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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 2 (सती खण्ड) , अध्याय 11 - Sanhita 2, Khand 2 (सती खण्ड) , Adhyaya 11

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ब्रह्माद्वारा जगदम्बिका शिवाकी स्तुति तथा वरकी प्राप्ति

नारदजी बोले - हे ब्रह्मन्! हे महाप्राज्ञ! हे तात! [आपसे ] इस प्रकार कहकर विष्णुके अन्तर्धान हो जानेपर क्या हुआ ? हे विधे! आपने क्या किया ?

हे वक्ताओंमें श्रेष्ठ! आप मुझसे कहिये ॥ 1 ॥ ब्रह्माजी बोले- हे श्रेष्ठ विप्रनन्दन ! भगवान् विष्णुके चले जानेपर मैंने जो कार्य किया, आप उसे | सावधानीपूर्वक सुनिये ॥ 2 ॥

तब मैं विद्या अविद्यास्वरूपा, शुद्ध, परब्रह्म स्वरूपिणी तथा जगत्को धारण करनेवाली शम्भुप्रिया | देवी दुर्गाकी स्तुति करने लगा ॥ 3 ॥

सर्वत्र व्याप्त रहनेवाली, नित्य, निराश्रय, निराकुल, त्रिदेवोंको उत्पन्न करनेवाली, स्थूलसे भी स्थूल रूप धारण करनेवाली तथा निराकार दुर्गाकी मैं वन्दना करता हूँ। आप चित्स्वरूपा, परमानन्दस्वरूपिणीतथा परमात्म-स्वरूपिणी हैं। हे देवेशि ! मेरे ऊपर आप प्रसन्न हों और मेरा कार्य करें। आपको नमस्कार है ।। 4-5 ।।

हे मुने! हे देवर्षे! मेरे द्वारा इस प्रकार स्तुति करनेपर वे योगनिद्रा भगवती चण्डिका मेरे सामने प्रकट हो गयीं ॥ 6 ॥

वे भगवती दुर्गा चिकने अंजनके समान शरीरकी कान्तिसे युक्त थीं, वे सुन्दर रूपसे सम्पन्न थीं, उनकी दिव्य चार भुजाएँ थीं, वे सिंहपर सवार थीं, वे हाथमें वरमुद्रा धारण किये हुए थीं, उनके केशोंमें मोती तथा मणियाँ ग्रथित थीं, वे अत्यन्त उत्कट थीं, उनका मुख शरत्कालीन पूर्णिमाके समान था, उनके मस्तकपर | शुभ चन्द्रमा सुशोभित हो रहा था, वे तीन नेत्रोंसे युक्त थीं, उनके समस्त शरीरके अवयव परम मनोहर थे तथा वे चरणकमलके नखकी कान्तिसे प्रकाशित हो रही थीं ।। 7-8 ll

इस प्रकार अपने सामने शिवकी शक्ति उन भगवती उमाको उपस्थित देखकर भक्तिसे सिर झुकाकर मैं उन्हें प्रणाम करके [ इस प्रकार ] स्तुति करने लगा ॥ 9 ॥

ब्रह्माजी बोले- हे जगत्को प्रवृत्ति एवं निवृति स्वरूपे! हे सर्गस्थितिरूपे ! आपको नमस्कार है। आप समस्त चराचरकी शक्ति, सनातनी तथा सबको मोहित करनेवाली हैं ॥ 10 ॥

जो महालक्ष्मी भगवान् विष्णुको मालाकी भाँति हृदयमें धारण करनेवाली, विश्वका भरण करनेवाली तथा सभीका पोषण करनेवाली हैं, जो महेश्वरी पूर्वमें त्रिलोकीका सृजन करनेवाली हैं, उसका संहार करनेवाली हैं तथा गुणोंसे सर्वथा परे हैं ॥। 11 ॥

जो योगियोंके लिये पूज्य हैं, मनोहर हैं-वे आप ही हैं। हे परमाणुओंकी सारस्वरूपे आपको नमस्कार है। जो यम-नियमोंसे पवित्र हुए योगियोंके हृदयमें निवास करनेवाली तथा योगियोंके द्वारा ध्यानगम्य हैं, वे प्रकाश एवं शुद्धि आदिसे युक्त, मोहसे रहित | एवं [ इस जगत्को ] अनेक प्रकारसे अवलम्ब देनेवाली विद्यास्वरूपा आप ही हैं। आप कूटस्थ, अव्यक्त एवं अनन्तरूपा हैं। [हे भगवति!] आप कालरूपसे इस | जगत्‌को धारण करती हैं ।। 12-13 ।।आप गुणोंसे युक्त होकर सभी प्राणियों में नित्य विकाररूप बीज उत्पन्न करती हैं। हे शिवे! आप तीनों गुणोंकी कारणरूपा हैं तथा इससे परे भी हैं ॥ 14 ॥

[हे देवि!] आप सत्त्व, रज तथा तम-इन तीनों गुणोंके साथ ही पार्थिव विकारोंसे रहित तुरीय रूप हैं। आप इस जगत्की तथा गुणोंकी हेतुभूता हैं। आप ही ब्रह्माण्डमें स्थित रहकर इस जगत्की सृष्टि, प्रलय तथा पालन करती हैं ॥ 15 ॥

हे सम्पूर्ण जगत्की बीजस्वरूपे! हे ज्ञान तथा ज्ञेयस्वरूपिणि! आप सर्वदा जगत्के हितसाधनमें तत्पर रहनेवाली हैं। अतः हे शिवपत्नि! आपको सदा नमस्कार है ॥ 16 ॥

[ब्रह्माजी बोले- ] मेरी स्तुतिको सुनकर लोकका कल्याण करनेवाली वे महाकाली, सामान्य मनुष्यकी भाँति मुन जगत्सष्टासे प्रेमपूर्वक कहने लगीं। 17 ॥

देवी बोलीं- हे ब्रह्मन् ! आपने मेरी स्तुति किसलिये की है, इसे आप ठीकसे समझ लें। आप मेरे भक्त हैं, तो उसे शीघ्र ही मेरे सामने निवेदन करें ll 18 ll

मेरे प्रत्यक्ष रूपसे प्रकट हो जानेपर कार्य सिद्धि निश्चित है। अतः आप अपनी मनोभिलषित बात कहें, मैं प्रसन्न होकर उसे निश्चित रूपसे करूँगी ॥ 19 ॥

ब्रह्माजी बोले- हे देवि हे महेश्वरि मेरे ऊपर कृपाकर मेरी बात सुनें। हे सर्वज्ञे! आपकी आज्ञासे मैं अपने मनोरथकी बात कह रहा हूँ ॥ 20 ॥ हे देवेशि ! पूर्वकालमें मेरे ललाट प्रदेशसे उत्पन्न हुए आपके पति जो रुद्रनामसे प्रसिद्ध हैं, वे इस समय योगी होकर कैलासपर्वतपर निवास कर रहे हैं ॥ 21 ॥ वे भूतोंके स्वामी इस समय अकेले निर्विकल्पक समाधिमें लीन होकर तप कर रहे हैं। वे निर्विकार होनेके कारण पत्नीसे रहित हैं और [आत्मामें रमण करनेके कारण] दूसरी पत्नीकी अपेक्षा नहीं करते ॥ 22 ॥ हे सति! आप उन्हींको मोहित करें, जिससे वे [आत्माभिरमणसे उपरत होकर] दूसरी स्त्री [आप ] - को देखें। आपके अतिरिक्त कोई अन्य स्त्री उनके मनको मोहित करनेवाली नहीं होगी। इसलिये आप ही दक्षकी कन्या बनकर अपने रूपसे शिवजीको मोहित करनेवाली हों। हे शिवे! आप शिवपत्नी बनें ।। 23-24 ।।जिस प्रकार आप लक्ष्मीका रूप धारणकर विष्णुको प्रसन्न करती हैं, उसी प्रकार संसारके हितके लिये आप इस कार्यको भी वैसे ही करें ॥ 25 ॥

हे देवि ! जब उन शिवने स्त्रीविषयक अभिलाषा मात्रसे मेरी निन्दा की, तो भला वे स्वेच्छासे किस प्रकार स्त्री ग्रहण कर सकते हैं ? ॥ 26 ॥ यदि वे स्त्री ग्रहण कर भी लें, तो भी वे तो सृष्टिके आदि, मध्य और अन्तमें सदैव विरक्त रहते हैं, अतः उनसे उत्तम सृष्टि किस प्रकार होगी ? ॥ 27 ॥ हे देवि! इस प्रकार चिन्तापरायण हुए मेरे लिये आपके अतिरिक्त और कोई शरणप्रद नहीं है, इसलिये विश्वकल्याणके निमित्त आप मेरे इस कार्यको करें ॥ 28 ॥

शिवजीको मोहित करनेमें न विष्णु, न लक्ष्मी, न काम और न तो मैं ही समर्थ हूँ। हे जगन्माता! आपके बिना कोई भी उन्हें मोहित करनेमें समर्थ नहीं है॥ 29 ॥

अतः आप दिव्यरूपा दक्षपुत्रीके रूपमें जन्म लेकर मेरी भक्तिके आग्रहसे महायोगी शिवको मोहित करें और उनकी पत्नी महेश्वरी बनें ॥ 30 ॥

हे देवेशि ! इस समय दक्षप्रजापति क्षीरसमुद्रके उत्तर तटपर आपको प्राप्त करनेके उद्देश्यसे मनमें आपका
ध्यान करते हुए दृढव्रती होकर तपस्या कर रहे हैं ॥ 31 ब्रह्माजी बोले- मेरे इस वचनको सुनकर वे जगदम्बिका शिवा चिन्तित हो उठीं और विस्मित होकर अपने मनमें कहने लगीं- ॥ 32 ॥

'देवी बोलीं- वेदवक्ता और जगत्कर्ता ये विधाता महान् अज्ञानसे युक्त होकर कैसी बात कर रहे हैं अहो! यह महान् आश्चर्य है ! ॥ 33 ॥

ब्रह्माके चित्तमें ऐसा यह दुःखदायी महान् मोह कैसे उत्पन्न हो गया कि वे निर्विकार परमात्माको भी मोहित करना चाहते हैं ! ॥ 34 ॥ ये ब्रह्मा मुझसे शिवजीके मोहका वर चाहते हैं, इनका कौन-सा लाभ है? वे प्रभु तो निर्विकल्प, निर्मोह हैं ।। 35 ।।

वे शम्भु निर्विकार, निर्गुण तथा परब्रह्म हैं और मैं तो सदा उनकी आज्ञामें रहनेवाली दासी हूँ ॥ 36 ॥ वे स्वतन्त्र परमेश्वर शिवभक्तोंके उद्धारहेतु अपने पूर्ण रूपसे रुद्र नामसे अवतीर्ण हुए हैं ॥ 37 ॥वे रुद्र ब्रह्मा तथा विष्णु के भी स्वामी हैं और किसी भी प्रकार शिवसे कम नहीं हैं। वे योगका आदर करनेवाले, मायासे रहित, मायापति तथा परसे भी परे हैं ॥ 38 ॥

अज्ञानसे मोहित ये ब्रह्मा उन्हें अपना आत्मज तथा सामान्य देवता समझकर मोहित करना चाहते हैं ।। 39 ।।

यदि इन ब्रह्माको वरदान न दूँ, तो वेदकी नीति भ्रष्ट होती है। अब मैं क्या करूँ, जिससे प्रभु महेश्वर मेरे ऊपर क्रोधित न हों ॥ 40 ॥

ब्रह्माजी बोले- शिवाने इस प्रकार विचारकर मनसे महादेवजीका स्मरण किया। तत्पश्चात् शिवकी आज्ञा पाकर वे दुर्गा मुझसे कहने लगीं ॥ 41 ॥ दुर्गा बोलीं- हे ब्रह्मन् ! आपने जो भी कहा है, वह सब सत्य है, मुझे छोड़कर शंकरजीको मोहित करनेवाली कोई दूसरी स्त्री संसारमें नहीं है ।। 42 ।। आपने जो कहा कि जबतक शंकरजी दारपरिग्रह नहीं करेंगे, तबतक सनातनी सृष्टि नहीं होगी, यह बात भी सत्य है ॥ 43 ॥

मुझमें भी महाप्रभुको मोहित करनेकी सामर्थ्य नहीं है, किंतु अब आपके कहनेसे दुगुने उत्साहसे युक्त होकर मैं पूर्ण प्रयत्न करूँगी ll 44 ॥

हे विधे! अब मैं वैसा उपाय करूँगी, जिससे शंकरजी मोहित होकर स्वयं स्त्री ग्रहण करेंगे ।। 45 ।।

जिस प्रकार महाभागा लक्ष्मीजी विष्णुप्रिया हैं, उसी प्रकार मैं भी सतीरूप धारणकर उनकी वशवर्तिनी [प्रिया पत्नी] बनूँगी 46 ॥ वे भी जिस प्रकारसे मेरे वशवर्ती बने रहें, मैं भी उन्हींकी कृपासे वैसा ही यत्न करूँगी ॥ 47 ॥ हे पितामह। मैं दक्षकी पत्नीके गर्भ से सतोरूपसे जन्म लेकर अपनी लीलाके द्वारा शिवजीको प्राप्त करूँगी ॥ 48 ll

जिस प्रकार संसारमें अन्य प्राणी स्त्रीके वशमें होते हैं, उसी प्रकार मेरी भक्तिसे वे महादेवजी भी स्त्रीके वशवर्ती बने रहेंगे ।। 49 ।।

ब्रह्माजी बोले- हे तात! मुझसे इस प्रकार कहकर वे जगदम्बा शिवा मेरे देखते देखते वहीं अन्तर्धान हो गयीं ॥ 50 ॥उनके अन्तर्धान हो जानेपर मैं लोकपितामह ब्रह्मा वहाँ गया, जहाँ मेरे पुत्र थे और मैंने उनसे सब कुछ वर्णन किया ॥ 51॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] सतीचरित्रवर्णन, दक्षयज्ञविध्वंसका संक्षिप्त वृत्तान्त तथा सतीका पार्वतीरूपमें हिमालयके यहाँ जन्म लेना
  2. [अध्याय 2] सदाशिवसे त्रिदेवोंकी उत्पत्ति, ब्रह्माजीसे देवता आदिकी सृष्टिके पश्चात् देवी सन्ध्या तथा कामदेवका प्राकट्य
  3. [अध्याय 3] कामदेवको विविध नामों एवं वरोंकी प्राप्ति कामके प्रभावसे ब्रह्मा तथा ऋषिगणोंका मुग्ध होना, धर्मद्वारा स्तुति करनेपर भगवान् शिवका प्राकट्य और ब्रह्मा तथा ऋषियोंको समझाना, ब्रह्मा तथा ऋषियोंसे अग्निष्वात्त आदि पितृगणोंकी उत्पत्ति, ब्रह्माद्वारा कामको शापकी प्राप्ति तथा निवारणका उपाय
  4. [अध्याय 4] कामदेवके विवाहका वर्णन
  5. [अध्याय 5] ब्रह्माकी मानसपुत्री कुमारी सन्ध्याका आख्यान
  6. [अध्याय 6] सन्ध्याद्वारा तपस्या करना, प्रसन्न हो भगवान् शिवका उसे दर्शन देना, सन्ध्याद्वारा की गयी शिवस्तुति, सन्ध्याको अनेक वरोंकी प्राप्ति तथा महर्षि मेधातिथिके यज्ञमें जानेका आदेश प्राप्त होना
  7. [अध्याय 7] महर्षि मेधातिथिकी यज्ञाग्निमें सन्ध्याद्वारा शरीरत्याग, पुनः अरुन्धतीके रूपमें ज्ञाग्नि उत्पत्ति एवं वसिष्ठमुनिके साथ उसका विवाह
  8. [अध्याय 8] कामदेवके सहचर वसन्तके आविर्भावका वर्णन
  9. [अध्याय 9] कामदेवद्वारा भगवान् शिवको विचलित न कर पाना, ब्रह्माजीद्वारा कामदेवके सहायक मारगणोंकी उत्पत्ति; ब्रह्माजीका उन सबको शिवके पास भेजना, उनका वहाँ विफल होना, गणोंसहित कामदेवका वापस अपने आश्रमको लौटना
  10. [अध्याय 10] ब्रह्मा और विष्णुके संवादमें शिवमाहात्म्यका वर्णन
  11. [अध्याय 11] ब्रह्माद्वारा जगदम्बिका शिवाकी स्तुति तथा वरकी प्राप्ति
  12. [अध्याय 12] दक्षप्रजापतिका तपस्याके प्रभावसे शक्तिका दर्शन और उनसे रुद्रमोहनकी प्रार्थना करना
  13. [अध्याय 13] ब्रह्माकी आज्ञासे दक्षद्वारा मैथुनी सृष्टिका आरम्भ, अपने पुत्र हर्यश्वों तथा सबलाश्वोंको निवृत्तिमार्गमें भेजने के कारण दक्षका नारदको शाप देना
  14. [अध्याय 14] दक्षकी साठ कन्याओंका विवाह, दक्षके यहाँ देवी शिवा (सती) - का प्राकट्य, सतीकी बाललीलाका वर्णन
  15. [अध्याय 15] सतीद्वारा नन्दा व्रतका अनुष्ठान तथा देवताओंद्वारा शिवस्तुति
  16. [अध्याय 16] ब्रह्मा और विष्णुद्वारा शिवसे विवाहके लिये प्रार्थना करना तथा उनकी इसके लिये स्वीकृति
  17. [अध्याय 17] भगवान् शिवद्वारा सतीको वरप्राप्ति और शिवका ब्रह्माजीको दक्ष प्रजापतिके पास भेजना
  18. [अध्याय 18] देवताओं और मुनियोंसहित भगवान् शिवका दक्षके घर जाना, दक्षद्वारा सबका सत्कार एवं सती तथा शिवका विवाह
  19. [अध्याय 19] शिवका सतीके साथ विवाह, विवाहके समय शम्भुकी मायासे ब्रह्माका मोहित होना और विष्णुद्वारा शिवतत्त्वका निरूपण
  20. [अध्याय 20] ब्रह्माजीका 'रुद्रशिर' नाम पड़नेका कारण, सती एवं शिवका विवाहोत्सव, विवाहके अनन्तर शिव और सतीका वृषभारूढ़ हो कैलासके लिये प्रस्थान
  21. [अध्याय 21] कैलास पर्वत पर भगवान् शिव एवं सतीकी मधुर लीलाएँ
  22. [अध्याय 22] सती और शिवका बिहार- वर्णन
  23. [अध्याय 23] सतीके पूछनेपर शिवद्वारा भक्तिकी महिमा तथा नवधा भक्तिका निरूपण
  24. [अध्याय 24] दण्डकारण्यमें शिवको रामके प्रति मस्तक झुकाते देख सतीका मोह तथा शिवकी आज्ञासे उनके द्वारा रामकी परीक्षा
  25. [अध्याय 25] श्रीशिवके द्वारा गोलोकधाममें श्रीविष्णुका गोपेशके पदपर अभिषेक, श्रीरामद्वारा सतीके मनका सन्देह दूर करना, शिवद्वारा सतीका मानसिक रूपसे परित्याग
  26. [अध्याय 26] सतीके उपाख्यानमें शिवके साथ दक्षका विरोधवर्णन
  27. [अध्याय 27] दक्षप्रजापतिद्वारा महान् यज्ञका प्रारम्भ, यज्ञमें दक्षद्वारा शिवके न बुलाये जानेपर दधीचिद्वारा दक्षकी भर्त्सना करना, दक्षके द्वारा शिव-निन्दा करनेपर दधीचिका वहाँसे प्रस्थान
  28. [अध्याय 28] दक्षयज्ञका समाचार पाकर एवं शिवकी आज्ञा प्राप्तकर देवी सतीका शिवगणोंके साथ पिताके यज्ञमण्डपके लिये प्रस्थान
  29. [अध्याय 29] यज्ञशाला में शिवका भाग न देखकर तथा दक्षद्वारा शिवनिन्दा सुनकर क्रुद्ध हो सतीका दक्ष तथा देवताओंको फटकारना और प्राणत्यागका निश्चय
  30. [अध्याय 30] दक्षयज्ञमें सतीका योगाग्निसे अपने शरीरको भस्म कर देना, भृगुद्वारा यज्ञकुण्डसे ऋभुओंको प्रकट करना, ऋभुओं और शंकरके गणोंका युद्ध, भयभीत गणोंका पलायित होना
  31. [अध्याय 31] यज्ञमण्डपमें आकाशवाणीद्वारा दक्षको फटकारना तथा देवताओंको सावधान करना
  32. [अध्याय 32] सतीके दग्ध होनेका समाचार सुनकर कुपित हुए शिवका अपनी जटासे वीरभद्र और महाकालीको प्रकट करके उन्हें यज्ञ विध्वंस करनेकी आज्ञा देना
  33. [अध्याय 33] गणोंसहित वीरभद्र और महाकालीका दक्षयज्ञ विध्वंसके लिये प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] दक्ष तथा देवताओंका अनेक अपशकुनों एवं उत्पात सूचक लक्षणोंको देखकर भयभीत होना
  35. [अध्याय 35] दक्षद्वारा यज्ञकी रक्षाके लिये भगवान् विष्णुसे प्रार्थना, भगवान्‌का शिवद्रोहजनित संकटको टालनेमें अपनी असमर्थता बताते हुए दक्षको समझाना तथा सेनासहित वीरभद्रका आगमन
  36. [अध्याय 36] युद्धमें शिवगणोंसे पराजित हो देवताओंका पलायन, इन्द्र आदिके पूछनेपर बृहस्पतिका रुद्रदेवकी अजेयता बताना, वीरभद्रका देवताओंको बुद्धके लिये ललकारना, श्रीविष्णु और वीरभद्रकी बातचीत
  37. [अध्याय 37] गणसहित वीरभद्रद्वारा दक्षयज्ञका विध्वंस, दक्षवध, वीरभद्रका वापस कैलास पर्वतपर जाना, प्रसन्न भगवान् शिवद्वारा उसे गणाध्यक्ष पद प्रदान करना
  38. [अध्याय 38] दधीचि मुनि और राजा ध्रुवके विवादका इतिहास, शुक्राचार्यद्वारा दधीचिको महामृत्युंजयमन्त्रका उपदेश, मृत्युंजयमन्त्र के अनुष्ठानसे दधीचिको अवध्यताकी प्राप्ति
  39. [अध्याय 39] श्रीविष्णु और देवताओंसे अपराजित दधीचिद्वारा देवताओंको शाप देना तथा राजा ध्रुवपर अनुग्रह करना
  40. [अध्याय 40] देवताओंसहित ब्रह्माका विष्णुलोकमें जाकर अपना दुःख निवेदन करना, उन सभीको लेकर विष्णुका कैलासगमन तथा भगवान् शिवसे मिलना
  41. [अध्याय 41] देवताओं द्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  42. [अध्याय 42] भगवान् शिवका देवता आदिपर अनुग्रह, दक्षयज्ञ मण्डपमें पधारकर दक्षको जीवित करना तथा दक्ष और विष्णु आदिद्वारा शिवकी स्तुति
  43. [अध्याय 43] भगवान् शिवका दक्षको अपनी भक्तवत्सलता, ज्ञानी भक्तकी श्रेष्ठता तथा तीनों देवोंकी एकता बताना, दक्षका अपने यज्ञको पूर्ण करना, देवताओंका अपने-अपने लोकोंको प्रस्थान तथा सतीखण्डका उपसंहार और माहात्म्य