ब्रह्माजी बोले - [ हे नारद!] ब्राह्मणका यह वचन सुनकर [अश्रुपूर्ण नेत्रोंवाली] मेना व्यथित मनसे हिमालयसे कहने लगीं- ॥ 1 ॥
मेना बोलीं- हे शैलेन्द्र ! परिणाममें सुख प्रदान करनेवाले मेरे वचनको सुनें, सभी श्रेष्ठ शैवोंसे पूछिये कि इस ब्राह्मणने क्या कह दिया ? ॥ 2 ॥
हे नगेश्वर इस विष्णुभक्त ब्राह्मणने शिवजीकी निन्दा की है, उसे सुनकर मेरा मन अत्यन्त दुखी है ॥ 3 ॥ हे शैलेश्वर! मैं कुत्सित रूप एवं शीलवाले उस रुद्रको अपनी सुलक्षणा कन्या नहीं दूँगी ll 4 ll
यदि आप मेरे वचनको नहीं मानेंगे, तो इसमें सन्देह नहीं कि मैं मर जाऊँगी, तुरंत घर छोड़ दूंगी अथवा विष खा लूँगी अथवा अम्बिकाके गलेमें रस्सी बांधकर घोर वनमें चली जाऊँगी अथवा उसे महासागरमें डुबो दूंगी, किंतु उसको अपनी कन्या नहीं दूंगी ॥ 5-6 llइस प्रकार कहकर शोक सन्तप्त वे मेना शीघ्र कोपभवनमें जाकर हार उतारकर रोती हुई भूमिपर लेट गयीं ॥ 7 ॥
हे तात! उसी समय [कालीके] विरहसे व्याकुल हुए शंकरजीने शीघ्र ही उन सप्तर्षियोंका स्मरण किया ॥ 8 ॥
जब शिवजीने उन सभी ऋषियोंका स्मरण किया, तब वे दूसरे कल्पवृक्षके समान तत्काल वहाँ उपस्थित हो गये और साक्षात् सिद्धिके समान अरुन्धती भी वहाँ आ गयीं। सूर्यके समान तेजस्वी उन ऋषियोंको देखकर शिवजीने अपना जप छोड़ दिया । ll 9-10 ॥
हे मुने। वे श्रेष्ठ तपस्वी ऋषि शिवजीके आगे खड़े होकर उन्हें प्रणामकर उनकी स्तुति करके अपनेको कृतार्थ समझने लगे ॥ 11 ॥
तत्पश्चात् विस्मयमें पड़कर वे पुनः लोकनमस्कृत शिवको प्रणाम करके हाथ जोड़कर सामने खड़े होकर उनसे कहने लगे- ॥ 12 ॥
ऋषिगण बोले- हे सर्वोत्कृष्ट! हे देवताओंके सम्राट्! हे महाराज! हमलोग अपने सर्वोत्तम भाग्यकी सराहना किस प्रकार करें ।। 13 ।।
हमलोगोंने जो पूर्व समयमें [कायिक, वाचिक तथा मानसिक] तीनों प्रकारकी तपस्या की है, उत्तम वेदाध्ययन किया है, अग्निहोत्र किया है तथा नाना प्रकारके तीर्थ किये हैं और ज्ञानपूर्वक वाणी, मन तथा शरीरसे जो कुछ भी पुण्य किया है, वह सब आज आपके स्मरणरूप अनुग्रहके प्रभावसे सफल हो गया ll 14-15ll
जो मनुष्य आपका नित्य स्मरण करता है, वह कृतकृत्य हो जाता है, तब उसके पुण्यका क्या वर्णन किया जाय, जिसका स्मरण आप करते हैं ॥ 16 ॥
हे सदाशिव ! आपके द्वारा स्मरण किये जानेसे हमलोग सर्वोत्कृष्ट हो गये हैं, आप तो किसीके मनोरथमार्गमें किसी प्रकार आते ही नहीं हैं ॥ 17 ॥
जिस प्रकार बौनेको फल प्राप्त हो जाता है, जन्मान्धको नेत्रको प्राप्ति होती है, गूँगेको वाणी मिल जाती है, कंगालको निधिदर्शन हो जाता है, पंगुको ऊँचे पहाड़पर चढ़नेकी शक्ति प्राप्त हो जाती है तथा वन्ध्याको प्रसव सम्भव हो जाता है, उसी प्रकार हे प्रभो। हमें आपका यह दुर्लभ दर्शन प्राप्त हो गया ।। 18-19 ।।आजसे अब हम मुनीश्वर आपके दर्शनसे | लोकोंमें मान्य एवं पूज्य हो गये तथा ऊँची पदवीको प्राप्त हो गये ॥ 20 ॥ हे देवेश ! बहुत कहनेसे क्या ? आप सर्वदेवेश्वरके दर्शनसे हम सर्वथा मान्यताको प्राप्त हो गये ॥ 21 ॥ आप जैसे पूर्ण परमात्माको किसीसे प्रयोजन ही क्या है? किंतु यदि हम सेवकोंपर कृपा करना ही है, तो हम सबके योग्य कार्यके लिये आज्ञा प्रदान कीजिये ॥ 22 ॥
ब्रह्माजी बोले- तब उनकी इस बातको सुनकर लोकाचारका आश्रय लेकर महेश्वर शम्भु मनोहर वचन कहने लगे- ॥ 23 ॥
शिवजी बोले- हे महर्षियो! ऋषिजन हर तरहसे पूज्य हैं, आपलोग तो विशेष रूपसे पूज्य हैं। हे विप्रो ! कुछ कारणवश मैंने आपलोगोंका स्मरण किया है ॥ 24 ॥
आप सब जानते हैं कि मेरी स्थिति सदैव ही परोपकार करनेवाली है और विशेषकर लोकोपकारके लिये तो मुझे यह सब करना ही पड़ता है ॥ 25 ॥ इस समय दुरात्मा तारकासुरसे देवताओंके समक्ष दुःख उत्पन्न हो गया है, क्या करूँ, ब्रह्माजीने उसे बड़ा विकट वरदान दे रखा है ॥ 26 ॥
हे महर्षियो मेरी जो आठ प्रकारकी मूर्तियों (पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, सूर्य, चन्द्र तथा यजमान) कही गयी हैं, वे सब भी परोपकारके निमित्त ही हैं, स्वार्थके लिये नहीं हैं, यह बात तो स्पष्ट है ॥ 27 ॥
[इस परोपकारके लिये ही] मैं पार्वतीके साथ विवाह करना चाहता हूँ उसने भी महर्षियोंके कहनेसे दुष्कर कठोर तप किया है॥ 28 ॥
उसके इच्छानुसार उसका हितकारक फल मुझे अवश्य देना चाहिये; क्योंकि भक्तोंको आनन्द देनेवाली मेरी यह स्पष्ट प्रतिज्ञा है ll 29 ll
मैं पार्वतीके वचनानुसार भिक्षुकका रूप धारणकर हिमालयके घर गया था और मुझ लीलाप्रवीणने कालीको पवित्र किया था ॥ 30 ॥वे स्त्री-पुरुष मुझे परब्रह्म जानकर वेदरीतिसे सद्भक्तिसे अपनी कन्या मुझे देनेके लिये तत्पर हो गये ॥ 31 ॥ उसके बाद देवताओंकी प्रेरणासे वैष्णव भिक्षुका रूप धारणकर मैं उन दोनोंसे अपनी निन्दा करने लगा। उससे मेरे प्रति उनकी भक्ति नष्ट हो गयी ॥ 32 ॥
उसे सुनकर वे बड़े दुखी हो गये और मेरी भक्तिसे विमुख हो गये। हे मुनिगणो! अब वे मुझे अपनी कन्या नहीं देना चाहते हैं ॥ 33 ॥
इसलिये! आपलोग निश्चित रूपसे हिमालयके घर जायँ और वहाँ जाकर गिरिश्रेष्ठ हिमालय और उनकी पत्नीको समझायें ॥ 34 ॥
आपलोग प्रयत्नपूर्वक वेदसम्मत वचन उनसे कहें और सर्वथा वही करें, जिससे यह उत्तम कार्य सिद्ध हो जाय ॥ 35 ॥
हे मुनिसत्तमो ! मैं उनकी पुत्रीके साथ विवाह करना चाहता हूँ। मैंने [देवताओं एवं विष्णुके कहनेसे] विवाह करना स्वीकार कर लिया है और [पार्वतीको] वैसा वर भी दे दिया है ॥ 36 ॥
अब मैं अधिक क्या कहूँ, आपलोग हिमालय तथा मेनाको समझाइये, जिससे देवताओंका हित हो ॥ 37 ॥ आपलोगोंने जिस प्रकारकी विधिकी कल्पना की है, उससे भी अधिक होनी चाहिये, यह आपलोगोंका ही
कार्य है और इस कार्यके भागी आपलोग ही हैं ॥ 38 ॥
ब्रह्माजी बोले- इस प्रकारके वचनको सुनकर स्वच्छ अन्तःकरणवाले वे सभी महर्षि प्रभुसे अनुगृहीत हो आनन्दको प्राप्त हुए ॥ 39 ॥
[वे ऋषि परस्पर कहने लगे] हमलोग सर्वथा धन्य तथा कृतकृत्य हो गये और विशेष रूपसे सबके वन्दनीय एवं पूजनीय हो गये ॥ 40 ॥
जो ब्रह्मा तथा विष्णुके भी वन्दनीय हैं और | सम्पूर्ण मनोरथोंको सिद्ध करनेवाले हैं, वे हमलोगोंको अपना दूत बनाकर लोकको सुख प्रदान करनेवाले कार्यके लिये भेज रहे हैं ॥ 41 ॥
ये शिवजी लोकोंके स्वामी एवं पिता हैं और वे |[पार्वती] जगत्की माता कही गयी हैं। [ इन दोनोंका ] यह | उचित सम्बन्ध सर्वदा चन्द्रमाके समान बढ़ता रहे ॥ 42 ॥ब्रह्माजी बोले- ऐसा कहकर वे दिव्य ऋषि शिवजीको प्रणामकर आकाशमार्गसे वहाँ गये, जहाँ हिमालयका नगर है। उस दिव्य पुरीको देखते ही ऋषिगण आश्चर्यसे चकित हो गये और अपने पुण्यका वर्णन करते हुए परस्पर कहने लगे- ॥ 43-44 ॥
ऋषि बोले- हिमालयके इस नगरको देखकर हम सभी पुण्यवान् एवं धन्य हो गये; क्योंकि स्वयं शिवजीने इस प्रकारके कार्यमें हमलोगोंको नियुक्त किया है ॥ 45 ॥
यह [हिमालयकी] पुरी तो अलका, स्वर्ग, भोगवती तथा विशेषकर अमरावतीसे भी उत्तम दिखायी पड़ती है ॥ 46 ॥
इस पुरीके अत्यन्त मनोहर एवं विचित्र घर और आँगन स्फटिक तथा नाना प्रकारकी उत्तम मणियोंसे बनाये गये हैं। इस पुरीके प्रत्येक घरमें सूर्यकान्त एवं चन्द्रकान्त मणियाँ विद्यमान हैं तथा अद्भुत स्वर्गीय वृक्ष लगे हुए हैं । 47-48 ।।
तोरणोंकी शोभा घर-घरमें दिखायी दे रही है। इस पुरके विमानोंमें तोते तथा हंस बोल रहे हैं ॥ 49 विचित्र प्रकारके वितान चित्र-विचित्र कपड़ोंके बने हैं, जिनमें बन्दनवार बँधे हैं। वहाँ अनेक | जलाशय तथा विविध बावलियाँ हैं ॥ 50 ॥
वहाँ विचित्र उद्यान हैं, जिनका लोग प्रसन्नचित्त होकर सेवन करते हैं। यहाँके सभी पुरुष देवताके सदृश तथा स्त्रियाँ अप्सराओंके सदृश हैं ll 51 ॥
हिमालयके पुरको छोड़कर स्वर्गकी कामनासे कर्मभूमिमें याज्ञिक एवं पौराणिक लोग व्यर्थ ही अनुष्ठान करते रहते हैं ॥ 52 ॥
हे विप्रो ! मनुष्योंको स्वर्गकी तभीतक कामना रहती है, जबतक उन्होंने इस पुरीको नहीं देखा, जब इसे देख लिया, तो स्वर्गसे क्या प्रयोजन ? ॥ 53 ॥
ब्रह्माजी बोले- [ हे नारद!] इस प्रकार उस पुरीका वर्णन करते हुए वे सभी ऋषि सब प्रकारकी समृद्धिसे युक्त हिमालयके घर पहुँचे ll 54 ll
आकाशमार्ग से आते हुए सूर्यके समान अत्यन्त तेजस्वी उन सात ऋषियोंको दूरसे ही देखकर हिमवान् विस्मित हो [मनमें] कहने लगे ॥ 55 ॥हिमवान् बोले- ये सूर्यके समान तेजस्वी सप्तर्षिगण मेरे पास आ रहे हैं, मुझे इस समय प्रयत्नपूर्वक इन मुनियोंकी पूजा करनी चाहिये ॥ 56 ॥ हम गृहस्थलोग धन्य हैं, जिनके घर सभीको सुख प्रदान करनेवाले इस प्रकारके महात्मा [स्वयं ] आते हैं ॥ 57 ॥
ब्रह्माजी बोले- इसी बीच आकाशसे उतरकर पृथिवीपर स्थित हुए उन सबको अपने सम्मुख देखकर हिमालय सम्मानपूर्वक उनके पास गये ॥ 58 ॥
उन्होंने हाथ जोड़कर सिर झुकाकर उन सप्तर्षियोंको प्रणाम करके पुनः बड़े सम्मानके साथ उनकी पूजा की ॥ 59 ॥
उस पूजाको स्वीकार करके हित करनेवाले प्रसन्नमुख सप्तर्षियोंने गिरिराज हिमालयसे कुशल मंगल पूछा ॥ 60 ॥
मेरा गृहस्थाश्रम धन्य हो गया - हिमालयने ऐसा कहकर उन्हें आगे करके आसन लाकर भक्तिपूर्वक समर्पित किया। आसनोंपर उनके बैठ जानेपर पुनः उनसे आज्ञा लेकर वे हिमालय स्वयं भी बैठ गये और इसके बाद तेजस्वी ऋषियोंसे कहने लगे- ॥ 61-62॥
हिमालय बोले—मैं धन्य तथा कृतकृत्य हो गया, मेरा जीवन सफल हो गया, मैं लोकोंमें दर्शनीय तथा अनेक तीर्थोंके समान हो गया हूँ; क्योंकि विष्णुस्वरूप आपलोग मेरे घर पधारे हैं। कृपणोंके घरोंमें [हर प्रकारसे] परिपूर्ण आपलोगोंको कौन-सा कार्य हो सकता है ? तो भी मुझ सेवकके योग्य जो कुछ कार्य हो, उसे दयापूर्वक कहिये, जिससे मेरा | जन्म सफल हो जाय ।। 63-65 ॥