सूतजी बोले- हे महर्षियो ! ब्रह्माजीके इस वचनको सुनकर मुनिश्रेष्ठ [नारद] प्रसन्नचित्त होकर शंकरजीका स्मरण करके आनन्दपूर्वक कहने लगे - ॥ 1 ॥
नारदजी बोले - हे ब्रह्मन् ! हे विधे! हे विष्णुशिष्य ! हे महाभाग हे महामते। आपने शिवजीकी अद्भुत लीलाका वर्णन किया ॥ 2 ॥
जब कामदेव अपनी पत्नीको प्राप्तकर प्रसन्न होकर अपने घर चला गया तथा प्रजापति दक्ष भी अपने घर चले गये, सृष्टिकर्ता आप ब्रह्मा तथा आपके मानसपुत्र भी अपने-अपने घर चले गये, तब पितरोंकी जन्मदात्री वह ब्रह्मपुत्री सन्ध्या कहाँ गयी ? ॥ 3-4 ॥
उसने क्या किया और उसका विवाह किस | पुरुषके साथ हुआ ? इन सब बातोंको और सन्ध्याके चरित्रको विशेष रूपसे कहिये ॥ 5 ॥ सूतजी बोले- तत्त्ववेत्ता ब्रह्मदेव परम बुद्धिमान् देवर्षि नारदके इस वचनको सुनकर भक्तिपूर्वक शंकरजीका स्मरण करके कहने लगे ॥ 6॥
ब्रह्माजी बोले- हे मुने! सन्ध्याका सम्पूर्ण शुभ चरित्र सुनिये, जिसे सुनकर हे मुने। सभी स्त्रियाँ पतिव्रता होती हैं ॥ 7 ॥
वह सन्ध्या, जो पूर्वकालमें मेरे मनसे उत्पन्न हुई थी, वही तपस्याकर शरीर छोड़नेके बाद अरुन्धती हुई ॥ 8 ॥उस बुद्धिमती तथा उत्तम व्रत करनेवाली सन्ध्याने मुनिश्रेष्ठ मेधातिथिकी कन्याके रूपमें जन्म ग्रहणकर ब्रह्म, विष्णु तथा महेश्वरके वचनोंसे महात्मा वसिष्ठका अपने पतिरूपमें वरण किया वह श्रेष्ठ पतिव्रता वन्दनीय, पूजनीय तथा दयाकी प्रतिमूर्ति थी ॥ 9-10 ॥
नारदजी बोले - हे ब्रह्मन्। उस सन्ध्याने क्यों कहाँ तथा किस उद्देश्यसे तप किया, किस प्रकार वह अपना शरीर त्याग करके मेधातिथिकी कन्या हुई और उसने किस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु तथा शिवके द्वारा बताये गये उत्तम व्रतवाले महात्मा वसिष्ठको अपना पति स्वीकार किया ? ।। 11-12 ॥
हे पितामह! इसे सुननेकी मेरी बड़ी उत्सुकता है, अतः सुननेकी इच्छावाले मुझसे अरुन्धतीके चरित्रका विस्तारपूर्वक ठीक-ठीक वर्णन कीजिये ॥ 13 ॥
ब्रह्माजी बोले- [ हे नारद!] पहले अपनी पुत्री | सन्ध्याको देखकर मेरा मन कामसे आकृष्ट हो गया, किंतु बादमें शिवके भयसे मैंने उसे छोड़ दिया ॥ 14 ॥
कामबाणसे घायल होकर उस सन्ध्याका तथा मनको वशमें रखनेवाले महात्मा ऋषियोंका भी चित्त चलायमान हो गया था ।। 15 ।।
उस समय मेरे प्रति कहे गये शिवजीके उपहासयुक्त वचनको सुनकर और ऋषियोंके प्रति अपने चित्तको मर्यादा छोड़कर चलायमान देखकर तथा बार-बार मुनियोंको मोहित करनेवाले उस प्रकारके भावको | देखकर वह सन्ध्या विवाहके लिये स्वयं अत्यन्त दुःखी हुई ।। 16-17
हे मुने! कामदेवको शाप देकर जब मैं अन्तर्धान हो गया एवं शिवजी अपने स्थान कैलासको चले गये, उस समय हे मुनिसत्तम! वह मेरी पुत्री सन्ध्या क्षुब्ध होकर कुछ विचार करके ध्यानमग्न हो गयी ।। 18-19 ।। वह मनस्विनी सन्ध्या कुछ देरतक अपने पूर्व वृत्तका स्मरण करती हुई उस समय यथोचित रूपसे यह विचार करने लगी- ॥ 20 ॥
सन्ध्या बोली- मेरे पिताने उत्पन्न होते ही मुझ युवतीको देखकर कामसे प्रेरित होकर अनुरागपूर्वक मुझे प्राप्त करनेकी अभिलाषा की ॥ 21 ॥इसी प्रकार आत्मतत्त्वज्ञ ब्रह्मदेवके मानसपुत्रोंने भी मुझे देखकर अपना मन मर्यादासे रहितकर कामाभिलाषसे युक्त कर लिया ।। 22 ।। इस दुरात्मा कामदेवने मेरे भी चित्तको मथ डाला, जिससे सभी मुनियोंको देखकर मेरा मन बहुत | चंचल हो गया ॥ 23 ॥ इस पापका फल कामदेवने स्वयं पाया कि शंकरजीके सामने कुपित होकर ब्रह्माजीने उसे शाप दे दिया ।। 24 ।।
मैं पापिनी भी इस पापका फल पाऊँगी, अतः उस पापसे शुद्ध होनेके लिये मैं भी कोई साधन करना चाहती है; क्योंकि मुझे देखकर मेरे पिता तथा सभी भाई प्रत्यक्ष रूपसे कामभावपूर्वक मेरी अभिलाषा करने लगे। अतः मुझसे बढ़कर कोई पापिनी नहीं है ।। 25-26 ।।
उन सबको देखकर मुझमें भी अमर्यादित रूपसे कामभाव उत्पन्न हो गया और मैं भी अपने पिता तथा सभी भाइयोंमें पतिके समान भावना करने लगी ॥ 27 ॥ अब मैं इस पापका प्रायश्चित करूंगी और वेदमार्गक अनुसार अपने शरीरको अग्निमें हवन कर दूंगी। मैं इस भूतलपर एक मर्यादा स्थापित करूँगी, जिससे कि शरीरभारी उत्पन्न होते ही कामभावसे युक्त न हों ॥ 28-29 ॥ इसके लिये मैं परम कठोर तप करके उस मर्यादाको स्थापित करूंगी और बादमें अपना शरीर छोडूंगी ॥ 30 ll
मेरे जिस शरीरमें मेरे पिता एवं भाइयोंने कामाभिलाष किया, उस शरीरसे अब कोई प्रयोजन नहीं है ॥ 31 ॥
मैंने भी जिस शरीरसे अपने पिता तथा भाइयों में कामभाव उत्पन्न किया, अब वह शरीर पुण्यकार्यका साधन नहीं हो सकता ॥ 32 ॥
वह सन्ध्या अपने मनमें ऐसा विचारकर चन्द्रभाग नामक श्रेष्ठ पर्वतपर गयी, जहाँसे चन्द्रभागा नदी निकली हुई है ॥ 33 ॥
इसके बाद सन्ध्याको उस श्रेष्ठ पर्वतपर तपस्याके लिये गयी हुई जानकर मैंने अपने पासमें बैठे हुए, मनको वशमें रखनेवाले, सर्वज्ञ, ज्ञानयोग तथा वेदवेदांग के | पारगामी अपने पुत्र वसिष्ठसे कहा- ।। 34-35 ।।ब्रह्माजी बोले- हे पुत्र वसिष्ठ! तपस्याका विचार करके गयी हुई मनस्विनी पुत्री सन्ध्याके पास जाओ और इसे विधिपूर्वक दीक्षा प्रदान करो ॥ 36 ॥ हे मुनिसत्तम प्रथम यह तुमलोगोंको, मुझको तथा अपनेको कामाभिलाषसे युक्त देख रही थी, परंतु अब इसके नेत्रोंकी चपलता दूर हो गयी है ॥ 37 ॥
यह तुमलोगों को तथा अपने अभूतपूर्व दुष्कर्मको समझकर 'मृत्यु ही अच्छी है'-ऐसा विचारकर प्राण | छोड़ने की इच्छा करती है ॥ 38 ॥
अब यह तपस्याके द्वारा अमर्यादित प्राणियों में मर्यादा स्थापित करेगी, इसलिये तपस्या करनेके लिये वह साध्वी चन्द्रभाग नामक पर्वतपर गयी है ॥ 39 ॥ हे तात! वह तपस्याकी किसी भी क्रियाको नहीं जानती है, अतः जिस प्रकारके उपदेशसे वह अपने अभीष्टको प्राप्त करे, वैसा करो ॥ 40 ॥
हे मुने। तुम अपने इस रूपको छोड़कर दूसरा शरीर धारणकर उसके समीपमें स्थित होकर तपश्चर्याको क्रियाओंको प्रदर्शित करो ॥ 49 ॥
उसने यहाँपर मेरे तथा तुम्हारे रूपको पहले देख लिया है, इस रूपद्वारा वह कुछ भी शिक्षा ग्रहण नहीं करेगी, इसलिये दूसरा रूप धारण करो ॥ 42 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे नारद! इस प्रकार दयालु मुनि वसिष्ठजीने मुझसे आज्ञा प्राप्त की और तथास्तु — ऐसा कहकर वे सन्ध्याके समीप गये ॥ 43 ॥
वसिष्ठजीने वहाँ मानससरोवर के समान गुणोंसे परिपूर्ण देवसरको तथा उसके तटपर गयी हुई उस सन्ध्याको भी देखा ॥। 44 ।।
उज्ज्वल कमलोंसे युक्त वह देवसर तटपर स्थित सन्ध्याद्वारा इस प्रकार शोभित हो रहा था, मानो प्रदोषकालमें उदित चन्द्रमा तथा नक्षत्रोंसे युक्त आकाश रात्रिमें सुशोभित हो रहा हो ।। 45 ।।
कौतूहलयुक्त वसिष्ठजी सुन्दर भावोंवाली उस सन्ध्याको देखकर बृहल्लोहित नामक उस तालाबकी ओर देखने लगे ।। 46 ।।
उन्होंने उसी चन्द्रभाग पर्वतके शिखरों से दक्षिण समुद्रकी ओर जानेवाली चन्द्रभागा नदीको देखा। वहनदी चन्द्रभाग पर्वतके विशाल पश्चिमी भागको तोड़कर समुद्रकी ओर उसी प्रकार जा रही थी, जैसे हिमालयसे गंगा समुद्रमें जाती है।। 47-48 ।।
उस चन्द्रभाग पर्वतपर बृहल्लोहित सरोवरके तटपर स्थित सन्ध्याको देखकर वसिष्ठजी आदरपूर्वक | उससे पूछने लगे - ॥ 49 ॥
वसिष्ठजी बोले- हे भद्रे इस निर्जन पर्वतपर तुम किसलिये आयी हो, तुम किसकी कन्या हो और यहाँ क्या करना चाहती हो? पूर्ण चन्द्रमाके समान तुम्हारा मुख मलिन क्यों हो गया है? यदि कोई गोपनीय बात न हो, तो बताओ, मुझे सुननेकी इच्छा है ।। 50-51 ॥
ब्रह्माजी बोले- उन महात्मा वसिष्ठकी बात सुनकर उन्हें महात्मा, प्रदीप्त अग्निके समान तेजस्वी, ब्रह्मचारी तथा जटाधारी देखकर और आदरपूर्वक प्रणामकर सन्ध्या उन तपोधन वसिष्ठसे कहने लगी ॥ 52-53 ॥
सन्ख्या बोली हे विभो। मैं जिस उद्देश्यसे इस सिद्धपर्वतपर आयी हैं, वह तो आपके दर्शनमात्रसे ही पूर्ण हो जायगा ll 54 ॥
हे ब्रह्मन् मैं तप करनेके लिये इस निर्जन पर्वतपर आयी हूँ, मैं ब्रह्माकी पुत्री हूँ और सन्ध्या नामसे प्रसिद्ध है ॥ 55 ॥ यदि आपको उचित जान पड़े, तो मुझे उपदेश कीजिये। मैं तपस्या करना चाहती हूँ, अन्य कुछ भी गोपनीय नहीं है ॥ 56 ॥ मैं तपस्याकी कोई विधि बिना जाने ही तपोवनमें आ गयी हूँ। इसी चिन्तासे में सूखती जा रही हूँ तथा मेरा हृदय काँप रहा है ॥ 57 ॥ ब्रह्माजी बोले- ब्रह्मज्ञानी वसिष्ठजीने उसकी बात सुनकर पुनः सन्ध्यासे कुछ नहीं पूछा क्योंकि वे सभी बातें जानते थे। इसके बाद वे मनमें भक्तवत्सल शंकरजीका स्मरणकर तपस्याके लिये उद्यम करनेवाली तथा मनको वशमें रखनेवाली उस सन्ध्यासे कहने लगे- ॥ 58-59॥
वसिष्ठजी बोले- [ हे देवि !] जो महान् तेज: स्वरूप, महान् तप तथा परम आराध्य हैं, उन | शम्भुका मनमें ध्यान करो ॥ 60 ॥जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्षके आदिकारण तथा अद्वैतस्वरूप हैं, उन्हीं संसारके एकमात्र आदिकारण पुरुषोत्तमका भजन करो ॥ 61 ॥
हे शुभानने। तुम इस मन्त्रसे देवेश्वर शम्भुका भजन करो, उससे तुम्हें समस्त पदार्थोंकी प्राप्ति हो जायगी, इसमें सन्देह नहीं है ॥ 62 ॥
'ॐ नमः शंकराय ॐ' इस मन्त्रसे मौन होकर इस प्रकार तपस्याका प्रारम्भ करो, [विशेष विधि] तुमको बता रहा हूँ, सुनो ॥ 63 ॥
मौन होकर स्नान तथा मौन होकर सदाशिवकी पूजा करनी चाहिये। प्रथम दोनों षष्ठकालोंमें जलका आहारकर तीसरे षष्ठकालमें उपवास करे। इस प्रकार षष्ठकालिक क्रिया तपस्याकी समाप्तिपर्यन्त करनी चाहिये ।। 64-65 ।।
हे देवि ! इसका नाम मौन तपस्या है। इसे करनेसे यह ब्रह्मचर्यका फल प्रदान करनेवाली तथा सभी अभीष्ट फल प्रदान करनेवाली है, यह सत्य है, सत्य है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ 66 ॥
इस प्रकार चित्तमें विचार करके सदाशिवका गहन चिन्तन करो, [ऐसा करनेसे] वे तुम्हारे ऊपर प्रसन्न होकर शीघ्र ही अभीष्ट फल प्रदान करेंगे ॥ 67 ॥ ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार मुनि वसिष्ठ वहाँ | बैठकर सन्ध्याको तपस्याकी यथोचित विधि बताकर अन्तर्धान हो गये ॥ 68 ॥