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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 2 (सती खण्ड) , अध्याय 16 - Sanhita 2, Khand 2 (सती खण्ड) , Adhyaya 16

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ब्रह्मा और विष्णुद्वारा शिवसे विवाहके लिये प्रार्थना करना तथा उनकी इसके लिये स्वीकृति

ब्रह्माजी बोले- भगवान् विष्णु आदि देवताओंद्वारा की गयी स्तुतिको सुनकर सबकी उत्पत्ति करनेवाले भगवान् शंकर बड़े प्रसन्न हुए और जोरसे हँसे ॥ 1 ॥

सपत्नीक ब्रह्माजी और भगवान् विष्णुको साथ आया हुआ देखकर महादेवजीने हमलोगों यथोचित वार्तालाप करके हमारे आगमनका कारण पूछा ॥ 2 ॥

रुद्र बोले- हे हरे। हे विधे! हे देवताओ और महर्षियो! आपलोग आज निर्भय होकर अपने आनेका ठीक-ठीक कारण बताइये। आपलोगोंकी स्तुतिसे मैं [बहुत ही] प्रसन्न हूँ। आपलोग किसलिये यहाँ आये हैं, कौन-सा कार्य आ पड़ा है, वह सब में सुनना चाहता हूँ ।। 3-4 ॥

ब्रह्माजी बोले- हे मुने महादेवजीके इस प्रकार पूछनेपर सभी लोकोंका पितामह में ब्रह्मा भगवान् विष्णुकी आज्ञासे कहने लगा ॥ 5 ॥ हे देवाधिदेव! हे महादेव! हे करुणासागर! हे प्रभो हम दोनों इन देवताओं और मुनियोंके साथ जिस उद्देश्यसे यहाँ आये हैं, उसे सुनिये ॥ 6 ॥ हे वृषभध्वज ! विशेष रूपसे आपके लिये ही हमलोग यहाँ आये हैं; क्योंकि हम तीनों सहायतार्थी हैं, [सृष्टिचक्र के संचालनरूप प्रयोजनकी सिद्धिके लिये एक-दूसरेके सहायक हैं] सहार्थीको सदा परस्पर यथायोग्य सहयोग करना चाहिये, अन्यथा यह जगत् टिक नहीं सकता ॥ 7 ॥

हे महेश्वर। कुछ ऐसे असुर उत्पन्न होंगे, जो मेरे द्वारा मारे जायँगे, कुछ भगवान् विष्णुके द्वारा और | कुछ आपके द्वारा वध्य होंगे। हे महाप्रभो। कुछ आपके वीर्यसे उत्पन्न पुत्रद्वारा मारे जायेंगे और कुछ असुर आपकी मायाके द्वारा वधको प्राप्त होंगे ॥ 8-9 ॥

आप भगवान् शंकरकी कृपासे ही देवताओंको सदा उत्तम सुख प्राप्त होगा। घोर असुरोंका विनाश करके आप जगत्‌को सदा स्वास्थ्य एवं अभय प्रदान करेंगे ॥ 10 ॥आप राग-द्वेषरहित, योगयुक्त एवं सर्वथा दयालु हैं, इसलिये हो सकता है कि आप असुरोंका वध न करें। हे ईश! जब ये आराधना करके वर प्राप्त कर लेंगे, तब सृष्टिकी स्थिति किस प्रकार रहेगी ? इसलिये हे वृषभध्वज उचित यही है कि आप [ इस सृष्टिकी स्थितिके लिये] सदैव असुरोंका वध करते रहें ।। 11-12 ।।

यदि सृष्टि, पालन तथा संहारकर्म न करने हों, तब हमारा तथा मायाका भिन्न-भिन्न शरीर धारण करना सार्थक नहीं रहेगा ॥ 13 ॥ वास्तवमें हम तीनों एक ही स्वरूपवाले हैं, किंतु कार्यके भेदसे भिन्न-भिन्न शरीर धारण करके स्थित हैं। यदि कार्यभेद न सिद्ध हो, तब तो हमारे रूपभेदका कोई प्रयोजन नहीं है ॥ 14 ॥

परमात्मा महेश्वर एक होते हुए भी अपनी मायाके कारण ही तीन रूपोंमें विभक्त हैं, वे प्रभु अपनी लीलासे स्वतन्त्र हैं ।॥ 15 ॥

श्रीहरि उनके वामांगसे उत्पन्न हुए हैं, मैं ब्रह्मा उनके दाहिने अंगसे उत्पन्न हुआ हूँ और आप उन सदाशिव के हृदयसे उत्पन्न हैं, अतः आप ही शिवजीके पूर्ण रूप हैं ।। 16 ll

हे प्रभो! इस प्रकार भिन्न स्वरूपवाले हम तीन रूपोंमें प्रकट हैं और जो [वस्तुतः ] उन शिवाशिवके पुत्र ही हैं। हे सनातन! इस यथार्थ तत्त्वको आप | हृदयसे अनुभव कीजिये ॥ 17 ॥

हे प्रभो! मैं और भगवान् विष्णु आपके आदेशसे प्रसन्नतापूर्वक लोककी सृष्टि और पालनका कार्य कर रहे हैं तथा कार्यकारणवश सपत्नीक भी हो गये हैं ॥ 18 ॥

अतः आप भी विश्वाहितके लिये तथा देवताओंक सुखके लिये एक परम सुन्दरी स्त्रीको पत्नीके रूपमें ग्रहण करें ।। 19 ।।

हे महेश्वर! एक और बात सुनिये। मुझे पहलेके वृत्तान्तका स्मरण हो आया है, जिसे पूर्वकालमें आपने ही शिवस्वरूपसे हमारे सामने कहा था ॥ 20 ॥

हे ब्रह्मन् ! मेरा ऐसा उत्तम रूप आपके अंगसे प्रकट होगा, जो लोकमें रुद्र नामसे प्रसिद्ध होगा ॥ 21 ॥आप ब्रह्मा सृष्टिकर्ता होंगे, श्रीहरि जगत्का पालन करनेवाले होंगे तथा में सगुण रुद्ररूप होकर संहार करनेवाला होऊंगा ॥ 22 ॥

मैं एक स्त्रीके साथ विवाह करके लोकका उत्तम कार्य करूंगा. [हे] स्वामिन्!] आप अपने द्वारा कहे गये वचनको याद करके अपनी प्रतिज्ञाको पूर्ण कीजिये ॥ 23 ॥

हे स्वामिन्! आपका आदेश है कि मैं सृष्टि करूँ, श्रीहरि पालन करें और आप स्वयं संहारके हेतु बनकर प्रकट हो, सो आप साक्षात् शिव ही संहारकतांके रूपमें प्रकट हुए हैं। आपके बिना हम दोनों अपना-अपना कार्य करनेमें समर्थ नहीं हैं। अतः आप लोकहितके कार्यमें तत्पर एक कामिनीको स्वीकार करें । ll 24-25 ।।

हे शम्भो ! जैसे लक्ष्मी भगवान् विष्णुकी और सावित्री मेरी सहधर्मिणी हैं, उसी प्रकार आप इस | समय अपनी सहचरी कान्ताको ग्रहण करें ।। 26 ।। ब्रह्माजी बोले- मेरी यह बात सुनकर मुस्कानयुक्त मुखमण्डलवाले वे लोकेश हर श्रीहरिके सामने मुझसे कहने लगे - ॥ 27 ॥ ईश्वर बोले- हे ब्रह्मन् ! हे विष्णो! आप दोनों मुझे सदा ही अत्यन्त प्रिय हैं, आप दोनोंको देखकर मुझे बड़ा आनन्द मिलता है ॥ 28 ॥

आपलोग समस्त देवताओंमें श्रेष्ठ और त्रिलोकीके स्वामी हैं। लोकहितके कार्यमें मन लगाये रहनेवाले आपदोनोंका वचन अत्यन्त गौरवपूर्ण है ॥ 29 ॥

किंतु हे सुरश्रेष्ठगण सदा तपस्यामें संलग्न रहकर संसारसे विरत रहनेवाले और योगी के रूपमें प्रसिद्ध मेरे | लिये विवाह करना उचित नहीं है; जो निवृत्तिके सुन्दर मार्गपर स्थित, अपनी आत्मामें ही रमण करनेवाला, निरंजन, अवधूत देहवाल, ज्ञानी आत्मदर्शी, कामनासे शून्य विकाररहित, अभोगी, सदा अपवित्र और अमंगल बेशधारी है, उसे संसारमें कामिनीसे क्या प्रयोजन है, यह इस समय मुझे बताइये ॥ 30-32 ॥

मुझे तो सदा केवल योगमें लगे रहनेपर ही आनन्द आता है, ज्ञानहीन पुरुष ही भोगको अधिक महत्त्व देता है। संसारमें विवाह करना बहुत बड़ा बन्धन समझना चाहिये। इसलिये मैं सत्य सत्य कहता हूँ कि उसमें मेरी अभिरुचि नहीं है। आत्मा ही अपनाउत्तम अर्थ या स्वार्थ है, उसका भलीभाँति चिन्तन करनेके कारण [लौकिक] स्वार्थमें मेरी प्रवृत्ति नहीं होती है, तथापि आपने जगत्के हित के लिये हितकर जो कुछ कहा है, उसे मैं करूँगा आपके वचनको गरिष्ठ मानकर अथवा अपनी कही हुई बातको पूर्ण करनेके लिये मैं विवाह अवश्य करूँगा; क्योंकि मैं सदा अपने भक्तोंके अधीन हूँ ॥ 33-36 ॥

हे हरे हे ब्रह्मन् ! परंतु मैं जैसी नारीको प्रिय पत्नीके रूपमें ग्रहण करूँगा और जिस शर्तके साथ करूँगा, उसे सुनें मेरा वचन सर्वथा उचित है। जो नारी मेरे तेजको विभागपूर्वक ग्रहण करनेमें समर्थ हो, उस योगिनी तथा कामरूपिणी स्त्रीको मेरी पत्नी बनानेके लिये बतायें। जब मैं योगमें तत्पर रहूँ, तब उसे भी योगिनी बनकर रहना होगा और जब मैं कामासक्त होऊँ, तब उसे भी कामिनीके रूपमें रहना होगा ll 37 - 39 ॥

वेदवेत्ता विद्वान् जिन्हें अविनाशी बतलाते हैं, उन ज्योति: स्वरूप सनातन शिवतत्त्वका मैं सदा चिन्तन करता हूँ। हे ब्रह्मन् ! उन सदाशिवके चिन्तनमें जब मैं न लगा होऊँ तब उस कामिनीके साथ मैं समागम कर सकता हूँ। जो मेरे शिव-चिन्तनमें विघ्न | डालेगी, वह दुर्भगा स्त्री मेरी भार्या न बने ।। 40-41 ।। आप ब्रह्मा, विष्णु और मैं तीनों ही महाभाग्यशाली ब्रह्मस्वरूप शिवजीके अंशभूत हैं, अतः हमारे लिये उनका नित्य चिन्तन करना उचित है ॥ 42 ॥

हे कमलासन! उनके चिन्तनके लिये मैं बिना विवाहके भी रह लूँगा, किंतु उनका चिन्तन छोड़कर विवाह नहीं करूँगा। अतः आपलोग मुझे इस प्रकारकी पत्नी बताइये, जो सदा मेरे कर्मके अनुकूल चल सके ।। 43 ।।

हे ब्रह्मन् उसमें भी मेरी एक शर्त है, उसे आप सुनें। यदि उस स्त्रीका मुझपर और मेरे वचनोंपर अविश्वास होगा, तो मैं उसे त्याग दूंगा ॥ 44 ll

ब्रह्माजी बोले- उन रुद्रकी बात सुनकर मैंने और श्रीविष्णुने मन्द मुसकानके साथ मन-ही-मन प्रसन्नताका अनुभव किया, फिर मैंने विनम्र होकर यह कहा- ।। 45 ।।हे नाथ! हे महेश्वर हे प्रभो! आपने जिस | प्रकारकी स्त्रीका निर्देश किया है, वैसी ही स्त्रीके विषयमें मैं आपको प्रसन्नतापूर्वक बता रहा हूँ ॥ 46 ॥ वे उमा जगत्की कार्यसिद्धिके लिये भिन्न-भिन्न रूपमें प्रकट हुई हैं। हे प्रभो! सरस्वती और लक्ष्मी ये दो रूप धारण करके वे पहले ही प्रकट हो चुकी हैं ।। 47 ।।

महालक्ष्मी तो विष्णुकी कान्ता तथा सरस्वती मेरी कान्ता हुई हैं। लोकहितका कार्य करनेकी इच्छावाली वे अब हमारे लिये तीसरा रूप धारण करके प्रकट हुई हैं ।। 48 ।।

हे प्रभो! वे शिवा 'सती' नामसे दक्षपुत्रीके रूपमें अवतीर्ण हुई हैं। वे ही आपकी ऐसी भार्या हो सकती हैं, जो सदा आपके लिये हितकारिणी होंगी ।। 49 ।।

हे देवेश। वे दृढव्रतमें स्थित होकर आपके लिये तप कर रही हैं। वे महातेजस्विनी सती आपको पतिरूपमें प्राप्त करनेकी इच्छुक हैं ॥ 50 ॥

हे महेश्वर! [उन सतीके ऊपर] कृपा कीजिये, उन्हें वर प्रदान करनेके लिये जाइये और वैसा वर देकर उनके साथ विवाह कीजिये ॥ 51 ॥

हे शंकर! भगवान् विष्णुकी, मेरी तथा सभी | देवताओंकी यही इच्छा है। आप अपनी शुभ दृष्टिसे हमारी इच्छाको पूर्ण कीजिये, जिससे हम इस उत्सवको आदरपूर्वक देख सकें ॥ 52 ॥

ऐसा होनेसे तीनों लोकोंमें सुख देनेवाला परम मंगल होगा और सबकी समस्त चिन्ताएँ मिट जायेगी, इसमें संशय नहीं है ॥ 53 ॥

मेरी बात पूरी होनेपर अच्युत मधुसूदन लीलासे रूप धारण करनेवाले भक्तवत्सल ईशानसे कहने लगे - ॥ 54 ॥

विष्णुजी बोले- हे देवाधिदेव! हे महादेव! हे करुणाकर! हे शम्भो ब्रह्माजीने जो कुछ भी कहा है, उसे मेरे द्वारा कहा गया ही समझिये, इसमें किसी प्रकारका सन्देह नहीं है ॥ 55 ॥

हे महेश्वर! मेरे ऊपर कृपा करके उसे कीजिये उन सतीसे विवाहकर इस त्रिलोकीको अपनी कृ दृष्टिसे सनाथ कीजिये ।। 56 ।।ब्रह्माजी बोले- हे मुने! यह कहकर उत्तम बुद्धिवाले भगवान् विष्णु चुप हो गये, तब भक्तवत्सल भगवान् शिवजीने हँसकर 'तथास्तु' कहा ॥ 57 ॥

तत्पश्चात् उनसे आज्ञा प्राप्तकर पत्नियोंसहित हम दोनों मुनियों तथा देवताओंके साथ अपने-अपने अभीष्ट स्थानको अत्यन्त प्रसन्नताके साथ चले आये ॥ 58 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] सतीचरित्रवर्णन, दक्षयज्ञविध्वंसका संक्षिप्त वृत्तान्त तथा सतीका पार्वतीरूपमें हिमालयके यहाँ जन्म लेना
  2. [अध्याय 2] सदाशिवसे त्रिदेवोंकी उत्पत्ति, ब्रह्माजीसे देवता आदिकी सृष्टिके पश्चात् देवी सन्ध्या तथा कामदेवका प्राकट्य
  3. [अध्याय 3] कामदेवको विविध नामों एवं वरोंकी प्राप्ति कामके प्रभावसे ब्रह्मा तथा ऋषिगणोंका मुग्ध होना, धर्मद्वारा स्तुति करनेपर भगवान् शिवका प्राकट्य और ब्रह्मा तथा ऋषियोंको समझाना, ब्रह्मा तथा ऋषियोंसे अग्निष्वात्त आदि पितृगणोंकी उत्पत्ति, ब्रह्माद्वारा कामको शापकी प्राप्ति तथा निवारणका उपाय
  4. [अध्याय 4] कामदेवके विवाहका वर्णन
  5. [अध्याय 5] ब्रह्माकी मानसपुत्री कुमारी सन्ध्याका आख्यान
  6. [अध्याय 6] सन्ध्याद्वारा तपस्या करना, प्रसन्न हो भगवान् शिवका उसे दर्शन देना, सन्ध्याद्वारा की गयी शिवस्तुति, सन्ध्याको अनेक वरोंकी प्राप्ति तथा महर्षि मेधातिथिके यज्ञमें जानेका आदेश प्राप्त होना
  7. [अध्याय 7] महर्षि मेधातिथिकी यज्ञाग्निमें सन्ध्याद्वारा शरीरत्याग, पुनः अरुन्धतीके रूपमें ज्ञाग्नि उत्पत्ति एवं वसिष्ठमुनिके साथ उसका विवाह
  8. [अध्याय 8] कामदेवके सहचर वसन्तके आविर्भावका वर्णन
  9. [अध्याय 9] कामदेवद्वारा भगवान् शिवको विचलित न कर पाना, ब्रह्माजीद्वारा कामदेवके सहायक मारगणोंकी उत्पत्ति; ब्रह्माजीका उन सबको शिवके पास भेजना, उनका वहाँ विफल होना, गणोंसहित कामदेवका वापस अपने आश्रमको लौटना
  10. [अध्याय 10] ब्रह्मा और विष्णुके संवादमें शिवमाहात्म्यका वर्णन
  11. [अध्याय 11] ब्रह्माद्वारा जगदम्बिका शिवाकी स्तुति तथा वरकी प्राप्ति
  12. [अध्याय 12] दक्षप्रजापतिका तपस्याके प्रभावसे शक्तिका दर्शन और उनसे रुद्रमोहनकी प्रार्थना करना
  13. [अध्याय 13] ब्रह्माकी आज्ञासे दक्षद्वारा मैथुनी सृष्टिका आरम्भ, अपने पुत्र हर्यश्वों तथा सबलाश्वोंको निवृत्तिमार्गमें भेजने के कारण दक्षका नारदको शाप देना
  14. [अध्याय 14] दक्षकी साठ कन्याओंका विवाह, दक्षके यहाँ देवी शिवा (सती) - का प्राकट्य, सतीकी बाललीलाका वर्णन
  15. [अध्याय 15] सतीद्वारा नन्दा व्रतका अनुष्ठान तथा देवताओंद्वारा शिवस्तुति
  16. [अध्याय 16] ब्रह्मा और विष्णुद्वारा शिवसे विवाहके लिये प्रार्थना करना तथा उनकी इसके लिये स्वीकृति
  17. [अध्याय 17] भगवान् शिवद्वारा सतीको वरप्राप्ति और शिवका ब्रह्माजीको दक्ष प्रजापतिके पास भेजना
  18. [अध्याय 18] देवताओं और मुनियोंसहित भगवान् शिवका दक्षके घर जाना, दक्षद्वारा सबका सत्कार एवं सती तथा शिवका विवाह
  19. [अध्याय 19] शिवका सतीके साथ विवाह, विवाहके समय शम्भुकी मायासे ब्रह्माका मोहित होना और विष्णुद्वारा शिवतत्त्वका निरूपण
  20. [अध्याय 20] ब्रह्माजीका 'रुद्रशिर' नाम पड़नेका कारण, सती एवं शिवका विवाहोत्सव, विवाहके अनन्तर शिव और सतीका वृषभारूढ़ हो कैलासके लिये प्रस्थान
  21. [अध्याय 21] कैलास पर्वत पर भगवान् शिव एवं सतीकी मधुर लीलाएँ
  22. [अध्याय 22] सती और शिवका बिहार- वर्णन
  23. [अध्याय 23] सतीके पूछनेपर शिवद्वारा भक्तिकी महिमा तथा नवधा भक्तिका निरूपण
  24. [अध्याय 24] दण्डकारण्यमें शिवको रामके प्रति मस्तक झुकाते देख सतीका मोह तथा शिवकी आज्ञासे उनके द्वारा रामकी परीक्षा
  25. [अध्याय 25] श्रीशिवके द्वारा गोलोकधाममें श्रीविष्णुका गोपेशके पदपर अभिषेक, श्रीरामद्वारा सतीके मनका सन्देह दूर करना, शिवद्वारा सतीका मानसिक रूपसे परित्याग
  26. [अध्याय 26] सतीके उपाख्यानमें शिवके साथ दक्षका विरोधवर्णन
  27. [अध्याय 27] दक्षप्रजापतिद्वारा महान् यज्ञका प्रारम्भ, यज्ञमें दक्षद्वारा शिवके न बुलाये जानेपर दधीचिद्वारा दक्षकी भर्त्सना करना, दक्षके द्वारा शिव-निन्दा करनेपर दधीचिका वहाँसे प्रस्थान
  28. [अध्याय 28] दक्षयज्ञका समाचार पाकर एवं शिवकी आज्ञा प्राप्तकर देवी सतीका शिवगणोंके साथ पिताके यज्ञमण्डपके लिये प्रस्थान
  29. [अध्याय 29] यज्ञशाला में शिवका भाग न देखकर तथा दक्षद्वारा शिवनिन्दा सुनकर क्रुद्ध हो सतीका दक्ष तथा देवताओंको फटकारना और प्राणत्यागका निश्चय
  30. [अध्याय 30] दक्षयज्ञमें सतीका योगाग्निसे अपने शरीरको भस्म कर देना, भृगुद्वारा यज्ञकुण्डसे ऋभुओंको प्रकट करना, ऋभुओं और शंकरके गणोंका युद्ध, भयभीत गणोंका पलायित होना
  31. [अध्याय 31] यज्ञमण्डपमें आकाशवाणीद्वारा दक्षको फटकारना तथा देवताओंको सावधान करना
  32. [अध्याय 32] सतीके दग्ध होनेका समाचार सुनकर कुपित हुए शिवका अपनी जटासे वीरभद्र और महाकालीको प्रकट करके उन्हें यज्ञ विध्वंस करनेकी आज्ञा देना
  33. [अध्याय 33] गणोंसहित वीरभद्र और महाकालीका दक्षयज्ञ विध्वंसके लिये प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] दक्ष तथा देवताओंका अनेक अपशकुनों एवं उत्पात सूचक लक्षणोंको देखकर भयभीत होना
  35. [अध्याय 35] दक्षद्वारा यज्ञकी रक्षाके लिये भगवान् विष्णुसे प्रार्थना, भगवान्‌का शिवद्रोहजनित संकटको टालनेमें अपनी असमर्थता बताते हुए दक्षको समझाना तथा सेनासहित वीरभद्रका आगमन
  36. [अध्याय 36] युद्धमें शिवगणोंसे पराजित हो देवताओंका पलायन, इन्द्र आदिके पूछनेपर बृहस्पतिका रुद्रदेवकी अजेयता बताना, वीरभद्रका देवताओंको बुद्धके लिये ललकारना, श्रीविष्णु और वीरभद्रकी बातचीत
  37. [अध्याय 37] गणसहित वीरभद्रद्वारा दक्षयज्ञका विध्वंस, दक्षवध, वीरभद्रका वापस कैलास पर्वतपर जाना, प्रसन्न भगवान् शिवद्वारा उसे गणाध्यक्ष पद प्रदान करना
  38. [अध्याय 38] दधीचि मुनि और राजा ध्रुवके विवादका इतिहास, शुक्राचार्यद्वारा दधीचिको महामृत्युंजयमन्त्रका उपदेश, मृत्युंजयमन्त्र के अनुष्ठानसे दधीचिको अवध्यताकी प्राप्ति
  39. [अध्याय 39] श्रीविष्णु और देवताओंसे अपराजित दधीचिद्वारा देवताओंको शाप देना तथा राजा ध्रुवपर अनुग्रह करना
  40. [अध्याय 40] देवताओंसहित ब्रह्माका विष्णुलोकमें जाकर अपना दुःख निवेदन करना, उन सभीको लेकर विष्णुका कैलासगमन तथा भगवान् शिवसे मिलना
  41. [अध्याय 41] देवताओं द्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  42. [अध्याय 42] भगवान् शिवका देवता आदिपर अनुग्रह, दक्षयज्ञ मण्डपमें पधारकर दक्षको जीवित करना तथा दक्ष और विष्णु आदिद्वारा शिवकी स्तुति
  43. [अध्याय 43] भगवान् शिवका दक्षको अपनी भक्तवत्सलता, ज्ञानी भक्तकी श्रेष्ठता तथा तीनों देवोंकी एकता बताना, दक्षका अपने यज्ञको पूर्ण करना, देवताओंका अपने-अपने लोकोंको प्रस्थान तथा सतीखण्डका उपसंहार और माहात्म्य