कर्म उत्पन्न होता है और फिर कर्मसे नूतन देहकी उत्पत्ति होती है। इस प्रकार बार बार जन्म और कर्म होते रहते हैं ।। 4-5 ॥

शरीरको स्थूल, सूक्ष्म और कारणके भेदसे तीन प्रकारका जानना चाहिये। स्थूल शरीर (जाग्रत अवस्थामें) व्यापार करानेवाला, सूक्ष्म शरीर (जाग्रत् और स्वप्न अवस्थाओंमें) इन्द्रिय-भोग प्रदान करनेवाला तथा कारणशरीर (सुषुप्तावस्था में) आत्मानन्दकी अनुभूति करानेवाला कहा गया है। जीवको उसके प्रारब्ध कर्मानुसार सुख-दुःख प्राप्त होते हैं। वह अपने पुण्यकमोंके फलस्वरूप सुख और पापकर्मों के फलस्वरूप दुःख प्राप्त करता है। अत: कर्मपाशसे बँधा हुआ जीव अपने त्रिविधः शरीरसे होनेवाले शुभाशुभ कर्मोद्वारा सदा चक्रकी भाँति बार-बार घुमाया जाता है ॥ 6-8 ॥

इस चक्रवत् भ्रमणकी निवृतिके लिये चक्रकर्ताका स्तवन एवं आराधन करना चाहिये। प्रकृति आदि जो आठ पाश बतलाये गये हैं, उनका समुदाय ही महाचक्र है और जो प्रकृतिसे परे हैं, वे परमात्मा शिव हैं भगवान् महेश्वर ही प्रकृति आदि महावक्रके कर्ता हैं; क्योंकि वे प्रकृतिसे परे हैं। जैसे बकायन नामक वृक्षका थाला जलको पीता और उगलता है, उसी प्रकार शिव प्रकृति आदिको अपने वशमें करके उसपर शासन करते हैं। उन्होंने सबको वशमें कर लिया है, इसीलिये ये शिव कहे गये हैं। शिव ही सर्वज्ञ, परिपूर्ण तथा निःस्पृह हैं ॥ 9-11 ॥

सर्व तृप्ति, अनादिबोध स्वतन्त्रता नित्य अलुप्त शक्ति आदिले संयुक्त होना और अपने भीतर अनन्त शक्तियोंको धारण करना-महेश्वरके इन छः प्रकारके मानसिक ऐश्वयको केवल वेद जानता है। अतः भगवान् शिवके अनुग्रहसे ही प्रकृति आदि आठों तत्त्व वशमें होते हैं। भगवान् शिवका कृपाप्रसाद प्राप्त करनेके लिये उन्हींका पूजन करना चाहिये ।। 12-13 ।।

शिव तो परिपूर्ण हैं. नि:स्पृह है उनकी पूजा कैसे हो सकती है? [ इसका उत्तर यह है कि] भगवान् शिवके उद्देश्यसे उनकी प्रसन्नताके लिये किया हुआसत्कर्म उनके कृपाप्रसादको प्राप्त करानेवाला होता है।

शिवलिंग शिवको प्रतिमा तथा शिवभजन शिव भावना करके उनकी प्रसन्नता के लिये पूजा करनी चाहिये। वह पूजन शरीरसे, मनसे, वाणीसे और धनसे भी किय जा सकता है। उस पूजासे प्रकृतिसे परे महेश्वर पूजकपर
विशेष कृपा करते हैं; यह सत्य है ।। 14–16 ॥ शिवकी कृपासे कर्म आदि सभी बन्धन अपने वशमें हो जाते हैं। कर्मसे लेकर प्रकृतिपर्यन्त सब कुछ जब वशमें हो जाता है, तब वह जीव मुक्त कहलाता है और स्वात्मारामरूपसे विराजमान होता है। परमेश्वर शिवकी कृपासे जब कर्मजनित शरीर अपने वशमें हो जाता है, तब भगवान् शिवके लोकमें निवास प्राप्त होता है; इसीको सालोक्यमुक्ति कहते हैं। जब तन्मात्राएँ वशमें हो जाती हैं, तब जीव जगदम्बासहित शिवका सामीप्य प्राप्त कर लेता है। यह सामीप्यमुक्ति है, उसके आयुध आदि और क्रिया आदि सब कुछ भगवान् शिवके समान हो जाते हैं। भगवान्का महाप्रसाद प्राप्त होनेपर बुद्धि भी वशमें हो जाती है। बुद्धि प्रकृतिका कार्य है। उसका वशमें होना सामुि कही गयी है। पुनः भगवान्का महान् अनुग्रह प्राप्त होनेपर प्रकृति वशमें हो जायगी ॥ 17–21 ॥

उस समय भगवान् शिवका मानसिक ऐश्वर्य बिना यत्नके ही प्राप्त हो जायगा। सर्वज्ञता आदि जो शिवके ऐश्वर्य हैं, उन्हें पाकर मुक्त पुरुष अपनी आत्मामें ही विराजमान होता है। वेद और शास्त्रों में श्रखनेवाले विद्वान पुरुष इसोको सायुज्यमुक्ति कहते हैं। इस प्रकार लिंग आदिमें शिवकी पूजा करनेसे क्रमश: मुक्ति स्वतः प्राप्त हो जाती है। | इसलिये शिवका कृपाप्रसाद प्राप्त करनेके लिये तत्सम्बन्धी क्रिया आदिके द्वारा उन्हींका पूजन करना चाहिये। शिवक्रिया, शिवतप, शिवमन्त्र जप, शिवज्ञान और शिवध्यानके लिये सदा उत्तरोत्तर अभ्यास बढ़ाना चाहिये। प्रतिदिन प्रातः कालसे रातको सोते समयतक और जन्मकाल से लेकर मृत्युपर्यन्त सारा समय भगवान् शिक्के चिन्तनमें ही बिताना चाहिये। सद्योजातादि मन्त्रों तथा नाना प्रकारके पुष्पोंसे जो शिवकी पूजा करता है, वह शिवको हो प्राप्त होगा ।। 22 - 251 / 3 ॥ऋषिगण बोले- हे सुव्रत ! अब आप लिंग आदिमें शिवजीको पूजाका विधान बताइये ॥ 26 ॥ सूतजी बोले- हे द्विजो! मैं लिंगोंके क्रमका यथावत् वर्णन कर रहा हूँ, आप लोग सुनिये। वह प्रणव ही समस्त अभीष्ट वस्तुओंको देनेवाला प्रथम लिंग है। उसे सूक्ष्म प्रणवरूप समझिये। सूक्ष्मलिंग निष्कल होता है और स्थूललिंग सकल पंचाक्षर मन्त्रको ही स्थूललिंग कहते हैं। उन दोनों प्रकारके लिंगोंका पूजन तप कहलाता है। वे दोनों ही लिंग साक्षात् मोक्ष देनेवाले हैं। पौरुषलिंग और प्रकृतिलिंगके रूपमें बहुत-से लिंग हैं। उन्हें भगवान् शिव ही विस्तारपूर्वक बता सकते हैं; दूसरा कोई नहीं जानता। पृथ्वीके विकारभूत जो-जो लिंग ज्ञात हैं, उन-उनको मैं आपलोगोंको बता रहा हूँ ॥ 27-30 ॥

उनमें प्रथम स्वयम्भूलिंग, दूसरा विन्दुलिंग, तीसरा प्रतिष्ठित लिंग, चौथा चरलिंग और पाँचव गुरुलिंग है। देवर्षियोंकी तपस्यासे सन्तुष्ट होकर उनके समीप प्रकट होनेके लिये पृथ्वीके अन्तर्गत बीजरूपसे व्याप्त हुए भगवान् शिव वृक्षोंके अंकुरकी भाँति भूमिको भेदकर नादलिंग रूपमें व्याप्त हो जाते हैं। वे स्वतः व्यक्त हुए शिव ही स्वयं प्रकट होनेके कारण स्वयम्भू नाम धारण करते हैं। ज्ञानीजन उन्हें स्वयम्भूलिंगके रूपमें जानते हैं ॥ 31-33 ॥

उस स्वयम्भूलिंगकी पूजासे उपासकका ज्ञान स्वयं ही बढ़ने लगता है। सोने-चाँदी आदिके पत्रपर, भूमिपर अथवा वेदीपर अपने हाथसे लिखित जो शुद्ध प्रणव मन्त्ररूप लिंग है, उसमें तथा यन्त्रलिंगका आलेखन करके उसमें भगवान् शिवकी प्रतिष्ठा और आवाहन करे। ऐसा बिन्दुनादमय लिंग स्थावर और जंगम दोनों ही प्रकारका होता है। इसमें शिवका दर्शन भावनामय ही है इसमें सन्देह नहीं है जिसको जहाँ भगवान् शंकरके प्रकट होनेका विश्वास हो, उसके लिये वहीं प्रकट होकर वे अभीष्ट फल प्रदान करते हैं। अपने हाथसे लिखे हुए यन्त्रमें अथवा अकृत्रिम स्थावर आदिमें भगवान शिवका आवाहन करके सोलह उपचारोंसे उनकी पूजा करे। ऐसा करनेसे साधक स्वयं ही ऐश्वर्यको प्राप्त कर लेता है और इस साधनके अभ्याससे उसको ज्ञान भी प्राप्त हो जाता है ।। 34-38 ।।देवताओं और ऋषियोंने आत्मसिद्धिके लिये अपने हाथसे वैदिक मन्त्रोंके उच्चारणपूर्वक शुद्ध मण्डलमें शुद्ध भावनाद्वारा जिस उत्तम शिवलिंगकी स्थापना की है, उसे पौरुपलिंग कहते हैं तथा वही प्रतिष्ठित लिंग कहलाता है। उस लिंगकी पूजा | करनेसे सदा पौरुष ऐश्वर्यकी प्राप्ति होती है। महान् ब्राह्मणों और महाधनी राजाओंद्वारा किसी शिल्पीय शिवलिंगका निर्माण कराकर मन्त्रपूर्वक जिस लिंगी स्थापना तथा प्रतिष्ठा की गयी हो, वह प्राकृतलिंग है. यह [शिवलिंग] प्राकृत ऐश्वर्य-भोगको देनेवाला होता है। जो शक्तिशाली और नित्य होता है, उसे पौरुपलिंग कहते हैं और जो दुर्बल तथा अनित्य होता है, वह प्राकृतलिंग कहलाता है ॥ 39-43 ॥

लिंग, नाभि, जिह्वा, नासिकाका अग्र भाग और शिखाके क्रमसे कटि, हृदय और मस्तक तीनों स्थानोंमें जो लिंगकी भावना की गयी है, उस | आध्यात्मिक लिंगको ही चरलिंग कहते हैं। पर्वतको पौरुषलिंग बताया गया है और भूतलको विद्वान् पुरुष प्राकृतलिंग मानते हैं। वृक्ष आदिको पौरुषलिंग जानन चाहिये। गुल्म आदिको प्राकृतलिंग कहा गया है। साठी नामक धान्यको प्राकृतलिंग समझना चाहिये और शालि (अगहनी) एवं गेहूँको पौरुषलिंग। अणिमा आदि आठ सिद्धियोंको देनेवाला जो ऐश्वर्य है, उसे पौरुष ऐश्वर्य जानना चाहिये। सुन्दर स्त्री तथा धन आदि विषयोंको आस्तिक पुरुष प्राकृत ऐश्वर्य कहते हैं ।। 44-461/2 ॥

चरलिंगोंमें सबसे प्रथम रसलिंगका वर्णन किया जाता है। रसलिंग ब्राह्मणको उनकी सारी अभीष्ट वस्तुओंको देनेवाला है। शुभकारक बाणलिंग क्षत्रियोंको महान् राज्यको प्राप्ति करानेवाला है। सुवर्णलिंग वैश्योंको महाधनपतिका पद प्रदान करानेवाला है तथा सुन्दर शिलालिंग शूद्रोंको महाशुद्धि देनेवाला है। स्फटिकलिंग तथा बाणलिंग सब लोगोंको उनकी समस्त कामनाएँ प्रदान करते हैं। अपना न हो तो | दूसरेका स्फटिक या बाणलिंग भी पूजाके लिये निषिद्ध नहीं है। स्त्रियों, विशेषतः सधवाओंके लियेपार्थिवलिंगकी पूजाका विधान है। प्रवृत्तिमार्गमें स्थित विधवाओंके लिये स्फटिकलिंगकी पूजा बतायी गयी है। परंतु विरक्त विधवाओंके लिये रसलिंगकी पूजाको ही श्रेष्ठ कहा गया है। हे सुव्रतो! बचपनमें, युवावस्थामें और बुढ़ापेमें भी शुद्ध स्फटिकमय शिवलिंगका पूजन स्त्रियोंको समस्त भोग प्रदान करनेवाला है। गृहासक्त स्त्रियोंके लिये पीठपूजा भूतलपर सम्पूर्ण अभीष्टको देनेवाली है ।। 47-53॥

प्रवृत्तिमार्गमें चलनेवाला पुरुष सुपात्र गुरुके सहयोगसे ही समस्त पूजाकर्म सम्पन्न करे। इष्टदेवका अभिषेक करनेके पश्चात् अगहनीके चावलसे बने हुए [खीर आदि पक्वान्नोंद्वारा] नैवेद्य अर्पण करे। पूजाके अन्तमें शिवलिंगको पधराकर घरके भीतर पृथक् सम्पुटमें स्थापित करे। जो निवृत्तिमार्गी पुरुष हैं, उनके लिये हाथपर ही शिवलिंग पूजाका विधान है। उन्हें भिक्षादिसे प्राप्त हुए अपने भोजनको ही नैवेद्यरूपमें निवेदित करना चाहिये। निवृत्त पुरुषोंके लिये सूक्ष्मलिंग ही श्रेष्ठ बताया जाता है। वे विभूतिके द्वारा पूजन करें और विभूतिको ही नैवेद्यरूपसे निवेदित भी करें। पूजा करके उस लिंगको सदा अपने मस्तकपर धारण करें ।। 54-56 1/2 ॥

विभूति तीन प्रकारकी बतायी गयी है लोकाग्निजनित, वेदाग्निजनित और शिवाग्निजनित । लोकाग्निजनित या लौकिक भस्मको द्रव्योंकी शुद्धिके लिये लाकर रखे। मिट्टी, लकड़ी और लोहेके पात्रोंकी, धान्योंकी, तिल आदि द्रव्योंकी, वस्त्र आदिकी तथा पर्युषित वस्तुओंकी शुद्धि भस्मसे होती है। कुत्ते आदिसे दूषित हुए पात्रोंकी भी शुद्धि भस्मसे ही मानी गयी है। वस्तु विशेषकी शुद्धिके लिये यथायोग्य सजल अथवा निर्जल भस्मका उपयोग करना चाहिये ॥ 57-60 ॥

वेदाग्निजनित जो भस्म है, उसको उन उन वैदिक कर्मोंके अन्तमें धारण करना चाहिये। मन्त्र और क्रियासे जनित जो होमकर्म है, वह अग्निमें भस्मका रूप धारण करता है। उस भस्मको धारण करनेसे वह कर्म आत्मामें आरोपित हो जाता है। अघोर-मूर्तिधारी शिवका जो अपना मन्त्र है, उसे पढ़कर बेलकी लकड़ीको जलाये। उस मन्त्रसे अभिमन्त्रित अग्निको शिवाग्नि कहा गयाहै। उसके द्वारा जले हुए काष्ठका जो भस्म है, वह शिवाग्निजनित है। कपिला गायके गोबर अथवा गायमात्रके गोबरको तथा शमी, पीपल, पलाश, वट अमलतास और बिल्व- इनकी लकड़ियोंको शिवग्निसे जलाये। वह शुद्ध भस्म शिवाग्निजनि माना गया है अथवा कुशकी अग्निमें शिवमन्त्र के उच्चारणपूर्वक काष्ठको जलाये। फिर उस भस्मको कपड़ेसे अच्छी तरह छानकर नये घड़ेमें भरकर रख दे। उसे समय-समयपर अपनी कान्ति या शोभाकी वृद्धिके लिये धारण करे। ऐसा करनेवाला पुरुष सम्मानित एवं पूजित होता है ।। 61-652 ॥

पूर्वकालमें भगवान् शिवने भस्म शब्दका ऐसा ही अर्थ प्रकट किया था। जैसे राजा अपने राज्यमें सारभूत करको ग्रहण करता है, जैसे मनुष्य सस्य आदिको जलाकर (पकाकर ) उसका सार ग्रहण करते हैं तथा जैसे जठरानल नाना प्रकारके भक्ष्य, भोज्य आदि पदार्थोंको भारी मात्रामें ग्रहण करके उसे जलाकर सारतर वस्तु ग्रहण करता और उस सारतर वस्तुसे स्वदेहका पोषण करता है, उसी प्रकार प्रपंचकर्ता परमेश्वर शिवने भी अपनेमें आधेय रूपसे विद्यमान प्रपंचको जलाकर भस्मरूपसे उसके सारतत्त्वको ग्रहण किया है। प्रपंचको दग्ध करके शिवने उसके भस्मको अपने शरीरमें लगाया है। उन्होंने विभूति (भस्म) पोतनेके बहाने जगत्‌के सारको ही ग्रहण किया है ॥ 66-70 ॥

शिवने अपने शरीरमें अपने लिये रत्नस्वरूप भस्मको इस प्रकार स्थापित किया है-आकाशके सारतत्त्वसे केश, वायुके सारतत्त्वसे मुख, अग्नि के सारतत्त्वसे हृदय जलके सारतत्त्वसे कटिभाग और पृथ्वीके सारतत्त्वसे घुटनेको धारण किया है। इसी तरह उनके सारे अंग | विभिन्न वस्तुओंके साररूप हैं ।। 71-72 ॥

महेश्वरने अपने ललाटके मध्यमें तिलकरूपसे | जो त्रिपुण्ड धारण किया है, वह ब्रह्मा, विष्णु और रुद्रका सारतत्त्व है। वे इन सब वस्तुओंको जगत् के अभ्युदयका हेतु मानते हैं। इन भगवान शिवने ही प्रपंचके सार-सर्वस्वको अपने वशमें किया है। अत: इन्हें अपनेवशमें करनेवाला दूसरा कोई नहीं है, इसीलिये वे शिव कहे जाते हैं। जैसे समस्त मृगोंका हिंसक मृग (पशु) सिंह कहलाता है और उसकी हिंसा करनेवाला दूसरा कोई मृग नहीं है, अतएव उसे सिंह कहा गया है ।। 73-751/2 ॥

शकारका अर्थ है नित्यसुख एवं आनन्द । इकारको पुरुष और वकारको अमृतस्वरूपा शक्ति कहा गया है। इन सबका सम्मिलित रूप ही शिव कहलाता है। अतः इस रूपमें भगवान् शिवको अपनी आत्मा मानकर उनकी पूजा करनी चाहिये। [साधक ] पहले अपने अंगोंमें भस्म लगाये, फिर ललाटमें उत्तम त्रिपुण्ड्र धारण करे। पूजाकालमें सजल भस्मका उपयोग होता है और द्रव्यशुद्धिके लिये निर्जल भस्मका ॥ 76-78 ॥

दिन हो अथवा रात्रि, नारी हो या पुरुष; पूजा करनेके लिये उसे भस्म जलसहित ही त्रिपुण्ड्ररूपमें (ललाटपर) धारण करना चाहिये। जलमिश्रित भस्मको त्रिपुण्ड्ररूपमें धारणकर जो व्यक्ति शिवकी पूजा करता है, उसे सांग शिवकी पूजाका फल तुरंत प्राप्त होता है, यह सुनिश्चित है। जो (प्राणी) शिवमन्त्र के द्वारा भस्मको धारण करता है, वह सभी (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास) आश्रमोंमें श्रेष्ठ होता है। उसे शिवाश्रमी कहा जाता है; क्योंकि वह एकमात्र शिवको ही परम श्रेष्ठ मानता है। शिव-व्रतमें एकमात्र शिवमें ही निष्ठा रखनेवालेको न तो अशौचका दोष लगता है और न तो सूतकका ललाटके अग्रभागमें अपने हाथसे या गुरुके हाथसे श्वेत भस्म या मिट्टीसे तिलक लगाना चाहिये, यह शिवभक्तका लक्षण है ll 79-82 ॥

जो गुणोंका रोध करता है, वह गुरु है-यह 'गुरु' शब्दका विग्रह कहा गया है। गुणातीत परम शिव राजस आदि सविकार गुणोंका अवरोध करते हैं-दूर हटाते हैं, इसलिये वे सबके गुरुरूपका आश्रय लेकर स्थित हैं। गुरु विश्वासी शिष्योंके तीनों गुणोंको पहले दूर करके उन्हें शिवतत्त्वका बोध कराते हैं, इसीलिये गुरु कहलाते हैं ॥ 83-85 ॥अतः बुद्धिमान् शिष्यको उन गुरुके शरीरको गुरुलिंग समझना चाहिये। गुरुजी की सेवा-शुश्रूषा हो गुरुलिंगकी पूजा होती है। शरीर, मन और वाणी की | गयी गुरुसेवासे शास्त्रज्ञान प्राप्त होता है। अपनी शक्तिसे शक्य अथवा अशक्य जिस बातका भी आदेश गुरुने दिया हो, उसका पालन प्राण और धन लगाकर पवित्रात्मा शिष्य करता है, इसीलिये इस प्रकार अनुशासित रहनेवालेको शिष्य कहा जाता है ॥ 86-88 ॥

सुशील शिष्यको शरीर धारणके सभी साधन गुरुको अर्पित करके तथा अन्नका पहला पाक उन्हें समर्पित करके उनकी आज्ञा लेकर भोजन करना चाहिये। शिष्यको निरन्तर गुरुके सान्निध्यके कारण पुत्र कहा जाता है। जिह्वारूप लिंगसे मन्त्ररूपी शुक्रका कानरूपी योनिमें आधान करके जो पुत्र उत्पन्न होता है, उसे मन्त्रपुत्र कहते हैं। उसे अपने पितास्वरूप गुरुकी सेवा करनी ही चाहिये। शरीरको उत्पन्न करनेवाला पिता तो संसारप्रपंचमें पुत्रको डुबोता है। ज्ञान देनेवाला गुरुरूप पिता संसारसागरसे पार कर देता है। इन दोनों पिताओंके अन्तरको जानकर गुरुरूप पिताकी अपने कमाये धनसे तथा अपने शरीर से विशेष सेवा-पूजा करनी चाहिये। पैरसे केशपर्यन्त जो गुरुके शरीरके अंग हैं, उनकी भिन्न-भिन्न प्रकारसे यथा-स्वयं अर्जित धनके द्वारा उपयोगकी सामग्री प्राप्त कराकर, अपने हाथोंसे पैर दबाकर, स्नान- अभिषेक आदि कराकर तथा नैवेद्य
भोजनादि देकर पूजा करनी चाहिये ।। 89 - 94 ॥ गुरुकी पूजा ही परमात्मा शिवकी पूजा है। गुरुके उपयोगसे बचा हुआ सारा पदार्थ आत्मशुद्धि करनेवाला होता है ॥ 95 ॥

हे द्विजो! गुरुका शेष, जल तथा अन्न आदिसे बना हुआ शिवोच्छिष्ट शिवभकों और शिष्यों के लिये ग्राह्य तथा भोज्य है। गुरुकी आज्ञाके बिना उपयोगमें लाया हुआ सब कुछ वैसा ही है, जैसे चोर चोरी करके लायी हुई वस्तुका उपयोग करता है। गुरुसे भी विशेष ज्ञानवान् पुरुष मिल जाय, तो उसे भी यत्नपूर्वक गुरु बना लेना चाहिये। अज्ञानरूपी बन्धनसे जीवमात्रके लिये साध्य पुरुषार्थ है। अतः जो विशेष ज्ञानवान् है, वही जीवको उस बन्धनसे छुड़ा सकता है।। 96-90924 llकर्मकी सांगोपांग पूर्ति के लिये पहले विघ्नशान्ति करनी चाहिये। निर्विघ्नतापूर्वक तथा सांग सम्पन्न हुआ कार्य ही सफल होता है। इसलिये सभी कर्मोंके प्रारम्भमें बुद्धिमान व्यक्तिको विघ्नविनाशक गणपतिका पूजन करना चाहिये। सभी बाधाओंको दूर करनेके | लिये विद्वान् व्यक्तिको सभी देवताओंकी पूजा करनी चाहिये ।। 98-992 ॥

ज्वर आदि ग्रन्थिरोग आध्यात्मिक बाधा कही जाती है पिशाच और सियार आदिका दीखना, बाँबीका जमीनपर उठ आना, अकस्मात् छिपकली आदि जन्तुओंका गिरना, घरमें कच्छप, साँप, दुष्ट स्त्रीका दीखना, वृक्ष, नारी और गौ आदिकी प्रसूतिका दर्शन होना आगामी दुःखका संकेत होता है। अतः यह आधिभौतिक बाधा मानी जाती है। किसी अपवित्र वस्तुका गिरना, बिजली गिरना, महामारी, ज्वरमारी, हैजा, गोमारी, मसूरिका (एक प्रकारका शीतला रोग), जन्मनक्षत्रपर ग्रहण, संक्रान्ति, अपनी राशिमें अनेक ग्रहोंका योग होना तथा दुःस्वप्नदर्शन आदि आधिदैविक बाधा कही जाती है ।। 100-1049/2 ॥ शव, चाण्डाल और पतितका स्पर्श अथवा | इनका घरके भीतर आना भावी दुःखका सूचक होता है। बुद्धिमान् व्यक्तिको चाहिये कि उस दोषकी शान्तिके लिये शान्तियज्ञ करे। किसी मन्दिर, गोशाला, यज्ञशाला अथवा घरके आँगनमें जहाँ दो हाथपर ऊँची जमीन हो, उसे अच्छी तरह साफ करके उसपर एक भार धान रखकर उसे फैला दे उसके बीचमें कमल बनाये तथा कोणसहित आठों दिशाओंमें भी कमल बना दे। फिर प्रधान कलशमें सूत्र बाँधकर तथा गुग्गुलकी धूप दिखाकर उसे बीचमें तथा दिशाओं में बनाये गये कमलोंपर अन्य आठ कलश स्थापित कर दे ॥ 105 - 109 ॥

आठ कलशोंमें कमल, आम्रपल्लव, कुशा डालकर [गन्ध आदि] पंचद्रव्योंसे युक्त मन्त्रपूत जलसे उन्हें भरे। उन समस्त कलशोंमें नीलम आदि नवरत्नोंको क्रमशः डालना चाहिये। तत्पश्चात् बुद्धिमान् यजमान कर्मकाण्डको जाननेवाले सपत्नीक आचार्यका वरणकरे। भगवान् विष्णुकी स्वर्णप्रतिमा तथा इन्द्रादि | देवताओंकी भी प्रतिमाएँ बनाकर उन कलशों छोड़े पूर्णपात्रसे ढके मध्यकलशपर भगवान् विष्णुका | आवाहन करके उनकी पूजा करे। पूर्व दिशासे प्रारम्भ करके सभी दिशाओंमें मन्त्रानुसार इन्द्रादिका क्रमश: पूजन करना चाहिये। उनके नामोंमें चतुर्थी विभक्तिसहित नमः का प्रयोग करते हुए उनका पूजन करना चाहिये ।। 110 - 113 ॥

आवाहनादि सारे कार्य आचार्यद्वारा सम्पन्न कराये तथा आचार्य और ऋत्विजोंसहित उन देवताओंके मन्त्रोंको सौ-सौ बार जपें। कलशोंकी पश्चिम दिशामें जपके बाद होम करना चाहिये। हे विद्वज्जनो! वह जपहोम करोड़, लाख, हजार अथवा 108 की संख्यामें हो सकता है। इस विधिसे एक दिन, नौ दिन अथवा चालीस दिनोंमें देश-कालकी व्यवस्थाके अनुसार [शान्तिवह] यथोचित रूपमें सम्पन्न करे ।। 114- 116 ll

शान्तिके लिये शमी तथा वृत्ति (रोजगार) के लिये पलाशकी समिधासे, अन्न, घृत तथा [सुगन्धित] द्रव्योंसे उन देवताओंके नाम अथवा मन्त्रोंसे हवन करना चाहिये। प्रारम्भमें जिस द्रव्यका उपयोग किया हो, अन्ततक उसीका प्रयोग करते रहना चाहिये। अन्तिम दिन पुण्याहवाचन कराकर कलशोंके जलसे | प्रोक्षण करना चाहिये। तत्पश्चात् आहुतिकी संख्या के बराबर ब्राह्मणोंको भोजन कराये। हे विद्वानो! आचार्य और ऋत्विजोंको हविष्यका भोजन कराना चाहिये ।। 117- 119 ।।

सूर्य आदि नवग्रहोंका होमके अन्तमें पूजन करना चाहिये। ऋत्विजोंको क्रमानुसार नवरत्नोंकी दक्षिणा देनी चाहिये। तत्पश्चात् दशदान करे और उसके बाद भूयसीदान करना चाहिये। बालक, पती गृहस्थाश्रमी और वानप्रस्थियोंको धनका दान करना चाहिये। तत्पश्चात् कन्या, सधवा और | विधवा स्त्रियोंको देनेके अनन्तर बची हुई तथा यज्ञमें बची हुई सारी सामग्री आचार्यको समर्पित कर देनी चाहिये ।। 120-122 ।।उत्पात, महामारी और दुःखोंके स्वामी यमराज माने जाते हैं। इसलिये यमराजकी प्रसन्नताके लिये कालप्रतिमाका दान करना चाहिये। सौ निष्क या दस निष्कके परिमाणकी पाश और अंकुश धारण की हुई पुरुषके आकारकी स्वर्णप्रतिमा बनाये। उस स्वर्णप्रतिमाका दक्षिणासहित दान करना चाहिये। उसके बाद पूर्णायु प्राप्त करने हेतु तिलका दान करना चाहिये रोगनिवारणके लिये घृतमें अपनी परछाई देखकर दान करना चाहिये। हजार ब्राह्मणोंको भोजन कराना चाहिये, धनाभावमें सौ अथवा यथाशक्ति ब्राह्मणोंको भोजन कराना चाहिये ll 123 - 1261/2 ll

भूत आदिकी शान्तिके लिये भैरवकी महापूजा करे । अन्तमें भगवान् शिवका महाभिषेक और नैवेद्य समर्पित करके ब्राह्मणोंको भूरिभोजन कराना चाहिये ll 127-128 ।।

इस प्रकार यज्ञ सम्पन्न करनेसे दोषोंकी शान्ति हो जाती है। इस शान्तियज्ञका प्रतिवर्ष फाल्गुनमासमें आयोजन करना चाहिये। अशुभ दर्शन होनेपर तुरंत अथवा एक महीनेके भीतर यज्ञका आयोजन करना चाहिये। महापाप हो जाय, तो भैरवकी पूजा करनी चाहिये। महाव्याधि हो जाय, तो यज्ञका पुनः संकल्प लेकर उसे सम्पन्न करना चाहिये। अकिंचन दरिद्र व्यक्ति तो केवल दीपदान कर दे। उतना भी न हो सके, तो स्नान करके कुछ दान कर दे। एक सौ आठ, एक हजार, दस हजार, एक लाख या एक करोड़ मन्त्रोंसे भगवान् सूर्यको नमस्कार करे। इस नमस्कारात्मक यज्ञसे सभी देवता प्रसन्न हो जाते हैं ॥ 129 - 133॥ भगवान् शिवकी इस प्रकार प्रार्थना करे मेरी बुद्धि आपके ज्योतिर्मय पूर्णस्वरूपमें लगी है। मुझमें जो अहंता थी, वह आपके दर्शनसे नष्ट हो गयी है। मैं अपनी देहसे आपको प्रणाम करता हूँ। हे प्रभो! आप महान् हैं। आप पूर्ण हैं और मेरा स्वरूप भी आप ही हैं, तो भी इस समय मैं आपका दास हूँ। इस प्रकार यथायोग्य नमस्कारपूर्वक स्वात्मयज्ञ करना चाहिये । तत्पश्चात् भगवान् शिवको नैवेद्य देकर ताम्बूल समर्पित
करना चाहिये 134- 136 ।।तब स्वयं 108 बार शिवकी प्रदक्षिणा करनी | चाहिये। एक हजार, दस हजार, एक लाख या करोड़ | प्रदक्षिणा दूसरोंके द्वारा करायी जा सकती है। शिवकी । प्रदक्षिणासे सारे पापोंका तत्क्षण नाश हो जाता है। दुःखका मूल व्याधि है और व्याधिका मूल पापमें होता है। धर्माचरणसे ही पापोंका नाश बताया गया है। भगवान् शिवके उद्देश्यसे किया गया धर्माचरण पापका नाश करने में समर्थ होता है ।। 137 - 139 ॥

शिवके धर्मो में प्रदक्षिणाको प्रधान कहा गया है। क्रियासे जपरूप होकर प्रणव ही प्रदक्षिणा बन जाता है। जन्म और मरणका द्वन्द्व ही मायाचक्र कहा गया है। शिवका मायाचक्र ही बलिपीठ कहलाता है। बलिपीठसे आरम्भ करके प्रदक्षिणाके क्रमसे एक पैरके पीछे दूसरा पैर रखते हुए बलिपीठमें पुनः प्रवेश करना चाहिये। तत्पश्चात् नमस्कार करना चाहिये। इसे प्रदक्षिणा कहा जाता है। बलिपीठसे बाहर निकलना जन्म प्राप्त होना और नमस्कार करना ही आत्मसमर्पण है ll 140-143 ll

जन्म और मरणरूप द्वन्द्व भगवान् शिवको मायासे प्राप्त है। जो इन दोनोंको शिवकी मायाको ही अर्पित कर देता है, वह फिर शरीरके बन्धनमें नहीं पड़ता। जबतक शरीर रहता है, तबतक जो क्रियाके ही अधीन है, वह जीव बद्ध कहलाता है। स्थूल, सूक्ष्म और कारण- तीनों शरीरोंको वशमें कर लेनेपर जीवका मोक्ष हो जाता है, ऐसा ज्ञानी पुरुषोंका कथन है। मायाचक्रके निर्माता भगवान् शिव ही परम कारण हैं। वे अपनी मायाके दिये हुए द्वन्द्वका स्वयं ही परिमार्जन करते हैं। | अतः शिवके द्वारा कल्पित हुआ द्वन्द्व उन्हींको समर्पित कर देना चाहिये ।। 144-1461/2 ॥

हे विद्वानो! प्रदक्षिणा और नमस्कार शिवको अतिप्रिय हैं, ऐसा जानना चाहिये। भगवान् शिवकी प्रदक्षिणा, नमस्कार और षोडशोपचार पूजन अत्यन्त फलदायी होता है। ऐसा कोई पाप इस पृथ्वीपर नहीं है, जो शिवप्रदक्षिणासे नष्ट न हो सके। इसलिये प्रदक्षिणाका आश्रय लेकर सभी पापोंका नाश कर लेना चाहिये ।। 147 - 149 ॥ जो शिवकी पूजामें तत्पर हो, वह मौन रहे, सत्य आदि गुणे संयुक्त हो तथा क्रिया जप, तप, जन और ध्यानसे एक एकका अनुष्ठान करता रहे। ऐश्वर्य, दिव्य शरीरकी प्राप्ति, ज्ञानका उदय, अज्ञानका निवारण और भगवान् शिवके सामीप्यका लाभ-ये क्रमशः क्रिया आदिके फल हैं। निष्काम कर्म करनेसे अज्ञानका निवारण हो जानेके कारण शिवभक्त पुरुष उसके यथोक्त फलको पाता है। शिवभक्त पुरुष देश, काल, शरीर और धनके अनुसार यथायोग्य क्रिया आदिका अनुष्ठान करे ।। 150-153 ॥ न्यायोपार्जित उत्तम धनसे निर्वाह करते हुए विद्वान् पुरुष शिवके स्थान में निवास करे। जीवहिंसा आदिसे रहित और अत्यन्त क्लेशशून्य जीवन बिताते हुए पंचाक्षर मन्त्र जपसे अभिमन्त्रित अन्न और जलको सुखस्वरूप माना गया है अथवा यह भी कहते हैं कि दरिद्र पुरुषके लिये भिक्षासे प्राप्त हुआ अन्न ज्ञान देनेवाला होता है, शिवभक्तको भिक्षान्न प्राप्त हो, तो वह शिवभक्तिको बढ़ानेवाला होता है। शिवयोगी पुरुष भिक्षान्नको शम्भुसत्र कहते हैं। जिस किसी भी उपायसे जहाँ कहीं भी भूतलपर शुद्ध अन्नका भोजन करते हुए सदा मौनभावसे रहे और अपने साधनका रहस्य किसीपर प्रकट न करे। भक्तोंके समक्ष ही शिवके माहात्म्यको प्रकाशित करे। शिवमन्त्र के रहस्यको भगवान् शिव ही जानते हैं, दूसरा कोई नहीं जान पाता ॥154 - 158 ll

शिवभक्तको सदा शिवलिंगके आश्रित होकर वास करना चाहिये। हे ब्राह्मणो! शिवलिंगाश्रयके प्रभावसे | वह भक्त भी शिवरूप ही हो जाता है। चरलिंगकी पूजा करने से वह क्रमशः अवश्य ही मुक्त हो जाता है। महर्षि व्यासने पूर्वकालमें जो कहा था और मैंने जैसा सुना था, उस सब साध्य और साधनका संक्षेपमें मैंने वर्णन कर दिया। आप सबका कल्याण हो और भगवान् शिवमें आपकी दृढ़ भक्ति बनी रहे। जो मनुष्य इस अध्यायका पाठ करता है अथवा जो इसे सुनता है, हे विज्ञजनो! वह भगवान् शिवकी कृपासे शिवज्ञानको प्राप्त कर लेता | है ।। 159 - 162 ।।

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] शौनकजीके साधनविषयक प्रश्न करनेपर सूतजीका उन्हें शिवमहापुराणकी महिमा सुनाना
  2. [अध्याय 2] शिवपुराणके श्रवणसे देवराजको शिवलोककी प्राप्ति
  3. [अध्याय 3] चंचुलाका पापसे भय एवं संसारसे वैराग्य
  4. [अध्याय 4] चंचुलाकी प्रार्थनासे ब्राह्मणका उसे पूरा शिवपुराण सुनाना और समयानुसार शरीर छोड़कर शिवलोकमें जा चंचुलाका पार्वतीजीकी सखी होना
  5. [अध्याय 5] चंचुलाके प्रयत्नसे पार्वतीजीकी आज्ञा पाकर तुम्बुरुका विन्ध्यपर्वतपर शिवपुराणकी कथा सुनाकर बिन्दुगका पिशाचयोनिसे उद्धार करना तथा उन दोनों दम्पतीका शिवधाममें सुखी होना
  6. [अध्याय 6] शिवपुराणके श्रवणकी विधि
  7. [अध्याय 7] श्रोताओंके पालन करनेयोग्य नियमोंका वर्णन
  1. [अध्याय 1] प्रयागमें सूतजीसे मुनियों का शीघ्र पापनाश करनेवाले साधनके विषयमें प्रश्न
  2. [अध्याय 2] शिवपुराणका माहात्म्य एवं परिचय
  3. [अध्याय 3] साध्य-साधन आदिका विचार
  4. [अध्याय 4] श्रवण, कीर्तन और मनन इन तीन साधनोंकी श्रेष्ठताका प्रतिपादन
  5. [अध्याय 5] भगवान् शिव लिंग एवं साकार विग्रहकी पूजाके रहस्य तथा महत्त्वका वर्णन
  6. [अध्याय 6] ब्रह्मा और विष्णुके भयंकर युद्धको देखकर देवताओंका कैलास शिखरपर गमन
  7. [अध्याय 7] भगवान् शंकरका ब्रह्मा और विष्णु के युद्धमें अग्निस्तम्भरूपमें प्राकट्य स्तम्भके आदि और अन्तकी जानकारीके लिये दोनोंका प्रस्थान
  8. [अध्याय 8] भगवान् शंकरद्वारा ब्रह्मा और केतकी पुष्पको शाप देना और पुनः अनुग्रह प्रदान करना
  9. [अध्याय 9] महेश्वरका ब्रह्मा और विष्णुको अपने निष्कल और सकल स्वरूपका परिचय देते हुए लिंगपूजनका महत्त्व बताना
  10. [अध्याय 10] सृष्टि, स्थिति आदि पाँच कृत्योंका प्रतिपादन, प्रणव एवं पंचाक्षर मन्त्रकी महत्ता, ब्रह्मा-विष्णुद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति तथा उनका अन्तर्धान होना
  11. [अध्याय 11] शिवलिंगकी स्थापना, उसके लक्षण और पूजनकी विधिका वर्णन तथा शिवपदकी प्राप्ति करानेवाले सत्कर्मोका विवेचन
  12. [अध्याय 12] मोक्षदायक पुण्यक्षेत्रोंका वर्णन, कालविशेषमें विभिन्न नदियोंके जलमें स्नानके उत्तम फलका निर्देश तथा तीर्थों में पापसे बचे रहनेकी चेतावनी
  13. [अध्याय 13] सदाचार, शौचाचार, स्नान, भस्मधारण, सन्ध्यावन्दन, प्रणव- जप, गायत्री जप, दान, न्यायतः धनोपार्जन तथा अग्निहोत्र आदिकी विधि एवं उनकी महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 14] अग्नियज्ञ, देवयज्ञ और ब्रह्मयज्ञ आदिका वर्णन, भगवान् शिवके द्वारा सातों वारोंका निर्माण तथा उनमें देवाराधनसे विभिन्न प्रकारके फलोंकी प्राप्तिका कथन
  15. [अध्याय 15] देश, काल, पात्र और दान आदिका विचार
  16. [अध्याय 16] मृत्तिका आदिसे निर्मित देवप्रतिमाओंके पूजनकी विधि, उनके लिये नैवेद्यका विचार, पूजनके विभिन्न उपचारोंका फल, विशेष मास, बार, तिथि एवं नक्षत्रोंके योगमें पूजनका विशेष फल तथा लिंगके वैज्ञानिक स्वरूपका विवेचन
  17. [अध्याय 17] लिंगस्वरूप प्रणवका माहात्म्य, उसके सूक्ष्म रूप (अकार) और स्थूल रूप (पंचाक्षर मन्त्र) का विवेचन, उसके जपकी विधि एवं महिमा, कार्यब्रह्मके लोकोंसे लेकर कारणरुद्रके लोकोंतकका विवेचन करके कालातीत, पंचावरणविशिष्ट शिवलोकके अनिर्वचनीय वैभवका निरूपण तथा शिवभक्तोंके सत्कारकी महत्ता
  18. [अध्याय 18] बन्धन और मोक्षका विवेचन, शिवपूजाका उपदेश, लिंग आदिमें शिवपूजनका विधान, भस्मके स्वरूपका निरूपण और महत्त्व, शिवके भस्मधारणका रहस्य, शिव एवं गुरु शब्दकी व्युत्पत्ति तथा विघ्नशान्तिके उपाय और शिवधर्मका निरूपण
  19. [अध्याय 19] पार्थिव शिवलिंगके पूजनका माहात्म्य
  20. [अध्याय 20] पार्थिव शिवलिंगके निर्माणकी रीति तथा वेद-मन्त्रोंद्वारा उसके पूजनकी विस्तृत एवं संक्षिप्त विधिका वर्णन
  21. [अध्याय 21] कामनाभेदसे पार्थिवलिंगके पूजनका विधान
  22. [अध्याय 22] शिव- नैवेद्य-भक्षणका निर्णय एवं बिल्वपत्रका माहात्म्य
  23. [अध्याय 23] भस्म, रुद्राक्ष और शिवनामके माहात्म्यका वर्णन
  24. [अध्याय 24] भस्म-माहात्म्यका निरूपण
  25. [अध्याय 25] रुद्राक्षधारणकी महिमा तथा उसके विविध भेदोंका वर्णन
  1. [अध्याय 1] ऋषियोंके प्रश्नके उत्तरमें श्रीसूतजीद्वारा नारद -ब्रह्म -संवादकी अवतारणा
  2. [अध्याय 2] नारद मुनिकी तपस्या, इन्द्रद्वारा तपस्यामें विघ्न उपस्थित करना, नारदका कामपर विजय पाना और अहंकारसे युक्त होकर ब्रह्मा, विष्णु और रुद्रसे अपने तपका कथन
  3. [अध्याय 3] मायानिर्मित नगरमें शीलनिधिकी कन्यापर मोहित हुए नारदजीका भगवान् विष्णुसे उनका रूप माँगना, भगवान्‌का अपने रूपके साथ वानरका सा मुँह देना, कन्याका भगवान्‌को वरण करना और कुपित हुए नारदका शिवगणोंको शाप देना
  4. [अध्याय 4] नारदजीका भगवान् विष्णुको क्रोधपूर्वक फटकारना और शाप देना, फिर मायाके दूर हो जानेपर पश्चात्तापपूर्वक भगवान्‌के चरणोंमें गिरना और शुद्धिका उपाय पूछना तथा भगवान् विष्णुका उन्हें समझा-बुझाकर शिवका माहात्म्य जाननेके लिये ब्रह्माजीके पास जानेका आदेश और शिवके भजनका उपदेश देना
  5. [अध्याय 5] नारदजीका शिवतीर्थोंमें भ्रमण, शिवगणोंको शापोद्धारकी बात बताना तथा ब्रह्मलोकमें जाकर ब्रह्माजीसे शिवतत्त्वके विषयमें प्रश्न करना
  6. [अध्याय 6] महाप्रलयकालमें केवल सबाकी सत्ताका प्रतिपादन, उस निर्गुण-निराकार ब्रह्मसे ईश्वरमूर्ति (सदाशिव) का प्राकट्य, सदाशिवद्वारा स्वरूपभूत शक्ति (अम्बिका ) - का प्रकटीकरण, उन दोनोंके द्वारा उत्तम क्षेत्र (काशी या आनन्दवन ) का प्रादुर्भाव, शिवके वामांगसे परम पुरुष (विष्णु) का आविर्भाव तथा उनके सकाशसे प्राकृत तत्त्वोंकी क्रमशः उत्पत्तिका वर्णन
  7. [अध्याय 7] भगवान् विष्णुकी नाभिसे कमलका प्रादुर्भाव, शिवेच्छासे ब्रह्माजीका उससे प्रकट होना, कमलनालके उद्गमका पता लगानेमें असमर्थ ब्रह्माका तप करना, श्रीहरिका उन्हें दर्शन देना, विवादग्रस्त ब्रह्मा-विष्णुके बीचमें अग्निस्तम्भका प्रकट होना तथा उसके ओर छोरका पता न पाकर उन दोनोंका उसे प्रणाम करना
  8. [अध्याय 8] ब्रह्मा और विष्णुको भगवान् शिवके शब्दमय शरीरका दर्शन
  9. [अध्याय 9] उमासहित भगवान् शिवका प्राकट्य उनके द्वारा अपने स्वरूपका विवेचन तथा ब्रह्मा आदि तीनों देवताओंकी एकताका प्रतिपादन
  10. [अध्याय 10] श्रीहरिको सृष्टिकी रक्षाका भार एवं भोग-मोक्ष-दानका अधिकार देकर भगवान् शिवका अन्तर्धान होना
  11. [अध्याय 11] शिवपूजनकी विधि तथा उसका फल
  12. [अध्याय 12] भगवान् शिवकी श्रेष्ठता तथा उनके पूजनकी अनिवार्य आवश्यकताका प्रतिपादन
  13. [अध्याय 13] शिवपूजनकी सर्वोत्तम विधिका वर्णन
  14. [अध्याय 14] विभिन्न पुष्पों, अन्नों तथा जलादिकी धाराओंसे शिवजीकी पूजाका माहात्म्य
  15. [अध्याय 15] सृष्टिका वर्णन
  16. [अध्याय 16] ब्रह्माजीकी सन्तानोंका वर्णन तथा सती और शिवकी महत्ताका प्रतिपादन
  17. [अध्याय 17] यज्ञदत्तके पुत्र गुणनिधिका चरित्र
  18. [अध्याय 18] शिवमन्दिरमें दीपदानके प्रभावसे पापमुक्त होकर गुणनिधिका दूसरे जन्ममें कलिंगदेशका राजा बनना और फिर शिवभक्तिके कारण कुबेर पदकी प्राप्ति
  19. [अध्याय 19] कुबेरका काशीपुरीमें आकर तप करना, तपस्यासे प्रसन्न उमासहित भगवान् विश्वनाथका प्रकट हो उसे दर्शन देना और अनेक वर प्रदान करना, कुबेरद्वारा शिवमैत्री प्राप्त करना
  20. [अध्याय 20] भगवान् शिवका कैलास पर्वतपर गमन तथा सृष्टिखण्डका उपसंहार
  1. [अध्याय 1] सतीचरित्रवर्णन, दक्षयज्ञविध्वंसका संक्षिप्त वृत्तान्त तथा सतीका पार्वतीरूपमें हिमालयके यहाँ जन्म लेना
  2. [अध्याय 2] सदाशिवसे त्रिदेवोंकी उत्पत्ति, ब्रह्माजीसे देवता आदिकी सृष्टिके पश्चात् देवी सन्ध्या तथा कामदेवका प्राकट्य
  3. [अध्याय 3] कामदेवको विविध नामों एवं वरोंकी प्राप्ति कामके प्रभावसे ब्रह्मा तथा ऋषिगणोंका मुग्ध होना, धर्मद्वारा स्तुति करनेपर भगवान् शिवका प्राकट्य और ब्रह्मा तथा ऋषियोंको समझाना, ब्रह्मा तथा ऋषियोंसे अग्निष्वात्त आदि पितृगणोंकी उत्पत्ति, ब्रह्माद्वारा कामको शापकी प्राप्ति तथा निवारणका उपाय
  4. [अध्याय 4] कामदेवके विवाहका वर्णन
  5. [अध्याय 5] ब्रह्माकी मानसपुत्री कुमारी सन्ध्याका आख्यान
  6. [अध्याय 6] सन्ध्याद्वारा तपस्या करना, प्रसन्न हो भगवान् शिवका उसे दर्शन देना, सन्ध्याद्वारा की गयी शिवस्तुति, सन्ध्याको अनेक वरोंकी प्राप्ति तथा महर्षि मेधातिथिके यज्ञमें जानेका आदेश प्राप्त होना
  7. [अध्याय 7] महर्षि मेधातिथिकी यज्ञाग्निमें सन्ध्याद्वारा शरीरत्याग, पुनः अरुन्धतीके रूपमें ज्ञाग्नि उत्पत्ति एवं वसिष्ठमुनिके साथ उसका विवाह
  8. [अध्याय 8] कामदेवके सहचर वसन्तके आविर्भावका वर्णन
  9. [अध्याय 9] कामदेवद्वारा भगवान् शिवको विचलित न कर पाना, ब्रह्माजीद्वारा कामदेवके सहायक मारगणोंकी उत्पत्ति; ब्रह्माजीका उन सबको शिवके पास भेजना, उनका वहाँ विफल होना, गणोंसहित कामदेवका वापस अपने आश्रमको लौटना
  10. [अध्याय 10] ब्रह्मा और विष्णुके संवादमें शिवमाहात्म्यका वर्णन
  11. [अध्याय 11] ब्रह्माद्वारा जगदम्बिका शिवाकी स्तुति तथा वरकी प्राप्ति
  12. [अध्याय 12] दक्षप्रजापतिका तपस्याके प्रभावसे शक्तिका दर्शन और उनसे रुद्रमोहनकी प्रार्थना करना
  13. [अध्याय 13] ब्रह्माकी आज्ञासे दक्षद्वारा मैथुनी सृष्टिका आरम्भ, अपने पुत्र हर्यश्वों तथा सबलाश्वोंको निवृत्तिमार्गमें भेजने के कारण दक्षका नारदको शाप देना
  14. [अध्याय 14] दक्षकी साठ कन्याओंका विवाह, दक्षके यहाँ देवी शिवा (सती) - का प्राकट्य, सतीकी बाललीलाका वर्णन
  15. [अध्याय 15] सतीद्वारा नन्दा व्रतका अनुष्ठान तथा देवताओंद्वारा शिवस्तुति
  16. [अध्याय 16] ब्रह्मा और विष्णुद्वारा शिवसे विवाहके लिये प्रार्थना करना तथा उनकी इसके लिये स्वीकृति
  17. [अध्याय 17] भगवान् शिवद्वारा सतीको वरप्राप्ति और शिवका ब्रह्माजीको दक्ष प्रजापतिके पास भेजना
  18. [अध्याय 18] देवताओं और मुनियोंसहित भगवान् शिवका दक्षके घर जाना, दक्षद्वारा सबका सत्कार एवं सती तथा शिवका विवाह
  19. [अध्याय 19] शिवका सतीके साथ विवाह, विवाहके समय शम्भुकी मायासे ब्रह्माका मोहित होना और विष्णुद्वारा शिवतत्त्वका निरूपण
  20. [अध्याय 20] ब्रह्माजीका 'रुद्रशिर' नाम पड़नेका कारण, सती एवं शिवका विवाहोत्सव, विवाहके अनन्तर शिव और सतीका वृषभारूढ़ हो कैलासके लिये प्रस्थान
  21. [अध्याय 21] कैलास पर्वत पर भगवान् शिव एवं सतीकी मधुर लीलाएँ
  22. [अध्याय 22] सती और शिवका बिहार- वर्णन
  23. [अध्याय 23] सतीके पूछनेपर शिवद्वारा भक्तिकी महिमा तथा नवधा भक्तिका निरूपण
  24. [अध्याय 24] दण्डकारण्यमें शिवको रामके प्रति मस्तक झुकाते देख सतीका मोह तथा शिवकी आज्ञासे उनके द्वारा रामकी परीक्षा
  25. [अध्याय 25] श्रीशिवके द्वारा गोलोकधाममें श्रीविष्णुका गोपेशके पदपर अभिषेक, श्रीरामद्वारा सतीके मनका सन्देह दूर करना, शिवद्वारा सतीका मानसिक रूपसे परित्याग
  26. [अध्याय 26] सतीके उपाख्यानमें शिवके साथ दक्षका विरोधवर्णन
  27. [अध्याय 27] दक्षप्रजापतिद्वारा महान् यज्ञका प्रारम्भ, यज्ञमें दक्षद्वारा शिवके न बुलाये जानेपर दधीचिद्वारा दक्षकी भर्त्सना करना, दक्षके द्वारा शिव-निन्दा करनेपर दधीचिका वहाँसे प्रस्थान
  28. [अध्याय 28] दक्षयज्ञका समाचार पाकर एवं शिवकी आज्ञा प्राप्तकर देवी सतीका शिवगणोंके साथ पिताके यज्ञमण्डपके लिये प्रस्थान
  29. [अध्याय 29] यज्ञशाला में शिवका भाग न देखकर तथा दक्षद्वारा शिवनिन्दा सुनकर क्रुद्ध हो सतीका दक्ष तथा देवताओंको फटकारना और प्राणत्यागका निश्चय
  30. [अध्याय 30] दक्षयज्ञमें सतीका योगाग्निसे अपने शरीरको भस्म कर देना, भृगुद्वारा यज्ञकुण्डसे ऋभुओंको प्रकट करना, ऋभुओं और शंकरके गणोंका युद्ध, भयभीत गणोंका पलायित होना
  31. [अध्याय 31] यज्ञमण्डपमें आकाशवाणीद्वारा दक्षको फटकारना तथा देवताओंको सावधान करना
  32. [अध्याय 32] सतीके दग्ध होनेका समाचार सुनकर कुपित हुए शिवका अपनी जटासे वीरभद्र और महाकालीको प्रकट करके उन्हें यज्ञ विध्वंस करनेकी आज्ञा देना
  33. [अध्याय 33] गणोंसहित वीरभद्र और महाकालीका दक्षयज्ञ विध्वंसके लिये प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] दक्ष तथा देवताओंका अनेक अपशकुनों एवं उत्पात सूचक लक्षणोंको देखकर भयभीत होना
  35. [अध्याय 35] दक्षद्वारा यज्ञकी रक्षाके लिये भगवान् विष्णुसे प्रार्थना, भगवान्‌का शिवद्रोहजनित संकटको टालनेमें अपनी असमर्थता बताते हुए दक्षको समझाना तथा सेनासहित वीरभद्रका आगमन
  36. [अध्याय 36] युद्धमें शिवगणोंसे पराजित हो देवताओंका पलायन, इन्द्र आदिके पूछनेपर बृहस्पतिका रुद्रदेवकी अजेयता बताना, वीरभद्रका देवताओंको बुद्धके लिये ललकारना, श्रीविष्णु और वीरभद्रकी बातचीत
  37. [अध्याय 37] गणसहित वीरभद्रद्वारा दक्षयज्ञका विध्वंस, दक्षवध, वीरभद्रका वापस कैलास पर्वतपर जाना, प्रसन्न भगवान् शिवद्वारा उसे गणाध्यक्ष पद प्रदान करना
  38. [अध्याय 38] दधीचि मुनि और राजा ध्रुवके विवादका इतिहास, शुक्राचार्यद्वारा दधीचिको महामृत्युंजयमन्त्रका उपदेश, मृत्युंजयमन्त्र के अनुष्ठानसे दधीचिको अवध्यताकी प्राप्ति
  39. [अध्याय 39] श्रीविष्णु और देवताओंसे अपराजित दधीचिद्वारा देवताओंको शाप देना तथा राजा ध्रुवपर अनुग्रह करना
  40. [अध्याय 40] देवताओंसहित ब्रह्माका विष्णुलोकमें जाकर अपना दुःख निवेदन करना, उन सभीको लेकर विष्णुका कैलासगमन तथा भगवान् शिवसे मिलना
  41. [अध्याय 41] देवताओं द्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  42. [अध्याय 42] भगवान् शिवका देवता आदिपर अनुग्रह, दक्षयज्ञ मण्डपमें पधारकर दक्षको जीवित करना तथा दक्ष और विष्णु आदिद्वारा शिवकी स्तुति
  43. [अध्याय 43] भगवान् शिवका दक्षको अपनी भक्तवत्सलता, ज्ञानी भक्तकी श्रेष्ठता तथा तीनों देवोंकी एकता बताना, दक्षका अपने यज्ञको पूर्ण करना, देवताओंका अपने-अपने लोकोंको प्रस्थान तथा सतीखण्डका उपसंहार और माहात्म्य
  1. [अध्याय 1] पितरोंकी कन्या मेनाके साथ हिमालयके विवाहका वर्णन
  2. [अध्याय 2] पितरोंकी तीन मानसी कन्याओं-मेना, धन्या और कलावतीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त तथा सनकादिद्वारा प्राप्त शाप एवं वरदानका वर्णन
  3. [अध्याय 3] विष्णु आदि देवताओंका हिमालयके पास जाना, उन्हें उमाराधनकी विधि बता स्वयं भी देवी जगदम्बाकी स्तुति करना
  4. [अध्याय 4] उमादेवीका दिव्यरूपमें देवताओंको दर्शन देना और अवतार ग्रहण करनेका आश्वासन देना
  5. [अध्याय 5] मेनाकी तपस्यासे प्रसन्न होकर देवीका उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन देकर वरदान देना, मेनासे मैनाकका जन्म
  6. [अध्याय 6] देवी उमाका हिमवान्‌के हृदय तथा मेनाके गर्भमें आना, गर्भस्था देवीका देवताओं द्वारा स्तवन, देवीका दिव्यरूपमें प्रादुर्भाव, माता मेनासे वार्तालाप तथा पुनः नवजात कन्याके रूपमें परिवर्तित होना
  7. [अध्याय 7] पार्वतीका नामकरण तथा उनकी बाललीलाएँ एवं विद्याध्ययन
  8. [अध्याय 8] नारद मुनिका हिमालयके समीप गमन, वहाँ पार्वतीका हाथ देखकर भावी लक्षणोंको बताना, चिन्तित हिमवान्‌को शिवमहिमा बताना तथा शिवसे विवाह करनेका परामर्श देना
  9. [अध्याय 9] पार्वतीके विवाहके सम्बन्धमें मेना और हिमालयका वार्तालाप, पार्वती और हिमालयद्वारा देखे गये अपने स्वप्नका वर्णन
  10. [अध्याय 10] शिवजीके ललाटसे भौमोत्पत्ति
  11. [अध्याय 11] भगवान् शिवका तपस्याके लिये हिमालयपर आगमन, वहाँ पर्वतराज हिमालयसे वार्तालाप
  12. [अध्याय 12] हिमवान्‌का पार्वतीको शिवकी सेवामें रखनेके लिये उनसे आज्ञा मांगना, शिवद्वारा कारण बताते हुए इस प्रस्तावको अस्वीकार कर देना
  13. [अध्याय 13] पार्वती और परमेश्वरका दार्शनिक संवाद, शिवका पार्वतीको अपनी सेवाके लिये आज्ञा देना, पार्वतीका महेश्वरकी सेवामें तत्पर रहना
  14. [अध्याय 14] तारकासुरकी उत्पत्तिके प्रसंगों दितिपुत्र बज्रांगकी कथा, उसकी तपस्या तथा वरप्राप्तिका वर्णन
  15. [अध्याय 15] वरांगीके पुत्र तारकासुरकी उत्पत्ति, तारकासुरकी तपस्या एवं ब्रह्माजीद्वारा उसे वरप्राप्ति, वरदानके प्रभावसे तीनों लोकोंपर उसका अत्याचार
  16. [अध्याय 16] तारकासुरसे उत्पीड़ित देवताओंको ब्रह्माजीद्वारा सान्त्वना प्रदान करना
  17. [अध्याय 17] इन्द्रके स्मरण करनेपर कामदेवका उपस्थित होना, शिवको तपसे विचलित करनेके लिये इन्द्रद्वारा कामदेवको भेजना
  18. [अध्याय 18] कामदेवद्वारा असमयमें वसन्त ऋतुका प्रभाव प्रकट करना, कुछ क्षणके लिये शिवका मोहित होना, पुनः वैराग्य भाव धारण करना
  19. [अध्याय 19] भगवान् शिवकी नेत्रज्वालासे कामदेवका भस्म होना और रतिका विलाप, देवताओं द्वारा रतिको सान्त्वना प्रदान करना और भगवान् शिवसे कामको जीवित करनेकी प्रार्थना करना
  20. [अध्याय 20] शिवकी क्रोधाग्निका वडवारूप धारण और ब्रह्माद्वारा उसे समुद्रको समर्पित करना
  21. [अध्याय 21] कामदेवके भस्म हो जानेपर पार्वतीका अपने घर आगमन, हिमवान् तथा मेनाद्वारा उन्हें धैर्य प्रदान करना, नारदद्वारा पार्वतीको पंचाक्षर मन्त्रका उपदेश
  22. [अध्याय 22] पार्वतीकी तपस्या एवं उसके प्रभावका वर्णन
  23. [अध्याय 23] हिमालय आदिका तपस्यानिरत पार्वतीके पास जाना, पार्वतीका पिता हिमालय आदिको अपने तपके विषयमें दृढ़ निश्चयकी बात बताना, पार्वतीके तपके प्रभावसे त्रैलोक्यका संतप्त होना, सभी देवताओंका भगवान् शंकरके पास जाना
  24. [अध्याय 24] देवताओंका भगवान् शिवसे पार्वतीके साथ विवाह करनेका अनुरोध, भगवान्का विवाहके दोष बताकर अस्वीकार करना तथा उनके पुनः प्रार्थना करनेपर स्वीकार कर लेना
  25. [अध्याय 25] भगवान् शंकरकी आज्ञासे सप्तर्षियोंद्वारा पार्वतीके शिवविषयक अनुरागकी परीक्षा करना और वह वृत्तान्त भगवान् शिवको बताकर स्वर्गलोक जाना
  26. [अध्याय 26] पार्वतीकी परीक्षा लेनेके लिये भगवान् शिवका जटाधारी ब्राह्मणका वेष धारणकर पार्वतीके समीप जाना, शिव-पार्वती संवाद
  27. [अध्याय 27] जटाधारी ब्राह्मणद्वारा पार्वतीके समक्ष शिवजीके स्वरूपकी निन्दा करना
  28. [अध्याय 28] पार्वतीद्वारा परमेश्वर शिवकी महत्ता प्रतिपादित करना और रोषपूर्वक जटाधारी ब्राह्मणको फटकारना, शिवका पार्वतीके समक्ष प्रकट होना
  29. [अध्याय 29] शिव और पार्वतीका संवाद, विवाहविषयक पार्वतीके अनुरोधको शिवद्वारा स्वीकार करना
  30. [अध्याय 30] पार्वतीके पिताके घरमें आनेपर महामहोत्सवका होना, महादेवजीका नटरूप धारणकर वहाँ उपस्थित होना तथा अनेक लीलाएँ दिखाना, शिवद्वारा पार्वतीकी याचना, किंतु माता-पिताके द्वारा मना करनेपर अन्तर्धान हो जाना
  31. [अध्याय 31] देवताओंके कहनेपर शिवका ब्राह्मण वेषमें हिमालयके यहाँ जाना और शिवकी निन्दा करना
  32. [अध्याय 32] ब्राह्मण वेषधारी शिवद्वारा शिवस्वरूपकी निन्दा सुनकर मेनाका कोपभवनमें गमन शिवद्वारा सप्तर्षियोंका स्मरण और उन्हें हिमालयके घर भेजना, हिमालयकी शोभाका वर्णन तथा हिमालयद्वारा सप्तर्षियोंका स्वागत
  33. [अध्याय 33] वसिष्ठपत्नी अरुन्धती reद्वारा मेना को समझाना तथा
  34. [अध्याय 34] सप्तर्षियोंद्वारा हिमालयको राजा अनरण्यका आख्यान सुनाकर पार्वतीका विवाह शिवसे करनेकी प्रेरणा देना
  35. [अध्याय 35] धर्मराजद्वारा मुनि पिप्पलादकी भार्या सती पद्माके पातिव्रत्यकी परीक्षा, पद्माद्वारा धर्मराजको शाप प्रदान करना तथा पुनः चारों युगोंमें शापकी व्यवस्था करना, पातिव्रत्यसे प्रसन्न हो धर्मराजद्वारा पद्माको अनेक वर प्रदान करना, महर्षि वसिष्ठद्वारा हिमवान्से पद्माके दृष्टान्तद्वारा अपनी पुत्री शिवको सौंपनेके लिये कहना
  36. [अध्याय 36] सप्तर्षियोंके समझानेपर हिमवान्‌का शिवके साथ अपनी पुत्रीके विवाहका निश्चय करना, सप्तर्षियोंद्वारा शिवके पास जाकर उन्हें सम्पूर्ण वृत्तान्त बताकर अपने धामको जाना
  37. [अध्याय 37] हिमालयद्वारा विवाहके लिये लग्नपत्रिकाप्रेषण, विवाहकी सामग्रियोंकी तैयारी तथा अनेक पर्वतों एवं नदियोंका दिव्य रूपमें सपरिवार हिमालयके घर आगमन
  38. [अध्याय 38] हिमालयपुरीकी सजावट, विश्वकर्माद्वारा दिव्यमण्डप एवं देवताओंके निवासके लिये दिव्यलोकोंका निर्माण करना
  39. [अध्याय 39] भगवान् शिवका नारदजीके द्वारा सब देवताओंको निमन्त्रण दिलाना, सबका आगमन तथा शिवका मंगलाचार एवं ग्रहपूजन आदि करके कैलाससे बाहर निकलना
  40. [अध्याय 40] शिवबरातकी शोभा भगवान् शिवका बरात लेकर हिमालयपुरीकी ओर प्रस्थान
  41. [अध्याय 41] नारदद्वारा हिमालयगृहमें जाकर विश्वकर्माद्वारा बनाये गये विवाहमण्डपका दर्शनकर मोहित होना और वापस आकर उस विचित्र रचनाका वर्णन करना
  42. [अध्याय 42] हिमालयद्वारा प्रेषित मूर्तिमान् पर्वतों और ब्राह्मणोंद्वारा बरातकी अगवानी, देवताओं और पर्वतोंके मिलापका वर्णन
  43. [अध्याय 43] मेनाद्वारा शिवको देखनेके लिये महलकी छतपर जाना, नारदद्वारा सबका दर्शन कराना, शिवद्वारा अद्भुत लीलाका प्रदर्शन, शिवगणों तथा शिवके भयंकर वेषको देखकर मेनाका मूर्च्छित होना
  44. [अध्याय 44] शिवजीके रूपको देखकर मेनाका विलाप, पार्वती तथा नारद आदि सभीको फटकारना, शिवके साथ कन्याका विवाह न करनेका हठ, विष्णुद्वारा मेनाको समझाना
  45. [अध्याय 45] भगवान् शिवका अपने परम सुन्दर दिव्य रूपको प्रकट करना, मेनाकी प्रसन्नता और क्षमा प्रार्थना तथा पुरवासिनी स्त्रियोंका शिवके रूपका दर्शन करके जन्म और जीवनको सफल मानना
  46. [अध्याय 46] नगरमें बरातियोंका प्रवेश द्वाराचार तथा पार्वतीद्वारा कुलदेवताका पूजन
  47. [अध्याय 47] पाणिग्रहण के लिये हिमालयके घर शिवके गमनोत्सवका वर्णन
  48. [अध्याय 48] शिव-पार्वती विवाहका प्रारम्भ, हिमालयद्वारा शिवके गोत्रके विषयमें प्रश्न होनेपर नारदजीके द्वारा उत्तरके रूपमें शिवमाहात्म्य प्रतिपादित करना, हर्षयुक्त हिमालयद्वारा कन्यादानकर विविध उपहार प्रदान करना
  49. [अध्याय 49] अग्निपरिक्रमा करते समय पार्वतीके पदनखको देखकर ब्रह्माका मोहग्रस्त होना, बालखिल्योंकी उत्पत्ति, शिवका कुपित होना, देवताओंद्वारा शिवस्तुति
  50. [अध्याय 50] शिवा शिवके विवाहकृत्यसम्पादनके अनन्तर देवियोंका शिवसे मधुर वार्तालाप
  51. [अध्याय 51] रतिके अनुरोधपर श्रीशंकरका कामदेवको जीवित करना, देवताओंद्वारा शिवस्तुति
  52. [अध्याय 52] हिमालयद्वारा सभी बरातियोंको भोजन कराना, शिवका विश्वकर्माद्वारा निर्मित वासगृहमें शयन करके प्रातःकाल जनवासेमें आगमन
  53. [अध्याय 53] चतुर्थीकर्म, बरातका कई दिनोंतक ठहरना, सप्तर्षियोंके समझानेसे हिमालयका बरातको विदा करनेके लिये राजी होना, मेनाका शिवको अपनी कन्या सौंपना तथा बरातका पुरीके बाहर जाकर ठहरना
  54. [अध्याय 54] मेनाकी इच्छा अनुसार एक ब्राह्मणपत्नीका पार्वतीको पातिव्रतधर्मका उपदेश देना
  55. [अध्याय 55] शिव-पार्वती तथा बरातकी विदाई, भगवान् शिवका समस्त देवताओंको विदा करके कैलासपर रहना और शिव विवाहोपाख्यानके श्रवणकी महिमा
  1. [अध्याय 1] कैलासपर भगवान् शिव एवं पार्वतीका बिहार
  2. [अध्याय 2] भगवान् शिवके तेजसे स्कन्दका प्रादुर्भाव और सर्वत्र महान् आनन्दोत्सवका होना
  3. [अध्याय 3] महर्षि विश्वामित्रद्वारा बालक स्कन्दका संस्कार सम्पन्न करना, बालक स्कन्दद्वारा क्रौंच पर्वतका भेदन, इन्द्रद्वारा बालकपर वज्रप्रहार, शाख-विशाख आदिका उत्पन्न होना, कार्तिकेयका षण्मुख होकर छः कृत्तिकाओंका दुग्धपान करना
  4. [अध्याय 4] पार्वतीके कहनेपर शिवद्वारा देवताओं तथा कर्मसाक्षी धर्मादिकोंसे कार्तिकेयके विषयमें जिज्ञासा करना और अपने गणोंको कृत्तिकाओंके पास भेजना, नन्दिकेश्वर तथा कार्तिकेयका वार्तालाप, कार्तिकेयका कैलासके लिये प्रस्थान
  5. [अध्याय 5] पार्वतीके द्वारा प्रेषित रथपर आरूढ़ हो कार्तिकेयका कैलासगमन, कैलासपर महान् उत्सव होना, कार्तिकेयका महाभिषेक तथा देवताओंद्वारा विविध अस्त्र-शस्त्र तथा रत्नाभूषण प्रदान करना, कार्तिकेयका ब्रह्माण्डका अधिपतित्व प्राप्त करना
  6. [अध्याय 6] कुमार कार्तिकेयकी ऐश्वर्यमयी बाललीला
  7. [अध्याय 7] तारकासुरसे सम्बद्ध देवासुर संग्राम
  8. [अध्याय 8] देवराज इन्द्र, विष्णु तथा वीरक आदिके साथ तारकासुर का युद्ध
  9. [अध्याय 9] ब्रह्माजीका कार्तिकेयको तारकके वधके लिये प्रेरित करना, तारकासुरद्वारा विष्णु तथा इन्द्रकी भर्त्सना, पुनः इन्द्रादिके साथ तारकासुरका युद्ध
  10. [अध्याय 10] कुमार कार्तिकेय और तारकासुरका भीषण संग्राम, कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध, देवताओं द्वारा दैत्यसेनापर विजय प्राप्त करना, सर्वत्र विजयोल्लास, देवताओं द्वारा शिक्षा शिव तथा कुमारकी स्तुति
  11. [अध्याय 11] कार्तिकेयद्वारा बाण तथा प्रलम्ब आदि असुरोंका वध, कार्तिकेयचरितके श्रवणका माहात्म्य
  12. [अध्याय 12] विष्णु आदि देवताओं तथा पर्वतोंद्वारा कार्तिकेयकी स्तुति और वरप्राप्ति, देवताओंके साथ कुमारका कैलासगमन, कुमारको देखकर शिव-पार्वतीका आनन्दित होना, देवोंद्वारा शिवस्तुति
  13. [अध्याय 13] गणेशोत्पत्तिका आख्यान, पार्वतीका अपने पुत्र गणेशको अपने द्वारपर नियुक्त करना, शिव और गणेशका वार्तालाप
  14. [अध्याय 14] द्वाररक्षक गणेश तथा शिवगणोंका परस्पर विवाद
  15. [अध्याय 15] गणेश तथा शिवगणोंका भयंकर युद्ध, पार्वतीद्वारा दो शक्तियोंका प्राकट्य, शक्तियोंका अद्भुत पराक्रम और शिवका कुपित होना
  16. [अध्याय 16] विष्णु तथा गणेशका युद्ध, शिवद्वारा त्रिशूलसे गणेशका सिर काटा जाना
  17. [अध्याय 17] पुत्रके वधसे कुपित जगदम्बाका अनेक शक्तियोंको उत्पन्न करना और उनके द्वारा प्रलय मचाया जाना, देवताओं और ऋषियोंका स्तवनद्वारा पार्वतीको प्रसन्न करना, शिवजीके आज्ञानुसार हाथीका सिर लाया जाना और उसे गणेशके धड़से जोड़कर उन्हें जीवित करना
  18. [अध्याय 18] पार्वतीद्वारा गणेशको वरदान, देवोंद्वारा उन्हें अग्रपूज्य माना जाना, शिवजीद्वारा गणेशको सर्वाध्यक्षपद प्रदान करना, गणेशचतुर्थी व्रतविधान तथा उसका माहात्म्य, देवताओंका स्वलोक गमन
  19. [अध्याय 19] स्वामिकार्तिकेय और गणेशकी बाल लीला, विवाहके विषयमें दोनोंका परस्पर विवाद, शिवजीद्वारा पृथ्वी परिक्रमाका आदेश, कार्तिकेयका प्रस्थान, बुद्धिमान् गणेशजीका पृथ्वीरूप माता-पिताकी परिक्रमा और प्रसन्न शिवा-शिवद्वारा गणेशके प्रथम विवाहकी स्वीकृति
  20. [अध्याय 20] प्रजापति विश्वरूपकी सिद्धि तथा बुद्धि नामक दो कन्याओंके साथ गणेशजीका विवाह तथा उनसे 'क्षेम' तथा 'लाभ' नामक दो पुत्रोंकी उत्पत्ति, कुमार कार्तिकेयका पृथ्वी की परिक्रमाकर लौटना और क्षुब्ध होकर क्रौंचपर्वतपर चले जाना, कुमारखण्डके श्रवणकी महिमा
  1. [अध्याय 1] तारकासुरके पुत्र तारकाक्ष, विद्युन्माली एवं कमलाक्षकी तपस्यासे प्रसन्न ब्रह्माद्वारा उन्हें वरकी प्राप्ति, तीनों पुरोंकी शोभाका वर्णन
  2. [अध्याय 2] तारकपुत्रोंसे पीड़ित देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और उनके परामर्शके अनुसार असुर- वधके लिये भगवान् शंकरकी स्तुति करना
  3. [अध्याय 3] त्रिपुरके विनाशके लिये देवताओंका विष्णुसे निवेदन करना, विष्णुद्वारा त्रिपुरविनाशके लिये यज्ञकुण्डसे भूतसमुदायको प्रकट करना, त्रिपुरके भयसे भूतोंका पलायित होना, पुनः विष्णुद्वारा देवकार्यकी सिद्धिके लिये उपाय सोचना
  4. [अध्याय 4] त्रिपुरवासी दैत्योंको मोहित करनेके लिये भगवान् विष्णुद्वारा एक मुनिरूप पुरुषकी उत्पत्ति, उसकी सहायताके लिये नारदजीका त्रिपुरमें गमन, त्रिपुराधिपका दीक्षा ग्रहण करना
  5. [अध्याय 5] मायावी यतिद्वारा अपने धर्मका उपदेश, त्रिपुरवासियोंका उसे स्वीकार करना, वेदधर्मके नष्ट हो जानेसे त्रिपुरमें अधर्माचरणकी प्रवृत्ति
  6. [अध्याय 6] त्रिपुरध्वंसके लिये देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  7. [अध्याय 7] भगवान् शिवकी प्रसन्नताके लिये देवताओंद्वारा मन्त्रजप, शिवका प्राकट्य तथा त्रिपुर- विनाशके लिये दिव्य रथ आदिके निर्माणके लिये विष्णुजीसे कहना
  8. [अध्याय 8] विश्वकर्माद्वारा निर्मित सर्वदेवमय दिव्य रथका वर्णन
  9. [अध्याय 9] ब्रह्माजीको सारथी बनाकर भगवान् शंकरका दिव्य रथमें आरूढ़ होकर अपने गणों तथा देवसेनाके साथ त्रिपुर- वधके लिये प्रस्थान, शिवका पशुपति नाम पड़नेका कारण
  10. [अध्याय 10] भगवान् शिवका त्रिपुरपर सन्धान करना, गणेशजीका विघ्न उपस्थित करना, आकाशवाणीद्वारा बोधित होनेपर शिवद्वारा विघ्ननाशक गणेशका पूजन, अभिजित् मुहूर्तमें तीनों पुरोंका एकत्र होना और शिवद्वारा बाणाग्निसे सम्पूर्ण त्रिपुरको भस्म करना, मयदानवका बचा रहना
  11. [अध्याय 11] त्रिपुरदाहके अनन्तर भगवान् शिवके रौद्ररूपसे भयभीत देवताओं द्वारा उनकी स्तुति और उनसे भक्तिका वरदान प्राप्त करना
  12. [अध्याय 12] त्रिपुरदाहके अनन्तर शिवभक्त मयदानवका भगवान् शिवकी शरणमें आना, शिवद्वारा उसे अपनी भक्ति प्रदानकर वितललोकमें निवास करनेकी आज्ञा देना, देवकार्य सम्पन्नकर शिवजीका अपने लोकमें जाना
  13. [अध्याय 13] बृहस्पति तथा इन्द्रका शिवदर्शन के लिये कैलासकी ओर प्रस्थान, सर्वज्ञ शिवका उनकी परीक्षा लेनेके लिये दिगम्बर जटाधारी रूप धारणकर मार्ग रोकना, कुद्ध इन्द्रद्वारा उनपर वज्रप्रहारकी चेष्टा, शंकरद्वारा उनकी भुजाको स्तम्भित कर देना, बृहस्पतिद्वारा उनकी स्तुति, शिवका प्रसन्न होना और अपनी नेत्राग्निको क्षार-समुद्रमें फेंकना
  14. [अध्याय 14] क्षारसमुद्रमें प्रक्षिप्त भगवान् शंकरकी नेत्राग्निसे समुद्रके पुत्रके रूपमें जलन्धरका प्राकट्य, कालनेमिकी पुत्री वृन्दाके साथ उसका विवाह
  15. [अध्याय 15] राहुके शिरश्छेद तथा समुद्रमन्थनके समयके देवताओंके छलको जानकर जलन्धरद्वारा क्रुद्ध होकर स्वर्गपर आक्रमण, इन्द्रादि देवोंकी पराजय, अमरावतीपर जलन्धरका आधिपत्य, भयभीत देवताओंका सुमेरुकी गुफामें छिपना
  16. [अध्याय 16] जलन्धरसे भयभीत देवताओंका विष्णुके समीप जाकर स्तुति करना, विष्णुसहित देवताओंका जलन्धरकी सेनाके साथ भयंकर युद्ध
  17. [अध्याय 17] विष्णु और जलन्धरके युद्धमें जलन्धरके पराक्रमसे सन्तुष्ट विष्णुका देवों एवं लक्ष्मीसहित उसके नगरमें निवास करना
  18. [अध्याय 18] जलन्धरके आधिपत्यमें रहनेवाले दुखी देवताओंद्वारा शंकरकी स्तुति, शंकरजीका देवर्षि नारदको जलन्धरके पास भेजना, वहाँ देवोंको आश्वस्त करके नारदजीका जलन्धरकी सभा में जाना, उसके ऐश्वर्यको देखना तथा पार्वतीके सौन्दर्यका वर्णनकर उसे प्राप्त करनेके लिये
  19. [अध्याय 19] पार्वतीको प्राप्त करनेके लिये जलन्धरका शंकरके पास दूतप्रेषण, उसके वचनसे उत्पन्न क्रोधसे शम्भुके भ्रूमध्यसे एक भयंकर पुरुषकी उत्पत्ति, उससे भयभीत जलन्धरके दूतका पलायन, उस पुरुषका कीर्तिमुख नामसे शिवगण
  20. [अध्याय 20] दूतके द्वारा कैलासका वृत्तान्त जानकर जलन्धरका अपनी सेनाको युद्धका आदेश देना, भयभीत देवोंका शिवकी शरणमें जाना, शिवगणों तथा जलन्धरकी सेनाका युद्ध, शिवद्वारा कृत्याको उत्पन्न करना, कृत्याद्वारा शुक्राचार्यको छिपा लेना
  21. [अध्याय 21] नन्दी, गणेश, कार्तिकेय आदि शिवगणोंका कालनेमि, शुम्भ तथा निशुम्भ के साथ घोर संग्राम, वीरभद्र तथा जलन्धरका युद्ध, भयाकुल शिवगणोंका शिवजीको सारा वृत्तान्त बताना
  22. [अध्याय 22] श्रीशिव और जलन्धरका युद्ध, जलन्धरद्वारा गान्धर्वी मायासे शिवको मोहितकर शीघ्र ही पार्वतीके पास पहुँचना, उसकी मायाको जानकर पार्वतीका अदृश्य हो जाना और भगवान् विष्णुको जलन्धरपत्नी वृन्दाके पास जानेके लिये कहना
  23. [अध्याय 23] विष्णुद्वारा माया उत्पन्नकर वृन्दाको स्वप्नके माध्यमसे मोहित करना और स्वयं जलन्धरका रूप धारणकर वृन्दाके पातिव्रतका हरण करना, वृन्दाद्वारा विष्णुको शाप देना तथा वृन्दाके तेजका पार्वतीमें विलीन होना
  24. [अध्याय 24] दैत्यराज जलन्धर तथा भगवान् शिवका घोर संग्राम, भगवान् शिवद्वारा चक्रसे जलन्धरका शिरश्छेदन, जलन्धरका तेज शिवमें प्रविष्ट होना, जलन्धर- वधसे जगत्में सर्वत्र शान्तिका विस्तार
  25. [अध्याय 25] जलन्धरवधसे प्रसन्न देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  26. [अध्याय 26] विष्णुजीके मोहभंगके लिये शंकरजीकी प्रेरणासे देवोंद्वारा मूलप्रकृतिकी स्तुति मूलप्रकृतिद्वारा आकाशवाणीके रूपमें देवोंको आश्वासन, देवताओंद्वारा त्रिगुणात्मिका देवियोंका स्तवन, विष्णुका मोहनाश, धात्री (आँवला), मालती तथा तुलसीकी उत्पत्तिका आख्यान
  27. [अध्याय 27] शंखचूडकी उत्पत्तिकी कथा
  28. [अध्याय 28] शंखचूडकी पुष्कर - क्षेत्रमें तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरकी प्राप्ति, ब्रह्माकी प्रेरणासे शंखचूडका तुलसीसे विवाह
  29. [अध्याय 29] शंखचूडका राज्यपदपर अभिषेक, उसके द्वारा देवोंपर विजय, दुखी देवोंका ब्रह्माजीके साथ वैकुण्ठगमन, विष्णुद्वारा शंखचूडके पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना और विष्णु तथा ब्रह्माका शिवलोक गमन
  30. [अध्याय 30] ब्रह्मा तथा विष्णुका शिवलोक पहुँचना, शिवलोककी तथा शिवसभाकी शोभाका वर्णन, शिवसभाके मध्य उन्हें अम्बासहित भगवान् शिवके दिव्यस्वरूपका दर्शन और शंखचूडसे प्राप्त कष्टोंसे मुक्ति के लिये प्रार्थना
  31. [अध्याय 31] शिवद्वारा ब्रह्मा-विष्णुको शंखचूडका पूर्ववृत्तान्त बताना और देवोंको शंखचूडवथका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] भगवान् शिक्के द्वारा शंखचूडको समझानेके लिये गन्धर्वराज चित्ररथ (पुष्पदन्त ) को दूतके रूपमें भेजना, शंखचूडद्वारा सन्देशकी अवहेलना और युद्ध करनेका अपना निश्चय बताना, पुष्पदन्तका वापस आकर सारा वृत्तान्त शिवसे निवेदित करना
  33. [अध्याय 33] शंखचूडसे युद्धके लिये अपने गणोंके साथ भगवान् शिवका प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] तुलसीसे विदा लेकर शंखचूडका युद्धके लिये ससैन्य पुष्पभद्रा नदीके तटपर पहुँचना
  35. [अध्याय 35] शंखचूडका अपने एक बुद्धिमान् दूतको शंकरके पास भेजना, दूत तथा शिवकी वार्ता, शंकरका सन्देश लेकर दूतका वापस शंखचूडके पास आना
  36. [अध्याय 36] शंखचूडको उद्देश्यकर देवताओंका दानवोंके साथ महासंग्राम
  37. [अध्याय 37] शंखचूडके साथ कार्तिकेय आदि महावीरोंका युद्ध
  38. [अध्याय 38] श्रीकालीका शंखचूडके साथ महान् युद्ध, आकाशवाणी सुनकर कालीका शिवके पास आकर युद्धका वृत्तान्त बताना
  39. [अध्याय 39] शिव और शंखमूहके महाभयंकर युद्ध शंखचूडके सैनिकोंके संहारका वर्णन
  40. [अध्याय 40] शिव और शंखचूडका युद्ध, आकाशवाणीद्वारा शंकरको युद्धसे विरत करना, विष्णुका ब्राह्मणरूप धारणकर शंखचूडका कवच माँगना, कवचहीन शंखचूडका भगवान् शिवद्वारा वध, सर्वत्र हर्षोल्लास
  41. [अध्याय 41] शंखचूडका रूप धारणकर भगवान् विष्णुद्वारा तुलसीके शीलका हरण, तुलसीद्वारा विष्णुको पाषाण होनेका शाप देना, शंकरजीद्वारा तुलसीको सान्त्वना, शंख, तुलसी, गण्डकी एवं शालग्रामकी उत्पत्ति तथा माहात्म्यकी कथा
  42. [अध्याय 42] अन्धकासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवके वरदानसे हिरण्याक्षद्वारा अन्धकको पुत्ररूपमें प्राप्त करना, हिरण्याक्षद्वारा पृथ्वीको पाताललोकमें ले जाना, भगवान् विष्णुद्वारा वाराहरूप धारणकर हिरण्याक्षका वधकर पृथ्वीको यथास्थान स्थापित करना
  43. [अध्याय 43] हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्मासे वरदान पाकर उसका अत्याचार, भगवान् नृसिंहद्वारा उसका वध और प्रह्लादको राज्यप्राप्ति
  44. [अध्याय 44] अन्धकासुरकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे अनेक वरोंकी प्राप्ति, त्रिलोकीको जीतकर उसका स्वेच्छाचारमें प्रवृत्त होना, मन्त्रियोंद्वारा पार्वतीके सौन्दर्यको सुनकर मुग्ध हो शिवके पास सन्देश भेजना और शिवका उत्तर सुनकर
  45. [अध्याय 45] अन्धकासुरका शिवकी सेनाके साथ युद्ध
  46. [अध्याय 46] भगवान् शिव एवं अन्धकासुरका युद्ध, अन्धककी मायासे उसके रक्तसे अनेक अन्धकगणोंकी उत्पत्ति, शिवकी प्रेरणासे विष्णुका कालीरूप धारणकर दानवोंके रक्तका पान करना, शिवद्वारा अन्धकको अपने त्रिशूलमें लटका लेना, अन्धककी स्तुतिसे प्रसन्न हो शिवद्वारा उसे गाणपत्य पद प्रदान करना
  47. [अध्याय 47] शुक्राचार्यद्वारा युद्धमें मरे हुए दैत्योंको संजीवनी विद्यासे जीवित करना, दैत्योंका युद्धके लिये पुनः उद्योग, नन्दीश्वरद्वारा शिवको यह वृत्तान्त बतलाना, शिवकी आज्ञासे नन्दीद्वारा युद्ध-स्थलसे शुक्राचार्यको शिवके पास लाना, शिवद्वारा शुक्राचार्यको निगलना
  48. [अध्याय 48] शुक्राचार्यकी अनुपस्थितिसे अन्धकादि दैत्योंका दुखी होना, शिवके उदरमें शुक्राचार्यद्वारा सभी लोकों तथा अन्धकासुरके युद्धको देखना और फिर शिवके शुकरूपमें बाहर निकलना, शिव-पार्वतीका उन्हें पुत्ररूपमें स्वीकारकर विदा करना
  49. [अध्याय 49] शुक्राचार्यद्वारा शिवके उदरमें जपे गये मन्त्रका वर्णन, अन्धकद्वारा भगवान् शिवकी नामरूपी स्तुति प्रार्थना, भगवान् शिवद्वारा अन्धकासुरको जीवनदानपूर्वक गाणपत्य पद प्रदान करना
  50. [अध्याय 50] शुक्राचार्यद्वारा काशीमें शुक्रेश्वर लिंगकी स्थापनाकर उनकी आराधना करना, मूर्त्यष्टक स्तोत्रसे उनका स्तवन, शिवजीका प्रसन्न होकर उन्हें मृतसंजीवनी विद्या प्रदान करना और ग्रहोंके मध्य प्रतिष्ठित करना
  51. [अध्याय 51] प्रह्लादकी वंशपरम्परामें बलिपुत्र वाणासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवभक्त बाणासुरद्वारा ताण्डव नृत्यके प्रदर्शनसे शंकरको प्रसन्न करना, वरदानके रूपमें शंकरका बाणासुरकी नगरीमें निवास करना, शिव-पार्वतीका बिहार, पार्वतीद्वारा बाणपुत्री ऊषाको वरदान
  52. [अध्याय 52] अभिमानी बाणासुरद्वारा भगवान् शिवसे युद्धकी याचना, बाणपुत्री ऊषाका रात्रिके समय स्वप्नमें अनिरुद्ध के साथ मिलन, चित्रलेखाद्वारा योगबलसे अनिरुद्धका द्वारकासे अपहरण, अन्तःपुरमें अनिरुद्ध और ऊषाका मिलन तथा द्वारपालोंद्वारा यह समाचार बाणासुरको बताना
  53. [अध्याय 53] क्रुद्ध बाणासुरका अपनी सेनाके साथ अनिरुद्धपर आक्रमण और उसे नागपाशमें बांधना, दुर्गाके स्तवनद्वारा अनिरुद्धका बन्धनमुक्त होना
  54. [अध्याय 54] नारदजीद्वारा अनिरुद्धके बन्धनका समाचार पाकर श्रीकृष्णकी शोणितपुरपर चढ़ाई, शिवके साथ उनका घोर युद्ध, शिवकी आज्ञासे श्रीकृष्णका उन्हें जृम्भणास्त्रसे मोहित करके बाणासुरकी सेनाका संहार करना
  55. [अध्याय 55] भगवान् कृष्ण तथा बाणासुरका संग्राम, श्रीकृष्णद्वारा बाणकी भुजाओंका काटा जाना, सिर काटनेके लिये उद्यत हुए श्रीकृष्णको शिवका रोकना और उन्हें समझाना, बाणका गर्वापहरण, श्रीकृष्ण और बाणासुरकी मित्रता, ऊषा अनिरुद्धको लेकर श्रीकृष्णका द्वारका आना
  56. [अध्याय 56] बाणासुरका ताण्डवनृत्यद्वारा भगवान् शिवको प्रसन्न करना, शिवद्वारा उसे अनेक मनोऽभिलषित वरदानोंकी प्राप्ति, बाणासुरकृत शिवस्तुति
  57. [अध्याय 57] महिषासुर के पुत्र गजासुरकी तपस्या तथा ब्रह्माद्वारा वरप्राप्ति, उन्मत्त गजासुरद्वारा अत्याचार, उसका काशीमें आना, देवताओंद्वारा भगवान् शिवसे उसके बधकी प्रार्थना, शिवद्वारा उसका वध और उसकी प्रार्थनासे उसका धर्म धारणकर 'कृत्तिवासा' नामसे विख्यात होना एवं कृत्तिवासेश्वर लिंगकी स्थापना करना
  58. [अध्याय 58] काशीके व्याघ्रेश्वर लिंग-माहात्म्यके सन्दर्भमें दैत्य दुन्दुभिनिर्ह्रादके वधकी कथा
  59. [अध्याय 59] काशीके कन्दुकेश्वर शिवलिंगके प्रादुर्भावमें पार्वतीद्वारा बिदल एवं उत्पल दैत्योंके वधकी कथा, रुद्रसंहिताका उपसंहार तथा इसका माहात्म्य
  1. [अध्याय 1] सूतजीसे शौनकादि मुनियोंका शिवावतारविषयक प्रश्न
  2. [अध्याय 2] भगवान् शिवकी अष्टमूर्तियों का वर्णन
  3. [अध्याय 3] भगवान् शिवका अर्धनारीश्वर अवतार एवं सतीका प्रादुर्भाव
  4. [अध्याय 4] वाराहकल्पके प्रथमसे नवम द्वापरतक हुए व्यासों एवं शिवावतारोंका वर्णन
  5. [अध्याय 5] वाराहकल्पके दसवेंसे अट्ठाईसवें द्वापरतक होनेवाले व्यासों एवं शिवावतारोंका वर्णन
  6. [अध्याय 6] नन्दीश्वरावतारवर्णन
  7. [अध्याय 7] नन्दिकेश्वरका गणेश्वराधिपति पदपर अभिषेक एवं विवाह
  8. [अध्याय 8] भैरवावतारवर्णन
  9. [अध्याय 9] भैरवावतारलीलावर्णन
  10. [अध्याय 10] नृसिंहचरित्रवर्णन
  11. [अध्याय 11] भगवान् नृसिंह और वीरभद्रका संवाद
  12. [अध्याय 12] भगवान् शिवका शरभावतार-धारण
  13. [अध्याय 13] भगवान् शंकरके गृहपति अवतारकी कथा
  14. [अध्याय 14] विश्वानरके पुत्ररूपमें गृहपति नामसे शिवका प्रादुर्भाव
  15. [अध्याय 15] भगवान् शिवके गृहपति नामक अग्नीश्वरलिंगका माहात्म्य
  16. [अध्याय 16] यक्षेश्वरावतारका वर्णन
  17. [अध्याय 17] भगवान् शिवके महाकाल आदि प्रमुख दस अवतारोंका वर्णन
  18. [अध्याय 18] शिवजीके एकादश रुद्रावतारोंका वर्णन
  19. [अध्याय 19] शिवजीके दुर्वासावतारकी कथा
  20. [अध्याय 20] शिवजीका हनुमान्के रूपमें अवतार तथा उनके चरितका वर्णन
  21. [अध्याय 21] शिवजीके महेशावतार वर्णनक्रममें अम्बिकाके शापसे भैरवका बेतालरूपये पृथ्वीपर अवतरित होना
  22. [अध्याय 22] शिवके वृषेश्वरावतार वर्णनके प्रसंगों समुद्रमन्थनकी कथा
  23. [अध्याय 23] विष्णुद्वारा भगवान् शिवके वृषभेश्वरावतारका स्तवन
  24. [अध्याय 24] भगवान् शिवके पिप्पलादावतारका वर्णन
  25. [अध्याय 25] राजा अनरण्यकी पुत्री चाके साथ पिप्पलादका विवाह एवं उनके वैवाहिक जीवनका वर्णन
  26. [अध्याय 26] शिवके वैश्यनाथ नामक अवतारका वर्णन
  27. [अध्याय 27] भगवान् शिवके द्विजेश्वरावतारका वर्णन
  28. [अध्याय 28] नल एवं दमयन्तीके पूर्वजन्मकी कथा तथा शिवावतार यतीश्वरका हंसरूप धारण करना
  29. [अध्याय 29] भगवान् शिवके कृष्णदर्शन नामक अवतारकी कथा
  30. [अध्याय 30] भगवान् शिवके अवधूतेश्वरावतारका वर्णन
  31. [अध्याय 31] शिवजीके भिक्षुवर्यावतारका वर्णन
  32. [अध्याय 32] उपमन्युपर अनुग्रह करनेके लिये शिवके सुरेश्वरावतारका वर्णन
  33. [अध्याय 33] पार्वतीके मनोभावकी परीक्षा लेनेवाले ब्रह्मचारीस्वरूप शिवावतारका वर्णन
  34. [अध्याय 34] भगवान् शिवके सुनर्तक नटावतारका वर्णन
  35. [अध्याय 35] परमात्मा शिवके द्विजावतारका वर्णन
  36. [अध्याय 36] अश्वत्थामाके रूपमें शिवके अवतारका वर्ण
  37. [अध्याय 37] व्यासजीका पाण्डवोंको सान्त्वना देकर अर्जुनको इन्द्रकील पर्वतपर तपस्या करने भेजना
  38. [अध्याय 38] इन्द्रका अर्जुनको वरदान देकर शिवपूजनका उपदेश देना
  39. [अध्याय 39] भीलस्वरूप गणेश्वर एवं तपस्वी अर्जुनका संवाद
  40. [अध्याय 40] मूक नामक दैत्यके वधका वर्णन
  41. [अध्याय 41] भगवान् शिवके किरातेश्वरावतारका वर्णन
  42. [अध्याय 42] भगवान् शिवके द्वादश ज्योतिर्लिंगरूप अवतारोंका वर्णन
  1. [अध्याय 1] द्वादश ज्योतिर्लिंगों एवं उनके उपलिंगोंके माहात्म्यका वर्णन
  2. [अध्याय 2] काशीस्थित तथा पूर्व दिशामें प्रकटित विशेष एवं सामान्य लिंगोंका वर्णन
  3. [अध्याय 3] अत्रीश्वरलिंगके प्राकट्यके प्रसंगमें अनसूया तथा अत्रिकी तपस्याका वर्णन
  4. [अध्याय 4] अनसूयाके पातिव्रतके प्रभावसे गंगाका प्राकट्य तथा अत्रीश्वरमाहात्म्यका वर्णन
  5. [अध्याय 5] रेवानदीके तटपर स्थित विविध शिवलिंग-माहात्म्य वर्णनके क्रममें द्विजदम्पतीका वृत्तान्त
  6. [अध्याय 6] नर्मदा एवं नन्दिकेश्वरके माहात्म्य-कथनके प्रसंगमें ब्राह्मणीकी स्वर्गप्राप्तिका वर्णन
  7. [अध्याय 7] नन्दिकेश्वरलिंगका माहात्म्य- वर्णन
  8. [अध्याय 8] पश्चिम दिशाके शिवलिंगोंके वर्णन क्रममें महाबलेश्वरलिंग का माहात्म्य कथन
  9. [अध्याय 9] संयोगवश हुए शिवपूजनसे चाण्डालीकी सद्गतिका वर्णन
  10. [अध्याय 10] महाबलेश्वर शिवलिंगके माहात्म्य वर्णन प्रसंगमें राजा मित्रसहकी कथा
  11. [अध्याय 11] उत्तरदिशामें विद्यमान शिवलिंगोंके वर्णन क्रममें चन्द्रभाल एवं पशुपतिनाथलिंगका माहात्म्य वर्णन
  12. [अध्याय 12] हाटकेश्वरलिंगके प्रादुर्भाव एवं माहात्म्यका वर्णन
  13. [अध्याय 13] अन्धकेश्वरलिंगकी महिमा एवं बटुककी उत्पत्तिका वर्णन
  14. [अध्याय 14] सोमनाथ ज्योतिर्लिंगकी उत्पत्तिका वृत्तान्त
  15. [अध्याय 15] मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंगकी उत्पत्ति-कथा
  16. [अध्याय 16] महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंगके प्राकट्यका वर्णन
  17. [अध्याय 17] महाकाल ज्योतिर्लिंगके माहात्म्य वर्णनके क्रममें राजा चन्द्रसेन तथा श्रीकर गोपका वृत्तान्त
  18. [अध्याय 18] ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंगके प्रादुर्भाव एवं माहात्म्यका वर्णन
  19. [अध्याय 19] केदारेश्वर ज्योतिर्लिंगके प्राकट्य एवं माहात्म्यका वर्णन
  20. [अध्याय 20] भीमशंकर ज्योतिर्लिंग के माहात्म्य वर्णन-प्रसंग में भीमासुर के उपद्रव का वर्णन
  21. [अध्याय 21] भीमशंकर ज्योतिर्लिंगकी उत्पत्ति तथा उसके माहात्म्यका वर्णन
  22. [अध्याय 22] परब्रह्म परमात्माका शिव-शक्तिरूपमें प्राकट्य, पंचक्रोशात्मिका काशीका अवतरण, शिवद्वारा अविमुक्त लिंगकी स्थापना, काशीकी महिमा तथा काशीमें रुद्रके आगमनका वर्णन
  23. [अध्याय 23] काशीविश्वेश्वर ज्योतिर्लिंगके माहात्म्यके प्रसंगमें काशीमें मुक्तिक्रमका वर्णन
  24. [अध्याय 24] त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंगके माहात्म्य प्रसँगमें गौतमऋषिकी परोपकारी प्रवृत्तिका वर्णन
  25. [अध्याय 25] मुनियोंका महर्षि गौतमके प्रति कपटपूर्ण व्यवहार
  26. [अध्याय 26] त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग तथा गौतमी गंगाके प्रादुर्भावका आख्यान
  27. [अध्याय 27] गौतमी गंगा एवं त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंगका माहात्म्यवर्णन
  28. [अध्याय 28] वैद्यनाथेश्वर ज्योतिर्लिंगके प्रादुर्भाव एवं माहात्म्यका वर्णन
  29. [अध्याय 29] दारुकावनमें राक्षसोंके उपद्रव एवं सुप्रिय वैश्यकी शिवभक्तिका वर्णन
  30. [अध्याय 30] नागेश्वर ज्योतिर्लिंगकी उत्पत्ति एवं उसके माहात्म्यका वर्णन
  31. [अध्याय 31] रामेश्वर नामक ज्योतिर्लिंगके प्रादुर्भाव एवं माहात्म्यका वर्णन
  32. [अध्याय 32] घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंगके माहात्म्यमें सुदेहा ब्राह्मणी एवं सुधर्मा ब्राह्मणका चरित-वर्णन
  33. [अध्याय 33] घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग एवं शिवालयके नामकरणका आख्यान
  34. [अध्याय 34] हरीश्वरलिंगका माहात्म्य और भगवान् विष्णुके सुदर्शनचक्र प्राप्त करनेकी कथा
  35. [अध्याय 35] विष्णुप्रोक्त शिवसहस्रनामस्तोत्र
  36. [अध्याय 36] शिवसहस्त्रनामस्तोत्रकी फल- श्रुति
  37. [अध्याय 37] शिवकी पूजा करनेवाले विविध देवताओं, ऋषियों एवं राजाओंका वर्णन
  38. [अध्याय 38] भगवान् शिवके विविध व्रतोंमें शिवरात्रिव्रतका वैशिष्ट्य
  39. [अध्याय 39] शिवरात्रिव्रतकी उद्यापन विधिका वर्णन
  40. [अध्याय 40] शिवरात्रिव्रतमाहात्म्यके प्रसंगमें व्याध एवं मृगपरिवारकी कथा तथा व्याधेश्वरलिंगका माहात्म्य
  41. [अध्याय 41] ब्रह्म एवं मोक्षका निरूपण
  42. [अध्याय 42] भगवान् शिवके सगुण और निर्गुण स्वरूपका वर्णन
  43. [अध्याय 43] ज्ञानका निरूपण तथा शिवपुराणकी कोटिरुद्रसंहिताके श्रवणादिका माहात्म्य
  1. [अध्याय 1] पुत्रप्राप्तिके लिये कैलासपर गये हुए श्रीकृष्णका उपमन्युसे संवाद
  2. [अध्याय 2] श्रीकृष्णके प्रति उपमन्युका शिवभक्तिका उपदेश
  3. [अध्याय 3] श्रीकृष्णकी तपस्या तथा शिव पार्वतीसे वरदानकी प्राप्ति, अन्य शिवभक्तोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] शिवकी मायाका प्रभाव
  5. [अध्याय 5] महापातकोंका वर्णन
  6. [अध्याय 6] पापभेदनिरूपण
  7. [अध्याय 7] यमलोकका मार्ग एवं यमदूतोंके स्वरूपका वर्णन
  8. [अध्याय 8] नरक - भेद-निरूपण
  9. [अध्याय 9] नरककी यातनाओंका वर्णन
  10. [अध्याय 10] नरकविशेषमें दुःखवर्ण
  11. [अध्याय 11] दानके प्रभावसे यमपुरके दुःखका अभाव तथा अन्नदानका विशेष माहात्यवर्णन
  12. [अध्याय 12] जलदान, सत्यभाषण और तपकी महिमा
  13. [अध्याय 13] पुराणमाहात्म्यनिरूपण
  14. [अध्याय 14] दानमाहात्म्य तथा दानके भेदका वर्णन
  15. [अध्याय 15] ब्रह्माण्डदानकी महिमाके प्रसंगमें पाताललोकका निरूपण
  16. [अध्याय 16] विभिन्न पापकर्मोंसे प्राप्त होनेवाले नरकोंका वर्णन और शिव नाम स्मरणकी महिमा
  17. [अध्याय 17] ब्रह्माण्डके वर्णन प्रसंगमें जम्बुद्वीपका निरूपण
  18. [अध्याय 18] भारतवर्ष तथा प्लक्ष आदि छः द्वीपोंका वर्णन
  19. [अध्याय 19] सूर्यादि ग्रहों की स्थितिका निरूपण करके जन आदि लोकोंका वर्णन
  20. [अध्याय 20] तपस्यासे शिवलोककी प्राप्ति, सात्त्विक आदि तपस्याके भेद, मानवजन्मकी प्रशस्तिका कथन
  21. [अध्याय 21] कर्मानुसार जन्मका वर्णनकर क्षत्रियके लिये संग्रामके फलका निरूपण
  22. [अध्याय 22] देहकी उत्पत्तिका वर्णन
  23. [अध्याय 23] शरीरकी अपवित्रता तथा उसके बालादि अवस्थाओंमें प्राप्त होनेवाले दुःखोंका वर्णन
  24. [अध्याय 24] नारदके प्रति पंचचूडा अप्सराके द्वारा स्त्रीके स्वभाव का वर्णन
  25. [अध्याय 25] मृत्युकाल निकट आनेके लक्षण
  26. [अध्याय 26] योगियोंद्वारा कालकी गतिको टालनेका वर्णन
  27. [अध्याय 27] अमरत्व प्राप्त करनेकी चार यौगिक साधनाएँ
  28. [अध्याय 28] छायापुरुषके दर्शनका वर्णन
  29. [अध्याय 29] ब्रह्माकी आदिसृष्टिका वर्णन
  30. [अध्याय 30] ब्रह्माद्वारा स्वायम्भुव मनु आदिकी सृष्टिका वर्णन
  31. [अध्याय 31] दैत्य, गन्धर्व, सर्प एवं राक्षसोंकी सृष्टिका वर्णन तथा दक्षद्वारा नारदके शाप- वृत्तान्तका कथन
  32. [अध्याय 32] कश्यपकी पलियोंकी सन्तानोंके नामका वर्णन
  33. [अध्याय 33] मरुतोंकी उत्पत्ति, भूतसर्गका कथन तथा उनके राजाओंका निर्धारण
  34. [अध्याय 34] चतुर्दश मन्वन्तरोंका वर्णन
  35. [अध्याय 35] विवस्वान् एवं संज्ञाका वृत्तान्तवर्णनपूर्वक अश्विनीकुमारों की उत्पत्तिका वर्णन
  36. [अध्याय 36] वैवस्वतमनुके नौ पुत्रोंके वंशका वर्णन
  37. [अध्याय 37] इक्ष्वाकु आदि मनुवंशीय राजाओंका वर्णन
  38. [अध्याय 38] सत्यव्रत- त्रिशंकु सगर आदिके जन्मके निरूपणपूर्वक उनके चरित्रका वर्णन
  39. [अध्याय 39] सगरकी दोनों पत्नियोंके वंशविस्तारवर्णनपूर्वक वैवस्वतवंशमें उत्पन्न राजाओंका वर्णन
  40. [अध्याय 40] पितृश्राद्धका प्रभाव-वर्णन
  41. [अध्याय 41] पितरोंकी महिमाके वर्णनक्रममें सप्त व्याधोंके आख्यान का प्रारम्भ
  42. [अध्याय 42] 'सप्त व्याध' सम्बन्धी श्लोक सुनकर राजा ब्रह्मदत्त और उनके मन्त्रियोंको पूर्वजन्मका स्मरण होना और योगका आश्रय लेकर उनका मुक्त होना
  43. [अध्याय 43] आचार्यपूजन एवं पुराणश्रवणके अनन्तर कर्तव्य कथन
  44. [अध्याय 44] व्यासजीकी उत्पत्तिकी कथा, उनके द्वारा तीर्थाटनके प्रसंगमें काशीमें व्यासेश्वरलिंगकी स्थापना तथा मध्यमेश्वरके अनुग्रहसे पुराणनिर्माण
  45. [अध्याय 45] भगवती जगदम्बाके चरितवर्णनक्रममें सुरथराज एवं समाधि वैश्यका वृत्तान्त तथा मधु-कैटभके वधका वर्णन
  46. [अध्याय 46] महिषासुरके अत्याचारसे पीड़ित ब्रह्मादि देवोंकी प्रार्थनासे प्रादुर्भूत महालक्ष्मीद्वारा महिषासुरका वध
  47. [अध्याय 47] शुम्भ निशुम्भसे पीड़ित देवताओंद्वारा देवीकी स्तुति तथा देवीद्वारा धूम्रलोचन, चण्ड-मुण्ड आदि असुरोंका वध
  48. [अध्याय 48] सरस्वतीदेवीके द्वारा सेनासहित शुम्भ निशुम्भका वध
  49. [अध्याय 49] भगवती उमाके प्रादुर्भावका वर्णन
  50. [अध्याय 50] दस महाविद्याओं की उत्पत्ति तथा देवीके दुर्गा, शताक्षी, शाकम्भरी और भ्रामरी आदि नामोंके पड़नेका कारण
  51. [अध्याय 51] भगवतीके मन्दिरनिर्माण, प्रतिमास्थापन तथा पूजनका माहात्म्य और उमासंहिताके श्रवण एवं पाठकी महिमा
  1. [अध्याय 1] व्यासजीसे शौनकादि ऋषियोंका संवाद
  2. [अध्याय 2] भगवान् शिवसे पार्वतीजीकी प्रणवविषयक जिज्ञासा
  3. [अध्याय 3] प्रणवमीमांसा तथा संन्यासविधिवर्णन
  4. [अध्याय 4] संन्यासदीक्षासे पूर्वकी आह्निकविधि
  5. [अध्याय 5] संन्यासदीक्षा हेतु मण्डलनिर्माणकी विधि
  6. [अध्याय 6] पूजाके अंगभूत न्यासादि कर्म
  7. [अध्याय 7] शिवजीके विविध ध्यानों तथा पूजा-विधिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] आवरणपूजा-विधि-वर्णन
  9. [अध्याय 9] प्रणवोपासनाकी विधि
  10. [अध्याय 10] सूतजीका काशीमें आगमन
  11. [अध्याय 11] भगवान् कार्तिकेयसे वामदेवमुनिकी प्रणवजिज्ञासा
  12. [अध्याय 12] प्रणवरूप शिवतत्त्वका वर्णन तथा संन्यासांगभूत नान्दीश्राद्ध-विधि
  13. [अध्याय 13] संन्यासकी विधि
  14. [अध्याय 14] शिवस्वरूप प्रणवका वर्णन
  15. [अध्याय 15] तिरोभावादि चक्रों तथा उनके अधिदेवताओं आदिका वर्णन
  16. [अध्याय 16] शेवदर्शनके अनुसार शिवतत्त्व, जगत्-प्रपंच और जीवतत्त्वके विषयमें विशद विवेचन तथा शिवसे जीव और जगत्‌की अभिन्नताका प्रतिपादन
  17. [अध्याय 17] अद्वैत शैववाद एवं सृष्टिप्रक्रियाका प्रतिपादन
  18. [अध्याय 18] संन्यासपद्धतिमें शिष्य बनानेकी विधि
  19. [अध्याय 19] महावाक्योंके तात्पर्य तथा योगपट्टविधिका वर्णन
  20. [अध्याय 20] यतियोंके क्षौर-स्नानादिकी विधि तथा अन्य आचारोंका वर्णन
  21. [अध्याय 21] यतिके अन्त्येष्टिकर्मकी दशाहपर्यन्त विधिका वर्णन
  22. [अध्याय 22] यतिके लिये एकादशाह कृत्यका वर्णन
  23. [अध्याय 23] यतिके द्वादशाह- कृत्यका वर्णन, स्कन्द और वामदेवका कैलासपर्वतपर जाना तथा सूतजीके द्वारा इस संहिताका उपसंहार
  1. [अध्याय 1] ऋषियोंद्वारा सम्मानित सूतजीके द्वारा कथाका आरम्भ, विद्यास्थानों एवं पुराणोंका परिचय तथा वायुसंहिताका प्रारम्भ
  2. [अध्याय 2] ऋषियोंका ब्रह्माजीके पास जाकर उनकी स्तुति करके उनसे परमपुरुषके विषयमें प्रश्न करना और ब्रह्माजीका आनन्दमग्न हो 'रुद्र' कहकर उत्तर देना
  3. [अध्याय 3] ब्रह्माजीके द्वारा परमतत्त्वके रूपमें भगवान् शिवकी महत्ताका प्रतिपादन तथा उनकी आज्ञासे सब मुनियोंका नैमिषारण्यमें आना
  4. [अध्याय 4] नैमिषारण्यमें दीर्घसत्रके अन्तमें मुनियोंके पास वायुदेवता का आगमन
  5. [अध्याय 5] ऋषियोंके पूछनेपर वायुदेवद्वारा पशु, पाश एवं पशुपति का तात्त्विक विवेचन
  6. [अध्याय 6] महेश्वरकी महत्ताका प्रतिपादन
  7. [अध्याय 7] कालकी महिमाका वर्णन
  8. [अध्याय 8] कालका परिमाण एवं त्रिदेवोंके आयुमानका वर्णन
  9. [अध्याय 9] सृष्टिके पालन एवं प्रलयकर्तुत्वका वर्णन
  10. [अध्याय 10] ब्रह्माण्डकी स्थिति, स्वरूप आदिका वर्णन
  11. [अध्याय 11] अवान्तर सर्ग और प्रतिसर्गका वर्णन
  12. [अध्याय 12] ब्रह्माजीकी मानसी सृष्टि, ब्रह्माजीकी मूर्च्छा, उनके मुखसे रुद्रदेवका प्राकट्य, सप्राण हुए ब्रह्माजीके द्वारा आठ नामोंसे महेश्वरकी स्तुति तथा रुद्रकी आज्ञासे ब्रह्माद्वारा सृष्टि रचना
  13. [अध्याय 13] कल्पभेदसे त्रिदेवों (ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र) के एक-दूसरेसे प्रादुर्भावका वर्णन
  14. [अध्याय 14] प्रत्येक कल्पमें ब्रह्मासे रुद्रकी उत्पत्तिका वर्णन
  15. [अध्याय 15] अर्धनारीश्वररूपमें प्रकट शिवकी ब्रह्माजीद्वारा स्तुति
  16. [अध्याय 16] महादेवजीके शरीरसे देवीका प्राकट्य और देवीके भूमध्य भाग से शक्तिका प्रादुर्भाव
  17. [अध्याय 17] ब्रह्माके आधे शरीरसे शतरूपाकी उत्पत्ति तथा दक्ष आदि प्रजापतियोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  18. [अध्याय 18] दक्षके शिवसे द्वेषका कारण
  19. [अध्याय 19] दक्षयज्ञका उपक्रम, दधीचिका दक्षको शाप देना, वीरभद्र और भद्रकालीका प्रादुर्भाव तथा उनका यज्ञध्वंसके लिये प्रस्थान
  20. [अध्याय 20] गणोंके साथ वीरभद्रका दक्षकी यज्ञभूमिमें आगमन तथा
  21. [अध्याय 21] वीरभद्रका दक्ष यज्ञमें आये देवताओंको दण्ड देना तथा दक्षका सिर काटना
  22. [अध्याय 22] वीरभद्रके पराक्रमका वर्णन
  23. [अध्याय 23] पराजित देवोंके द्वारा की गयी स्तुतिसे प्रसन्न शिवका यज्ञकी सम्पूर्ति करना तथा देवताओंको सान्त्वना देकर अन्तर्धान होना
  24. [अध्याय 24] शिवका तपस्याके लिये मन्दराचलपर गमन, मन्दराचलका वर्णन, शुम्भ-निशुम्भ दैत्यकी उत्पत्ति, ब्रह्माकी प्रार्थनासे उनके वधके लिये शिव और शिवाके विचित्र लीला प्रपंचका वर्णन
  25. [अध्याय 25] पार्वतीकी तपस्या, व्याघ्रपर उनकी कृपा, ब्रह्माजीका देवीके साथ वार्तालाप, देवीके द्वारा काली त्वचाका त्याग और उससे उत्पन्न कौशिकीके द्वारा शुम्भ निशुम्भका वध
  26. [अध्याय 26] ब्रह्माजीद्वारा दुष्कर्मी बतानेपर भी गौरीदेवीका शरणागत व्याघ्रको त्यागनेसे इनकार करना और माता पितासे मिलकर मन्दराचलको जाना
  27. [अध्याय 27] मन्दराचलपर गौरीदेवीका स्वागत, महादेवजीके द्वारा उनके और अपने उत्कृष्ट स्वरूप एवं अविच्छेद्य सम्बन्धका प्रकाशन तथा देवीके साथ आये हुए व्याघ्रको उनका गणाध्यक्ष बनाकर अन्तःपुरके द्वारपर सोमनन्दी नामसे प्रतिष्ठित करना
  28. [अध्याय 28] अग्नि और सोमके स्वरूपका विवेचन तथा जगत्‌की अग्नीषोमात्मकताका प्रतिपादन
  29. [अध्याय 29] जगत् 'वाणी और अर्थरूप' है इसका प्रतिपादन
  30. [अध्याय 30] ऋषियोंका शिवतत्त्वविषयक प्रश्न
  31. [अध्याय 31] शिवजीकी सर्वेश्वरता, सर्वनियामकता तथा मोक्षप्रदताका निरूपण
  32. [अध्याय 32] परम धर्मका प्रतिपादन, शैवागमके अनुसार पाशुपत ज्ञान तथा उसके साधनोंका वर्णन
  33. [अध्याय 33] पाशुपत व्रतकी विधि और महिमा तथा भस्मधारणकी महत्ता
  34. [अध्याय 34] उपमन्युका गोदुग्धके लिये हठ तथा माताकी आज्ञासे शिवोपासनामें संलग्न होना
  35. [अध्याय 35] भगवान् शंकरका इन्द्ररूप धारण करके उपमन्युके भक्तिभावकी परीक्षा लेना, उन्हें क्षीरसागर आदि देकर बहुत से वर देना और अपना पुत्र मानकर पार्वतीके हाथमें सौंपना, कृतार्थ हुए उपमन्युका अपनी माताके स्थानपर लौटना
  1. [अध्याय 1] ऋषियोंके पूछनेपर वायुदेवका श्रीकृष्ण और उपमन्युके मिलनका प्रसंग सुनाना, श्रीकृष्णको उपमन्यसे ज्ञानका और भगवान् शंकरसे पुत्रका लाभ
  2. [अध्याय 2] उपमन्युद्वारा श्रीकृष्णको पाशुपत ज्ञानका उपदेश
  3. [अध्याय 3] भगवान् शिवकी ब्रह्मा आदि पंचमूर्तियों, ईशानादि ब्रह्ममूर्तियों तथा पृथ्वी एवं शर्व आदि अष्टमूर्तियोंका परिचय और उनकी सर्वव्यापकताका वर्णन
  4. [अध्याय 4] शिव और शिवाकी विभूतियोंका वर्णन
  5. [अध्याय 5] परमेश्वर शिवके यथार्थ स्वरूपका विवेचन तथा उनकी शरणमें जानेसे जीवके कल्याणका कथन
  6. [अध्याय 6] शिवके शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, सर्वमय, सर्वव्यापक एवं सर्वातीत स्वरूपका तथा उनकी प्रणवरूपताका प्रतिपादन
  7. [अध्याय 7] परमेश्वरकी शक्तिका ऋषियोंद्वारा साक्षात्कार, शिवके प्रसादसे प्राणियोंकी मुक्ति, शिवकी सेवा-भक्ति तथा पाँच प्रकारके शिवधर्मका वर्णन
  8. [अध्याय 8] शिव-ज्ञान, शिवकी उपासनासे देवताओंको उनका दर्शन, सूर्यदेवमें शिवकी पूजा करके अर्घ्यदानकी विधि तथा व्यासावतारोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] शिवके अवतार योगाचार्यों तथा उनके शिष्योंकी नामावली
  10. [अध्याय 10] भगवान् शिवके प्रति श्रद्धा-भक्तिकी आवश्यकताका प्रतिपादन, शिवधर्मके चार पादोंका वर्णन एवं ज्ञानयोगके साधनों तथा शिवधर्मके अधिकारियोंका निरूपण, शिवपूजनके अनेक प्रकार एवं अनन्यचित्तसे भजनकी महिमा
  11. [अध्याय 11] वर्णाश्रम धर्म तथा नारी-धर्मका वर्णन; शिवके भजन, चिन्तन एवं ज्ञानकी महत्ताका प्रतिपादन
  12. [अध्याय 12] पंचाक्षर मन्त्र के माहात्म्यका वर्णन
  13. [अध्याय 13] पंचाक्षर मन्त्रकी महिमा, उसमें समस्त वाङ्मयकी स्थिति, उसकी उपदेशपरम्परा, देवीरूपा पंचाक्षरीविद्याका ध्यान, उसके समस्त और व्यस्त अक्षरोंके ऋषि, छन्द, देवता, बीज, शक्ति तथा अंगन्यास आदिका विचार
  14. [अध्याय 14] गुरु मन्त्र लेने तथा उसके जप करनेकी विधि, पाँच प्रकारके जप तथा उनकी महिमा, मन्त्रगणना के लिये विभिन्न प्रकारकी मालाओंका महत्त्व तथा अंगुलियोंके उपयोगका वर्णन, जपके लिये उपयोगी स्थान तथा दिशा, जपमें वर्जनीय बातें, सदाचारका महत्त्व, आस्तिकताकी प्रशंसा तथा पंचाक्षर मन्त्रकी विशेषताका वर्णन
  15. [अध्याय 15] त्रिविध दीक्षाका निरूपण, शक्तिपातकी आवश्यकता तथा उसके लक्षणोंका वर्णन, गुरुका महत्त्व, ज्ञानी गुरुसे ही मोक्षकी प्राप्ति तथा गुरुके द्वारा शिष्यकी परीक्षा
  16. [अध्याय 16] समय- संस्कार या समयाचारकी दीक्षाकी विधि
  17. [अध्याय 17] पध्वशोधनका निरूपण
  18. [अध्याय 18] षडध्वशोधनकी विधि
  19. [अध्याय 19] साधक-संस्कार और मन्त्र-माहात्म्यका वर्णन
  20. [अध्याय 20] योग्य शिष्यके आचार्यपदपर अभिषेकका वर्णन तथा संस्कारके विविध प्रकारोंका निर्देश
  21. [अध्याय 21] शिवशास्त्रोक्त नित्य नैमित्तिक कर्मका वर्णन
  22. [अध्याय 22] शिवशास्त्रोक्त न्यास आदि कर्मोंका वर्णन
  23. [अध्याय 23] अन्तर्याग अथवा मानसिक पूजाविधिका वर्णन
  24. [अध्याय 24] शिवपूजन विधि
  25. [अध्याय 25] शिवपूजाकी विशेष विधि तथा शिव भक्तिकी महिमा
  26. [अध्याय 26] सांगोपांगपूजाविधानका वर्णन
  27. [अध्याय 27] शिवपूजनमें अग्निकर्मका वर्णन
  28. [अध्याय 28] शिवाश्रमसेवियोंके लिये नित्य नैमित्तिक कर्मकी विधिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] काम्यकर्मका वर्णन
  30. [अध्याय 30] आवरणपूजाकी विस्तृत विधि तथा उक्त विधिसे पूजनकी महिमाका वर्णन
  31. [अध्याय 31] शिवके पाँच आवरणोंमें स्थित सभी देवताओंकी स्तुति तथा उनसे अभीष्टपूर्ति एवं मंगलकी कामना
  32. [अध्याय 32] ऐहिक फल देनेवाले कर्मों और उनकी विधिका वर्णन, शिव पूजनकी विधि, शान्ति-पुष्टि आदि विविध काम्य कर्मोमें विभिन्न हवनीय पदार्थोंके उपयोगका विधान
  33. [अध्याय 33] पारलौकिक फल देनेवाले कर्म- शिवलिंग महाव्रतकी विधि और महिमाका वर्णन
  34. [अध्याय 34] मोहवश ब्रह्मा तथा विष्णुके द्वारा लिंगके आदि और अन्तको जाननेके लिये किये गये प्रयत्नका वर्णन
  35. [अध्याय 35] लिंगमें शिवका प्राकट्य तथा उनके द्वारा ब्रह्मा-विष्णुको दिये गये ज्ञानोपदेशका वर्णन
  36. [अध्याय 36] शिवलिंग एवं शिवमूर्तिकी प्रतिष्ठाविधिका वर्णन
  37. [अध्याय 37] योगके अनेक भेद, उसके आठ और छः अंगोंका विवेचनयम, नियम, आसन, प्राणायाम, दशविध प्राणोंको जीतनेकी महिमा, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधिका निरूपण
  38. [अध्याय 38] योगमार्गके विघ्न, सिद्धि-सूचक उपसर्ग तथा पृथ्वीसे लेकर बुद्धितत्त्वपर्यन्त ऐश्वर्यगुणों का वर्णन, शिव-शिवाके ध्यानकी महिमा
  39. [अध्याय 39] ध्यान और उसकी महिमा, योगधर्म तथा शिवयोगीका महत्त्व, शिवभक्त या शिवके लिये प्राण देने अथवा शिवक्षेत्रमें मरणसे तत्काल मोक्ष-लाभका कथन
  40. [अध्याय 40] वायुदेवका अन्तर्धान होना, ऋषियोंका सरस्वतीमें अवभूथ-स्नान और काशीमें दिव्य तेजका दर्शन करके ब्रह्माजीके पास जाना, ब्रह्माजीका उन्हें सिद्धि प्राप्तिकी सूचना देकर मेरुके कुमारशिखरपर भेजना
  41. [अध्याय 41] मेरुगिरिके स्कन्द-सरोवर के तटपर मुनियोंका सनत्कुमारजीसे मिलना, भगवान् नन्दीका वहाँ आना और दृष्टिपातमात्रसे पाशछेदन एवं ज्ञानयोगका उपदेश करके चला जाना, शिवपुराणकी महिमा तथा ग्रन्थका उपसंहार
  42. [अध्याय 42] सदाशिवके विभिन्न स्वरूपोंका ध्यान
  43. [अध्याय 43] दारिद्र्यदहन शिवस्तोत्रम्