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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 5 (युद्ध खण्ड) , अध्याय 13 - Sanhita 2, Khand 5 (युद्ध खण्ड) , Adhyaya 13

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बृहस्पति तथा इन्द्रका शिवदर्शन के लिये कैलासकी ओर प्रस्थान, सर्वज्ञ शिवका उनकी परीक्षा लेनेके लिये दिगम्बर जटाधारी रूप धारणकर मार्ग रोकना, कुद्ध इन्द्रद्वारा उनपर वज्रप्रहारकी चेष्टा, शंकरद्वारा उनकी भुजाको स्तम्भित कर देना, बृहस्पतिद्वारा उनकी स्तुति, शिवका प्रसन्न होना और अपनी नेत्राग्निको क्षार-समुद्रमें फेंकना

व्यासजी बोले- हे ब्रह्मन् हे भगवन्! हे ब्रह्मपुत्र मैंने सुना है कि पूर्वकालमें प्रभु शंकरजीने महादैत्य जलन्धरका वध किया था। हे महाप्राज्ञ! आप शंकरजीके उस चरित्रको विस्तारपूर्वक कहिये, उनके पावन चरित्रको सुनता हुआ कौन तृप्त हो सकता है ॥ 1-2 ॥सूतजी बोले- महामुनि व्यासजीके द्वारा इस प्रकार पूछे जाने पर बोलने में प्रवीण महामुनि सनत्कुमारजी शान्तिपूर्वक अर्थमय वचन कहने लगे- ॥ 3 ॥

सनत्कुमार बोले- हे मुने! एक बार बृहस्पति एवं इन्द्र परम भक्तिसे युक्त हो शंकरजीका दर्शन करनेके लिये कैलासको गये थे ॥ 4 ॥

तब बृहस्पति तथा इन्द्रके आगमनको जानकर अपने दर्शनके लिये तत्पर मनवाले उन दोनोंके ज्ञानकी परीक्षा लेनेके लिये सिरपर जटाजूट बाँधकर प्रसन्नमुख तथा दिगम्बर होकर सज्जनोंको सद्गति देनेवाले प्रभु | शंकर उनका मार्ग रोककर खड़े हो गये ।। 5-6 ॥ उसके बाद आनन्दपूर्वक जाते हुए इन्द्र एवं बृहस्पतिने मार्गमें स्थित, भयंकर, अद्भुत आकारवाले, महातेजस्वी, सिरपर जटाजूट बाँधे हुए, शान्त, विशाल भुजाओंवाले, चौड़े वक्ष:स्थलवाले, गौरवर्णवाले तथा भयावह नेत्रवाले पुरुषको देखा ।। 7-8 ।।

तब अपने अधिकारसे मदमत्त इन्द्रने मार्गमें स्थित उस शंकररूप पुरुषको न पहचानकर पूछा- ॥ 9 ॥

इन्द्र बोले- तुम कौन हो, कहाँसे आये हो और तुम्हारा नाम क्या है? प्रभु शिवजी अपने स्थानपर स्थित हैं अथवा कहीं अन्यत्र गये हुए हैं, ठीक-ठीक बताओ ॥ 10 ॥

सनत्कुमार बोले- इन्द्रके द्वारा इस प्रकार पूछे गये उस तपस्वीने कुछ नहीं कहा। तब इन्द्रने पुनः पूछा, किंतु वह दिगम्बर कुछ नहीं बोला ॥। 11 ॥

तब लोकाधीश्वर इन्द्रने पुनः पूछा, किंतु लीलारूपधारी महायोगी प्रभु शंकरजी मौन ही रहे। इस प्रकार इन्द्रके द्वारा बार-बार पूछे गये वे दिगम्बर भगवान् शिव इन्द्रके ज्ञानकी परीक्षा लेनेके लिये कुछ नहीं बोले ॥ 12-13 ॥ तत्पश्चात् तीनों लोकोंके ऐश्वर्यसे गर्वित इन्द्रको महान् क्रोध उत्पन्न हुआ और उन जटाधारी दिगम्बरकी भर्त्सना करते हुए उन्होंने यह वचन कहा- ॥ 14 ॥

इन्द्र बोले- हे दुर्मते। मेरे द्वारा पूछे जानेपर भी तुमने उत्तर नहीं दिया। अतः मैं इस वज्रसे तुम्हारा वध करता हूँ, देखता हूँ कि कौन तुम्हारी रक्षा करता है ॥ 15 ॥सनत्कुमार बोले- ऐसा कहकर उन इन्द्रने क्रोधसे उस दिगम्बरकी और देखकर उसे मारने के लिये [हाथमें] वज्र उठा लिया ॥ 16 ॥

तब सदाशिव प्रभु शंकरने इन्द्रको हाथमें वज्र लिये हुए देखकर उस वज्रपातको स्तम्भित कर दिया ॥ 17 ॥

तत्पश्चात् अत्यन्त भयंकर तथा विकराल नेवाले रुद्र क्रुद्ध हो अपने तेजसे शीघ्र ही प्रज्वलित हो उठे, मानो जला डालेंगे ॥ 18 ॥

भुजाके स्तम्भित हो जानेसे इन्द्र मन-ही-मन इस प्रकार प्रज्वलित हो गये, जैसे मन्त्र एवं औषधिसे अपने पराक्रमको रुद्ध देखकर सर्प प्रज्वलित होता है ॥ 19 ll

तब अपने तेजसे प्रज्वलित होते हुए उस पुरुषको देखकर और बुद्धिसे उन्हें प्रभु शंकर जानकर बृहस्पतिने प्रणाम किया। उसके बाद उदारबुद्धिवाले बृहस्पति हाथ जोड़कर पृथ्वीपर दण्डवत् प्रणाम करके प्रभुकी स्तुति करने लगे- 20-21 ॥

गुरु बोले- देवाधिदेव, महादेव, परमात्मस्वरूप, सर्वसमर्थ, तीन नेत्रवाले तथा जटाजूटधारी महेश्वर आपको प्रणाम है। दीनोंके नाथ, सर्वव्यापक, अन्धका सुरका वध करनेवाले, त्रिपुरका वध करनेवाले, शर्व, परमेष्ठी तथा ब्रह्मस्वरूप आप [शिव] को नमस्कार है ।। 22-23 ll

विरूपाक्ष, रुद्र, बहुरूप, विरूप, अतिरूप तथा रूपसे अतीत आप शम्भुको नमस्कार है ॥ 24 ॥ दक्षयज्ञका विध्वंस करनेवाले, यज्ञोंका फल देनेवाले, यज्ञस्वरूप तथा श्रेष्ठ कर्ममें प्रवृत्त | करनेवाले आप [शिव] को नमस्कार है। कालान्तक, कालस्वरूप, कालरूप सर्पको धारण करनेवाले, परमेश्वर तथा सर्वत्र व्यापक आप [ शिव] को नमस्कार है ।। 25-26 ।।

ब्रह्माके सिरको काटनेवाले, ब्रह्मा तथा चन्द्रमासे स्तुत आपको नमस्कार है। ब्राह्मणोंका हित करनेवाले आपको नमस्कार है, आप परमात्माको नमस्कार है ॥ 27 ॥आप ही अग्नि, वायु तथा आकाश हैं। आप ही जल तथा पृथ्वी हैं। आप ही सूर्य, चन्द्रमा तथा नक्षत्र हैं। आप ही समस्त तारागण हैं। आप ही विष्णु हैं तथा आप ही उनसे स्तुत परमेश्वर हैं। ही सनकादि मुनि हैं, आप ही ब्रह्मा हैं तथा आप ही तपोधन नारद हैं। आप ही सारे जगत्के ईश्वर हैं तथा आप ही जगत्स्वरूप हैं। आप ही सबसे अन्वित, सबसे भिन्न एवं प्रकृतिसे परे हैं ।। 28-30 ॥

आप ही ब्रह्मा नाम धारणकर रजोगुणसे युक्त होकर सभी लोकोंकी सृष्टि करते हैं। आप ही विष्णुरूप होकर सत्त्वगुणयुक्त हो सम्पूर्ण जगत्का पालन करते हैं ।। 31 ।। हे महादेव! आप ही हरका रूप धारण करके तमोगुणसे युक्त होकर सम्पूर्ण पांचभौतिक जगत्का | लीलापूर्वक संहार करते हैं ॥ 32 ॥

हे विश्वभावन! आपके ही ध्यानबलसे सूर्य तपता है, चन्द्रमा लोकमें अमृत बरसाता है और पवन बहता है ।। 33 ।।

हे शंकर आपके ही ध्यानबलसे मेघ जलकी वृष्टि करते हैं और आपके ही बलसे इन्द्र पुत्रके समान त्रिलोकीकी रक्षा करते हैं। मेघ, सभी देवता एवं मुनीश्वर आपके ध्यानबलसे तथा आपके भयसे चकित होकर अपने - अपने कर्तव्यका पालन करते हैं ।। 34-35 ।।

हे रुद्र! आपके चरणकमलके सेवनके प्रभावसे ही मनुष्य इस पृथ्वीपर अन्य देवताओंकी उपासना नहीं करते हैं और इस त्रिलोकके ऐश्वर्यका भोग करते हैं। इतना ही नहीं, वे आपके चरणकमलोंकी सेवासे ही योगियोंके लिये भी अगम्य तथा दुर्लभ गति प्राप्त करते हैं ।। 36-37 ॥

सनत्कुमार बोले [हे व्यासजी!] इस प्रकार बृहस्पतिने लोककल्याणकारी शिवजीकी स्तुति करके उन ईश्वरके चरणोंपर इन्द्रको गिराया ॥ 38 ॥ सिर नीचा किये हुए इन्द्रको शिवजीके चरणोंमें गिराकर विनयावनत बृहस्पतिने शिवजीसे यह कहा- ॥ 39 ॥

बृहस्पति बोले- हे दीनानाथ! हे महादेव! आपके चरणोंपर गिरे हुए इन्द्रका उद्धार कीजिये और अपने नेत्रज क्रोधको शान्त कीजिये ॥ 40 ॥हे महादेव! आप प्रसन्न हो जाइये और शरण में आये हुए इन्द्रकी रक्षा कीजिये, आपके ललाटस्थित नेत्रसे उत्पन्न हुई यह अग्नि शान्त हो ॥ 41 ॥

सनत्कुमार बोले-गुरु बृहस्पतिकी यह बात सुनकर करुणासिन्धु देवदेव महेश्वरने मेघके समान गम्भीर वाणीसे कहा- ॥ 42 ॥

महेश्वर बोले- हे बृहस्पते। मैं अपने नेत्रसे उत्पन्न हुए क्रोधको किस प्रकार धारण करूँ, सर्प अपनी छोड़ी गयी केंचुलको पुनः धारण नहीं करता है ॥ 43 ॥

सनत्कुमार बोले- शिवका यह वचन सुनकर क्लेशयुक्त तथा भयसे व्याकुल चित्तवाले बृहस्पतिने कहा- ॥ 44 ॥

बृहस्पति बोले हे देव! हे भगवन्! आपको भक्तोंपर सर्वदा दया करनी चाहिये। हे शंकर! आप अपने भक्तवत्सल नामको सत्य कीजिये। हे देवेश! आप अपने इस अत्यन्त उग्र तेजको अन्यत्र छोड़ दीजिये। हे समस्त भक्तोंका उद्धार करनेवाले! आप इन्द्रका उद्धार कीजिये ।। 45-46 ।।

सनत्कुमार बोले- बृहस्पतिके ऐसा कहनेपर भक्त-वत्सल नामवाले तथा भक्तोंका दुःख दूर करनेवाले रुद्र प्रसन्नचित्त होकर देवपूज्य बृहस्पतिसे कहने लगे-ll 47 ll

शिवजी बोले- हे तात! मैं [तुम्हारी] इस स्तुतिसे प्रसन्न होकर उत्तम वर देता हूँ। इन्द्रको जीवनदान देनेके कारण तुम 'जीव'- इस नामसे विख्यात होओ। मेरे भालस्थित नेत्रसे इन्द्रको मारनेवाली जो यह अग्नि उत्पन्न हुई है, इसे मैं दूर फेंक देता हूँ, जिससे यह इन्द्रको पीड़ा न पहुँचाये ।। 48-49 ।।

सनत्कुमार बोले- ऐसा कहकर शंकरजीने अपने तृतीय नेत्रसे उत्पन्न अपने तेजरूप अद्भुत अग्निको हाथमें लेकर क्षारसमुद्रमें फेंक दिया। तत्पश्चात् महालीला करनेवाले भगवान् शंकर अन्तर्धान हो गये । इन्द्र एवं बृहस्पति भयसे मुक्त हो परम सुखी हुए ।। 50-51 ॥इस प्रकार जिनके दर्शनके लिये इन्द्र एवं बृहस्पति जा रहे थे, उनका दर्शन पाकर वे कृतार्थ हो गये और प्रसन्नतापूर्वक अपने स्थानको लौट गये ॥ 52 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] तारकासुरके पुत्र तारकाक्ष, विद्युन्माली एवं कमलाक्षकी तपस्यासे प्रसन्न ब्रह्माद्वारा उन्हें वरकी प्राप्ति, तीनों पुरोंकी शोभाका वर्णन
  2. [अध्याय 2] तारकपुत्रोंसे पीड़ित देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और उनके परामर्शके अनुसार असुर- वधके लिये भगवान् शंकरकी स्तुति करना
  3. [अध्याय 3] त्रिपुरके विनाशके लिये देवताओंका विष्णुसे निवेदन करना, विष्णुद्वारा त्रिपुरविनाशके लिये यज्ञकुण्डसे भूतसमुदायको प्रकट करना, त्रिपुरके भयसे भूतोंका पलायित होना, पुनः विष्णुद्वारा देवकार्यकी सिद्धिके लिये उपाय सोचना
  4. [अध्याय 4] त्रिपुरवासी दैत्योंको मोहित करनेके लिये भगवान् विष्णुद्वारा एक मुनिरूप पुरुषकी उत्पत्ति, उसकी सहायताके लिये नारदजीका त्रिपुरमें गमन, त्रिपुराधिपका दीक्षा ग्रहण करना
  5. [अध्याय 5] मायावी यतिद्वारा अपने धर्मका उपदेश, त्रिपुरवासियोंका उसे स्वीकार करना, वेदधर्मके नष्ट हो जानेसे त्रिपुरमें अधर्माचरणकी प्रवृत्ति
  6. [अध्याय 6] त्रिपुरध्वंसके लिये देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  7. [अध्याय 7] भगवान् शिवकी प्रसन्नताके लिये देवताओंद्वारा मन्त्रजप, शिवका प्राकट्य तथा त्रिपुर- विनाशके लिये दिव्य रथ आदिके निर्माणके लिये विष्णुजीसे कहना
  8. [अध्याय 8] विश्वकर्माद्वारा निर्मित सर्वदेवमय दिव्य रथका वर्णन
  9. [अध्याय 9] ब्रह्माजीको सारथी बनाकर भगवान् शंकरका दिव्य रथमें आरूढ़ होकर अपने गणों तथा देवसेनाके साथ त्रिपुर- वधके लिये प्रस्थान, शिवका पशुपति नाम पड़नेका कारण
  10. [अध्याय 10] भगवान् शिवका त्रिपुरपर सन्धान करना, गणेशजीका विघ्न उपस्थित करना, आकाशवाणीद्वारा बोधित होनेपर शिवद्वारा विघ्ननाशक गणेशका पूजन, अभिजित् मुहूर्तमें तीनों पुरोंका एकत्र होना और शिवद्वारा बाणाग्निसे सम्पूर्ण त्रिपुरको भस्म करना, मयदानवका बचा रहना
  11. [अध्याय 11] त्रिपुरदाहके अनन्तर भगवान् शिवके रौद्ररूपसे भयभीत देवताओं द्वारा उनकी स्तुति और उनसे भक्तिका वरदान प्राप्त करना
  12. [अध्याय 12] त्रिपुरदाहके अनन्तर शिवभक्त मयदानवका भगवान् शिवकी शरणमें आना, शिवद्वारा उसे अपनी भक्ति प्रदानकर वितललोकमें निवास करनेकी आज्ञा देना, देवकार्य सम्पन्नकर शिवजीका अपने लोकमें जाना
  13. [अध्याय 13] बृहस्पति तथा इन्द्रका शिवदर्शन के लिये कैलासकी ओर प्रस्थान, सर्वज्ञ शिवका उनकी परीक्षा लेनेके लिये दिगम्बर जटाधारी रूप धारणकर मार्ग रोकना, कुद्ध इन्द्रद्वारा उनपर वज्रप्रहारकी चेष्टा, शंकरद्वारा उनकी भुजाको स्तम्भित कर देना, बृहस्पतिद्वारा उनकी स्तुति, शिवका प्रसन्न होना और अपनी नेत्राग्निको क्षार-समुद्रमें फेंकना
  14. [अध्याय 14] क्षारसमुद्रमें प्रक्षिप्त भगवान् शंकरकी नेत्राग्निसे समुद्रके पुत्रके रूपमें जलन्धरका प्राकट्य, कालनेमिकी पुत्री वृन्दाके साथ उसका विवाह
  15. [अध्याय 15] राहुके शिरश्छेद तथा समुद्रमन्थनके समयके देवताओंके छलको जानकर जलन्धरद्वारा क्रुद्ध होकर स्वर्गपर आक्रमण, इन्द्रादि देवोंकी पराजय, अमरावतीपर जलन्धरका आधिपत्य, भयभीत देवताओंका सुमेरुकी गुफामें छिपना
  16. [अध्याय 16] जलन्धरसे भयभीत देवताओंका विष्णुके समीप जाकर स्तुति करना, विष्णुसहित देवताओंका जलन्धरकी सेनाके साथ भयंकर युद्ध
  17. [अध्याय 17] विष्णु और जलन्धरके युद्धमें जलन्धरके पराक्रमसे सन्तुष्ट विष्णुका देवों एवं लक्ष्मीसहित उसके नगरमें निवास करना
  18. [अध्याय 18] जलन्धरके आधिपत्यमें रहनेवाले दुखी देवताओंद्वारा शंकरकी स्तुति, शंकरजीका देवर्षि नारदको जलन्धरके पास भेजना, वहाँ देवोंको आश्वस्त करके नारदजीका जलन्धरकी सभा में जाना, उसके ऐश्वर्यको देखना तथा पार्वतीके सौन्दर्यका वर्णनकर उसे प्राप्त करनेके लिये
  19. [अध्याय 19] पार्वतीको प्राप्त करनेके लिये जलन्धरका शंकरके पास दूतप्रेषण, उसके वचनसे उत्पन्न क्रोधसे शम्भुके भ्रूमध्यसे एक भयंकर पुरुषकी उत्पत्ति, उससे भयभीत जलन्धरके दूतका पलायन, उस पुरुषका कीर्तिमुख नामसे शिवगण
  20. [अध्याय 20] दूतके द्वारा कैलासका वृत्तान्त जानकर जलन्धरका अपनी सेनाको युद्धका आदेश देना, भयभीत देवोंका शिवकी शरणमें जाना, शिवगणों तथा जलन्धरकी सेनाका युद्ध, शिवद्वारा कृत्याको उत्पन्न करना, कृत्याद्वारा शुक्राचार्यको छिपा लेना
  21. [अध्याय 21] नन्दी, गणेश, कार्तिकेय आदि शिवगणोंका कालनेमि, शुम्भ तथा निशुम्भ के साथ घोर संग्राम, वीरभद्र तथा जलन्धरका युद्ध, भयाकुल शिवगणोंका शिवजीको सारा वृत्तान्त बताना
  22. [अध्याय 22] श्रीशिव और जलन्धरका युद्ध, जलन्धरद्वारा गान्धर्वी मायासे शिवको मोहितकर शीघ्र ही पार्वतीके पास पहुँचना, उसकी मायाको जानकर पार्वतीका अदृश्य हो जाना और भगवान् विष्णुको जलन्धरपत्नी वृन्दाके पास जानेके लिये कहना
  23. [अध्याय 23] विष्णुद्वारा माया उत्पन्नकर वृन्दाको स्वप्नके माध्यमसे मोहित करना और स्वयं जलन्धरका रूप धारणकर वृन्दाके पातिव्रतका हरण करना, वृन्दाद्वारा विष्णुको शाप देना तथा वृन्दाके तेजका पार्वतीमें विलीन होना
  24. [अध्याय 24] दैत्यराज जलन्धर तथा भगवान् शिवका घोर संग्राम, भगवान् शिवद्वारा चक्रसे जलन्धरका शिरश्छेदन, जलन्धरका तेज शिवमें प्रविष्ट होना, जलन्धर- वधसे जगत्में सर्वत्र शान्तिका विस्तार
  25. [अध्याय 25] जलन्धरवधसे प्रसन्न देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  26. [अध्याय 26] विष्णुजीके मोहभंगके लिये शंकरजीकी प्रेरणासे देवोंद्वारा मूलप्रकृतिकी स्तुति मूलप्रकृतिद्वारा आकाशवाणीके रूपमें देवोंको आश्वासन, देवताओंद्वारा त्रिगुणात्मिका देवियोंका स्तवन, विष्णुका मोहनाश, धात्री (आँवला), मालती तथा तुलसीकी उत्पत्तिका आख्यान
  27. [अध्याय 27] शंखचूडकी उत्पत्तिकी कथा
  28. [अध्याय 28] शंखचूडकी पुष्कर - क्षेत्रमें तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरकी प्राप्ति, ब्रह्माकी प्रेरणासे शंखचूडका तुलसीसे विवाह
  29. [अध्याय 29] शंखचूडका राज्यपदपर अभिषेक, उसके द्वारा देवोंपर विजय, दुखी देवोंका ब्रह्माजीके साथ वैकुण्ठगमन, विष्णुद्वारा शंखचूडके पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना और विष्णु तथा ब्रह्माका शिवलोक गमन
  30. [अध्याय 30] ब्रह्मा तथा विष्णुका शिवलोक पहुँचना, शिवलोककी तथा शिवसभाकी शोभाका वर्णन, शिवसभाके मध्य उन्हें अम्बासहित भगवान् शिवके दिव्यस्वरूपका दर्शन और शंखचूडसे प्राप्त कष्टोंसे मुक्ति के लिये प्रार्थना
  31. [अध्याय 31] शिवद्वारा ब्रह्मा-विष्णुको शंखचूडका पूर्ववृत्तान्त बताना और देवोंको शंखचूडवथका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] भगवान् शिक्के द्वारा शंखचूडको समझानेके लिये गन्धर्वराज चित्ररथ (पुष्पदन्त ) को दूतके रूपमें भेजना, शंखचूडद्वारा सन्देशकी अवहेलना और युद्ध करनेका अपना निश्चय बताना, पुष्पदन्तका वापस आकर सारा वृत्तान्त शिवसे निवेदित करना
  33. [अध्याय 33] शंखचूडसे युद्धके लिये अपने गणोंके साथ भगवान् शिवका प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] तुलसीसे विदा लेकर शंखचूडका युद्धके लिये ससैन्य पुष्पभद्रा नदीके तटपर पहुँचना
  35. [अध्याय 35] शंखचूडका अपने एक बुद्धिमान् दूतको शंकरके पास भेजना, दूत तथा शिवकी वार्ता, शंकरका सन्देश लेकर दूतका वापस शंखचूडके पास आना
  36. [अध्याय 36] शंखचूडको उद्देश्यकर देवताओंका दानवोंके साथ महासंग्राम
  37. [अध्याय 37] शंखचूडके साथ कार्तिकेय आदि महावीरोंका युद्ध
  38. [अध्याय 38] श्रीकालीका शंखचूडके साथ महान् युद्ध, आकाशवाणी सुनकर कालीका शिवके पास आकर युद्धका वृत्तान्त बताना
  39. [अध्याय 39] शिव और शंखमूहके महाभयंकर युद्ध शंखचूडके सैनिकोंके संहारका वर्णन
  40. [अध्याय 40] शिव और शंखचूडका युद्ध, आकाशवाणीद्वारा शंकरको युद्धसे विरत करना, विष्णुका ब्राह्मणरूप धारणकर शंखचूडका कवच माँगना, कवचहीन शंखचूडका भगवान् शिवद्वारा वध, सर्वत्र हर्षोल्लास
  41. [अध्याय 41] शंखचूडका रूप धारणकर भगवान् विष्णुद्वारा तुलसीके शीलका हरण, तुलसीद्वारा विष्णुको पाषाण होनेका शाप देना, शंकरजीद्वारा तुलसीको सान्त्वना, शंख, तुलसी, गण्डकी एवं शालग्रामकी उत्पत्ति तथा माहात्म्यकी कथा
  42. [अध्याय 42] अन्धकासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवके वरदानसे हिरण्याक्षद्वारा अन्धकको पुत्ररूपमें प्राप्त करना, हिरण्याक्षद्वारा पृथ्वीको पाताललोकमें ले जाना, भगवान् विष्णुद्वारा वाराहरूप धारणकर हिरण्याक्षका वधकर पृथ्वीको यथास्थान स्थापित करना
  43. [अध्याय 43] हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्मासे वरदान पाकर उसका अत्याचार, भगवान् नृसिंहद्वारा उसका वध और प्रह्लादको राज्यप्राप्ति
  44. [अध्याय 44] अन्धकासुरकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे अनेक वरोंकी प्राप्ति, त्रिलोकीको जीतकर उसका स्वेच्छाचारमें प्रवृत्त होना, मन्त्रियोंद्वारा पार्वतीके सौन्दर्यको सुनकर मुग्ध हो शिवके पास सन्देश भेजना और शिवका उत्तर सुनकर
  45. [अध्याय 45] अन्धकासुरका शिवकी सेनाके साथ युद्ध
  46. [अध्याय 46] भगवान् शिव एवं अन्धकासुरका युद्ध, अन्धककी मायासे उसके रक्तसे अनेक अन्धकगणोंकी उत्पत्ति, शिवकी प्रेरणासे विष्णुका कालीरूप धारणकर दानवोंके रक्तका पान करना, शिवद्वारा अन्धकको अपने त्रिशूलमें लटका लेना, अन्धककी स्तुतिसे प्रसन्न हो शिवद्वारा उसे गाणपत्य पद प्रदान करना
  47. [अध्याय 47] शुक्राचार्यद्वारा युद्धमें मरे हुए दैत्योंको संजीवनी विद्यासे जीवित करना, दैत्योंका युद्धके लिये पुनः उद्योग, नन्दीश्वरद्वारा शिवको यह वृत्तान्त बतलाना, शिवकी आज्ञासे नन्दीद्वारा युद्ध-स्थलसे शुक्राचार्यको शिवके पास लाना, शिवद्वारा शुक्राचार्यको निगलना
  48. [अध्याय 48] शुक्राचार्यकी अनुपस्थितिसे अन्धकादि दैत्योंका दुखी होना, शिवके उदरमें शुक्राचार्यद्वारा सभी लोकों तथा अन्धकासुरके युद्धको देखना और फिर शिवके शुकरूपमें बाहर निकलना, शिव-पार्वतीका उन्हें पुत्ररूपमें स्वीकारकर विदा करना
  49. [अध्याय 49] शुक्राचार्यद्वारा शिवके उदरमें जपे गये मन्त्रका वर्णन, अन्धकद्वारा भगवान् शिवकी नामरूपी स्तुति प्रार्थना, भगवान् शिवद्वारा अन्धकासुरको जीवनदानपूर्वक गाणपत्य पद प्रदान करना
  50. [अध्याय 50] शुक्राचार्यद्वारा काशीमें शुक्रेश्वर लिंगकी स्थापनाकर उनकी आराधना करना, मूर्त्यष्टक स्तोत्रसे उनका स्तवन, शिवजीका प्रसन्न होकर उन्हें मृतसंजीवनी विद्या प्रदान करना और ग्रहोंके मध्य प्रतिष्ठित करना
  51. [अध्याय 51] प्रह्लादकी वंशपरम्परामें बलिपुत्र वाणासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवभक्त बाणासुरद्वारा ताण्डव नृत्यके प्रदर्शनसे शंकरको प्रसन्न करना, वरदानके रूपमें शंकरका बाणासुरकी नगरीमें निवास करना, शिव-पार्वतीका बिहार, पार्वतीद्वारा बाणपुत्री ऊषाको वरदान
  52. [अध्याय 52] अभिमानी बाणासुरद्वारा भगवान् शिवसे युद्धकी याचना, बाणपुत्री ऊषाका रात्रिके समय स्वप्नमें अनिरुद्ध के साथ मिलन, चित्रलेखाद्वारा योगबलसे अनिरुद्धका द्वारकासे अपहरण, अन्तःपुरमें अनिरुद्ध और ऊषाका मिलन तथा द्वारपालोंद्वारा यह समाचार बाणासुरको बताना
  53. [अध्याय 53] क्रुद्ध बाणासुरका अपनी सेनाके साथ अनिरुद्धपर आक्रमण और उसे नागपाशमें बांधना, दुर्गाके स्तवनद्वारा अनिरुद्धका बन्धनमुक्त होना
  54. [अध्याय 54] नारदजीद्वारा अनिरुद्धके बन्धनका समाचार पाकर श्रीकृष्णकी शोणितपुरपर चढ़ाई, शिवके साथ उनका घोर युद्ध, शिवकी आज्ञासे श्रीकृष्णका उन्हें जृम्भणास्त्रसे मोहित करके बाणासुरकी सेनाका संहार करना
  55. [अध्याय 55] भगवान् कृष्ण तथा बाणासुरका संग्राम, श्रीकृष्णद्वारा बाणकी भुजाओंका काटा जाना, सिर काटनेके लिये उद्यत हुए श्रीकृष्णको शिवका रोकना और उन्हें समझाना, बाणका गर्वापहरण, श्रीकृष्ण और बाणासुरकी मित्रता, ऊषा अनिरुद्धको लेकर श्रीकृष्णका द्वारका आना
  56. [अध्याय 56] बाणासुरका ताण्डवनृत्यद्वारा भगवान् शिवको प्रसन्न करना, शिवद्वारा उसे अनेक मनोऽभिलषित वरदानोंकी प्राप्ति, बाणासुरकृत शिवस्तुति
  57. [अध्याय 57] महिषासुर के पुत्र गजासुरकी तपस्या तथा ब्रह्माद्वारा वरप्राप्ति, उन्मत्त गजासुरद्वारा अत्याचार, उसका काशीमें आना, देवताओंद्वारा भगवान् शिवसे उसके बधकी प्रार्थना, शिवद्वारा उसका वध और उसकी प्रार्थनासे उसका धर्म धारणकर 'कृत्तिवासा' नामसे विख्यात होना एवं कृत्तिवासेश्वर लिंगकी स्थापना करना
  58. [अध्याय 58] काशीके व्याघ्रेश्वर लिंग-माहात्म्यके सन्दर्भमें दैत्य दुन्दुभिनिर्ह्रादके वधकी कथा
  59. [अध्याय 59] काशीके कन्दुकेश्वर शिवलिंगके प्रादुर्भावमें पार्वतीद्वारा बिदल एवं उत्पल दैत्योंके वधकी कथा, रुद्रसंहिताका उपसंहार तथा इसका माहात्म्य