नारदजी बोले - हे ब्रहान्। हे विधे। हे महाप्रात हे वक्ताओंमें श्रेष्ठ दक्षप्रजापतिके घर चले जानेके बाद फिर क्या हुआ? यह सब [ वृत्तान्त] प्रीतिपूर्वक कहिये ll 1 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे नारद।] दक्षप्रजापतिने अपने आश्रममें जाकर प्रसन्नचित्त हो मेरी आज्ञासे बहुत-सी मानसी सृष्टि की, किंतु उस प्रष्टिको बढ़ता हुआ न देखकर दक्ष अपने पिता मुझे ब्रह्मासे कहने लगे- ॥ 2-3 ॥
दक्ष बोले- हे तात! हे ब्रहान्। हे प्रजानाथ। मेरे द्वारा बनायी गयी प्रजाएँ बढ़ नहीं रही हैं। मैंने 'भली प्रकारसे विचारकर देख लिया है कि मैंने जितनी भी सृष्टि की है, वह उतनी ही है ll 4 llहे प्रजानाथ! मैं क्या करूँ? यह मेरी प्रजा किस प्रकार बढ़ेगी? आप कोई ऐसा उपाय बताइये, जिससे प्रजाओंके सृष्टिक्रमका विस्तार करूँ ॥ 5 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे दक्ष हे प्रजापते! हे तात! मेरी उत्तम बात सुनिये और उसे कीजिये। हे सुरश्रेष्ठ! भगवान् शंकर आपका कल्याण करेंगे ॥ 6 ॥
हे प्रजेश! पंचजन प्रजापतिकी जो असिवनी नामक सुन्दर पुत्री है, उसे आप पत्नीरूपसे ग्रहण कीजिये ॥ 7 ॥ अभीतक आप पत्नीरहित होकर धर्माचरण करते
रहे हैं, किंतु इस प्रकारकी पत्नीमें मैथुनधर्मसे प्रवृत्त होकर जब आप सृष्टि करेंगे, तब प्रजा बड़ेगी ॥ 8 ॥ ब्रह्माजी बोले- [हे नारद!] तब दक्षप्रजापतिने मैथुनधर्मसे प्रजासृष्टि करनेके लिये मेरी आज्ञासे वीरणको कन्याके साथ विवाह किया ।। 9 ।। प्रजापति दक्षने अपनी पत्नी उस वीरिणीके गर्भसे हर्यश्व नामक दस हजार पुत्रोंको उत्पन्न किया ॥ 10 ॥ हे मुने! वे सभी पुत्र समान धर्माचरण करनेवाले, पिताकी भक्तिमें तत्पर रहनेवाले और सदा वेदमार्गका अनुसरण करनेवाले थे ॥ 11 ॥
हे तात! वे सभी दक्षपुत्र अपने पिताकी आज्ञा पाकर सृष्टिके उद्देश्यसे तपस्याहेतु पश्चिम दिशाकी ओर चले गये ॥ 12 ॥
वहाँपर परम पवित्र नारायणसर नामक तीर्थ है, जहाँ दिव्य सिन्धु नदी तथा समुद्रका संगम हुआ है 13 ॥ उस तीर्थके स्पर्शमात्र से उनकी बुद्धि अत्यन्त निर्मल हो गयी और पापके दूर होते ही वे सभी परमहंसधर्ममें स्थित हो गये ॥ 14 ॥
तत्पश्चात् दृढ़चित्तवाले तथा श्रेष्ठ वे दक्षपुत्र पिताकी आज्ञासे बँधे होनेके कारण प्रजावृद्धिके लिये तप करने लगे ॥ 15 ॥
हे नारद! सृष्टिसंवर्धन हेतु उन्हें घोर तप करते हुए जानकर और विष्णुका मनोगत अभिप्राय समझकर आप उनके पास गये और आदरपूर्वक आपने उनसे कहा हे दक्षपुत्र हर्यश्वो तुमलोग पृथिवीका विस्तार न जानकर सृष्टिकर्ममें किस प्रकार प्रवृत्त हुए हो ? ।। 16-17 ।।ब्रह्माजी बोले- वे हर्यश्वगण आपकी कही हुई बात सुनकर सृष्टिके विषयमें सावधान होकर मनमें बहुत विचार करने लगे ॥ 18 ॥ जो उत्तम शास्त्ररूपी पिताके निवृत्तिपरक वचनोंको नहीं जानता, वह मात्र गुणोंपर ही विश्वास रखनेवाली सृष्टिका उपक्रम किस प्रकार कर सकता है ? ॥ 19 ॥ वे परम बुद्धिमान् दक्षपुत्र एकाग्र बुद्धिसे ऐसा विचारकर देवर्षि नारदकी परिक्रमा करके एवं उन्हें
प्रणामकर निवृत्तिमार्गमें परायण हो गये ॥ 20 ॥ हे नारद! हे मुने! आप शिवके मन हैं और लोकमें पर्यटन करते रहते हैं तथा निर्विकार रहकर शिवकी चित्तवृत्तिके अनुसार रहते हैं ॥ 21 ॥
बहुत काल बीतनेपर मेरे पुत्र दक्षप्रजापति नारदजीके द्वारा अपने पुत्रोंके नाशको सुनकर बहुत सन्तप्त हुए ॥ 22 ॥
उस समय आपने शोक करते हुए दक्षसे बार बार कहा कि आप अच्छी सन्तानवाले थे, [जो कि आपके पुत्र श्रेष्ठ मार्गका अनुसरण करते हुए मुक्त हो गये] किंतु ये दक्ष शिवकी मासे मोहित हो बार बार शोक करते रहे ॥ 23 ll
तदनन्तर दक्षके पास आकर मैंने उन्हें शान्तिभावका उपदेशकर सान्त्वना देते हुए कहा [शोक मत करो], दैव बड़ा प्रबल होता है ॥ 24 ॥
तब दक्षप्रजापतिने मेरे द्वारा धीरज बँधाये जानेपर पुनः पंचजनकी कन्या [असिवनी] के गर्भसे सबलाश्व नामक हजार पुत्रोंको उत्पन्न किया ।। 25 ।।
दृढ़ व्रतवाले वे सबलाश्व भी पिताकी आज्ञासे सृष्टिसंवर्धन हेतु वहाँ गये जहाँ उनसे पूर्व उनके भाई गये थे और सिद्ध हो गये थे ॥ 26 ॥
वे भी उस तीर्थके स्पर्शमात्रसे सर्वथा निष्याप तथा शुद्ध अन्तःकरणवाले हो गये और उत्तम व्रतमें परायण होकर ब्रह्मका जप करते हुए कठिन तप करने लगे ॥ 27 ॥
हे नारद। आपने सृष्टि करनेके लिये उन्हें तपस्यामें उद्यत देखकर उनके पास जाकर ईश्वरकी गतिका स्मरण करते हुए वही उपदेश दिया, जो पूर्वमें उनके भाइयोंको दिया था ॥ 28 ॥हे मुने! आपका दर्शन निष्फल नहीं होता, इसलिये आपने उनको भी पूर्वके भाइयोंके मार्गका उपदेश किया, जिससे वे भी अपने भाइयोंके मार्गका अनुसरण करते हुए उसी मार्गपर चले गये ॥ 29 ॥
उसी समय दक्षप्रजापतिको अनेक उत्पात दिखायी पड़ने लगे। वे अपने पुत्रोंको आया न देखकर आश्चर्यचकित होकर मनमें दुखी हो गये ॥ 30 ॥ उन्होंने आपके द्वारा प्रथम पुत्रोंके नाशके समान ही इन पुत्रोंके भी नाशका जब समाचार सुना, तो वे आश्चर्यमें भरकर पुत्रशोकसे मूर्च्छित हो अत्यन्त सन्तप्त हो उठे ॥ 31 ॥
वे दक्ष आपपर कुपित हो गये और कहने लगे कि यह नारद दुष्ट है। उसी समय दैवयोगसे उनके पुत्रोंपर अनुग्रह करनेवाले आप भी दक्षके पास आ गये ॥ 32 ॥
उस समय वे प्रजापति दक्ष क्रोधमें भरकर अपने ओठोंको फड़फड़ाते हुए आपके पास आये और आपको धिक्कारते हुए निन्दापूर्वक कहने लगे- ॥ 33 ॥
दक्ष बोले- हे अधमोंमें श्रेष्ठ! तुमने साधुका रूप धारणकर मेरे सत्पुत्रोंको यह कैसा उपदेश किया ? तुमने मेरे इन पुत्रोंको इस प्रकार भिक्षुमार्गका उपदेश क्यों किया, जो उनके लिये कल्याणकारी नहीं था ॥ 34 ll
तुम्हारे जैसे निर्दयी शठने देव, ऋषि तथा पितृ ऋणसे मुक्त हुए बिना ही मेरे पुत्रोंको ऐसा उपदेशकर उनके इस लोक तथा परलोकके कल्याणको नष्ट कर दिया, क्योंकि जो बिना तीनों ऋणों से मुक्त हुए ही माता-पिताको छोड़कर मोक्षकी इच्छा करता हुआ निवृत्तिमार्गका अनुसरण करता है. वह नरकगामी होता है ।। 35-36 ।।
तुम निर्दयी, अत्यन्त निर्लज हो, बालकोंको बहकानेवाले तथा यशको नष्ट करनेवाले हो। हे मूर्ख! तुम हरिके पार्षदोंके बीचमें व्यर्थ ही विचरण करते हो ।। 37 ।।
हे अधमाधम ! तुमने बार-बार मेरा अहित किया है। इसलिये लोकमें भ्रमण करते हुए तुम्हारा पैर स्थिर न रहे ।। 38 ।।इस प्रकार शिवजीकी मायासे मोहित हुए दक्षने ईश्वरकी इच्छाको नहीं समझा और सज्जनोंके मान्य आपको शोकसन्तप्त होकर शाप दे दिया और हे मुने! निर्मल बुद्धिवाले आपने भी दक्ष प्रजापतिके इस शापको ग्रहण कर लिया, हे ब्रह्मसाधो ! ऐसा साधु स्वयं इस प्रकारके अपकारको सहन कर लेता है ।। 39-40 ।।