ऋषिगण बोले- हे सूतजी हे महाभाग ! आप हमलोगोंके श्रेष्ठ गुरु हैं, आपकी [हम सबपर बड़ी] कृपा है, इसीलिये हमलोग आपसे पूछ रहे हैं। आप जैसे गुरु श्रद्धालु शिष्योंके प्रति सदा स्नेहभाव रखते हैं. ऐसा आपने इस समय प्रदर्शित कर दिया ॥ 1-2 ॥
हे मुने! पहले आपने विरजाहोमके उपदेशके समय वामदेवके मतको बताया था, उसे हमलोगोंने विस्तारपूर्वक नहीं सुना है। हे कृपासिन्धो इस समय हम सभी लोग श्रद्धा और बड़े ही आदरसे उसे सुनना चाहते हैं, अतः आप प्रेमपूर्वक उसे कहिये ।। 3-4 ।।
उनका यह वचन सुनकर सूतजी हर्षसे प्रफुल्लित हो गुरुसे भी श्रेष्ठ गुरु महादेवको तीनों लोकोंकी जननी महादेवीको तथा [अपने] गुरु व्यासजीको भक्तिपूर्वक प्रणाम करके मुनियोंको प्रसन्न करते हुए गम्भीर वाणीमें यह कहने लगे ।। 5-6 ll
सूतजी बोले- हे मुनियो ! आप सभीका कल्याण हो, आपलोग सर्वदा सुखी रहें, आपलोग शिवभक्त, स्थिरचित्त तथा शिवभक्तिका प्रचार करनेवाले हैं। मैंने| गुरुके मुखकमलसे यह अत्यन्त अद्भुत बात सुनी थी, परंतु इस गुहा रहस्यको प्रकट हो जानेके भयसे आजतक किसीसे नहीं कहा। आपलोग निश्चितरूपसे शिवभक्त, दृढव्रती एवं महाभाग्यशाली हैं-ऐसा सोचकर मैं आपलोगोंसे कह रहा हूँ, प्रसन्नतापूर्वक सुनिये ॥ 7-9 ॥
पूर्व समयमें रथन्तर कल्पमें महामुनि वामदेवजी गर्भसे उत्पन्न होते ही सभी शिवज्ञानवेत्ताओं में सर्वश्रेष्ठ माने जाने लगे। वे वेद, आगम, पुराण आदि सभी शास्त्रोंके अर्थतत्त्वके ज्ञाता और देव, असुर, मनुष्य आदि सभी जीवोंके जन्म एवं कर्मके वेत्ता थे। वे सम्पूर्ण शरीरमें भस्मलेपसे युक्त, जटामण्डलसे मण्डित, निराश्रय, निःस्पृह, निर्द्वन्द्व, अहंकारहीन, दिगम्बर, महाज्ञानी तथा दूसरे शिवके समान थे और अपने ही सदृश बड़े- बड़े शिष्यरूप मुनियोंसे सदा घिरे रहते थे। परब्रह्ममें सदा निमग्न चित्तवाले, भ्रमणनिरत तथा अपने चरणोंके स्पर्शजनित पुण्यसे इस पृथ्वीको पवित्र करते हुए वे एक समय मेरुके दक्षिणमें स्थित कुमारशिखरपर प्रसन्नतापूर्वक पहुँचे, जहाँ ज्ञानरूपी शक्तिको धारण करनेवाले, महावीर, सभी असुरोंके विनाशक [ अपनी पत्नी] गजावल्लीसे सुशोभित तथा सभी देवगणोंके द्वारा नमस्कृत शिवपुत्र भगवान् कार्तिकेय विराजमान थे । ll 10 - 16 ॥
वहाँ स्कन्दसर नामका सरोवर था, जो सागरके समान गम्भीर, शीतल एवं स्वादिष्ट जलसे परिपूर्ण, अत्यन्त स्वच्छ, अगाध तथा पर्याप्त जलवाला था। सभी आश्चर्यमय गुणोंसे युक्त वह सरोवर स्वामी कार्तिकेयके समीप विद्यमान था। महामुनि वामदेव अपने शिष्योंके साथ उसमें स्नान करके कुमारशिखरपर विराजमान, मुनिवृन्दद्वारा सेवित, उदीयमान सूर्यके समान तेजस्वी, श्रेष्ठ मयूरपर आरूढ़, चार भुजाओंवाले, मनोहर विग्रहवाले, मुकुट आदिसे विभूषित, रत्नभूत दो शक्तियोंसे उपासित, [ अपने चारों हाथोंमें] शक्ति, कुक्कुट, वर तथा अभय मुद्रा धारण करनेवाले स्कन्दको देखकर परम भक्तिसे उनका पूजन करके स्तुति करने लगे ॥ 17-21 ॥वामदेव बोले- प्रणवके अर्थ स्वरूप तथा प्रणवार्थके प्रतिपादकको नमस्कार है। प्रणवाक्षररूप बीज एवं प्रणवस्वरूप आपको बार- बार नमस्कार है ।। 22 ।। वेदान्तके अर्थस्वरूप, वेदान्तके अर्थका विधान
करनेवाले, वेदान्तके अर्थके वेत्ता एवं सर्वत्र व्याप्त आपको बार बार प्रणाम है। सभी प्राणियोंके अन्तःकरणरूपी गुहामें स्थित कार्तिकेयको नमस्कार है, गुह्य, गुह्यरूप एवं गुहाशास्त्रवेत्ताको बार- बार नमस्कार है ।। 23-24 ।।
सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म, महानसे भी महान् पर अपरके ज्ञाता एवं परमात्मस्वरूप आपको नमस्कार है ॥ 25 ॥
स्कन्दस्वरूप, आदित्यके समान अरुण तेजवाले, मन्दारमाला एवं कान्तिमान् मुकुट धारण करनेवाले आप स्कन्दको सर्वदा नमस्कार है | ll 26 ॥
शिवके शिष्य, शिवके पुत्र, कल्याण करनेवाले, शिवप्रिय एवं शिव- शिवाके आनन्दनिधिस्वरूप आपको नमस्कार है। गंगापुत्र, परम बुद्धिमान्, महान्, उमापुत्र एवं सरकण्डोंके वनमें शयन करनेवाले आप कार्तिकेयको नमस्कार है ।। 27-28 ॥
षडक्षररूप शरीरवाले, छः प्रकारके अर्थोंका प्रतिपादन करनेवाले तथा षडध्वाओंसे अतीत रूपवाले षण्मुखको बार-बार नमस्कार है। बड़े-बड़े बारह नेत्रोंवाले, उठी हुई बारह भुजाओंवाले, बारह आयुध धारण करनेवाले एवं बारह रूपोंवाले आपको नमस्कार है ॥ 29-30 ।। चार भुजाओंवाले, शान्त, शक्ति- कुक्कुट, वर तथा अभयमुद्रा धारण करनेवाले, वर प्रदान करनेवाले तथा असुरोंका वध करनेवाले आपको नमस्कार है ॥ 31 ॥ [अपनी भार्या] गजावल्लीके स्तनोंपर लिप्त कुंकुमसे अंकित वक्षःस्थलवाले, गजाननको आनन्द प्रदान करनेवाले और अपनी महिमासे स्वयं आनन्दित रहनेवाले आपको नमस्कार है ॥ 32 ॥
जिनकी गाथाका ब्रह्मादि देवता, ऋषि एवं किन्नरगण गान करते हैं और जिनकी कीर्ति पवित्र चरित्रवाले महात्माओंके द्वारा गायी जा रही है। देवताओंके निर्मल किरीटको विभूषित करनेवाली पुष्पमालासे पूजित मनोहर चरणकमलोंवाले [ भगवन्! ] आपको नमस्कार है ॥ 33 ॥वामदेवजीके द्वारा कहे गये इस दिव्य कार्तिकेयस्तोत्रको जो पढ़ता है अथवा सुनता है, वह परम गतिको प्राप्त होता है। यह [स्तोत्र] विशद बुद्धि प्रदान करनेवाला, शिवभक्तिको बढ़ानेवाला, आयु. आरोग्य- धनकी वृद्धि करनेवाला एवं सभी कामनाओंको पूर्ण करनेवाला है ॥ 34-35 ॥
हे द्विज। वामदेवजी देवताओंके सेनापति प्रभु कार्तिकेयकी इस प्रकार स्तुति करके तीन बार प्रदक्षिणाकर पृथ्वीपर दण्डवत् प्रणाम करके पुनः साष्टांग प्रणाम तथा प्रदक्षिणा करके विनयावनत हो उनके समीप बैठ गये। वामदेवजीद्वारा किये गये परमार्थयुक्त स्तोत्रको सुनकर महेश्वरपुत्र प्रभु स्कन्द प्रसन्न हो गये ॥ 36-38 ॥
इसके बाद कार्तिकेयजीने उनसे कहा- मैं आपकी पूजा, भक्ति तथा स्तुतिसे प्रसन्न हूँ, मैं इस समय आपका कौन - सा कल्याण करूँ ? हे मुने! आप योगियोंमें प्रधान, परिपूर्णकाम और निःस्पृह हैं, इस लोकमें आप जैसे लोगोोंकि लिये कुछ भी प्रार्थनीय नहीं है। फिर भी धर्मकी रक्षाके लिये तथा लोगोंपर कृपा करनेकी कामनासे आप जैसे साधु सन्त पृथ्वीपर भ्रमण करते हैं। हे ब्रह्मन् जो आप सुनना चाहते हैं, उसे इस समय पूछिये मैं लोककल्याणके लिये उसे अवश्य कहूँगा ।। 39-42 ।।
स्कन्दजीका यह वचन सुनकर महामुनि वामदेवजी विनयावनत होकर मेघके समान गम्भीर वाणीमें कहने लगे - ॥ 43 ॥
वामदेव बोले-हे भगवन्! आप पर तथा अवर विभूतिको देनेवाले, सर्वज्ञ, सब कुछ करनेवाले, समस्त शक्तियोंको धारण करनेवाले तथा सर्वसमर्थ परमेश्वर हैं। हमलोग तो जीव हैं और आप परमेश्वरके सन्निधानमें कुछ कहने में असमर्थ हैं, यह तो आपकी कृपा है, जो आप मुझसे ऐसा कह रहे हैं ।। 44-45 ।।
हे महाप्राज्ञ ! मैं कृतकृत्य हो गया, फिर भी कणमात्र ज्ञानसे प्रेरित होकर कुछ पूछ रहा हूँ, मेरे इस दुस्साहसको क्षमा कीजिये ॥ 46 ॥
प्रणव श्रेष्ठ [मन्त्र] है, यह साक्षात् परमेश्वरका याचक है एवं जीवोंको बन्धनसे मुक्त करनेवाले पशुपति देव इसके वाच्य हैं। प्रणवरूप वाचकसेभलीभाँति आहूत होनेपर वे [पशुपति ] क्षणमात्रमें जीवोंको मुक्त कर देते हैं, इसलिये प्रणवकी शिवजीके प्रति वाचकता सिद्ध हो जाती है ॥ 47-48 ।।
सनातन श्रुतिमें भी कहा गया है 'ओमितीदं सर्वम्, ओमिति ब्रह्म सर्वम्' यह सब कुछ ॐकार है और ॐकार ही ब्रह्म है। हे देवसेनापते! देवताओंके स्वामी आपको नमस्कार है, यतियोंके पतिको नमस्कार है, परिपूर्णस्वरूप आपको नमस्कार है । ll 49-50 ॥ ऐसा होनेपर इस संसारमें शिवजीके अतिरिक्त अन्य कोई भी नहीं है। महेश्वर शिव ही सभी रूप धारण करनेवाले, व्यापक और सबके स्वामी हैं ॥ 51 ॥
मैंने समष्टि- व्यष्टिभावसे प्रणवका अर्थ सुना है। हे महासेन ! मुझे आपके समान गुरु नहीं प्राप्त हुआ है। इसलिये मेरे ऊपर कृपा करके उपदेशविधिसे तथा सदाचारक्रमके साथ उस अर्थको बतानेकी कृपा करें। आप सभी जन्तुओंके एकमात्र स्वामी एवं भव बन्धनको काटनेवाले गुरु हैं, अतः हे गुरो ! मैं आपकी कृपासे उस अर्थको सुनना चाहता हूँ ॥ 52 - 54॥
जब मुनिने कार्तिकेयसे इस प्रकार पूछा, तब उन्होंने अड़तीस उत्तम कलाओंसे समन्वित प्रणव शरीरवाले, श्रेष्ठ मुनियोंसे घिरे हुए तथा पार्श्वभाग में निरन्तर विराजमान पार्वतीसहित शिवजीको प्रणाम करके वेदोंमें भी छिपे हुए श्रेयको मुनिसे कहना आरम्भ किया ॥ 55 ॥