मुनिगण बोले- सर्वार्थवेत्ता सूतजी ! अब आप भुवनेश्वरी उमाके अवतारका वर्णन करें, जिनसे सरस्वती उत्पन्न हुई, जो परब्रह्म, मूलप्रकृति, ईश्वरी, निराकार होकर भी साकार एवं नित्यानन्दमयी सती कही जाती हैं ॥ 1-2 ॥
सूतजी बोले- हे तपस्वियो! आपलोग उनके अति महान् चरित्रका प्रेमपूर्वक श्रवण कीजिये, जिसके जाननेमात्र से मनुष्य परम गतिको प्राप्त कर लेता है ॥ 3 ॥
एक बार दैत्यों एवं देवताओंमें परस्पर युद्ध हुआ, उसमें महामायाके प्रभावसे देवगणोंकी विजय हुई ॥ 4 ॥इससे देवताओंको अहंकार हो गया और वे अपनी प्रशंसा करने लगे कि हमलोग धन्य हैं, हमलोग धन्य हैं। वे असुर हमलोगों का क्या कर लेंगे, जो हमारे अति दुःसह प्रतापको देखकर भयभीत हो 'भागो भागो' ऐसा कहकर पाताललोकको चले गये। अहो, दैत्योंके वंशका नाश करनेवाला हमारा बल एवं तेज अद्भुत है, देवताओंका आश्चर्यकारक भाग्य है - इस प्रकार वे सब आत्मश्लाघा करने लगे ॥ 5- 7॥
उसी समय वहाँ एक पुंजीभूत तेज प्रकट हुआ, जिसे पहले नहीं देखा गया था। उसे देखकर देवता आश्चर्यचकित हो उठे। देवी श्यामाके अभिमाननाशक उस प्रभावको न जानते हुए वे रुँधे कण्ठसे कहने लगे-यह क्या है, यह क्या है ! ॥ 8-9 ॥
तब देवताओंके अधिपतिने देवताओंको आज्ञा दी कि आपलोग जाइये और ठीक ठीक परीक्षा कीजिये कि यह क्या है? तब देवेन्द्रसे प्रेरित पवनदेव | उस तेजके पास गये। उस तेजने उनको सम्बोधितकर कहा- तुम कौन हो ? । तब उस प्रबल तेजके द्वारा इस प्रकार पूछे जानेपर अभिमानसे परिपूर्ण वायुने यह कहा—मैं जगत्का प्राण वायु हूँ। यह चराचर सारा जगत् सबके आधारस्वरूप मुझमें ही ओत प्रोत है, मैं ही सम्पूर्ण जगत्का संचालन करता हूँ ॥ 10-13 ॥
उसके अनन्तर महातेजने कहा- हे वायो ! यदि तुम चलाने में समर्थ हो, तो इस रखे हुए तृणको | स्वेच्छासे चला दो। तब वायुने सभी उपायोंसे उसे चलानेका यत्न किया, किंतु जब वह [तृण] अपने स्थानसे विचलित नहीं हुआ, तब वे वायुदेव लज्जित हो गये ।। 14-15 ॥
इसके बाद चुप होकर वायु इन्द्रको सभामें गये और अपने पराभवका वह समाचार बताया ॥ 16 ॥ हम सब व्यर्थ ही अपनेमें सर्वेश्वरत्वका अभिमान करते हैं, हमलोग छोटे-से-छोटा कार्य भी नहीं कर सकते हैं। इसके बाद इन्द्रने सभी देवताओंको भेजा | किंतु जब वे भी उसे नहीं जान सके, तब स्वयं इन्द्र | उसके पास गये ।। 17-18 ।।इन्द्रको आता हुआ देखकर वह अति दुःसह तेज उसी क्षण अन्तर्धान हो गया, इन्द्र आश्चर्यचकित हो गये। तब इन्द्रने बार बार यह विचार किया कि जिसका ऐसा चरित्र है, मुझे उसीके शरणमें जाना चाहिये ॥ 19-20 ॥
इसी बीच अकारण करुणामूर्ति सच्चिदानन्दरूपिणी शिवांगना भगवती उमा उन सभीपर अनुग्रह करनेके लिये एवं उनका अभिमान दूर करनेके लिये चैत्र शुक्ल नवमीको मध्याह्नकालमें वहाँ प्रकट हुई। तेजके मध्यमें विराजमान, अपनी प्रभासे दसों दिशाओंको प्रकाशित करती हुई. मैं ही ब्रह्म हूँ' ऐसा सभी देवताओंको स्पष्ट रूपसे बतलाती हुई, अपने चारों हाथोंमें वरद मुद्रा, पाश, अंकुश एवं अभयमुद्रा धारण की हुई, वेदोंके द्वारा सेवित, मनोहर, नवयौवनसे गर्वित, रक्त वस्त्र धारण की हुई, रक्तपुष्पोंकी माला पहनी हुई, रक्त चन्दनके अनुलेपसे युक्त, करोड़ों कामदेवके सदृश विमोहिनी; करोड़ों चन्द्रमाओंके समान कान्तिवाली उन सर्वान्तर्यामिनी सर्वभूतसाक्षिणी परब्रह्मस्वरूपिणी महामायाने कहा- ॥ 21-26 ॥
उमा बोलीं- मेरे सामने न ब्रह्मा, न विष्णु एवं न तो महेश्वर ही कुछ भी गर्व करनेमें समर्थ हैं, अन्य देवताओंकी तो बात ही क्या है ? ॥ 27 ॥
मैं ही परब्रह्म, परमज्योति, प्रणव और युगलरूपिणी हूँ, मैं ही सब कुछ हूँ, मेरे अतिरिक्त अन्य कोई कुछ नहीं है। मैं निराकार होकर भी साकार सर्वतत्वस्वरूपिणी, तर्कसे परे गुणोंवाली, नित्य तथा कार्यकारणस्वरूपिणी हूँ मैं कभी स्त्रीरूपवाली, कभी पुरुषरूपवाली तथा कभी दोनों ही स्वरूपोंवाली हो जाती है, इस प्रकार मैं सर्वस्वरूपा महेश्वरी हूँ ॥ 28-30 ॥
सृष्टिकर्ता ब्रह्मा मै ही है, जगत्का पालन करनेवाला विष्णु मैं ही हूँ, संहार करनेवाला शिव भी मैं ही हूँ एवं जगत्को मोहनेवाली (महामाया) भी मैं ही हूँ ॥ 31 ॥ कालिका, कमला, सरस्वती आदि समस्त शक्तियाँ मेरे ही अंशसे उत्पन्न हुई हैं और ये सब मेरी कलाएँ हैं मेरे ही प्रभावसे तुमलोगोंने दैत्योंपर विजय प्राप्त की है, उस मुझ [शक्ति] को न जानकर तुमलोग व्यर्थ ही अपनेको सर्वेश समझते हो। ll32-337 llजिस प्रकार ऐन्द्रजालिक काठकी पुतलीको नचाता है, उसी प्रकार मैं ईश्वरी सभी प्राणियोंको नचाती हूँ। मेरे भयसे पवन बहता है, अग्नि सबको जलाती है एवं लोकपाल निरन्तर अपने- अपने कार्य करते हैं ।। 34-35 ॥
मैं सर्वथा स्वतन्त्र हूँ, इसलिये अपनी लीलासे कभी देवगणोंकी और कभी दैत्योंकी भलीभाँति विजय कराती हूँ। वेद जिस अविनाशी तथा मायातीत परात्पर परमधामका वर्णन करते हैं, वह तो मेरा ही रूप है ॥ 36-37 ॥
सगुण एवं निर्गुण -यह मेरा दो प्रकारका रूप कहा गया है। प्रथम रूप मायामय है एवं दूसरा रूप माया रहित है। हे देवताओ ! इस प्रकार मुझे जानकर और अपने- अपने गर्वका परित्याग करके भक्तिसे युक्त होकर मुझ सनातनी प्रकृतिकी आराधना करो ॥ 38-39 ॥ देवीके ऐसे दयायुक्त वचनको सुनकर भक्तिसे सिर झुकाये हुए देवतालोग परमेश्वरीकी स्तुति करने लगे - हे जगदीश्वरि ! क्षमा कीजिये। हे परमेश्वरि ! प्रसन्न हो जाइये, अब हमलोगोंको ऐसा गर्व कभी न हो । हे मातः ! दया कीजिये ll 40-41 ॥
उसी समयसे वे देवता अभिमान छोड़कर एकाग्र | चित्त हो पूर्वकी भाँति विधिपूर्वक पार्वतीकी आराधना करने लगे। हे विप्रो ! इस प्रकार मैंने आपलोगोंसे उमाके प्रादुर्भावका वर्णन कर दिया, जिसके श्रवणमात्रसे परमपद प्राप्त होता है ।। 42-43 ॥