नारदजी बोले - हे ब्रह्मन्! हे विधे! हे महाभाग ! हे शिवभक्त! हे श्रेष्ठ प्रभो! हे विधे! आपने भगवान् शिवके परम मंगलदायक तथा अद्भुत चरित्रको सुनाया ॥ 1 llहे तात! उसके बाद क्या हुआ, चन्द्रमाको सिरपर धारण करनेवाले शिवजी एवं सतीके दिव्य तथा सम्पूर्ण पापराशिका नाश करनेवाले चरित्रका वर्णन कीजिये ॥ 2 ॥ ब्रह्माजी बोले- भक्तोंपर अनुग्रह करनेवालेशिवजी जब मेरा वध करनेसे विरत हो गये, तब सभी लोग निर्भय, सुखी और प्रसन्न हो गये॥ 3 ॥ सभी लोगोंने हाथ जोड़कर नतमस्तक हो शंकरजीको प्रणाम किया, भक्तिपूर्वक स्तुति की और प्रसन्नतापूर्वक जय-जयकार किया ॥ 4 ॥
हे मुने! उसी समय मैंने प्रसन्न तथा निर्भय होकर अनेक प्रकारके उत्तम स्तोत्रोंद्वारा शंकरकी स्तुति की ॥ 5 ॥
हे मुने ! तत्पश्चात् अनेक प्रकारकी लीला करनेवाले भगवान् शिव प्रसन्नचित्त होकर सभीको सुनाते हुए मुझसे इस प्रकार कहने लगे ॥6॥
रुद्र बोले - हे ब्रह्मन् ! हे तात! मैं प्रसन्न हूँ। अब आप निर्भय हो जाइये। आप अपने हाथसे सिरका स्पर्श करें और संशयरहित होकर मेरी आज्ञाका पालन करें ॥ 7 ॥
ब्रह्माजी बोले- अनेक लीलाएँ करनेवाले भगवान् शिवजीकी इस बातको सुनकर मैंने अपने सिरका स्पर्श करते हुए उन वृषध्वजको प्रणाम किया 8 ॥ मैंने जैसे ही अपने हाथसे अपने सिरका स्पर्श किया, उसी क्षण वहाँ उसीके रूपमें वृषवाहन स्थित दिखायी पड़े तब लज्जायुक्त शरीरवाला में नीचेकी ओर मुख करके खड़ा रहा। उस समय वहाँ स्थित इन्द्र आदि देवताओंने मुझे देखा ॥ 9-10 ll
उसके पश्चात् लज्जासे युक्त होकर मैं शिवजीको प्रणाम करके तथा उनकी स्तुति करके क्षमा कीजिये क्षमा कीजिये- ऐसा कहने लगा ॥ 11 ॥
हे प्रभो! इस पापकी शुद्धिके लिये कोई प्रायश्चित और उचित दण्ड कीजिये, जिससे मेरा पाप दूर हो जाय ll 12 ॥
इस प्रकार मेरे कहनेपर भक्तवत्सल सर्वेश शम्भु अत्यन्त प्रसन्न होकर मुझ विनम्र ब्रह्मासे कहने लगे ॥ 13 ॥शम्भु बोले- [हे ब्रह्मन्!] मुझसे अधिष्ठित इसी रूपसे आप प्रसन्नचित्त होकर आराधनामें संलग्न रहते हुए तप करें ॥ 14 ॥
इसीसे पृथ्वीपर सर्वत्र 'रुद्रशिर' नामसे आपकी प्रसिद्धि होगी और आप तेजस्वी ब्राह्मणोंके सभी कार्योंको सिद्ध करनेवाले होंगे आपने [कामके वशीभूत होकर] जो वीर्यपात किया है, वह कृत्य मनुष्योंका है, इसलिये आप मनुष्य होकर पृथ्वीपर विचरण करें ।। 15-16 ll
जो तुम्हें इस रूपसे देखकर यह क्या! ब्रह्माके सिरपर शिवजी कैसे हो गये ऐसा कहता हुआ पृथ्वीपर विचरण करेगा और फिर जो कौतुकवश आपके सम्पूर्ण कृत्यको सुनेगा, वह परायी स्त्रीके निमित्त किये गये त्यागसे शीघ्र ही मुक्त हो जायगा ।। 17-18 ॥
लोग जैसे-जैसे आपके इस कुकृत्यका वर्णन करेंगे, वैसे-वैसे आपके इस पापकी शुद्धि होती जायगी ॥ 19 ॥
हे ब्रह्मन् संसारमें मनुष्योंके द्वारा आपका उपहास करानेवाला तथा आपकी निन्दा करानेवाला यह प्रायश्चित्त मैंने आपसे कह दिया ॥ 20 ॥
कामपीड़ित आपका जो तेज वेदीके मध्यमें गिरा तथा जिसे मैंने देख लिया, वह किसीके भी धारण करनेयोग्य नहीं होगा ll 21 ॥
तुम्हारा जो तेज पृथ्वीपर गिरा, उससे आकाशमें प्रलयंकर मेघ होंगे। उसी समय वहाँ देवर्षियोंके सामने शीघ्र ही उस तेजसे हे तात! संवर्त, आवर्त, पुष्कर तथा द्रोण-नामक ये चार प्रकारके प्रलयंकारी महामेघ हो गये ॥ 22-24 ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ये मेघ शिवकी इच्छासे गरजते हुए, जलकी थोड़ी-सी वर्षा करते हुए तथा भयानक शब्द करते हुए आकाशमें फैल गये॥ 25 ॥
उस समय घोर गर्जन करते हुए उन मेथोंके द्वारा आकाशके आच्छादित हो जानेपर शीघ्र ही | शंकरजी और सती देवी शान्त हो गये। हे मुने! उसके बाद मैं निर्भय हो गया और शिवजीकी आज्ञासे मैंने विवाहके शेष कृत्योंको यथाविधि पूर्ण किया ।। 26-27 ।। हे मुनिश्रेष्ठ । उस समय देवताओंने प्रसन्न होकर शिवाशिवके मस्तकपर चारों ओरसे पुष्पोंकी वर्षा की ।। 28 ।। उस समय बाजे बजने लगे, गीत गाये जाने लगे।
ब्राह्मणगण भक्तिसे परिपूर्ण हो वेदपाठ करने लगे । 29 ।। रम्भा आदि अप्सराएँ प्रेमपूर्वक नृत्य करने लग-इस प्रकार हे नारद। देवताओंकी स्त्रियोंके बीच महान् उत्सव हुआ ॥ 30 ॥
तदनन्तर यज्ञकर्मका फल देनेवाले भगवान् परमेश्वर शिव प्रसन्न होकर लौकिक गतिका आश्रय ले हाथ जोड़कर प्रेमपूर्वक मुझ ब्रह्मासे कहने लगे ॥ 31 ॥
ईश्वर बोले- हे ब्रह्मन्! जो भी वैवाहिक कार्य था, उसे आपने उत्तम रीतिसे सम्पन्न किया है, अब मैं आपपर प्रसन्न हूँ, आप [ इस वैवाहिक कृत्यके] आचार्य हैं, मैं आपको क्या दक्षिणा दूँ ? ॥ 32 ॥
हे सुरश्रेष्ठ! आप उसे माँगिये। वह दुर्लभ ही क्यों न हो, उसको शीघ्र कहिये। हे महाभाग ! आपके लिये मेरे द्वारा कुछ भी अदेय नहीं है 33 ब्रह्माजी बोले- हे मुने। शंकरका यह वचन सुनकर मैंने हाथ जोड़कर विनीत भावसे उन्हें बार बार प्रणामकर कहा- ॥ 34 ॥
हे देवेश। यदि आप प्रसन्न हैं और यदि मैं वर प्राप्त करनेयोग्य हूँ, तो हे महेशान! जो मैं कह रहा हूँ, उसे आप अत्यन्त प्रसन्नताके साथ कीजिये ॥ 35 ॥
हे महेश्वर। आप मनुष्योंके पापकी शुद्धिके लिये। इसी रूपमें इस वेदीपर सदा विराजमान रहिये ॥ 36 ll हे चन्द्रशेखर। हे शंकर! जिससे आपके सान्निध्य में अपना आश्रम बनाकर अपने इस पापकी शुद्धिके लिये मैं तपस्या करूँ ॥ 37 ॥
चैत्रमासके शुक्लपक्षकी त्रयोदशी तिथिको पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र में रविवारके दिन इस भूतलपर जो मनुष्य आपका भक्तिपूर्वक दर्शन करेगा, हे हर। उसके सारे पाप नष्ट हो जायें, विपुल पुण्यकी वृद्धि हो और उसके समस्त रोगोंका सर्वथा नाश हो जाय। जो स्त्री दुर्भगा, वन्ध्या, कानी अथवा रूपहीन हो, वह भी आपके दर्शनमात्रसे निश्चित रूपसे निर्दोष हो जाय ।। 38-40 ॥ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार अपने तथा सम्पूर्ण लोगोंको सुख देनेवाले मुझ ब्रह्माका वचन सुनकर प्रसन्न मनसे भगवान् शंकरने 'तथास्तु' कहा ॥ 41 ॥ शिवजी बोले- हे ब्रह्मन्। आपके कथनानुसार मैं सारे संसारके हितके लिये अपनी पत्नीसहित इस बेदीपर सुस्थिरभावसे स्थित रहूँगा ॥ 42 ॥ ब्रह्माजी बोले- ऐसा कहकर पत्नीसहित भगवान् शिवजी अपनी अंशरूपिणी मूर्तिको प्रकटकर वेदीके मध्यभागमें विराजमान हो गये। तत्पश्चात् स्वजनोंपर स्नेह रखनेवाले भगवान् सदाशिव दक्षसे विदा ले अपनी पत्नी सतीके साथ [कैलास] जानेको उद्यत हुए ।। 43-44 ।।
उस समय उत्तम बुद्धिवाले दक्षने विनयभावसे मस्तक झुकाकर हाथ जोड़ भगवान् वृषभध्वजकी प्रेम-पूर्वक स्तुति की। तत्पश्चात् विष्णु आदि समस्त देवताओं, मुनियों तथा गणने स्तुति और नमस्कारकर प्रसन्नतापूर्वक अनेक प्रकारसे जय जयकार किया ।। 45-46 ।।
उसके बाद दक्षकी आज्ञा प्राप्तकर प्रसन्नतापूर्वक सदाशिवने अपनी पत्नी सतीको वृषभपर बिठाकर और स्वयं भी वृषभपर आरूढ़ हो हिमालयके शिखरकी ओर गमन किया ।। 47 ।।
मन्द-मन्द मधुर मुस्कानवाली तथा सुन्दर दाँतोंवाली सती शंकरजीके साथ वृषभपर बैठी हुई चन्द्रमामें विद्यमान श्यामकान्तिकी तरह शोभायमान हो रही थीं ll 48 ॥
उस समय विष्णु आदि सम्पूर्ण देवता, मरीचि आदि समस्त ऋषि एवं दक्ष प्रजापति भी मोहित हो गये तथा अन्य सभी लोग चित्रलिखित से प्रतीत हो रहे थे । ll 49 ।।
कुछ लोग बाजे बजाते हुए तथा कुछ लोग सुन्दर स्वरमें शुद्ध तथा कल्याणकारी शिवयशका गान करते हुए प्रसन्नतापूर्वक शिवजीका अनुगमन करने लगे ॥ 50 ॥
(कुछ दूर चले जाने के पश्चात्] शिवजीने आधे मार्गसे दक्षको प्रेमपूर्वक लौटा दिया, फिर सदाशिव गणों सहित प्रसन्नतापूर्वक अपने स्थानको चले आये ॥ 51 ॥ शिवजीने विष्णु आदि सभी देवताओंको विदा भी कर दिया, फिर भी वे लोग परम भक्ति एवं प्रेमके वशीभूत हो शिवजीके साथ-साथ कैलासपर पहुँच गये ॥ 52 ॥
उन सभी देवताओं, गणों तथा अपनी स्त्री सलीके साथ भगवान् शम्भु प्रसन्न होकर हिमालय | पर्वतपर सुशोभित अपने धाममें पहुँच गये ॥ 53 ॥
वहाँ जाकर सम्पूर्ण देवताओं, मुनियों तथा अन्य लोगोंका आदरपूर्वक बहुत सम्मान करके प्रसन्नतापूर्वक शिवजीने उन्हें विदा किया ॥ 54 ॥ तदनन्तर शम्भुकी आज्ञासे विष्णु आदि सब देवता तथा मुनिगण नमस्कार और स्तुति करके प्रसन्नमुख होकर अपने-अपने धामको चले गये ॥ 55 ॥ लोकरीतिका अनुगमन करनेवाले शिवजी भी अत्यन्त आनन्दित हो हिमालयके शिखरपर अपनी पत्नी दक्षकन्याके साथ विहार करने लगे ।। 56 ।।
हे मुने! इस प्रकार सृष्टि करनेवाले वे शंकर सती तथा अपने गणोंके साथ प्रसन्नतापूर्वक पर्वतों में उत्तम अपने स्थान कैलासपर चले गये ॥ 57 ॥
हे मुने! पूर्वकालमें स्वायम्भुव मन्वन्तरमें भगवान् शिवजीका विवाह जिस प्रकार हुआ, उसका वर्णन मैंने आपलोगोंसे किया ॥ 58 ॥
हे मुने। जो विवाहकालमें, यहमें अथवा किसी भी शुभकार्यके आरम्भमें भगवान् शंकरकी पूजा करके शान्तचित्त होकर इस कथाको सुनता है, उसका सारा वैवाहिक कर्म बिना किसी विघ्न-बाधाके पूर्ण हो जाता है तथा दूसरे शुभ कर्म भी सदा निर्विघ्न पूर्ण होते हैं ॥ 59-60 ॥
इस उत्तम कथाको प्रेमपूर्वक सुनकर कन्या सुख, सौभाग्य, सुशीलता, आचार तथा गुणोंसे युक्त हो पतिव्रता तथा पुत्रवती होती है ॥ 61 ॥