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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 3 (पार्वती खण्ड) , अध्याय 32 - Sanhita 2, Khand 3 (पार्वती खण्ड) , Adhyaya 32

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ब्राह्मण वेषधारी शिवद्वारा शिवस्वरूपकी निन्दा सुनकर मेनाका कोपभवनमें गमन शिवद्वारा सप्तर्षियोंका स्मरण और उन्हें हिमालयके घर भेजना, हिमालयकी शोभाका वर्णन तथा हिमालयद्वारा सप्तर्षियोंका स्वागत

ब्रह्माजी बोले - [ हे नारद!] ब्राह्मणका यह वचन सुनकर [अश्रुपूर्ण नेत्रोंवाली] मेना व्यथित मनसे हिमालयसे कहने लगीं- ॥ 1 ॥

मेना बोलीं- हे शैलेन्द्र ! परिणाममें सुख प्रदान करनेवाले मेरे वचनको सुनें, सभी श्रेष्ठ शैवोंसे पूछिये कि इस ब्राह्मणने क्या कह दिया ? ॥ 2 ॥

हे नगेश्वर इस विष्णुभक्त ब्राह्मणने शिवजीकी निन्दा की है, उसे सुनकर मेरा मन अत्यन्त दुखी है ॥ 3 ॥ हे शैलेश्वर! मैं कुत्सित रूप एवं शीलवाले उस रुद्रको अपनी सुलक्षणा कन्या नहीं दूँगी ll 4 ll

यदि आप मेरे वचनको नहीं मानेंगे, तो इसमें सन्देह नहीं कि मैं मर जाऊँगी, तुरंत घर छोड़ दूंगी अथवा विष खा लूँगी अथवा अम्बिकाके गलेमें रस्सी बांधकर घोर वनमें चली जाऊँगी अथवा उसे महासागरमें डुबो दूंगी, किंतु उसको अपनी कन्या नहीं दूंगी ॥ 5-6 llइस प्रकार कहकर शोक सन्तप्त वे मेना शीघ्र कोपभवनमें जाकर हार उतारकर रोती हुई भूमिपर लेट गयीं ॥ 7 ॥

हे तात! उसी समय [कालीके] विरहसे व्याकुल हुए शंकरजीने शीघ्र ही उन सप्तर्षियोंका स्मरण किया ॥ 8 ॥

जब शिवजीने उन सभी ऋषियोंका स्मरण किया, तब वे दूसरे कल्पवृक्षके समान तत्काल वहाँ उपस्थित हो गये और साक्षात् सिद्धिके समान अरुन्धती भी वहाँ आ गयीं। सूर्यके समान तेजस्वी उन ऋषियोंको देखकर शिवजीने अपना जप छोड़ दिया । ll 9-10 ॥

हे मुने। वे श्रेष्ठ तपस्वी ऋषि शिवजीके आगे खड़े होकर उन्हें प्रणामकर उनकी स्तुति करके अपनेको कृतार्थ समझने लगे ॥ 11 ॥

तत्पश्चात् विस्मयमें पड़कर वे पुनः लोकनमस्कृत शिवको प्रणाम करके हाथ जोड़कर सामने खड़े होकर उनसे कहने लगे- ॥ 12 ॥

ऋषिगण बोले- हे सर्वोत्कृष्ट! हे देवताओंके सम्राट्! हे महाराज! हमलोग अपने सर्वोत्तम भाग्यकी सराहना किस प्रकार करें ।। 13 ।।

हमलोगोंने जो पूर्व समयमें [कायिक, वाचिक तथा मानसिक] तीनों प्रकारकी तपस्या की है, उत्तम वेदाध्ययन किया है, अग्निहोत्र किया है तथा नाना प्रकारके तीर्थ किये हैं और ज्ञानपूर्वक वाणी, मन तथा शरीरसे जो कुछ भी पुण्य किया है, वह सब आज आपके स्मरणरूप अनुग्रहके प्रभावसे सफल हो गया ll 14-15ll

जो मनुष्य आपका नित्य स्मरण करता है, वह कृतकृत्य हो जाता है, तब उसके पुण्यका क्या वर्णन किया जाय, जिसका स्मरण आप करते हैं ॥ 16 ॥

हे सदाशिव ! आपके द्वारा स्मरण किये जानेसे हमलोग सर्वोत्कृष्ट हो गये हैं, आप तो किसीके मनोरथमार्गमें किसी प्रकार आते ही नहीं हैं ॥ 17 ॥

जिस प्रकार बौनेको फल प्राप्त हो जाता है, जन्मान्धको नेत्रको प्राप्ति होती है, गूँगेको वाणी मिल जाती है, कंगालको निधिदर्शन हो जाता है, पंगुको ऊँचे पहाड़पर चढ़नेकी शक्ति प्राप्त हो जाती है तथा वन्ध्याको प्रसव सम्भव हो जाता है, उसी प्रकार हे प्रभो। हमें आपका यह दुर्लभ दर्शन प्राप्त हो गया ।। 18-19 ।।आजसे अब हम मुनीश्वर आपके दर्शनसे | लोकोंमें मान्य एवं पूज्य हो गये तथा ऊँची पदवीको प्राप्त हो गये ॥ 20 ॥ हे देवेश ! बहुत कहनेसे क्या ? आप सर्वदेवेश्वरके दर्शनसे हम सर्वथा मान्यताको प्राप्त हो गये ॥ 21 ॥ आप जैसे पूर्ण परमात्माको किसीसे प्रयोजन ही क्या है? किंतु यदि हम सेवकोंपर कृपा करना ही है, तो हम सबके योग्य कार्यके लिये आज्ञा प्रदान कीजिये ॥ 22 ॥

ब्रह्माजी बोले- तब उनकी इस बातको सुनकर लोकाचारका आश्रय लेकर महेश्वर शम्भु मनोहर वचन कहने लगे- ॥ 23 ॥

शिवजी बोले- हे महर्षियो! ऋषिजन हर तरहसे पूज्य हैं, आपलोग तो विशेष रूपसे पूज्य हैं। हे विप्रो ! कुछ कारणवश मैंने आपलोगोंका स्मरण किया है ॥ 24 ॥

आप सब जानते हैं कि मेरी स्थिति सदैव ही परोपकार करनेवाली है और विशेषकर लोकोपकारके लिये तो मुझे यह सब करना ही पड़ता है ॥ 25 ॥ इस समय दुरात्मा तारकासुरसे देवताओंके समक्ष दुःख उत्पन्न हो गया है, क्या करूँ, ब्रह्माजीने उसे बड़ा विकट वरदान दे रखा है ॥ 26 ॥

हे महर्षियो मेरी जो आठ प्रकारकी मूर्तियों (पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, सूर्य, चन्द्र तथा यजमान) कही गयी हैं, वे सब भी परोपकारके निमित्त ही हैं, स्वार्थके लिये नहीं हैं, यह बात तो स्पष्ट है ॥ 27 ॥

[इस परोपकारके लिये ही] मैं पार्वतीके साथ विवाह करना चाहता हूँ उसने भी महर्षियोंके कहनेसे दुष्कर कठोर तप किया है॥ 28 ॥

उसके इच्छानुसार उसका हितकारक फल मुझे अवश्य देना चाहिये; क्योंकि भक्तोंको आनन्द देनेवाली मेरी यह स्पष्ट प्रतिज्ञा है ll 29 ll

मैं पार्वतीके वचनानुसार भिक्षुकका रूप धारणकर हिमालयके घर गया था और मुझ लीलाप्रवीणने कालीको पवित्र किया था ॥ 30 ॥वे स्त्री-पुरुष मुझे परब्रह्म जानकर वेदरीतिसे सद्भक्तिसे अपनी कन्या मुझे देनेके लिये तत्पर हो गये ॥ 31 ॥ उसके बाद देवताओंकी प्रेरणासे वैष्णव भिक्षुका रूप धारणकर मैं उन दोनोंसे अपनी निन्दा करने लगा। उससे मेरे प्रति उनकी भक्ति नष्ट हो गयी ॥ 32 ॥

उसे सुनकर वे बड़े दुखी हो गये और मेरी भक्तिसे विमुख हो गये। हे मुनिगणो! अब वे मुझे अपनी कन्या नहीं देना चाहते हैं ॥ 33 ॥

इसलिये! आपलोग निश्चित रूपसे हिमालयके घर जायँ और वहाँ जाकर गिरिश्रेष्ठ हिमालय और उनकी पत्नीको समझायें ॥ 34 ॥

आपलोग प्रयत्नपूर्वक वेदसम्मत वचन उनसे कहें और सर्वथा वही करें, जिससे यह उत्तम कार्य सिद्ध हो जाय ॥ 35 ॥

हे मुनिसत्तमो ! मैं उनकी पुत्रीके साथ विवाह करना चाहता हूँ। मैंने [देवताओं एवं विष्णुके कहनेसे] विवाह करना स्वीकार कर लिया है और [पार्वतीको] वैसा वर भी दे दिया है ॥ 36 ॥

अब मैं अधिक क्या कहूँ, आपलोग हिमालय तथा मेनाको समझाइये, जिससे देवताओंका हित हो ॥ 37 ॥ आपलोगोंने जिस प्रकारकी विधिकी कल्पना की है, उससे भी अधिक होनी चाहिये, यह आपलोगोंका ही
कार्य है और इस कार्यके भागी आपलोग ही हैं ॥ 38 ॥

ब्रह्माजी बोले- इस प्रकारके वचनको सुनकर स्वच्छ अन्तःकरणवाले वे सभी महर्षि प्रभुसे अनुगृहीत हो आनन्दको प्राप्त हुए ॥ 39 ॥

[वे ऋषि परस्पर कहने लगे] हमलोग सर्वथा धन्य तथा कृतकृत्य हो गये और विशेष रूपसे सबके वन्दनीय एवं पूजनीय हो गये ॥ 40 ॥

जो ब्रह्मा तथा विष्णुके भी वन्दनीय हैं और | सम्पूर्ण मनोरथोंको सिद्ध करनेवाले हैं, वे हमलोगोंको अपना दूत बनाकर लोकको सुख प्रदान करनेवाले कार्यके लिये भेज रहे हैं ॥ 41 ॥

ये शिवजी लोकोंके स्वामी एवं पिता हैं और वे |[पार्वती] जगत्की माता कही गयी हैं। [ इन दोनोंका ] यह | उचित सम्बन्ध सर्वदा चन्द्रमाके समान बढ़ता रहे ॥ 42 ॥ब्रह्माजी बोले- ऐसा कहकर वे दिव्य ऋषि शिवजीको प्रणामकर आकाशमार्गसे वहाँ गये, जहाँ हिमालयका नगर है। उस दिव्य पुरीको देखते ही ऋषिगण आश्चर्यसे चकित हो गये और अपने पुण्यका वर्णन करते हुए परस्पर कहने लगे- ॥ 43-44 ॥

ऋषि बोले- हिमालयके इस नगरको देखकर हम सभी पुण्यवान् एवं धन्य हो गये; क्योंकि स्वयं शिवजीने इस प्रकारके कार्यमें हमलोगोंको नियुक्त किया है ॥ 45 ॥

यह [हिमालयकी] पुरी तो अलका, स्वर्ग, भोगवती तथा विशेषकर अमरावतीसे भी उत्तम दिखायी पड़ती है ॥ 46 ॥

इस पुरीके अत्यन्त मनोहर एवं विचित्र घर और आँगन स्फटिक तथा नाना प्रकारकी उत्तम मणियोंसे बनाये गये हैं। इस पुरीके प्रत्येक घरमें सूर्यकान्त एवं चन्द्रकान्त मणियाँ विद्यमान हैं तथा अद्भुत स्वर्गीय वृक्ष लगे हुए हैं । 47-48 ।।

तोरणोंकी शोभा घर-घरमें दिखायी दे रही है। इस पुरके विमानोंमें तोते तथा हंस बोल रहे हैं ॥ 49 विचित्र प्रकारके वितान चित्र-विचित्र कपड़ोंके बने हैं, जिनमें बन्दनवार बँधे हैं। वहाँ अनेक | जलाशय तथा विविध बावलियाँ हैं ॥ 50 ॥

वहाँ विचित्र उद्यान हैं, जिनका लोग प्रसन्नचित्त होकर सेवन करते हैं। यहाँके सभी पुरुष देवताके सदृश तथा स्त्रियाँ अप्सराओंके सदृश हैं ll 51 ॥

हिमालयके पुरको छोड़कर स्वर्गकी कामनासे कर्मभूमिमें याज्ञिक एवं पौराणिक लोग व्यर्थ ही अनुष्ठान करते रहते हैं ॥ 52 ॥

हे विप्रो ! मनुष्योंको स्वर्गकी तभीतक कामना रहती है, जबतक उन्होंने इस पुरीको नहीं देखा, जब इसे देख लिया, तो स्वर्गसे क्या प्रयोजन ? ॥ 53 ॥

ब्रह्माजी बोले- [ हे नारद!] इस प्रकार उस पुरीका वर्णन करते हुए वे सभी ऋषि सब प्रकारकी समृद्धिसे युक्त हिमालयके घर पहुँचे ll 54 ll

आकाशमार्ग से आते हुए सूर्यके समान अत्यन्त तेजस्वी उन सात ऋषियोंको दूरसे ही देखकर हिमवान् विस्मित हो [मनमें] कहने लगे ॥ 55 ॥हिमवान् बोले- ये सूर्यके समान तेजस्वी सप्तर्षिगण मेरे पास आ रहे हैं, मुझे इस समय प्रयत्नपूर्वक इन मुनियोंकी पूजा करनी चाहिये ॥ 56 ॥ हम गृहस्थलोग धन्य हैं, जिनके घर सभीको सुख प्रदान करनेवाले इस प्रकारके महात्मा [स्वयं ] आते हैं ॥ 57 ॥

ब्रह्माजी बोले- इसी बीच आकाशसे उतरकर पृथिवीपर स्थित हुए उन सबको अपने सम्मुख देखकर हिमालय सम्मानपूर्वक उनके पास गये ॥ 58 ॥

उन्होंने हाथ जोड़कर सिर झुकाकर उन सप्तर्षियोंको प्रणाम करके पुनः बड़े सम्मानके साथ उनकी पूजा की ॥ 59 ॥

उस पूजाको स्वीकार करके हित करनेवाले प्रसन्नमुख सप्तर्षियोंने गिरिराज हिमालयसे कुशल मंगल पूछा ॥ 60 ॥

मेरा गृहस्थाश्रम धन्य हो गया - हिमालयने ऐसा कहकर उन्हें आगे करके आसन लाकर भक्तिपूर्वक समर्पित किया। आसनोंपर उनके बैठ जानेपर पुनः उनसे आज्ञा लेकर वे हिमालय स्वयं भी बैठ गये और इसके बाद तेजस्वी ऋषियोंसे कहने लगे- ॥ 61-62॥

हिमालय बोले—मैं धन्य तथा कृतकृत्य हो गया, मेरा जीवन सफल हो गया, मैं लोकोंमें दर्शनीय तथा अनेक तीर्थोंके समान हो गया हूँ; क्योंकि विष्णुस्वरूप आपलोग मेरे घर पधारे हैं। कृपणोंके घरोंमें [हर प्रकारसे] परिपूर्ण आपलोगोंको कौन-सा कार्य हो सकता है ? तो भी मुझ सेवकके योग्य जो कुछ कार्य हो, उसे दयापूर्वक कहिये, जिससे मेरा | जन्म सफल हो जाय ।। 63-65 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] पितरोंकी कन्या मेनाके साथ हिमालयके विवाहका वर्णन
  2. [अध्याय 2] पितरोंकी तीन मानसी कन्याओं-मेना, धन्या और कलावतीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त तथा सनकादिद्वारा प्राप्त शाप एवं वरदानका वर्णन
  3. [अध्याय 3] विष्णु आदि देवताओंका हिमालयके पास जाना, उन्हें उमाराधनकी विधि बता स्वयं भी देवी जगदम्बाकी स्तुति करना
  4. [अध्याय 4] उमादेवीका दिव्यरूपमें देवताओंको दर्शन देना और अवतार ग्रहण करनेका आश्वासन देना
  5. [अध्याय 5] मेनाकी तपस्यासे प्रसन्न होकर देवीका उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन देकर वरदान देना, मेनासे मैनाकका जन्म
  6. [अध्याय 6] देवी उमाका हिमवान्‌के हृदय तथा मेनाके गर्भमें आना, गर्भस्था देवीका देवताओं द्वारा स्तवन, देवीका दिव्यरूपमें प्रादुर्भाव, माता मेनासे वार्तालाप तथा पुनः नवजात कन्याके रूपमें परिवर्तित होना
  7. [अध्याय 7] पार्वतीका नामकरण तथा उनकी बाललीलाएँ एवं विद्याध्ययन
  8. [अध्याय 8] नारद मुनिका हिमालयके समीप गमन, वहाँ पार्वतीका हाथ देखकर भावी लक्षणोंको बताना, चिन्तित हिमवान्‌को शिवमहिमा बताना तथा शिवसे विवाह करनेका परामर्श देना
  9. [अध्याय 9] पार्वतीके विवाहके सम्बन्धमें मेना और हिमालयका वार्तालाप, पार्वती और हिमालयद्वारा देखे गये अपने स्वप्नका वर्णन
  10. [अध्याय 10] शिवजीके ललाटसे भौमोत्पत्ति
  11. [अध्याय 11] भगवान् शिवका तपस्याके लिये हिमालयपर आगमन, वहाँ पर्वतराज हिमालयसे वार्तालाप
  12. [अध्याय 12] हिमवान्‌का पार्वतीको शिवकी सेवामें रखनेके लिये उनसे आज्ञा मांगना, शिवद्वारा कारण बताते हुए इस प्रस्तावको अस्वीकार कर देना
  13. [अध्याय 13] पार्वती और परमेश्वरका दार्शनिक संवाद, शिवका पार्वतीको अपनी सेवाके लिये आज्ञा देना, पार्वतीका महेश्वरकी सेवामें तत्पर रहना
  14. [अध्याय 14] तारकासुरकी उत्पत्तिके प्रसंगों दितिपुत्र बज्रांगकी कथा, उसकी तपस्या तथा वरप्राप्तिका वर्णन
  15. [अध्याय 15] वरांगीके पुत्र तारकासुरकी उत्पत्ति, तारकासुरकी तपस्या एवं ब्रह्माजीद्वारा उसे वरप्राप्ति, वरदानके प्रभावसे तीनों लोकोंपर उसका अत्याचार
  16. [अध्याय 16] तारकासुरसे उत्पीड़ित देवताओंको ब्रह्माजीद्वारा सान्त्वना प्रदान करना
  17. [अध्याय 17] इन्द्रके स्मरण करनेपर कामदेवका उपस्थित होना, शिवको तपसे विचलित करनेके लिये इन्द्रद्वारा कामदेवको भेजना
  18. [अध्याय 18] कामदेवद्वारा असमयमें वसन्त ऋतुका प्रभाव प्रकट करना, कुछ क्षणके लिये शिवका मोहित होना, पुनः वैराग्य भाव धारण करना
  19. [अध्याय 19] भगवान् शिवकी नेत्रज्वालासे कामदेवका भस्म होना और रतिका विलाप, देवताओं द्वारा रतिको सान्त्वना प्रदान करना और भगवान् शिवसे कामको जीवित करनेकी प्रार्थना करना
  20. [अध्याय 20] शिवकी क्रोधाग्निका वडवारूप धारण और ब्रह्माद्वारा उसे समुद्रको समर्पित करना
  21. [अध्याय 21] कामदेवके भस्म हो जानेपर पार्वतीका अपने घर आगमन, हिमवान् तथा मेनाद्वारा उन्हें धैर्य प्रदान करना, नारदद्वारा पार्वतीको पंचाक्षर मन्त्रका उपदेश
  22. [अध्याय 22] पार्वतीकी तपस्या एवं उसके प्रभावका वर्णन
  23. [अध्याय 23] हिमालय आदिका तपस्यानिरत पार्वतीके पास जाना, पार्वतीका पिता हिमालय आदिको अपने तपके विषयमें दृढ़ निश्चयकी बात बताना, पार्वतीके तपके प्रभावसे त्रैलोक्यका संतप्त होना, सभी देवताओंका भगवान् शंकरके पास जाना
  24. [अध्याय 24] देवताओंका भगवान् शिवसे पार्वतीके साथ विवाह करनेका अनुरोध, भगवान्का विवाहके दोष बताकर अस्वीकार करना तथा उनके पुनः प्रार्थना करनेपर स्वीकार कर लेना
  25. [अध्याय 25] भगवान् शंकरकी आज्ञासे सप्तर्षियोंद्वारा पार्वतीके शिवविषयक अनुरागकी परीक्षा करना और वह वृत्तान्त भगवान् शिवको बताकर स्वर्गलोक जाना
  26. [अध्याय 26] पार्वतीकी परीक्षा लेनेके लिये भगवान् शिवका जटाधारी ब्राह्मणका वेष धारणकर पार्वतीके समीप जाना, शिव-पार्वती संवाद
  27. [अध्याय 27] जटाधारी ब्राह्मणद्वारा पार्वतीके समक्ष शिवजीके स्वरूपकी निन्दा करना
  28. [अध्याय 28] पार्वतीद्वारा परमेश्वर शिवकी महत्ता प्रतिपादित करना और रोषपूर्वक जटाधारी ब्राह्मणको फटकारना, शिवका पार्वतीके समक्ष प्रकट होना
  29. [अध्याय 29] शिव और पार्वतीका संवाद, विवाहविषयक पार्वतीके अनुरोधको शिवद्वारा स्वीकार करना
  30. [अध्याय 30] पार्वतीके पिताके घरमें आनेपर महामहोत्सवका होना, महादेवजीका नटरूप धारणकर वहाँ उपस्थित होना तथा अनेक लीलाएँ दिखाना, शिवद्वारा पार्वतीकी याचना, किंतु माता-पिताके द्वारा मना करनेपर अन्तर्धान हो जाना
  31. [अध्याय 31] देवताओंके कहनेपर शिवका ब्राह्मण वेषमें हिमालयके यहाँ जाना और शिवकी निन्दा करना
  32. [अध्याय 32] ब्राह्मण वेषधारी शिवद्वारा शिवस्वरूपकी निन्दा सुनकर मेनाका कोपभवनमें गमन शिवद्वारा सप्तर्षियोंका स्मरण और उन्हें हिमालयके घर भेजना, हिमालयकी शोभाका वर्णन तथा हिमालयद्वारा सप्तर्षियोंका स्वागत
  33. [अध्याय 33] वसिष्ठपत्नी अरुन्धती reद्वारा मेना को समझाना तथा
  34. [अध्याय 34] सप्तर्षियोंद्वारा हिमालयको राजा अनरण्यका आख्यान सुनाकर पार्वतीका विवाह शिवसे करनेकी प्रेरणा देना
  35. [अध्याय 35] धर्मराजद्वारा मुनि पिप्पलादकी भार्या सती पद्माके पातिव्रत्यकी परीक्षा, पद्माद्वारा धर्मराजको शाप प्रदान करना तथा पुनः चारों युगोंमें शापकी व्यवस्था करना, पातिव्रत्यसे प्रसन्न हो धर्मराजद्वारा पद्माको अनेक वर प्रदान करना, महर्षि वसिष्ठद्वारा हिमवान्से पद्माके दृष्टान्तद्वारा अपनी पुत्री शिवको सौंपनेके लिये कहना
  36. [अध्याय 36] सप्तर्षियोंके समझानेपर हिमवान्‌का शिवके साथ अपनी पुत्रीके विवाहका निश्चय करना, सप्तर्षियोंद्वारा शिवके पास जाकर उन्हें सम्पूर्ण वृत्तान्त बताकर अपने धामको जाना
  37. [अध्याय 37] हिमालयद्वारा विवाहके लिये लग्नपत्रिकाप्रेषण, विवाहकी सामग्रियोंकी तैयारी तथा अनेक पर्वतों एवं नदियोंका दिव्य रूपमें सपरिवार हिमालयके घर आगमन
  38. [अध्याय 38] हिमालयपुरीकी सजावट, विश्वकर्माद्वारा दिव्यमण्डप एवं देवताओंके निवासके लिये दिव्यलोकोंका निर्माण करना
  39. [अध्याय 39] भगवान् शिवका नारदजीके द्वारा सब देवताओंको निमन्त्रण दिलाना, सबका आगमन तथा शिवका मंगलाचार एवं ग्रहपूजन आदि करके कैलाससे बाहर निकलना
  40. [अध्याय 40] शिवबरातकी शोभा भगवान् शिवका बरात लेकर हिमालयपुरीकी ओर प्रस्थान
  41. [अध्याय 41] नारदद्वारा हिमालयगृहमें जाकर विश्वकर्माद्वारा बनाये गये विवाहमण्डपका दर्शनकर मोहित होना और वापस आकर उस विचित्र रचनाका वर्णन करना
  42. [अध्याय 42] हिमालयद्वारा प्रेषित मूर्तिमान् पर्वतों और ब्राह्मणोंद्वारा बरातकी अगवानी, देवताओं और पर्वतोंके मिलापका वर्णन
  43. [अध्याय 43] मेनाद्वारा शिवको देखनेके लिये महलकी छतपर जाना, नारदद्वारा सबका दर्शन कराना, शिवद्वारा अद्भुत लीलाका प्रदर्शन, शिवगणों तथा शिवके भयंकर वेषको देखकर मेनाका मूर्च्छित होना
  44. [अध्याय 44] शिवजीके रूपको देखकर मेनाका विलाप, पार्वती तथा नारद आदि सभीको फटकारना, शिवके साथ कन्याका विवाह न करनेका हठ, विष्णुद्वारा मेनाको समझाना
  45. [अध्याय 45] भगवान् शिवका अपने परम सुन्दर दिव्य रूपको प्रकट करना, मेनाकी प्रसन्नता और क्षमा प्रार्थना तथा पुरवासिनी स्त्रियोंका शिवके रूपका दर्शन करके जन्म और जीवनको सफल मानना
  46. [अध्याय 46] नगरमें बरातियोंका प्रवेश द्वाराचार तथा पार्वतीद्वारा कुलदेवताका पूजन
  47. [अध्याय 47] पाणिग्रहण के लिये हिमालयके घर शिवके गमनोत्सवका वर्णन
  48. [अध्याय 48] शिव-पार्वती विवाहका प्रारम्भ, हिमालयद्वारा शिवके गोत्रके विषयमें प्रश्न होनेपर नारदजीके द्वारा उत्तरके रूपमें शिवमाहात्म्य प्रतिपादित करना, हर्षयुक्त हिमालयद्वारा कन्यादानकर विविध उपहार प्रदान करना
  49. [अध्याय 49] अग्निपरिक्रमा करते समय पार्वतीके पदनखको देखकर ब्रह्माका मोहग्रस्त होना, बालखिल्योंकी उत्पत्ति, शिवका कुपित होना, देवताओंद्वारा शिवस्तुति
  50. [अध्याय 50] शिवा शिवके विवाहकृत्यसम्पादनके अनन्तर देवियोंका शिवसे मधुर वार्तालाप
  51. [अध्याय 51] रतिके अनुरोधपर श्रीशंकरका कामदेवको जीवित करना, देवताओंद्वारा शिवस्तुति
  52. [अध्याय 52] हिमालयद्वारा सभी बरातियोंको भोजन कराना, शिवका विश्वकर्माद्वारा निर्मित वासगृहमें शयन करके प्रातःकाल जनवासेमें आगमन
  53. [अध्याय 53] चतुर्थीकर्म, बरातका कई दिनोंतक ठहरना, सप्तर्षियोंके समझानेसे हिमालयका बरातको विदा करनेके लिये राजी होना, मेनाका शिवको अपनी कन्या सौंपना तथा बरातका पुरीके बाहर जाकर ठहरना
  54. [अध्याय 54] मेनाकी इच्छा अनुसार एक ब्राह्मणपत्नीका पार्वतीको पातिव्रतधर्मका उपदेश देना
  55. [अध्याय 55] शिव-पार्वती तथा बरातकी विदाई, भगवान् शिवका समस्त देवताओंको विदा करके कैलासपर रहना और शिव विवाहोपाख्यानके श्रवणकी महिमा