सनत्कुमार बोले- इस प्रकारके महादिव्य तथा अनेक आश्चर्योंसे युक्त रथमें वेदरूपी घोड़े जोतकर ब्रह्माजीने उसे शिवजीको समर्पित किया। इसे शिवजीको अर्पण करके उन्होंने विष्णु आदि देवगणोंके सम्माननीय देवेश शिवजीसे बहुत प्रार्थना करके उन्हें रथपर बैठाया। तब समस्त रथ सामग्रियोंसे सम्पन्न उस दिव्य रथपर सर्वदेवमय महाप्रभु शम्भु आरूढ़ हुए । ll 1-3॥ उस समय ऋषि, देवता, गन्धर्व, नाग, ब्रह्मा, विष्णु तथा समस्त लोकपाल उनकी स्तुति करने लगे ll 4 ॥
गानमें प्रवीण अप्सराओंसे घिरे हुए वरदायक शिवजी उस सारथी (ब्रह्मा) की ओर देखते हुए शोभित होने लगे। सर्वलोकमय उस निर्मित रथपर सदाशिवके चढ़ते ही वेदरूपी घोड़े सिरके बल पृथ्वीपर गिर पड़े, जिससे पृथ्वी तथा सभी पर्वत चलायमान हो गये और शेषनाग भी उस भारको सहने में असमर्थ होनेके कारण कम्पित हो उठे। तब पृथ्वीको धारण करनेवाले भगवान् शेष वृषेन्द्रका रूप धारणकर क्षणमात्रके लिये उस रथको उठाकर स्थापित करने लगे, किंतु रथपर आरूढ़ शिवजीके परम तेजको सहन करनेमें असमर्थ वृषेन्द्र भी घुटनोंके बल पृथ्वीपर गिर पड़े ॥ 5-9 ॥
तब हाथमें लगाम पकड़े हुए ब्रह्माजीने शंकरजीकी आज्ञासे घोड़ोंको उठाकर रथको -व्यवस्थित किया ॥ 10 ॥
उसके बाद ब्रह्माजी स्वयं उस श्रेष्ठ रथपर सवार हो शिवकी आज्ञासे मन तथा पवनके समान वेगवाले रथमें जुते हुए उन वेदरूपी घोड़ोंको तेजी हाँकने लगे। शिवजीके बैठ जानेपर वह रथ उन बलवान् दानवोंके आकाशस्थित तीनों पुरोको उद्देश्य करके चलने लगा । 11-12 ।।उस समय देवगणोंकी ओर देखकर कल्याण करनेवाले भगवान् रुद्रने कहा- हे श्रेष्ठ देवताओ! यदि आपलोग मुझे पशुओंका अधिपति बना दें, तो मैं असुरोंका वध करूँ। देवताओं तथा अन्य लोगों के पृथक्-पृथक् पशुत्वकी कल्पना करनेपर ही वे दैत्यश्रेष्ठ वधके योग्य हो सकते हैं, अन्यथा नहीं ॥ 13-14 ।।
सनत्कुमार बोले- उन बुद्धिमान् देवाधिदेवके इस वचनको सुनकर सभी देवता पशुत्वके प्रति शंकित होकर दुःखित हो गये। तब देवाधिदेव अम्बिकापति शंकर देवताओंका भाव जानकर हँसते हुए उन देवताओंसे कहने लगे- ॥ 15-16 ॥
शम्भु बोले- हे देवगणो! पशुभावको प्राप्त होनेपर भी आपलोगोंका पात नहीं होगा, मेरी बात सुनिये और उस पशुभावसे अपनेको मुक्त कीजिये। जो इस दिव्य पाशुपत व्रतका आचरण करेगा, वह पशुत्वसे मुक्त हो जायगा, मैंने आपलोगोंसे सत्य प्रतिज्ञा की है ।। 17-18 ।।
- सनत्कुमार बोले -उन परमात्मा महेश्वरका यह वचन सुनकर ब्रह्मा, विष्णु आदि देवगणोंने कहा ऐसा ही होगा। इसलिये [हे वेदव्यास!] देवता एवं असुर सभी उन प्रभुके पशु हैं और पशुओंको पाशसे मुक | करनेवाले रुद्र भगवान् शंकर पशुपति हैं । 22-23 ॥ तभीसे उन महेश्वरका यह कल्याणप्रद पशुपति नाम भी सभी लोकोंमें प्रसिद्ध हुआ ॥ 24 ॥
हे श्रेष्ठ देवताओ! जो अन्य लोग भी मेरे पाशुपतव्रतका आचरण करेंगे, वे पशुत्वसे मुक्त हो जायँगे, इसमें संशय नहीं है। जो निष्ठापूर्वक बारह वर्ष, छः वर्ष अथवा तीन वर्षतक मेरी उपासना करेगा, वह पशुभावसे छूट जायगा। इसलिये हे श्रेष्ठ देवताओ! यदि आप लोग इस श्रेष्ठ एवं दिव्य व्रतका आचरण करेंगे, तो पशुत्वसे मुक्त हो जायँगे, इसमें सन्देह नहीं है। ll 19-21 ॥
उसके बाद सभी देवता तथा ऋषि प्रसन्नतापूर्वक जय-जयकार करने लगे। स्वयं देवेश, ब्रह्मा, विष्णु एवं अन्य लोग भी बहुत प्रसन्न हुए। उस समय उन परमात्माका जैसा अद्भुत रूप था, उसका वर्णन सैकड़ों वर्षोंमें भी नहीं किया जा सकता ।। 25-26 ।।इस प्रकारके स्वरूपवाले, सबके लिये सुखदायक अखिलेश्वर महेश तथा महेशानी त्रिपुरको मारनेके लिये चल पड़े। जिस समय देवाधिदेव उस त्रिपुरका वध करनेके लिये चले, उस समय सूर्यके समान तेजस्वी इन्द्र आदि सभी देवता उत्तम हाथी, घोड़े, सिंह, रथ तथा बैलपर सवार हो उनके पीछे-पीछे चले। हाथोंमें हल, शाल, मूसल, विशाल पर्वतके समान भुशुण्ड तथा विविध आयुध धारण किये हुए पर्वतसदृश वे इन्द्रादि देवता प्रसन्न होकर [त्रिपुरका वध करनेके लिये] चले ॥ 27-29 ॥
उस समय अनेक प्रकारके आयुधोंसे युक्त तथा परम प्रकाशमान इन्द्र, ब्रह्मा, विष्णु आदि देवता महोत्सव मनाते हुए तथा शिवजीकी जय-जयकार करते हुए उन महेश्वरके आगे-आगे चल रहे थे ॥ 30 ॥ उस समय हाथमें दण्ड लिये हुए तथा जटा धारण किये हुए सभी मुनि हर्षित हुए और आकाशमें विचरण करनेवाले सिद्ध तथा चारण पुष्पवृष्टि करने लगे ॥ 31 ॥
हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ! जो सभी गणेश्वर तीनों पुरोंको जा रहे थे, उनकी संख्या बतानेमें कौन समर्थ है, तथापि मैं कुछको कह रहा हूँ ॥ 32 ॥
गणेश्वरों और देवगणोंके साथ सभी गणोंसे श्रेष्ठ भृंगी विमानमें चढ़कर महेन्द्रके समान त्रिपुरका वध करनेके लिये चला। केश, विगतवास, महाकेश, महाज्वर, सोमवल्ली, सवर्ण, सोमप, सनक, सोमधृक्, सूर्यवर्चा, सूर्यप्रेषण, सूर्याक्ष, सूरि, सुर, सुन्दर, प्रस्कन्द, कुन्दर, चण्ड, कम्पन, अतिकम्पन, इन्द्र, इन्द्रजव, हिमकर, यन्ता, शताक्ष, पंचाक्ष, सहस्राक्ष, महोदर, सतीजुह, शतास्य, रंक, कर्पूरपूतन, द्विशिख, त्रिशिख, अहंकारकारक, अजवक्त्र, अष्टवक्त्र, हयवक्त्र तथा अर्धवक्त्र इत्यादि बहुत-से असंख्य वीरगण, जो लक्ष्य-लक्षणसे रहित थे, वे शिवजीको घेरकर चले ॥ 33-39 ॥जो गण महादेव शिवको घेरकर उनके साथ चल रहे थे, वे मनसे ही चराचर जगत्को भस्म करनेमें समर्थ थे। किंतु यहाँ तो पिनाकधारी भगवान् शंकर स्वयं ही त्रिपुरको जलानेमें समर्थ थे। उन शम्भुको रथ, बाण, गणों तथा देवताओंकी क्या आवश्यकता थी, किंतु हे व्यास ! हाथमें पिनाक धारण किये वे अपने गणों तथा देवताओंके साथ दैत्योंके उन तीनों पुरोंको जलानेके लिये जा रहे थे। यह उनकी अद्भुत लीला है । ll 40-42 ॥
हे ऋषिश्रेष्ठ! उसमें जो कारण है, उसे मैं आपसे कह रहा हूँ। दूसरोंके पापोंका नाश करनेवाले उन्होंने अपने यशका त्रिलोकीमें विस्तार करनेके निमित्त ऐसा किया और दूसरा यह भी कारण है कि दुष्टोंके मनमें यह विश्वास हो जाय कि सभी देवगणोंमें शिवजीसे बढ़कर अन्य कोई नहीं है ।। 43-44 ॥