ब्रह्माजी बोले- मुनिश्रेष्ठ नारद! इस प्रकार हम दोनों देवता गर्वरहित हो निरन्तर प्रणाम करते रहे। हम दोनोंके मनमें एक ही अभिलाषा थी कि इस ज्योतिर्लिंगके रूपमें प्रकट हुए परमेश्वर प्रत्यक्ष दर्शन दें ॥ 1 ॥
दोनोंके प्रतिपालक, अहंकारियोंका गर्व चूर्ण करनेवाले तथा सबके प्रभु अविनाशी शंकर हम दोनोंपर दयालु हो गये ॥ 2 ॥
उस समय वहाँ उन सुरश्रेष्ठसे ओम्-ओम् ऐसा शब्दरूप नाद प्रकट हुआ, जो स्पष्टरूपसे प्लुत स्वरमें सुनायी दे रहा था ॥ 3 ॥
जोरसे प्रकट होनेवाले उस शब्दके विषयमें 'यह क्या है' ऐसा सोचते हुए समस्त देवताओंके आराध्य भगवान् विष्णु मेरे साथ सन्तुष्टचित्तसे खड़े रहे। वे सर्वथा वैरभावसे रहित थे॥ 4 ll
उन्होंने लिंगके दक्षिण भागमें सनातन आदिवर्ण अकारका दर्शन किया। तदनन्तर उत्तर भागमें उकारका, मध्यभागमें मकारका और अन्तमें 'ओम्' इस नादका साक्षात् दर्शन किया ॥ 51/2 ॥
ऋषिश्रेष्ठ! दक्षिण भागमें प्रकट हुए आदिवर्ण अकारको सूर्य मण्डलके समान तेजोमय देखकर उन्होंने उत्तर भागमें उकार वर्णको अग्निके समान देखा। हे मुनिश्रेष्ठ! इसी तरह उन्होंने मध्यभागमें मकारको चन्द्रमण्डलके समान देखा ॥ 6-7 ॥
तदनन्तर उसके ऊपर शुद्ध स्फटिक मणिके समान निर्मल प्रभासे युक्त, तुरीयातीत, अमल, निष्कल, निरुपद्रव, निर्द्वन्द्र, अद्वितीय शून्यमय बाह्य और आभ्यन्तरके भेदसे रहित, बाह्याभ्यन्तर भेदसे युक्त, जगत्के भीतर और बाहर स्वयं ही स्थित, आदि, मध्य और अन्तसे रहित, आनन्दके आदिकारण तथा सबके परम आश्रय, सत्य, आनन्द एवं अमृतस्वरूप परब्रह्मका साक्षात्कार किया ॥ 8-10 ॥
[ उस समय श्रीहरि यह सोचने लगे कि ] यह | अग्निस्तम्भ यहाँ कहाँसे प्रकट हुआ है ? हम दोनों फिर इसकी परीक्षा करें। मैं इस अनुपम अग्निस्तम्भकेनीचे जाऊँगा। ऐसा विचार करते हुए श्रीहरिने वेट और शब्द दोनोंके आवेशसे युक्त विश्वात्मा शिवका चिन्तन किया। तब वहाँ एक ऋषि प्रकट हुए, जो ऋषिसमूहके परम साररूप माने जाते हैं ।। 11-12 ॥ उन्हीं ऋषिके द्वारा परमेश्वर श्रीविष्णुने जाना कि इस शब्दब्रह्ममय शरीरवाले परम लिंगके रूपये
साक्षात् परब्रह्मस्वरूप महादेवजी ही यहाँ प्रकट हुए हैं ॥ 13 ॥
ये चिन्तारहित अथवा अचिन्त्य रुद्र हैं, जहाँ जाकर मनसहित वाणी उसे प्राप्त किये बिना ही लौट आती है, उस परब्रह्म परमात्मा शिवका वाचक एकाक्षर प्रणव ही है, वे इसके वाच्यार्थरूप हैं ॥ 140 उस परम कारण, ऋत, सत्य, आनन्द एवं अमृतस्वरूप परात्पर परब्रह्मको इस एकाक्षरके द्वारा ही जाना जा सकता है ॥ 15 ॥
प्रणवके एक अक्षर अकारसे जगत्के बीजभूत अण्डजन्मा भगवान् ब्रह्माका बोध होता है। उसके दूसरे एक अक्षर उकारसे परमकारणरूप श्रीहरिका बोध होता है और तीसरे एक अक्षर मकारसे भगवान् नीललोहित शिवका ज्ञान होता है। अकार सृष्टिकर्ता है, उकार मोहमें डालनेवाला है और मकार नित्य अनुग्रह करनेवाला है। मकार-बोध्य सर्वव्यापी शिव बीजी [बीजमात्रके स्वामी हैं और अकारसंज्ञक मुझ ब्रह्माको बीज कहा जाता है। उकारसंज्ञक श्रीहरि योनि हैं। प्रधान और पुरुषके भी ईश्वर जो महेश्वर हैं, वे बीजी, बीज और योनि भी हैं। उन्हींको नाद | कहा गया है ।। 16-19 ॥
बीजी अपनी इच्छासे ही अपने बीजको अनेक रूपोंमें विभक्त करके स्थित हैं। इन बीजी भगवान् महेश्वरके लिंगसे अकाररूप बीज प्रकट हुआ ॥ 20 ॥
जो उकाररूप योनिमें स्थापित होकर सब ओर बढ़ने लगा, वह सुवर्णमय अण्डके रूपमें ही बतानेयोग्य था। उसका अन्य कोई विशेष लक्षण नहीं लक्षित होता था ॥ 21 ॥
वह दिव्य अण्ड अनेक वर्षोंतक जलमें हो स्थित रहा। तदनन्तर एक हजार वर्षके बाद उस अण्डके दो टुकड़े हो गये। जलमें स्थित हुआ वहअण्ड अजन्मा ब्रह्माजीकी उत्पत्तिका स्थान था और साक्षात् महेश्वरके आघातसे ही फूटकर दो भागों में बँट गया था। उस अवस्थामें ऊपर स्थित हुआ उसका सुवर्णमय कपाल बड़ी शोभा पाने लगा ॥ 22-23 ।। वही द्युलोकके रूपमें प्रकट हुआ तथा जो उसका दूसरा नीचेवाला कपाल था, वही यह पाँच
लक्षणोंसे युक्त पृथिवी है। उस अण्डसे चतुर्भुज ब्रह्मा
उत्पन्न हुए, जिनकी 'क' संज्ञा है ॥ 24 ॥
वे समस्त लोकोंके स्रष्टा हैं। इस प्रकार वे भगवान् महेश्वर ही 'अ', 'उ' और 'म्'- इन त्रिविध रूपोंमें वर्णित हुए हैं। इसी अभिप्रायसे उन ज्योतिर्लिंगस्वरूप सदाशिवने 'ओम्', 'ओम्'– ऐसा कहा- यह बात यजुर्वेदके श्रेष्ठ मन्त्र कहते हैं ॥ 25 ॥ यजुर्वेदके श्रेष्ठ मन्त्रोंका यह कथन सुनकर ऋचाओं और साममन्त्रोंने भी हमसे आदरपूर्वक यह कहा- हे हरे! हे ब्रह्मन् ! यह बात ऐसी ही है॥ 26 ॥
इस तरह देवेश्वर शिवको जानकर श्रीहरिने शक्तिसम्भूत मन्त्रोंद्वारा उत्तम एवं महान् अभ्युदयसे शोभित होनेवाले उन महेश्वर देवका स्तवन किया ।। 27 ।।
इसी बीचमें विश्वपालक भगवान् विष्णुने मेरे साथ एक और भी अद्भुत एवं सुन्दर रूपको देखा ॥ 28 ॥ हे मुने! वह रूप पाँच मुखों और दस भुजाओंसे अलंकृत था उसकी कान्ति कर्पूरके समान गौर थी। वह नाना प्रकारकी छटाओंसे और भाँति-भाँतिके आभूषणोंसे विभूषित था॥ 29 ॥ उस परम उदार, महापराक्रमी और महापुरुषके | लक्षणोंसे सम्पन्न अत्यन्त उत्कृष्ट रूपका दर्शन करके मेरे साथ श्रीहरि कृतार्थ हो गये॥ 30 ॥
तत्पश्चात् परमेश्वर भगवान् महेश प्रसन्न होकर अपने दिव्य शब्दमय रूपको प्रकट करके हँसते हुए खड़े हो गये ॥ 31 ॥
[ह्रस्व] अकार उनका मस्तक और दीर्घ अकार ललाट है। इकार दाहिना नेत्र और ईकार बाय नेत्र है ।। 32 ।।
उकारको उनका दाहिना और उकारको बायाँ कान बताया जाता है। ऋकार उन परमेश्वरका दायाँ कपोल है और ऋकार उनका बायाँ कपोल है।लृ और लु-ये उनकी नासिकाके दोनों छिद्र हैं। एकार उन सर्वव्यापी प्रभुका ऊपरी ओष्ठ है और ऐकार अधर है ।। 33-34 ॥
ओकार तथा औकार—ये दोनों क्रमशः उनकी ऊपर और नीचेकी दो दंतपंक्तियाँ हैं। अं और अः उन देवाधिदेव शूलधारी शिवके दोनों तालु हैं ॥ 35 ॥
क आदि पाँच अक्षर उनके दाहिने पाँच हाथ हैं। और च आदि पाँच अक्षर बायें पाँच हाथ हैं ॥ 36 ॥ ट आदि और त आदि पाँच-पाँच अक्षर उनके पैर हैं। पकार पेट है। फकारको दाहिना पार्श्व बताया जाता है और बकारको बायाँ पार्श्व। भकारको कंधा कहा जाता है। मकार उन योगी महादेव शम्भुका हृदय है ।। 37-38 ।।
यसे लेकर स तक [ य, र, ल, व, श, ष तथा स- ये सात अक्षर] सर्वव्यापी शिवकी सात धातुएँ हैं। हकारको उनकी नाभि और क्षकारको नासिका कहा जाता है ॥ 39 ॥
इस प्रकार निर्गुण एवं गुण-स्वरूप परमात्माके | शब्दमय रूपको भगवती उमासहित देखकर श्रीहरि | मेरे साथ कृतार्थ हो गये ॥ 40 ॥
इस प्रकार शब्द ब्रह्ममय शरीरधारी महेश्वर शिवका दर्शन पाकर मेरे साथ श्रीहरिने उन्हें प्रणाम करके पुनः ऊपरकी ओर देखा ॥ 41 ॥
उस समय उन्हें पाँच कलाओंसे युक्त, ओंकारजनित, शुद्ध स्फटिक मणिके समान सुन्दर, अड़तीस अक्षरोंवाले मन्त्रका साक्षात्कार हुआ ॥ 42 ॥ पुनः सम्पूर्ण धर्म तथा अर्थका साधक, बुद्धिस्वरूप, अत्यन्त हितकारक और सबको वशमें करनेवाला गायत्री नामक महान् मन्त्र लक्षित हुआ। वह चौबीस | अक्षरों तथा चार कलाओंसे युक्त श्रेष्ठ मन्त्र है। पंचाक्षरमन्त्र ( नमः शिवाय) आठ कलाओंसे युक्त है ।। 43-44 ।।
अभिचारसिद्धिके लिये प्रयोग किया जानेवाला मन्त्र तीस अक्षरोंसे सम्पन्न है, किंतु यजुर्वेदमें प्रयुक्त मन्त्र पच्चीस सुन्दर अक्षरोंका ही है ॥ 45 ॥
यह आठ कलाओंसे युक्त तथा सुश्वेत मन्त्र है, जिसका प्रयोग शान्तिकर्मकी सिद्धिके लिये किया जाता | है। इस मन्त्रके अतिरिक्त तेरह कलाओंसे युक्त जो श्रेष्ठमन्त्र है, वह बाल, युवा और वृद्ध आदि अवस्थाओंमें आनेवाले अनुसार उत्पत्ति, पालन तथा संहारका कारणरूप है। इसमें इकसठ वर्ण होते हैं ॥ 46-47 ॥
इसके पश्चात् विष्णुने मृत्युंजयमन्त्र, पंचाक्षरमन्त्र, चिन्तामणिमन्त्र' तथा दक्षिणामूर्तिमन्त्र' को देखा ॥ 48 ॥
इसके बाद भगवान् विष्णुने शंकरको 'तत्त्वमसि - वही तुम हो' - यह महावाक्य कहा। इस प्रकार उक्त पंचमन्त्रोंको प्राप्त करके वे भगवान् श्रीहरि उनका | जप करने लगे ॥ 49 ॥
इसके पश्चात् ऋक्, यजुः, सामरूप वर्णोंकी कलाओंसे युक्त, ईशान, ईशोंके मुकुट, पुरातन, पुरुष, अघोरहृदय, मनोहर, सर्वगुह्य, सदाशिव, ताण्डव नृत्यादि कालोंमें वामपादपर अवस्थित रहनेवाले, महादेव, महान् सर्पराजको आभूषणके रूपमें धारण करनेवाले, चारों ओर चरण और नेत्रवाले, कल्याणकारी, ब्रह्माके अधिपति, सृष्टि-स्थिति-संहारके कारणभूत, वरदायक साम्बमहेश्वरको | देखकर भगवान् विष्णु प्रसन्न मनसे प्रिय वचनोंद्वारा मेरे साथ उनकी स्तुति करने लगे ॥ 50-53 ॥