ब्रह्माजी बोले- मनके साथ वाणी जिनको प्राप्त किये बिना ही लौट आती है, जिनके आनन्दमय स्वरूपको प्राप्तकर विद्वान् पुरुष किसीसे भयभीत नहीं होता, जिनसे ये सभी ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र एवं इन्द्रादि देवता उत्पन्न हुए हैं एवं जो सभीके साथ पंचमहाभूतों एवं इन्द्रियोंकी सृष्टि करते हैं, जो सभी कारणोंके कारण हैं, जो धाता एवं ध्याता दोनों हैं, जो अन्य किसीसे कभी भी उत्पन्न नहीं होते, वे सम्पूर्ण ऐश्वयसे सम्पन्न होनेके कारण स्वयं सर्वेश्वर हैं। हृदयाकाशमें रहनेवाले वे महेश्वर सभी मुमुक्षुओंके द्वारा ध्यान किये जानेयोग्य हैं ॥ 1-4 ॥
जिन्होंने सर्वप्रथम मुझे पुत्ररूपसे उत्पन्न किया और [वेदोंका ] ज्ञान प्रदान किया तथा उन्हींकी कृपासे मैंने इस प्रजापतिपदको प्राप्त किया है ॥ 5 ॥
जो ईश्वर अकेले ही वृक्षके समान निश्चल हो आकाशमें विराजमान हैं, जिन महात्मा पुरुषसे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, जो अकेले ही सभी निष्क्रिय जीवोंको सक्रिय बनाते हैं और जो अकेले ही एक बीजको अनेक रूपोंमें परिणत कर देते हैं, वे ही महान् ऐश्वर्यवाले हैं ll 6-7 ll
जो ईश्वर इन जीवोंसे युक्त सभी लोकोंपर शासन करते हैं, वे एकमात्र भगवान् रुद्र हैं, दूसरा कोई नहीं है ॥ 8 ॥
जो सर्व सभी लोगोंके हृदय में सन्निविष्ट हो करके विश्वको देखते हुए भी दूसरोंके द्वारा देखे नहीं जा पाते और [जगत्में] अधिष्ठित रहते हैं, जो अनन्त शक्तिशाली एकमात्र भगवान् [रुद्र ] कालसे भी परे और आत्मा एवं आकाशादि सभी कारणोंमें व्याप्त हैं, जिनके लिये दिन एवं रात्रि कुछ नहीं है, जिनके समान अथवा अधिक कोई नहीं है, जिनकी ज्ञान [बल और] क्रियारूपा पराशक्ति नित्या तथा स्वाभाविकी है, जो क्षर एवं अव्यक्तहै, अक्षर और अमृत हैं इस प्रकार क्षर एवं अक्षरभावसे स्थित हैं, वे एकमात्र महेश्वरदेव ही [सर्वोपरि]] हैं ॥ 9-12 ॥
भगवान् शिवके साथ मनः संयोग करनेसे तथा तात्विक रूपसे अपनेको उनसे अभिन्न चिन्तन करनेसे जीव सामर्थ्यवान् हो जाता है, उनके ध्यानसे इस जगत्का शासक हो जाता है और उनकी कृपासे अन्तमें पशुरूप जीवकी माया भी निवृत्त हो जाती है ।। 13 ।।
जिसको विद्युत्, सूर्य एवं चन्द्रमा कोई भी प्रकाशित नहीं करता, किंतु जिसके प्रकाशसे यह जगत् प्रकाशित होता है ऐसा सनातन श्रुति भी कहती है। ऐसे एकमात्र प्रभु महेश्वर महादेव ही जाननेयोग्य हैं, उनसे श्रेष्ठ कोई भी पद प्राप्त नहीं किया जा सकता है ।। 14-15 ।।
ये सबके आदि, स्वयं आदि एवं अन्तसे रहित, स्वभावसे निर्मल, स्वतन्त्र, परिपूर्ण तथा चराचर विश्वको अपने अधीन किये हुए हैं ॥ 16 ॥
समस्त ऐश्वर्यसे युक्त ये प्रकृतिसे भिन्न (दिव्य) शरीरवाले, लक्ष्य तथा लक्षणसे रहित, स्वयं मुक्त, दूसरोंको मुक्त करनेवाले और स्वयं कालके वशमें न रहकर कालके भी प्रेरक हैं ॥ 17 ॥
उनका स्थान सबके ऊपर है तथा वे ही सबके आश्रय स्थान एवं सबको जाननेवाले हैं। वे छः प्रकारके मार्गवाले इस सम्पूर्ण जगत्के स्वामी हैं तथा उत्तरोत्तर उत्कृष्ट प्राणियोंमें सबसे श्रेष्ठ हैं, उनसे बढ़कर कोई दूसरा नहीं हैं, वे अनन्त आनन्दराशिरूप मकरन्दका पान करनेवाले भ्रमर हैं ।। 18-19 ॥
वे अखण्ड गतिशील ब्रह्माण्डोंके पिण्डीकरणमें पण्डित है और औदार्य, पराक्रम गाम्भीर्य एवं माधुर्य के समुद्र हैं। इनके समान कोई भी वस्तु अर्थात् परमतत्त्व नहीं है और इनसे अधिक भी कोई वस्तु नहीं है। ये सभी प्राणियोंमें अतुलनीय हैं और राजराजेश्वर होकर विराजमान हैं। 20-21 ॥ये अपने अद्भुत क्रिया-कलापोंसे जगत्की सृष्टि करते हैं और पुनः अन्तःकाल उपस्थित होनेपर यह जगत् उनमें विलीन हो जाता है। समस्त जीव इनके वशमें हैं, ये सबके प्रेरक हैं, ये परम भक्तिसे ही देखे जा सकते हैं, अन्य उपायोंसे कभी नहीं ।। 22-23 ।।
महात्माओंने इनकी प्राप्तिके लिये ही व्रतों सर्वविध दानों, तपों एवं नियमोंका निरूपण किया है, इसमें सन्देह नहीं है। विष्णु, मैं [ब्रह्मा], रुद्र, अन्य देवता एवं असुर आज भी कठोर तपोंके द्वारा उनके दर्शनकी आकांक्षा रखते हैं ।। 24-25 ll
वे पतित, मूढ, कुत्सित तथा दुर्जन पुरुषोंके लिये अदृश्य हैं, किंतु भक्तजनोंके द्वारा बाहर भीतर पूज्य हैं और सम्भाषणके योग्य हैं ॥ 26 ll
उनके तीन रूप हैं, स्थूल सूक्ष्म एवं उनसे भी परे। हम देवताओंसे उनका स्थूल रूप दृश्य है, योगियोंसे उनका सूक्ष्म रूप दृश्य है, किंतु उससे भी परे जो उनका नित्य-ज्ञानमय, आनन्दमय एवं अविनाशी रूप है, वह तो उनमें निष्ठा रखनेवाले, उनके प्रति परायण रहनेवाले तथा उनके व्रतमें आश्रित जनोंके द्वारा ही दृश्य है ।। 27-28 ।।
बहुत कहनेका क्या प्रयोजन ? उस परमात्माका परस्वरूप गुप्तसे भी गुप्ततर है शिवजीमें भक्ति रखनी चाहिये, उससे युक्त प्राणी मुक्त हो जाता है, इसमें सन्देह नहीं है वह भक्ति शिवकी कृपासे ही हो सकती है और उनकी कृपा भक्तिसे उत्पन्न होती है, जैसे अंकुरसे बीज और बीजसे अंकुर उत्पन्न होता है ।। 29-30 ।।
उस ईश्वरका प्रसाद प्राप्त हो जानेपर जीवको सर्वत्र सिद्धि प्राप्त हो जाती है। सभी लोग सम्पूर्ण साधनोंसे अन्तमें उसीको प्राप्त करते हैं। परमात्मा शिवको प्रसन्न करनेका साधन धर्म है और वेदने उस धर्मके स्वरूपका प्रतिपादन किया है। उसका अभ्यास करते रहने से पूर्वजन्मार्जित पुण्य एवं पापमें समता आ जाती है ।। 31-32 llउस साम्यसे प्रसाद [प्रसन्नता या चित्तशुद्धि). की उपलब्धि होती है, उससे धर्मको वृद्धि होती है और धर्मकी वृद्धिको प्राप्त करके जीवके पापका विनाश हो जाता है। इस प्रकार क्रमसे बहुत जन्म-जन्मान्तरोंगे हुए पापोंका विनाश हो जानेपर साम्बसदाशिवमें ज्ञानपूर्विका भक्ति उत्पन्न होती है ।। 33-34 ।।
भक्तोंके भावोंके अनुरूप ही शिवका अनुग्रह प्राप्त होता है, उनका प्रसाद प्राप्त हो जानेपर ही कर्मका त्याग होता है, जिसमें फलवासना नहीं होती, यद्यपि भक्त स्वरूपतः कर्म करता रहता है ।। 35 ll
तदुपरान्त कर्मफलके त्यागसे जीवका शुभ सम्बन्ध शिवधर्मसे हो जाता है। वह [ धर्म] भी दो प्रकारका होता है-एक गुरुकी अपेक्षासे रहित तथा दूसरा गुरुकी अपेक्षा रखनेवाला ॥ 36 ॥
उसमें गुरुकी अपेक्षा रखनेवाला शिवधर्म गुरुकी अपेक्षा न करनेवालेसे सौ गुना अधिक उत्तम है। जो गुरुकी शिक्षाद्वारा शिवधर्ममें तत्पर रहता है, वह शीघ्र ही शिव ज्ञानकी प्राप्ति कर लेता है ॥ 37 ll
ज्ञानयुक्त हो जानेसे मनुष्यको इस जगत् में दोष दिखायी पड़ने लगता है, तदनन्तर विषयोंके प्रति वैराग्य हो जाता है और वैराग्यसे भावसिद्धि हो जाती है ॥ 38 ॥
भावसिद्धिको प्राप्त हुए व्यक्तिकी निष्ठा ध्यानमें होती है, कर्ममें नहीं ज्ञान तथा ध्यानसे बुक मनुष्यको योगकी प्राप्ति होती है ।। 39 ।।
योगसे पराभक्ति प्राप्त होती है, इसके पश्चात् [भक्तिकी महिमासे] शिवका प्रसाद उपलब्ध होता है, शिवके प्रसादसे जीव मुक्त हो जाता है और मुक्त हो जानेपर वह शिवके समान हो जाता है ॥ 40 ॥
इस प्रकार शिवजीके अनुग्रहका जो यह स्वरूप है, वह इसी प्रकारका है—यह कहना सम्भव नहीं है। मनुष्य जैसी योग्यता होती है, उसीके अनुरूप उसे शिवजीका अनुग्रह प्राप्त होता है ॥ 41 ॥ कोई गर्भ में निवास करते ही मुक्त हो जाता है। कोई उत्पन्न होते ही, कोई बालक होकर, कोई युवा होकर और कोई वृद्ध होकर मुक्त हो जाता है। कोई पशु पक्षियोंकी योनिमें मुक्त हो जाता है। कोई नरकमेंऔर कोई वैकुण्ठादि उत्तम लोक प्राप्तकर पुण्य-क्षय हो जानेपर मुक्त हो जाता है। कोई [ पुण्यशेष होनेपर ] | अपने पदसे च्युत होकर संसारमें जन्म लेकर मुक्त होता है। कोई संसाररूपी मार्गमें क्रमशः जन्म-मरणका चक्र प्राप्तकर धीरे-धीरे मुक्त होता है ॥ 42-44 ॥
अतः मनुष्योंकी मुक्ति अनेक प्रकारसे होती है। ज्ञान और भक्तिके अनुरूप शिवकी कृपा प्राप्त होनेपर मुक्ति होती है ॥ 45 ॥
अतः इन्हें प्रसन्न करनेके लिये वाणी, मन तथा शरीरके दोषोंको त्यागकर स्त्री पुत्रों एवं अग्नियोंके सहित आप सभीको शिवजीका ध्यान, उनमें निष्ठा, भक्ति, शिवशरणागति एवं मनसे उनका ध्यान करते हुए समस्त क्रियाएँ करनी चाहिये ।। 46-47 ।।
इस समय आपलोगोंने जो दिव्य सहस्रवर्षवाला दीर्घ यज्ञानुष्ठान प्रवर्तित किया है, उस यज्ञके अन्तमें मन्त्रद्वारा आवाहन करनेपर वायुदेव वहाँ पधारेंगे। वे ही आपलोगोंके कल्याणका साधन एवं उपाय बतायेंगे। इसके पश्चात् आपलोग परम सुन्दर तथा पुण्यमयी वाराणसी पुरी चले जाना, जहाँ पिनाकपाणि भगवान् विश्वनाथ भक्तजनोंपर अनुग्रह करनेके लिये देवी पार्वतीके साथ सदा विहार करते हैं । ll 48-50 ll
हे श्रेष्ठ ब्राह्मणो आपलोग वहाँ बड़ा भारी आश्चर्य देखकर मेरे पास आना, तब मैं आपलोगों को मुक्तिका उपाय बताऊँगा, जिससे जन्म-जन्मान्तरके संसार-बन्धनसे छुटकारा दिलानेवाली मुक्ति आपलोगोंको एक ही जन्ममें मिल जायगी ॥ 51-52 ॥
मैंने इस मनोमय चक्रका निर्माण किया है, मैं इस चक्रको छोड़ रहा हूँ, जहाँ इसकी नेमि टूटकर गिर जाय, वही देश तपस्या के लिये शुभ होगा ऐसा कहकर पितामहने उस सूर्यतुल्य मनोमय चक्रकी ओर देखकर और महादेवजीको प्रणामकर उसे छोड़ दिया ।। 53-54 ।।
वे ब्राह्मण भी अत्यन्त प्रसन्न होकर लोकनाथ ब्रह्माजीको प्रणाम करके उस स्थानके लिये चल दिये, जहाँ उस चक्रको नेमि विशीर्ण होनेवाली थी। इसकेपश्चात् वह फेंका गया कान्तिमय चक्र स्वादिष्ट एवं विमल जलसे युक्त [सरोवरवाले] किसी वनमें एक मनोहर शिलातलपर गिर पड़ा, इसी कारणसे वह वन मुनिपूजित नैमिषारण्य नामसे विख्यात हुआ, जो अनेक यक्ष, गन्धर्व और विद्याधरोंसे व्याप्त है ।। 55-57 ॥
समुद्रोंसे वेष्टित अठारह द्वीपोंका उपभोग करनेवाले महाराज पुरूरवा * प्रारब्धसे प्रेरित होकर | उर्वशीके रूपसौन्दर्यके वशीभूत हो गये और उन्होंने अज्ञानवश धर्मका अतिक्रमण करके [ ऋषियोंकी ] सुवर्णमयी यज्ञशालाका हरण कर लिया, तब कुपित मुनियोंने अभिमन्त्रित होनेसे वज्रसदृश प्रभाववाले कुशोंसे उन्हें विनष्ट कर दिया ।। 58-59 ।।
जहाँपर पूर्वकालमें वेदज्ञ, गार्हपत्याग्निके उपासक एवं विश्वकी सृष्टि करनेवाले महर्षियोंने ब्रह्मदेवके उद्देश्यसे यज्ञका प्रारम्भ किया था, जिस | यज्ञमें शब्दशास्त्र, अर्थशास्त्र और न्यायशास्त्रके ज्ञाता विद्वान् महर्षियोंने अपनी शक्ति, प्रज्ञा तथा क्रियाके माध्यमसे शास्त्रीय विधिका अनुष्ठान किया था, जहाँपर वेदवेत्ता ब्राह्मण वेदोंको न माननेवाले और स्वच्छन्द शास्त्रका निर्माण करनेवाले नास्तिकोंको तार्किक प्रक्रियाके द्वारा निरन्तर पराजित करते हैं, जहाँ स्फटिक मणिमय पर्वतकी शिलाओंसे अमृतके समान मधुर निर्मल जल प्रवाहित होता रहता है, | वृक्षोंपर स्वादिष्ट रसीले फल लगे रहते हैं एवं अनेक जीव-जन्तु निवास करते हैं- इस प्रकारका वह नैमिषारण्य मुनियोंके तपके योग्य है ll 60-63 ॥