सूतजी बोले- इस प्रकार [अयोनिज मानस ] प्रजाओंकी रचना हो जानेके पश्चात् आपव प्रजापति पुरुष अर्थात् मनुने अयोनिजा शतरूपा नामक पत्नी प्राप्त की। अपनी महिमासे द्युलोकको व्याप्त करके स्थित हुए मनुके धर्मसे ही उनकी पत्नी शतरूपाकी उत्पत्ति हुई ॥ 1-2 ॥सौ वर्ष तक अत्यन्त कठिन तप करके शतरूपाने तपस्तेजसे सम्पन्न पुरुषको पतिरूपमें प्राप्त किया था। प्रादुर्भूत हुए वे पुरुष ही स्वायम्भुव मनु कहे जाते हैं, उन [के अधिकार] का इकहत्तर चतुर्युगोंका समय इस संसारमें एक मन्वन्तर कहा जाता है ॥ 3-4 ॥
उन वैराज पुरुषके [ अपने ही अंशके ] द्वारा वीरा शतरूपा उत्पन्न हुई और उस वीरका (वीरा) शतरूपासे स्वायम्भुव मनुने प्रियव्रत और उत्तानपाद नामक दो पुत्र उत्पन्न किये। उनकी एक कन्या उत्पन्न हुई, जिसका नाम काम्या था। वह महाभागा काम्या कर्दम प्रजापतिकी भार्या हुई। काम्याके सम्राट्, साक्षी और अविट्प्रभु नामक तीन पुत्र हुए ॥ 5-6 ॥
प्रभु उत्तानपादने इन्द्रके समान अनेक पुत्रोंको उत्पन्न किया और आत्माराम परम तेजस्वी ध्रुव नामक एक अन्य पुत्रको भी उत्पन्न किया ॥ 7 ॥
सुन्दर कटिवाली धर्मकन्या सुनीति नामसे प्रसिद्ध थी, यही धर्मकन्या [सुनीति] ध्रुवकी माता थी ॥ 8 ॥
उस बालक ध्रुवने अविनाशी स्थान प्राप्त करनेकी इच्छासे दिव्य तीन हजार वर्षपर्यन्त वनमें [कठोर] तप किया। प्रजापति प्रभु ब्रह्माजीने प्रसन्न होकर सप्तर्षियोंके सम्मुख उसे अपने ही समान अचल स्थान दिया ॥ 9-10 ॥
उस ध्रुवसे पुष्टि तथा धान्य नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए। पुष्टिने समुत्थासे रिपु, रिपुंजय, विप्र, वृकल और वृषतेजा नामवाले पापरहित पाँच पुत्रोंको उत्पन्न किया। रिपुकी पत्नीने सभी दिशाओंमें विख्यात चाक्षुष नामक पुत्रको जन्म दिया। चाक्षुष मनुने पुष्करिणीसे वरुण नामक पुत्र उत्पन्न किया। हे मुनिश्रेष्ठ! मनुसे प्रजापति वैराजकी कन्या नड्वलाके गर्भसे दस तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुए। उन पुत्रोंके नाम पुरु, मास, शतद्युम्न, तपस्वी, सत्यवित्, कवि, अग्निष्टोम, अतिकाल, अतिमन्यु एवं सुयश हैं। अग्निकी पुत्रीने पुरुसे परम तेजस्वी अंग, सुमना, ख्याति, सृति, अंगिरा और गय नामवाले छः पुत्रोंको उत्पन्न किया। अंगसे उनकी भार्या सुनीथाने वेन नामक पुत्रको उत्पन्न किया ॥ 11-16 ॥
वेनके अपचारसे मुनियोंको महान् क्रोध हुआ और उन धर्मपरायण मुनियोंने अपने हुंकारसे उसे मार दिया ॥ 17 ॥तदनन्तर सुनीधाने सन्तानके लिये ऋषियोंसे प्रार्थना की, तब उन महाज्ञानी ऋषियोंने वेनके दाहिने हाथका मन्थन किया ॥ 18 ॥
वेनके हाथका मन्थन किये जानेपर उससे पृथ उत्पन्न हुए वे धनुष एवं कवच धारण किये हुए उत्पन्न हुए थे तथा सूर्यके समान तेजस्वी थे ॥ 19 ॥ प्रजापालन, धर्मसंरक्षण तथा दुष्टोंको दण्ड देनेके लिये विष्णुका वह अवतार हुआ। उस समय सभी क्षत्रियोंके पूर्वज वेनपुत्र पृथुने पृथ्वीकी रक्षा की, वे राजसूयाभिषिक्त राजाओंमें प्रथम सम्राट् हुए । ll 20-21 ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! बुद्धिमान् सूत और मागध उन्हींसे उत्पन्न हुए। उन्होंने सबके कल्याणके लिये इस पृथ्वीका दोहन किया। सौ यज्ञ करनेवाले उन राजाने देवता, ऋषि, राक्षस तथा विशेषकर मनुष्योंको आजीविका प्रदान की ।। 22-23 ॥
पृथुके विजिताश्व और हर्यक्ष नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए, जो भूलोकमें धर्मज्ञ, महावीर तथा अतिप्रसिद्ध राजा हुए ॥ 24 ॥
शिखण्डिनीने प्राचीनवर्हि नामक पुत्र उत्पन्न किया। पृथ्वीतलपर विचरण करनेवाले उन प्राचीन बर्हिके द्वारा [पृथ्वीपर यज्ञ किये जानेके कारण ] कुशाओंका अग्रभाग सदा पूर्वकी ओर रहा करता था। उन्होंने समुद्रकी पुत्रीके साथ धर्मपूर्वक विवाह किया, विवाह करके वे महाप्रभु राजा अत्यन्त सुशोभित हुए ।। 25-26 ।।
समुद्रकन्या के गर्भसे अनेक यहाँके कर्ता उन प्राचीनबर्हिने दिव्य दस पुत्रोंको उत्पन्न किया ॥ 27 ॥
प्राचेतस नामसे प्रसिद्ध वे सब धनुर्वेद के पारंगत थे अनुकूल धर्मका आचरण करनेवाले उन सभीने शिक्के ध्यानमें संलग्न होकर समुद्रके जलमें शयन करते हुए और रुद्रगीतका जप करते हुए दस हजार वर्षपर्यन्त कठोर तपस्या की ।। 28-29 ॥
जिस समय वे तप कर रहे थे उस समय रक्षा न की जाती हुई पृथ्वीपर प्रजाओंका क्षय होने लगा और सारी पृथ्वीपर पेड़ ही पेड़ हो गये॥ 30 ॥हे मुनिश्रेष्ठ! तपस्यासे वर प्राप्तकर जब वे लौटे तो उन वृक्षोंको देखकर उन्हें बड़ा क्रोध उत्पन्न हुआ | और उन समर्थ तपस्वियोंने उन्हें जला देनेका विचार किया। उन प्राचेतसोंने अपने मुखोंसे अग्नि तथा वायुको उत्पन्न किया। वायुने उन वृक्षोंको उखाड़ डाला और अग्निने भस्म कर दिया ।। 31-32 ॥
तब वृक्षोंका क्षय देखकर और कुछ ही वृक्षोंके शेष रह जानेपर प्रतापी राजा चन्द्रमा उनके समीप जाकर कहने लगे- ॥ 33 ॥
सोम बोले हे प्राचीनवर्हिके पुत्र राजाओ ! आपलोग अपने क्रोधको शान्त कीजिये और वृक्षोंकी इस सुन्दर कन्याको स्वीकार कीजिये। भविष्यको | जाननेवाले मैंने गर्भमें इसका पोषण किया है। अतः हे महाभागो ! सोमवंशको बढ़ानेवाली इस कन्याको आपलोग भार्यारूपसे स्वीकार कीजिये। विद्वान्, सृष्टिकर्ता, महातेजस्वी, पुरातन, ब्रह्मपुत्र दक्ष नामक प्रजापति इसके गर्भ से उत्पन्न होंगे। ब्रह्मतेजसे सम्पन्न ये राजा (प्रजापति दक्ष) आपलोगोंके आधे तेजसे एवं मेरे तेजसे प्रजाओंकी वृद्धि करेंगे ॥ 34-37 ॥
तब सोमके वचनसे प्रचेताओंने वृक्षोंसे उत्पन्न उस मनोहर कन्याको प्रेमके साथ धर्मपूर्वक भार्यारूपमें ग्रहण किया हे मुने! उन प्रचेताओंसे उसके गर्भसे दक्ष नामक प्रजापति उत्पन्न हुए, परम तेजवाले वे सोमके भी अंशसे उत्पन्न हुए थे ।। 38-39 ॥ तब दक्षने मनसे अचर, चर, दो पैरवाले एवं चार पैरवाले जीवोंका सृजन करके मैथुनी सृष्टि प्रारम्भ की ॥ 40 ll
उन्होंने वीरण नामक प्रजापतिकी वीरणी नामक पतिव्रता कन्यासे उत्तम विधानके साथ धर्मपूर्वक विवाह किया और उस कन्यासे हर्यश्व नामक दस हजार पुण्यात्मा पुत्रोंको उत्पन्न किया, वे सब नारदजीके उपदेशसे विरक्त हो गये ।। 41-42 ।। यह सुनकर दक्षने पुनः उसी स्त्रीसे सुबलाश्व नामक हजार पुत्रोंको उत्पन्न किया। वे भी उन मुनिके उपदेशसे अपने भाइयोंके मार्गपर चले गये, वे विरक्त तथा भिक्षुमार्गी हो गये और पिताके पास नहीं
गये ।। 43-44 ।।यह सुनकर अत्यधिक कुपित होकर उन दक्षने मुनिको दुःसह शाप दे दिया हे कलहप्रिय! तुम कहीं भी स्थिरता प्राप्त नहीं करोगे ॥ 45 ॥ हे मुनीश्वर इसके बाद ब्रह्माजीके द्वारा सान्त्वना दिये जानेपर उन्होंने महाज्वालास्वरूप तथा सभी गुणोंसे युक्त स्त्रियोंको उत्पन्न किया ॥ 46 ॥
उन्होंने दस कन्याएँ धर्मराजको, तेरह कश्यपको, दो ब्रह्मपुत्रको और दो अंगिराको दीं, हे मुनिश्रेष्ठ ! उन प्रभु दक्षने दो कन्याएँ विद्वान् मुनि कृशाश्वको और नक्षत्र नामवाली [ सत्ताईस] कन्याएँ चन्द्रमाको प्रदान कीं। दक्षकी उन्हीं कन्याओंसे देवता, असुर आदि उत्पन्न हुए, उनके बहुत से पुत्र कहे गये हैं, उन सभीके द्वारा जगत् परिपूर्ण हो गया ॥ 47-49॥ हे विप्रेन्द्र ! तभी से मैथुनी सृष्टिका प्रादुर्भाव हुआ। इसके पूर्व संकल्प, दर्शन एवं स्पर्शसे सृष्टि कही गयी है ॥ 50 ॥
शौनक बोले- आपने पहले कहा था कि ब्रह्माके अँगूठेसे दक्ष उत्पन्न हुए, तब महान् तपवाले वे प्रचेताओंके पुत्र किस प्रकार हुए ? हे सूतजी मेरे इस सन्देहको दूर करनेमें आप समर्थ हैं और यह आश्चर्य है कि वे चन्द्रमाके श्वशुर किस प्रकार हुए ? ॥ 51-52 ॥
सूतजी बोले- हे मुने! प्राणियोंकी उत्पत्ति एवं उनका निरोध नित्य होता रहता है। प्रत्येक कल्पमें ये दक्ष आदि उत्पन्न होते रहते हैं ॥ 53॥
जो [मनुष्य] दक्षकी इस चराचरयुक्त सृष्टिको जान लेता है। वह सन्तानयुक्त एवं आयुसे पूर्ण होकर स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त करता है ॥ 54 ॥