मुनिगण बोले- हे व्यासशिष्य! हे महाभाग ! हे पौराणिकोत्तम सूतजी ! हमलोग महेश्वरी उमा जगदम्बाके अद्वितीय अनुत्तम क्रियायोगाख्यानको सुनना चाहते हैं, जिसे सनत्कुमारने महात्मा व्याससे कहा था ॥ 12 ॥ सूतजी बोले- देवीको भक्तिमें दृढ़ व्रतवाले आप सभी महात्मा धन्य हैं; अब पराशक्तिके अत्यन्त गुप्त रहस्यको आपलोग आदरपूर्वक सुनिये ॥ 3॥
व्यासजी बोले- हे सनत्कुमार हे सर्वज्ञ हे ब्रह्मपुत्र ! हे महामते! मैं पार्वतीके अत्यन्त अद्भुत क्रियायोगको सुनना चाहता हूँ। उसका क्या लक्षण है, उसके अनुष्ठानका क्या फल होता है और पराम्बाको जो प्रिय है, उसे पूर्णरूपसे बताइये ॥ 4-5 ll
सनत्कुमार बोले हे द्वैपायन। हे महाबुद्धे! - आप जिस रहस्यको पूछ रहे हैं, उसका वर्णन मैं कर रहा हूँ, आप सुनें 6 ज्ञानयोग, क्रियायोग और भक्तियोग श्रीमाता
[की उपासना ] के तीन मार्ग हैं, जो भोग एवं मोक्षको देनेवाले कहे गये हैं ॥ 7 ॥ चित्तका आत्माके साथ जो संयोग है, वह ज्ञानयोग कहा गया है और जो बाहरके अर्थों (वस्तुओं) का संयोग है, वह क्रियायोग कहा जाता है और देवीके साथ आत्माका संयुक्त हो एकरस हो जाना भक्तियोग माना गया है। अब मैं इन तीनों योगोंमें जो क्रियायोग है, उसका वर्णन कर रहा हूँ ।। 8-9 ।।
कर्मसे भक्ति होती है, भक्तिसे ज्ञान होता है और ज्ञानसे मुक्ति होती है-ऐसा शास्त्रोंमें निर्णय किया गया है ॥ 10 ॥
हे मुनिसत्तम! मुक्तिका प्रधान कारण योग है। और क्रियायोग उस योगके ध्येयका उत्तम साधन है । 11 ॥प्रकृतिको माया तथा शाश्वत ब्रह्मको मायावी जानना चाहिये, उन दोनोंके स्वरूपको परस्पर अभिन्न जानकर व्यक्ति संसारबन्धनसे मुक्त हो जाता है ॥ 12 ॥
हे कालीपुत्र [हे व्यास!] जो पत्थर, काष्ठ अथवा मिट्टीसे देवीका मन्दिर बनवाता है, उसके पुण्यका फल सुनिये प्रतिदिन योगके द्वारा यजन करनेवालेको जो महान् फल मिलता है, उस | फलको वह मनुष्य प्राप्त करता है, जो देवीका मन्दिर बनवाता है। श्रीमाताके मन्दिरको बनवानेवाला वह धर्मात्मा अपनेसे पहलेके हजार कुलोंको एवं बादके हजार कुलोंको तार देता है। श्रीमाताके मन्दिरके आरम्भके क्षण ही करोड़ों जन्मोंमें किये गये उसके छोटे अथवा बड़े सभी पाप नष्ट हो जाते हैं ।। 13-15 ll
जिस प्रकार नदियोंमें गंगा, नदोंमें शोण, क्षमामें पृथ्वी, गम्भीरतामें समुद्र और सभी ग्रहोंमें सूर्य श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार सभी देवोंमें श्रीपराम्बा श्रेष्ठ हैं, वे सभी देवताओंमें प्रधान हैं, अतः जो उनके मन्दिरका निर्माण करवाता है, वह जन्म जन्मान्तरमें प्रतिष्ठा प्राप्त करता है ॥ 16-18 ॥
वाराणसी, कुरुक्षेत्र, प्रयाग, पुष्कर, गंगासागर, नैमिषारण्य, अमरकण्टक, महापुण्यदायी श्रीपर्वत, गोकर्ण, ज्ञानपर्वत, मथुरा, अयोध्या एवं द्वारका आदि पुण्यस्थलोंमें अथवा जिस किसी भी जगह श्रीमाताके मन्दिरका निर्माण करवानेवाला संसारके बन्धनसे मुक्त हो जाता है ।। 19 - 21 ॥
जितने वर्षोंतक [देवीके मन्दिरको] ईंटोंका विन्यास स्थित रहता है, उतने हजार वर्षपर्यन्त मनुष्य मणिद्वीपमें प्रतिष्ठा प्राप्त करता है ॥ 22 ॥
जो भगवतीकी सर्वलक्षणयुक्त प्रतिमाका निर्माण करवाता है, वह निर्भय हो निश्चित रूपसे देवीके परम लोकको जाता है ॥ 23 ॥
शुभ ऋतु, शुभ ग्रह एवं शुभ नक्षत्रमें देवीकी मूर्तिको प्रतिष्ठापित करके मनुष्य योगमायाकी कृपासेकृतकृत्य हो जाता है। उसके कुलमें कल्पसे लेकर जितनी भी पीढ़ियाँ हैं और जो भी आगे उत्पन्न होंगी, उन सभीको वह देवीकी उत्तम मूर्तिकी स्थापना करके तार देता है ।। 24-25 ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! त्रिलोकीके स्थापित करनेसे जो पुण्य होता है, उसका करोड़ों गुना पुण्य श्रीदेवीकी प्रतिष्ठा करनेसे होता है ॥ 26 ॥
जो मन्दिरके मध्यमें देवीकी प्रतिष्ठाकर उनके चारों ओर पंचायतन देवताओंको स्थापित करता है, उसके पुण्यकी गणना नहीं की जा सकती है ॥ 27 ॥
सूर्य-चन्द्रग्रहणमें विष्णुके नामोंको करोड़ों बार जपनेसे जो पुण्यफल प्राप्त होता है, उससे सौ करोड़ गुना अधिक पुण्यफल शिवनामके जपसे होता है, उससे भी करोड़ गुना पुण्यफल देवीके नाम जपसे होता है और उससे भी करोड़ गुना अधिक पुण्यफल देवीके मन्दिरका निर्माण करानेसे प्राप्त होता है। जिसने वेदरूपा तथा त्रिगुणात्मिका जगज्जननी देवीको प्रतिष्ठापित किया, श्रीमाताकी दयासे उसके लिये कुछ भी दुर्लभ नहीं है। उसके पुत्र-पौत्रादि निरन्तर बढ़ते रहते हैं और उसका सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाता है ।। 28-31 ॥
जो लोग मनमें भी देवीकी उत्तम मूर्तिस्थापनाकी इच्छा करते हैं, वे मुनियोंके लिये भी दुर्लभ उमादेवीके परमलोकको प्राप्त करते हैं ॥ 32 ॥
किसीके द्वारा बनवाये जाते हुए मन्दिरको देखकर जो मनमें यह सोचता है कि जब मुझे सम्पत्ति होगी, तब मैं भी मन्दिर बनवाऊँगा इस प्रकार सोचनेवालेका कुल शीघ्र ही स्वर्गको जाता है, इसमें संशय नहीं है। महामायाके प्रभावसे त्रिलोकीमें कौन सी वस्तु दुर्लभ है ॥ 33-34 ।।
जो जगत्कारणभूता श्री पराम्बाका एकमात्र आश्रय ग्रहण करते हैं, उन्हें मनुष्य नहीं समझना चाहिये, वे तो देवीके साक्षात् गण हैं ॥ 35 ॥जो चलते-सोते अथवा बैठे हुए उमा- इस दो अक्षरके नामका उच्चारण करते रहते हैं, वे तो शिवाके साक्षात् गण हैं ॥ 36 ॥ जो लोग नित्य तथा नैमित्तिक कर्मोंमें पुष्पों, धूपों तथा दीपोंसे परा शिवाकी पूजा करते हैं, वे उमालोक प्राप्त करते हैं ॥ 37 ॥
जो लोग प्रतिदिन गोमयसे अथवा मृत्तिकासे देवी- मण्डपका उपलेप करते हैं तथा उसका मार्जन करते हैं, वे उमालोक प्राप्त करते हैं ।। 38 ।।
जिन्होंने देवीके रम्य तथा उत्तम मन्दिरका निर्माण करवाया है, उनके कुलमें उत्पन्न लोगोंको देवी आशीर्वाद देती हैं- 'मेरे प्रेमपात्र भक्त सौ वर्षतक जीवित रहें और उनपर कदापि कोई विपत्ति न आये' - ऐसा वे श्रीमाता रात दिन कहती हैं ।। 39-40 ।।
जिसने महादेवी उमाकी शुभ मूर्तिका निर्माण करवाया है, उसके कुलके दस हजार पीढ़ियोंतकके लोग मणिद्वीपमें प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं । ll 41 ।।
साधक महामायाकी मूर्ति स्थापित करके और उसकी विधिवत् पूजाकर जिस-जिस मनोरथके लिये प्रार्थना करता है, उसे [ अवश्य ही] प्राप्त कर लेता है ॥ 42 ॥
जो श्रीमाताकी स्थापित की गयी उत्तम मूर्तिको मधुमिश्रित घृतसे स्नान कराता है, उसके फलकी गणना कौन कर सकता है ॥ 43 ॥
एक वर्णवाली गौओंके दूधसे तथा चन्दन, अगरु, कपूर, जटामांसी, मोथा आदिसे मिश्रित जलसे परमेश्वरीको स्नान कराना चाहिये ॥ 44 ॥
अठारह [सुगन्धित] द्रव्योंसे बनाये गये धूपसे उत्तम आहुति प्रदान करनी चाहिये। घी तथा कपूरयुक्त बत्तियोंसे देवीकी आरती करनी चाहिये ॥ 45 ॥
कृष्णपक्षकी अष्टमी, नवमी, अमावास्यामें अथवा [शुक्लपक्षकी] पूर्णिमा तिथिको मातृसूक्त, श्रीसूक्त | पढ़ते हुए अथवा देवीसूक्त पढ़ते हुए अथवा मूलमन्त्रका उच्चारण करते हुए गन्ध- पुष्पोंद्वारा विशेष रूपसे जगज्जननीका पूजन करना चाहिये ll 46-47 ॥विष्णुकान्ता एवं तुलसीको छोड़कर अन्य सभी पुष्पोंको देवीके लिये प्रीतिकर जानना चाहिये तथा कमल विशेषरूपसे देवीको प्रिय है। जो देवीको स्वर्णपुष्प अथवा रजतपुष्प समर्पित करता है, वह करोड़ों सिद्धोंके द्वारा सेवित परम धामको जाता है ।। 48-49 ।।
भक्तोंको चाहिये कि वे पूजनके अन्तमें अपने पापोंके लिये क्षमा प्रार्थना करें। हे परमेश्वरि ! हे जगदानन्ददायिनि ! प्रसन्न होइये । देवीभक्तिपरायण साधकको इन वाक्योंसे स्तुति करते हुए सिंहपर आरूढ़ तथा हाथोंमें वरद एवं अभयमुद्रा धारण करनेवाली भगवतीका ध्यान करना चाहिये ।। 50-51 ॥
इस प्रकार भक्तोंको अभीष्ट फल देनेवाली महेश्वरीका ध्यान करके नैवेद्यके रूपमें अनेक प्रकारके पके हुए फल अर्पित करना चाहिये ॥ 52 ॥
जो मनुष्य परमेश्वरी शम्भुशक्तिके नैवेद्यका भक्षण करता है, वह अपने सम्पूर्ण पापपंकको धोकर निर्मल हो जाता है ॥ 53 ॥
जो चैत्र शुक्ल तृतीयाको भवानीव्रतका अनुष्ठान करता है, वह सांसारिक बन्धनसे छूटकर परमपद प्राप्त करता है ॥ 54 ॥
बुद्धिमान् पुरुष इसी तृतीया तिथिको दोलोत्सव सम्पन्न करे और पुष्प, कुंकुम, वस्त्र, कपूर, अगुरु, चन्दन, धूप, दीप, नैवेद्य, माला एवं अन्य मनोहर गन्धोंसे शिवसहित जगद्धात्रीका पूजन करे ।। 55-56 ।।
इसके बाद सबका कल्याण करनेवाली महामाया भगवती महेश्वरी श्रीगौरीको शिवसहित [ पालनेमें बैठाकर] झुलाये। जो इस तिथिको प्रतिवर्ष नियमानुसार व्रत तथा झूलनोत्सव करता है, उसे शिवा समस्त अभीष्ट फल प्रदान करती हैं ।। 57-58 ॥
वैशाख शुक्लपक्षमें जो अक्षय तृतीया नामक तिथि है, उसमें जो आलस्यरहित होकर जगदम्बाका व्रत करता है एवं मल्लिका, मालती, चम्पा, जपा, बन्धूक तथा कमलपुष्पोंसे शिवसमेत पार्वतीकापूजन करता है, वह करोड़ों जन्मोंमें मन, वाणी तथा | शरीरसे किये गये पापको विनष्टकर अक्षय चतुर्वर्ग [धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष] को प्राप्त कर लेता है ।। 59-61 ॥
जो ज्येष्ठमास के शुक्लपक्षको तृतीयाको व्रत करके परम प्रीतिसे महेश्वरीका पूजन करता है, उसके लिये कुछ भी असाध्य नहीं है ॥ 62 ॥ आषाढ़ मासके शुक्लपक्षकी तृतीयाको अपने धनसामर्थ्यके अनुसार देवीका अतिप्रिय रथोत्सव सम्पन्न करना चाहिये। उसमें पृथ्वीको रथ और चन्द्रमा तथां सूर्यको रथके दोनों पहिये समझना चाहिये, वेदोंको घोड़े तथा ब्रह्माको सारथि समझना चाहिये ।। 63-64 ।।
इस प्रकार अनेक मणियोंसे जटित एवं पुष्पमालाओंसे सुशोभित रथका निर्माणकर उसपर शिवाको स्थापित करे। उस समय बुद्धिमान् मनुष्य [मनमें] यह भावना करे कि श्रीपराम्बा लोककी रक्षाके लिये एवं लोकका अवलोकन करनेके लिये रथके मध्य में बैठी हुई हैं । ll 65-66 ll
रथके धीरे- धीरे चलनेपर देवीकी जयकार करे और प्रार्थना करे कि हे देवि! हे दीनवत्सले! हम शरणागत जनोंकी रक्षा कीजिये। इन वचनोंसे तथा अनेक वाद्योंकी ध्वनियोंसे भगवतीको सन्तुष्ट करे | और सीमापर्यन्त रथ ले जाकर वहाँ रथमें भगवतीका पूजन करे। इसके बाद अनेक स्तोत्रोंसे स्तुति करके उन जगदम्बाको अपने घर ले आये और सैकड़ों प्रणाम करके उनकी प्रार्थना करे ।। 67-69 ॥
जो विद्वान् इस प्रकार देवीका पूजन, व्रत एवं रथोत्सव करता है, वह इस लोकमें सम्पूर्ण सुखोंका उपभोग करके अन्तमें देवीके धामको जाता है ॥ 70 ॥
इसी प्रकार श्रावण और भाद्रपदमासकी शुक्ल तृतीयाको जो विधिपूर्वक अम्बाका व्रत और पूजन करता है, वह इस लोकमें पुत्र पौत्र एवं धन आदिसे सम्पन्न होकर सदा आनन्दित रहता है तथा अन्तमें सब लोकोंसे ऊपर विराजमान उमालोकको जाता है ।। 71-72 ।।आश्विनमासके शुक्लपक्षमें नवरात्रव्रत करना चाहिये, जिसे करनेपर सम्पूर्ण कामनाएँ सिद्ध हो जाती हैं, इसमें संशय नहीं है ॥ 73 ॥
इस नवरात्रव्रतके प्रभावका वर्णन करनेमें ब्रह्मा, महादेव तथा कार्तिकेय भी समर्थ नहीं हैं, फिर दूसरा कौन समर्थ हो सकता है। हे मुनिवरो! नवरात्रव्रतका अनुष्ठान करके विरथके पुत्र राजा सुरथने छीने गये अपने राज्यको [पुनः] प्राप्त कर लिया था ।। 74-75 ।।
अयोध्याके अधिपति बुद्धिमान् ध्रुवसन्धिपुत्र राजा सुदर्शनने इसके प्रभावसे ही [शत्रुओंके द्वारा] छीना गया अपना राज्य प्राप्त किया था ॥ 76 ॥
इस व्रतराजका अनुष्ठान करके तथा महेश्वरीकी आराधना करके समाधि [नामक वैश्य] संसारबन्धनसे मुक्त होकर मोक्षका भागी हुआ ॥ 77 ॥
जो मनुष्य आश्विनमासके शुक्लपक्षमें तृतीया, पंचमी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी एवं चतुर्दशी तिथियोंको विधिपूर्वक व्रत करके देवीका पूजन करता है, उसकी सभी मनोवांछाओंको शिवा निरन्तर पूर्ण करती रहती हैं ।। 78-79 ।।
जो कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ और फाल्गुन मासके शुक्लपक्षमें तृतीयाको व्रत करता है तथा लाल | कनेर आदिके फूलों एवं सुगन्धित धूपोंसे मंगलमयी देवीकी पूजा करता है, वह सम्पूर्ण मंगलको प्राप्त कर लेता है ।। 80-81 ।।
स्त्रियोंको अपने सौभाग्यके लिये इस महान् व्रतका सदा अनुष्ठान करना चाहिये और पुरुषोंको भी विद्या, धन एवं पुत्रप्राप्तिके लिये इस व्रतका अनुष्ठान करना चाहिये ॥ 82 ॥
इसी प्रकार देवीको प्रिय लगनेवाले उमा महेश्वर आदि जो भी अन्य व्रत हैं, उनका अनुष्ठान मोक्षकी अभिलाषा रखनेवालोंको भक्तिभावसे करना चाहिये ॥ 83 ॥ यह उमासंहिता परम पुण्यमयी, शिवभक्तिको बढ़ानेवाली, अनेक आख्यानोंसे युक्त, भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाली और कल्याणकारिणी है ॥ 84 ॥जो सावधान होकर भक्तिपूर्वक इसे सुनता है अथवा सुनाता है, पढ़ता है या पढ़ाता है, वह परम गतिको प्राप्त होता है ॥ 85 ॥
जिसके घरमें सुन्दर अक्षरोंमें लिखी गयी यह संहिता स्थित रहती है और विधिवत् पूजित होती है, वह सम्पूर्ण मनोरथोंको प्राप्त कर लेता है। उसे भूत, प्रेत, पिशाच आदि दुष्टोंसे कभी भय नहीं होता और वह पुत्र-पौत्र आदि तथा सम्पत्तिको प्राप्त कर लेता है, इसमें संशय नहीं है ॥ 86-87 ॥
अतः शिवकी भक्ति चाहनेवालोंको इस परम पुण्यमयी तथा रम्य उमासंहिताका सदा श्रवण एवं पाठ करना चाहिये ॥ 88 ॥