ऋषिगण बोले – [ हे सूतजी !] आपने मुक्तिकी चर्चा की, उस मुक्तिमें क्या होता है और उसकी कैसी अवस्था होती है? हमलोगोंको यह बताइये ॥ 1 ॥
सूतजी बोले- सुनिये, मैं आपलोगोंको बता रहा हूँ। सांसारिक दुःखोंका नाश करनेवाली एवं परम आनन्द देनेवाली मुक्ति चार प्रकारकी कही गयी है। सारूप्य, सालोक्य, सान्निध्य एवं सायुज्य । इनमें जो चौथी सायुज्य मुक्ति होती है, वह इस [शिवरात्रि- ] व्रतके करनेसे प्राप्त होती है ॥ 2-3 ॥
हे श्रेष्ठ मुनियो ! मुक्ति प्रदान करनेवाले केवल शिवजी ही कहे जाते हैं। ब्रह्मा आदिको मुक्ति देनेवाला नहीं जानना चाहिये, वे केवल [धर्म, अर्थ और कामरूप] त्रिवर्गको देनेवाले हैं ॥ 4 ॥
ब्रह्मा आदि त्रिगुणके अधीश्वर हैं और शिवजी त्रिगुणसे परे हैं। वे निर्विकार, परब्रह्म, तुरीय और प्रकृतिसे परे हैं ॥ 5 ll
वे ज्ञानरूप, अव्यय, साक्षी, ज्ञानगम्य, स्वयं अद्वय, कैवल्य मुक्तिके दाता एवं त्रिवर्गको भी देनेवाले हैं ॥ 6 ॥
कैवल्य नामक पाँचवी मुक्ति मनुष्योंको सर्वथा दुर्लभ है। हे ऋषिगणो! मैं उसका लक्षण बताऊँगा, आपलोग सुनिये ॥ 7 ॥
हे मुनीश्वरो! यह सारा जगत् जिससे उत्पन्न होता है, जिसके द्वारा पालित होता है और निश्चय ही वह जिसमें लीन होता है तथा जिससे यह सब कुछ व्याप्त है, वही शिवका स्वरूप कहा जाता है। [ वही] सकल एवं निष्कल- दो रूपोंमें वेदों में वर्णित है ॥ 8-9 ॥
विष्णु उस रूपको न जान सके, ब्रह्माजी भी उसे न जान सके, सनत्कुमार आदि न जान सके और नारद भी नहीं जान सके। व्यासपुत्र शुकदेव, व्यासजी, उनसे पहलेके सभी मुनीश्वर, सभी देवता, वेद तथा शास्त्र भी उसे नहीं जान पाये ।। 10-11 ॥
वह सत्य, ज्ञानरूप, अनन्त, सत् चित् आनन्दस्वरूप,
निर्गुण, उपाधिरहित, अव्यय, शुद्ध एवं निरंजन है ॥ 12 ॥वह न रक्त है, न पीत, न श्वेत, न नील है, न ह्रस्व, न दीर्घ, न स्थूल एवं न तो सूक्ष्म ही है ॥ 13 ॥ मनसहित वाणी आदि इन्द्रियाँ जिसे बिना प्राप्त किये ही लौट आती हैं, वही परब्रह्म 'शिव' नामसे कहा गया है ॥ 14 ॥
जिस प्रकार आकाश व्यापक है, उसी प्रकार यह [ शिवतत्त्व] भी व्यापक है, यह मायासे परे, परात्मा, द्वन्द्वरहित तथा मत्सरशून्य है ॥ 15 ॥ हैं। हे द्विजो! उसकी प्राप्ति शिवविषयक ज्ञानके उदयसे, शिवके भजनसे अथवा सज्जनोंके सूक्ष्म विचारसे होती है ॥ 16 ॥
इस लोकमें ज्ञानका उदय तो अत्यन्त दुष्कर है, किंतु भजन सरल कहा गया है। अतः हे द्विजो ! मुक्तिके लिये शिवका भजन कीजिये शिवजी भजनके अधीन हैं। वे ज्ञानात्मा हैं तथा मोक्ष देनेवाले हैं। बहुत-से सिद्धोंने भक्तिके द्वारा ही आनन्दपूर्वक परम मुक्ति प्राप्त की है ।। 17-18 ।।
शिवकी भक्ति ज्ञानकी माता और भोग एवं मोक्षको देनेवाली है प्रेमकी उत्पत्तिके लक्षणवाली वह भक्ति शिवके प्रसादसे ही सुलभ होती है ॥ 19 ॥
हे द्विजो वह भक्ति सगुण एवं निर्गुणके भेदसे अनेक प्रकारकी कही गयी है। जैसे-जैसे वैधी और स्वाभाविकी भक्ति बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे श्रेष्ठ होती जाती है ॥ 20 ॥
वह नैष्ठिकी तथा अनैष्ठिकीके भेदसे दो प्रकारकी कही गयी है। नैष्ठिकी भक्तिको छः प्रकारकी जानना चाहिये। दूसरी अनैष्ठिकी भक्ति एक प्रकारकी कही गयी है ।। 21 ।।
इसी प्रकार पण्डितलोग उसे विहिता तथा अविहिताके भेदसे अनेक प्रकारवाली कहते हैं, उन दोनोंके अनेक प्रकार होनेके कारण यहाँ उसके विस्तारका वर्णन नहीं किया जा रहा है ॥ 22 ॥
उन दोनोंको श्रवणादि भेदसे नौ-नौ प्रकारकी जानना चाहिये। वे शिवकी कृपाके बिना अत्यन्त कठिन हैं, किंतु शिवकी प्रसन्नतासे अत्यन्त सरल हैं । ll23॥हे द्विजो ! भक्ति एवं ज्ञान परस्पर भिन्न नहीं हैं, शिवजीने उनका वर्णन कर दिया है। इसलिये ज्ञानी और भक्तमें भेद नहीं समझना चाहिये, ज्ञान हो या भक्ति इनका पालन करनेवालेको सर्वदा सुखकी प्राप्ति होती है ॥ 24 ॥
हे द्विजो ! भक्तिका विरोध करनेवालेको विज्ञान प्राप्त नहीं होता है, शिवकी भक्ति करनेवालेमें शीघ्र ही ज्ञानका उदय होता है ॥ 25 ॥
इसलिये हे मुनीश्वरो ! शिवकी भक्ति [ अवश्य ] करनी चाहिये; उसीसे सब कुछ सिद्ध होगा, इसमें संशय नहीं है ॥ 26 ॥
आपलोगोंने मुझसे जो पूछा था, उसे मैंने कह दिया, जिसको सुनकर मनुष्य सभी पापोंसे छूट जाता है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ 27 ॥