व्यासजी बोले- हे सनत्कुमारजी ! जिस एक ही दानके करनेसे सभी दानोंका फल मिल जाता है, मनुष्यों के हितके लिये उस दानको आप मुझसे कहें ॥ 1 ॥
सनत्कुमार बोले— समयपर जिस एक ही दानके करनेसे मनुष्य सभी दानोंका फल प्राप्त कर लेता है, उसे मैं आपसे कहता हूँ, आप सुनिये ॥ 2 ॥
सभी दानोंमें ब्रह्माण्डका दान निश्चय ही श्रेष्ठ है, मुक्तिकी कामना करनेवाले मनुष्योंको संसारसे पार होनेके लिये यह दान अवश्य करना चाहिये ॥ 3 ॥
मनुष्य सभी दानोंको करनेसे जिस फलको प्राप्त करता है, उतना ही फल ब्रह्माण्डके दानसे प्राप्त करता है और वह सातों लोकोंका स्वामी भी हो जाता है। जबतक आकाशमें चन्द्रमा एवं सूर्य हैं और जबतक पृथ्वी स्थिर है, तबतक ब्रह्माण्डका दान करनेवाला वह मनुष्य अपने बन्धु बान्धवोंके साथ सम्पूर्ण कामनाओंकोप्राप्तकर देवताओंके घर स्वर्गमें आनन्दपूर्वक क्रीड़ा करता है और बादमें देवताओंके लिये भी अत्यन्त दुर्लभ विष्णुपदको प्राप्त करता है ll 4-5 ll
व्यासजी बोले- हे भगवन्! इस ब्रह्माण्डका प्रमाण, इसका स्वरूप, इसका आधार और यह जिस रूपमें उत्पन्न हुआ है- यह सब मुझे बताइये, जिससे मुझे विश्वास हो जाय ॥ 6 ॥
सनत्कुमार बोले- हे मुने । सुनिये, मैं संक्षेपमें इस ब्रह्माण्डकी ऊँचाई तथा विस्तारको कहता हूँ । इसे सुनकर व्यक्ति पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ 7 ॥
इसके कारणभूत, अव्यक्त, व्यक्त तथा निर्विकार जो शिव हैं, दो भागों में (प्रकृति तथा पुरुषके रूपमें) विभक्त हुए उन्हीं कालस्वरूपसे ब्रह्माजी उत्पन्न होते हैं। तब ब्रह्माजी चौदह भुवनवाले ब्रह्माण्डकी रचना करते हैं। हे तात! मैं क्रमसे संक्षेपमें उसे कहता हूँ, आप सावधान होकर सुनिये ॥ 8-9 ॥
जलके मध्यमें स्थित ब्रह्माण्डके नीचे सात पाताल हैं और ऊपर (स्वर्गादि) सात भुवन हैं। उनकी ऊँचाई क्रमशः एककी अपेक्षा दुगुनी है ॥ 10 ॥ सम्पूर्ण ब्रह्माण्डके आधार शेषनाग हैं, उन्हींको विष्णु कहा गया है। ब्रह्माकी आज्ञाके अनुसार वे इस सम्पूर्ण जगत्को धारण करते हैं ॥ 11 ॥
शेषनागके इन गुणोंका वर्णन करनेमें देवता तथा दानव भी समर्थ नहीं हैं, उन्हें अनन्त भी कहा जाता है। सिद्ध, देवता तथा ऋषिगण उनकी पूजा करते हैं ॥ 12 ॥
हजार फणोंसे युक्त वे शेषनाग अपने हजार फणोंकी मणियोंसे सम्पूर्ण दिशाओंको प्रकाशित करते रहते हैं, वे फणोंपर निर्मल स्वस्तिकका आभूषण धारण करते हैं। वे मदसे घूमते हुए नेत्रोंवाले तथा अग्निसे युक्त श्वेतपर्वतके समान हैं। वे माला, मुकुट तथा सर्वदा ही एक कुण्डलको धारणकर शोभायमान हैं ॥ 13-14 ॥
वे आकाशगंगाके प्रवाहसे युक्त श्वेतवर्णके पहाड़के समान सुशोभित होते हैं। मदसे परिव्याप्त वे नील वस्त्रको धारणकर दूसरे कैलासपर्वतकी भाँति शोभित होते हैं। वे अपने आयुध हलमें हाथका अग्रभाग लगाये रहते हैं तथा उत्तम मूसल धारण किये रहते हैं। स्वर्णके समान वर्णवाली नागकन्याएँ आदरपूर्वक उनकी पूजा करती हैं ॥ 15-16 ॥वे संकर्षण नामके रुद्र विषाग्निकी ज्वालाओंसे अत्यन्त देदीप्यमान हैं। कल्पके अन्तमें उनके मुखोंसे अग्निकी लपटें बार- बार निकलती हैं, जो तीनों लोकोंको भस्म करके ही शान्त होती हैं- ऐसा हमने सुना है। सभी गुणोंसे अलंकृत तथा सभी प्राणियोंके स्वामी वे शेष अपनी पीठपर क्षितिमण्डलको धारण करते हुए पातालके मूल स्थानमें स्थित हैं ।। 17-18 ॥
देवगण इच्छा करते हुए भी उनके पराक्रमके प्रभावका वर्णन करनेमें तथा उनके स्वरूपको जानने में समर्थ नहीं हैं। जिनके फणोंमें स्थित मणियोंकी अरुणकान्तिसे रंजित यह सम्पूर्ण पृथ्वी [ उनके शिरः पृष्ठमें] पुष्पोंकी मालाके समान विराजमान है, उनके पराक्रमका वर्णन कौन करेगा ! ॥ 19-20 ॥
जब मदसे घूर्णित नेत्रवाले शेषनागजी जम्भाई लेते हैं, तब पर्वत, समुद्र तथा वनोंसहित यह पृथ्वी डगमगा जाती है ॥ 21 ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! प्रत्येक पाताल दस हजार योजन विस्तार वाला है। अतल, वितल, सुतल, रसातल, तल, तलातल एवं सातवाँ पाताल माना गया है, विद्वानोंको पृथ्वीके नीचे स्थित इन सात लोकोंको जानना चाहिये ।। 22-23 ll
इनकी ऊँचाई एक-दूसरेसे दूनी है। इन सातों लोकोंकी भूमियाँ स्वर्णमय हैं तथा भवन रत्नमय हैं और आँगन भी स्वर्णमय हैं। उनमें दानव, दैत्य, नागों की जातियाँ, महानाग, राक्षस तथा दैत्योंसे उत्पन्न अन्य उपजातियाँ निवास करती हैं । ll 24-25 ॥
उन पातालादि लोकोंसे लौटकर स्वर्ग आये हुए नारदजीने स्वर्गकी सभामें ऐसा कहा था कि ये पाताल स्वर्गसे भी अधिक रमणीय हैं ॥ 26 ॥ जहाँ विविध प्रकारके आभूषणोंमें विभूषित करनेवाली स्वच्छ एवं कान्तिमय मणियाँ लगी हैं, उस पातालके समान कौन लोक है ! ॥ 27 ॥
दैत्यकन्याएँ एवं दानवकन्याएँ जिस पाताललोकमें इधर उधर शोभायमान हो रही हैं, उस लोकमें [निवासके लिये ] किस मुक्तपुरुषकी अभिरुचि नहीं होगी ? ॥ 28 ॥यहाँ दिनमें सूर्यकी तथा रातमें चन्द्रमाकी किरणें नहीं होती हैं और यहाँ शीत तथा आतप भी नहीं रहता है, यहाँ केवल मणियोंके तेज विद्यमान हैं ॥ 29 ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! यहाँ आनन्दमग्न लोग भक्ष्य भोज्य, अन्नपान आदि ग्रहण करते हैं। यहाँ बीते हुए समयका ज्ञान भी नहीं रहता है ॥ 30 ॥
हे द्विज! यहाँ नरकोकिलोंका शब्द सुनायी देता है । कमल तथा कमलोंकी खान नदियाँ, रमणीक सरोवर, मनोहर वस्त्र, अतिशय मनोरम अलंकार तथा अनुलेपन, वीणा-वेणु- मृदंगोंकी ध्वनियाँ, गीत तथा नानाविध सुख हैं, जिनका भोग दैत्य, दानव, सिद्ध, मानव एवं नागगण करते हैं, उस पातालका आनन्द [ बहुत बड़ी] तपस्यासे प्राप्त किया जाता है ॥ 31-33 ॥