व्यासजी बोले- हे सर्वज्ञ! हे ब्रह्मपुत्र! हे सनत्कुमार! आपको नमस्कार है। हे मुने! हे तात! आपने मुझे यह अद्भुत कथा सुनायी ॥ 1 श्रीकृष्णके द्वारा युद्धमें जृम्भणास्वसे शिवजी के मोहित किये जानेपर तथा बाणकी सेनाके मार दिये जानेपर बाणासुरने क्या किया, उसको कहिये ॥ 2 ॥सूतजी बोले- अमिततेजस्वी उन व्यासजीका वचन सुनकर ब्रह्माके पुत्र मुनीश्वर [सनत्कुमार] प्रसन्नचित्त होकर कहने लगे- ॥ 3 ॥
सनत्कुमार बोले- हे महाप्राज्ञ ! हे व्यासजी! हे तात! लोकलीलाका अनुसरण करनेवाले श्रीकृष्ण तथा शिवजीकी अद्भुत तथा सुन्दर कथाका श्रवण कीजिये ॥ 4 ॥
पुत्रों तथा गणोंसहित लीलासे शिवजीके सो जानेपर वह दैत्यराज बाणासुर कृष्णके साथ युद्ध करनेके लिये निकल पड़ा ॥ 5 ॥
कुम्भाण्डसे घोड़ा लेकर वह महाबली दैत्य अनेक प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंको धारणकर अतुलनीय युद्ध करने लगा ॥ 6 ॥
उस महाबली दैत्येन्द्र बाणासुरने अपनी सेनाको नष्ट हुआ देखकर क्रोधित हो घोर युद्ध किया ॥ 7 ॥ उस संग्राममें शिवजीसे महान् बल पाकर महावीर श्रीकृष्णने बाणासुरको तिनकेके समान | मानकर बड़े जोरसे गर्जन किया ॥ 8 ॥
हे मुनीश्वर ! बाणासुरकी शेष बची हुई सेनाको भयभीत करते हुए वे अपने अद्भुत शार्ङ्ग नामक धनुषकी टंकार करने लगे ॥ 9 ॥
धनुषकी टंकारसे उत्पन्न हुए उस तीव्र नादसे भूमि और आकाशका मध्यभाग व्याप्त हो गया ॥ 10 ॥ उसी समय श्रीकृष्णने क्रोधित हो उस धनुषको कानतक खींचकर बाणासुरके ऊपर सर्पोंके समान विषैले अनेक तीक्ष्ण बाणोंको छोड़ा ॥ 11 ॥
बलिपुत्र बाणासुरने उन बाणोंको आता हुआ देखकर अपने धनुषसे निकले हुए बाणोंसे उन्हें अपनेतक पहुँचनेके पहले बीचमें ही काट दिया ॥ 12 ॥ शत्रुओंको विनष्ट करनेवाला वह दैत्यराज बाण पुनः गर्जना करने लगा, तब वहाँ सम्पूर्ण यादव भयभीत हो गये और श्रीकृष्णका स्मरण करते हुए मूच्छित हो गये ॥ 13 ॥
इसके बाद बलिके पुत्र महान् अहंकारी बाणने शिवजीके चरणकमलोंका स्मरण करके अतिशूर श्रीकृष्णके ऊपर अपने बाण छोड़े ॥ 14 ॥तब महादैत्योंके शत्रु श्रीकृष्णजीने भी शिवजीके चरणकमलोंका स्मरणकर अपने बाणोंसे उन बाणोंको दूरसे शीघ्र ही काट दिया ।। 15 ।।
तब संग्राममें आकुल बलराम आदि सभी बली यादवोंने क्रोध करके अपने-अपने प्रतियोद्धाको मारा ॥ 16 ॥
इस प्रकार वहाँ उन दोनों बली पुरुषोंका बहुत समय-तक भयानक युद्ध हुआ, जो सुननेवालोंको भी आश्चर्यचकित कर देनेवाला था ॥ 17 ॥
संग्राममें उस समय गरुड़जीने अति क्रोध करके अपने पंखोंके प्रहारोंसे बाणासुरकी सब सेनाको चूर्ण-चूर्ण कर दिया ॥ 18 ॥
तब अपनी सेनाका मर्दन करनेवाले गरुड़को तथा अपनी सेनाको मर्दित देखकर शैवोंमें श्रेष्ठ बलवान् उस दैत्यने उनके ऊपर अति क्रोध किया और हजार भुजावाले उस दैत्यने शीघ्र ही महादेवके चरणारविन्दोंका स्मरण करके शत्रुओंके लिये असह्य महान् पराक्रम प्रदर्शित किया । 19-20 ॥
वहाँ वीरोंको नष्ट करनेवाले उस दैत्यने एक साथ श्रीकृष्णादि समस्त यादवोंपर तथा गरुड़के ऊपर अलग-अलग अनेक बाणोंसे प्रहार किया ॥ 21 ॥
हे मुने! बलवान् उस दैत्यने एक बाणसे गरुड़को, एक बाणसे श्रीकृष्णको, एकसे बलरामको और एकसे अन्य लोगोंको मारा ॥ 22 ॥
उस समय बड़े पराक्रमी विष्णुके अवताररूप तथा दैत्योंका नाश करनेवाले परमेश्वर श्रीकृष्ण उस युद्धमें अत्यधिक कुपित हुए और गरजने लगे तथा शिवजीका स्मरणकर अपने धनुषसे छोड़े हुए बाणोंसे अति उग्र पराक्रमवाले उसके सैनिकों तथा उस दैत्य बाणासुरपर उन्होंने एक साथ प्रहार किया ।। 23-24 ।।
निश्चिन्त होकर श्रीकृष्णने अपने बाणोंसे उसके धनुष, छत्र आदिको काट दिया और उसके घोड़ोंको मारकर गिरा दिया ॥ 25 ॥
महावीर बाणासुरने अतिक्रोधित हो गर्जन किया और अपनी गदासे श्रीकृष्णपर प्रहार किया, जिससे वे पृथ्वीपर गिर पड़े ॥ 26 ॥हे देवर्षे! तब श्रीकृष्ण लोकमें लीला करनेके कारण शीघ्र ही भूमिसे उठकर शिवभक्त उस शत्रुके साथ युद्ध करने लगे ॥ 27 ॥
इस प्रकार उन दोनोंमें बहुत समयतक घोर संग्राम होता रहा, भगवान् श्रीकृष्ण शिवरूप थे तथा वह बली बाणासुर शिवजीके भक्तोंमें श्रेष्ठ था ॥ 28 ॥
हे मुनीश्वर ! पराक्रमशाली श्रीकृष्ण बहुत देरतक | बाणासुरके साथ युद्धकर पुनः शिवजीकी आज्ञासे बल प्राप्तकर अत्यधिक क्रोधित हो उठे ॥ 29 ॥ तदनन्तर शत्रुवीरोंका नाश करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने शिवजीकी आज्ञासे शीघ्र ही सुदर्शनचक्रसे बाणासुरकी बहुत-सी भुजाओंको काट दिया ॥ 30 ॥ उस समय उसकी श्रेष्ठ चार भुजाएँ शेष रह गयीं और शिवजीके अनुग्रहसे वह शीघ्र ही व्यथारहित हो गया ॥ 31 ॥
जिस समय बाणासुर शिवजीके स्मरणसे हीन हुआ, उसी समय वीरताको प्राप्त हुए श्रीकृष्ण उसका सिर काटनेको उद्यत हुए, तब भगवान् सदाशिव उनके सामने खड़े हो गये ॥ 32 ॥
रुद्र बोले - हे भगवन्! हे देवकीपुत्र! हे विष्णो! मैंने जो पहले आपको आज्ञा दी थी, मेरी आज्ञाका पालन करनेवाले आपने वैसा ही किया ॥ 33 ॥ अब आप बाणासुरके सिरको मत काटिये, मेरी आज्ञासे अपने सुदर्शनचक्रको लौटा लीजिये; क्योंकि मेरे भक्तके ऊपर सदा यह चक्र निष्फल होगा ॥ 34 ॥
हे गोविन्द ! संग्राममें मैंने आपको यह अनिवार्य सुदर्शन चक्र दिया है, इसलिये इस विजयचक्रको युद्धभूमिसे लौटा लीजिये ॥ 35 ॥
हे लक्ष्मीश! पहले भी आपने यह सुदर्शनचक्र दधीचि, वीर रावण तथा तारक आदिके ऊपर मेरी आज्ञाके बिना नहीं चलाया। आप तो योगीश्वर साक्षात् परमात्मा, जनार्दन तथा सब प्राणियोंके हित में तत्पर रहनेवाले हैं, इसका अपने मनमें विचार कीजिये। मैंने इसे यह वर दे दिया है कि तुम्हें मृत्युका भय नहीं रहेगा। अतः मेरा यह वचन सदा सत्य होगा, मैं आपसे सन्तुष्ट हूँ ॥ 36-38 ॥हे हरे। पहले यह अपनी भुजाओंको खुजलाकर अपनी गतिको भूल गया और गर्वित तथा उन्मत्त | होकर इसने मुझसे युद्धका वर माँगा। तब मैंने उसे शाप दिया कि थोड़े ही समयमें तुम्हारी भुजाओंको काटनेवाला आयेगा और तुम्हारा अभिमान नष्ट हो जायगा ।। 39-40 ॥
वे बाणसे बोले- मेरी आज्ञासे तुम्हारी भुजाओंको काटनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण आ गये हैं, इसलिये तुम अब संग्रामसे लौट जाओ और [ श्रीकृष्णसे कहा-] वधू और वरके साथ अपने स्थानको चले जाओ ।। 41 ।।
ऐसा कहकर शिवजी उन दोनोंमें मित्रता कराकर उनको आज्ञा देकर गणों तथा पुत्रोंसहित अपने स्थानको चले गये ।। 42 ।।
सनत्कुमार बोले- इस प्रकार भगवान् शिवजीका वचन सुनकर अपने सुदर्शनचक्रको लौटाकर अक्षत शरीरवाले विजयी श्रीकृष्णने अन्तःपुरमें प्रवेश किया। भार्यासहित अनिरुद्धको आश्वासन देकर उन्होंने बाणासुरके द्वारा प्रदान किये गये अनेक रत्नसमुदायको स्वीकार किया। ऊषाकी सखी परमयोगिनी चित्रलेखाको लेकर शिवजीकी आज्ञासे कृतकृत्य श्रीकृष्ण अति प्रसन्न हुए ।। 43-45 ॥
इसके बाद श्रीकृष्ण हृदयसे शिवजीको प्रणामकर बलिपुत्र बाणासुरसे विदा लेकर कुटुम्ब सहित अपने नगरको चले गये। मार्गमें प्रतिकूल हुए वरुणको अनेक प्रकारसे जीतकर वे आनन्दित होकर द्वारकापुरीमें आये। इसके बाद गरुड़जीको विसर्जितकर अपने मित्रोंको देखकर तथा उनसे हास परिहास करते हुए द्वारकामें पहुँचकर इच्छानुसार विचरण करने लगे ॥ 46 - 48 ll