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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 5 (युद्ध खण्ड) , अध्याय 55 - Sanhita 2, Khand 5 (युद्ध खण्ड) , Adhyaya 55

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भगवान् कृष्ण तथा बाणासुरका संग्राम, श्रीकृष्णद्वारा बाणकी भुजाओंका काटा जाना, सिर काटनेके लिये उद्यत हुए श्रीकृष्णको शिवका रोकना और उन्हें समझाना, बाणका गर्वापहरण, श्रीकृष्ण और बाणासुरकी मित्रता, ऊषा अनिरुद्धको लेकर श्रीकृष्णका द्वारका आना

व्यासजी बोले- हे सर्वज्ञ! हे ब्रह्मपुत्र! हे सनत्कुमार! आपको नमस्कार है। हे मुने! हे तात! आपने मुझे यह अद्भुत कथा सुनायी ॥ 1 श्रीकृष्णके द्वारा युद्धमें जृम्भणास्वसे शिवजी के मोहित किये जानेपर तथा बाणकी सेनाके मार दिये जानेपर बाणासुरने क्या किया, उसको कहिये ॥ 2 ॥सूतजी बोले- अमिततेजस्वी उन व्यासजीका वचन सुनकर ब्रह्माके पुत्र मुनीश्वर [सनत्कुमार] प्रसन्नचित्त होकर कहने लगे- ॥ 3 ॥

सनत्कुमार बोले- हे महाप्राज्ञ ! हे व्यासजी! हे तात! लोकलीलाका अनुसरण करनेवाले श्रीकृष्ण तथा शिवजीकी अद्भुत तथा सुन्दर कथाका श्रवण कीजिये ॥ 4 ॥

पुत्रों तथा गणोंसहित लीलासे शिवजीके सो जानेपर वह दैत्यराज बाणासुर कृष्णके साथ युद्ध करनेके लिये निकल पड़ा ॥ 5 ॥

कुम्भाण्डसे घोड़ा लेकर वह महाबली दैत्य अनेक प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंको धारणकर अतुलनीय युद्ध करने लगा ॥ 6 ॥

उस महाबली दैत्येन्द्र बाणासुरने अपनी सेनाको नष्ट हुआ देखकर क्रोधित हो घोर युद्ध किया ॥ 7 ॥ उस संग्राममें शिवजीसे महान् बल पाकर महावीर श्रीकृष्णने बाणासुरको तिनकेके समान | मानकर बड़े जोरसे गर्जन किया ॥ 8 ॥

हे मुनीश्वर ! बाणासुरकी शेष बची हुई सेनाको भयभीत करते हुए वे अपने अद्भुत शार्ङ्ग नामक धनुषकी टंकार करने लगे ॥ 9 ॥

धनुषकी टंकारसे उत्पन्न हुए उस तीव्र नादसे भूमि और आकाशका मध्यभाग व्याप्त हो गया ॥ 10 ॥ उसी समय श्रीकृष्णने क्रोधित हो उस धनुषको कानतक खींचकर बाणासुरके ऊपर सर्पोंके समान विषैले अनेक तीक्ष्ण बाणोंको छोड़ा ॥ 11 ॥

बलिपुत्र बाणासुरने उन बाणोंको आता हुआ देखकर अपने धनुषसे निकले हुए बाणोंसे उन्हें अपनेतक पहुँचनेके पहले बीचमें ही काट दिया ॥ 12 ॥ शत्रुओंको विनष्ट करनेवाला वह दैत्यराज बाण पुनः गर्जना करने लगा, तब वहाँ सम्पूर्ण यादव भयभीत हो गये और श्रीकृष्णका स्मरण करते हुए मूच्छित हो गये ॥ 13 ॥

इसके बाद बलिके पुत्र महान् अहंकारी बाणने शिवजीके चरणकमलोंका स्मरण करके अतिशूर श्रीकृष्णके ऊपर अपने बाण छोड़े ॥ 14 ॥तब महादैत्योंके शत्रु श्रीकृष्णजीने भी शिवजीके चरणकमलोंका स्मरणकर अपने बाणोंसे उन बाणोंको दूरसे शीघ्र ही काट दिया ।। 15 ।।

तब संग्राममें आकुल बलराम आदि सभी बली यादवोंने क्रोध करके अपने-अपने प्रतियोद्धाको मारा ॥ 16 ॥

इस प्रकार वहाँ उन दोनों बली पुरुषोंका बहुत समय-तक भयानक युद्ध हुआ, जो सुननेवालोंको भी आश्चर्यचकित कर देनेवाला था ॥ 17 ॥

संग्राममें उस समय गरुड़जीने अति क्रोध करके अपने पंखोंके प्रहारोंसे बाणासुरकी सब सेनाको चूर्ण-चूर्ण कर दिया ॥ 18 ॥

तब अपनी सेनाका मर्दन करनेवाले गरुड़को तथा अपनी सेनाको मर्दित देखकर शैवोंमें श्रेष्ठ बलवान् उस दैत्यने उनके ऊपर अति क्रोध किया और हजार भुजावाले उस दैत्यने शीघ्र ही महादेवके चरणारविन्दोंका स्मरण करके शत्रुओंके लिये असह्य महान् पराक्रम प्रदर्शित किया । 19-20 ॥

वहाँ वीरोंको नष्ट करनेवाले उस दैत्यने एक साथ श्रीकृष्णादि समस्त यादवोंपर तथा गरुड़के ऊपर अलग-अलग अनेक बाणोंसे प्रहार किया ॥ 21 ॥

हे मुने! बलवान् उस दैत्यने एक बाणसे गरुड़को, एक बाणसे श्रीकृष्णको, एकसे बलरामको और एकसे अन्य लोगोंको मारा ॥ 22 ॥

उस समय बड़े पराक्रमी विष्णुके अवताररूप तथा दैत्योंका नाश करनेवाले परमेश्वर श्रीकृष्ण उस युद्धमें अत्यधिक कुपित हुए और गरजने लगे तथा शिवजीका स्मरणकर अपने धनुषसे छोड़े हुए बाणोंसे अति उग्र पराक्रमवाले उसके सैनिकों तथा उस दैत्य बाणासुरपर उन्होंने एक साथ प्रहार किया ।। 23-24 ।।

निश्चिन्त होकर श्रीकृष्णने अपने बाणोंसे उसके धनुष, छत्र आदिको काट दिया और उसके घोड़ोंको मारकर गिरा दिया ॥ 25 ॥

महावीर बाणासुरने अतिक्रोधित हो गर्जन किया और अपनी गदासे श्रीकृष्णपर प्रहार किया, जिससे वे पृथ्वीपर गिर पड़े ॥ 26 ॥हे देवर्षे! तब श्रीकृष्ण लोकमें लीला करनेके कारण शीघ्र ही भूमिसे उठकर शिवभक्त उस शत्रुके साथ युद्ध करने लगे ॥ 27 ॥

इस प्रकार उन दोनोंमें बहुत समयतक घोर संग्राम होता रहा, भगवान् श्रीकृष्ण शिवरूप थे तथा वह बली बाणासुर शिवजीके भक्तोंमें श्रेष्ठ था ॥ 28 ॥

हे मुनीश्वर ! पराक्रमशाली श्रीकृष्ण बहुत देरतक | बाणासुरके साथ युद्धकर पुनः शिवजीकी आज्ञासे बल प्राप्तकर अत्यधिक क्रोधित हो उठे ॥ 29 ॥ तदनन्तर शत्रुवीरोंका नाश करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने शिवजीकी आज्ञासे शीघ्र ही सुदर्शनचक्रसे बाणासुरकी बहुत-सी भुजाओंको काट दिया ॥ 30 ॥ उस समय उसकी श्रेष्ठ चार भुजाएँ शेष रह गयीं और शिवजीके अनुग्रहसे वह शीघ्र ही व्यथारहित हो गया ॥ 31 ॥

जिस समय बाणासुर शिवजीके स्मरणसे हीन हुआ, उसी समय वीरताको प्राप्त हुए श्रीकृष्ण उसका सिर काटनेको उद्यत हुए, तब भगवान् सदाशिव उनके सामने खड़े हो गये ॥ 32 ॥

रुद्र बोले - हे भगवन्! हे देवकीपुत्र! हे विष्णो! मैंने जो पहले आपको आज्ञा दी थी, मेरी आज्ञाका पालन करनेवाले आपने वैसा ही किया ॥ 33 ॥ अब आप बाणासुरके सिरको मत काटिये, मेरी आज्ञासे अपने सुदर्शनचक्रको लौटा लीजिये; क्योंकि मेरे भक्तके ऊपर सदा यह चक्र निष्फल होगा ॥ 34 ॥

हे गोविन्द ! संग्राममें मैंने आपको यह अनिवार्य सुदर्शन चक्र दिया है, इसलिये इस विजयचक्रको युद्धभूमिसे लौटा लीजिये ॥ 35 ॥

हे लक्ष्मीश! पहले भी आपने यह सुदर्शनचक्र दधीचि, वीर रावण तथा तारक आदिके ऊपर मेरी आज्ञाके बिना नहीं चलाया। आप तो योगीश्वर साक्षात् परमात्मा, जनार्दन तथा सब प्राणियोंके हित में तत्पर रहनेवाले हैं, इसका अपने मनमें विचार कीजिये। मैंने इसे यह वर दे दिया है कि तुम्हें मृत्युका भय नहीं रहेगा। अतः मेरा यह वचन सदा सत्य होगा, मैं आपसे सन्तुष्ट हूँ ॥ 36-38 ॥हे हरे। पहले यह अपनी भुजाओंको खुजलाकर अपनी गतिको भूल गया और गर्वित तथा उन्मत्त | होकर इसने मुझसे युद्धका वर माँगा। तब मैंने उसे शाप दिया कि थोड़े ही समयमें तुम्हारी भुजाओंको काटनेवाला आयेगा और तुम्हारा अभिमान नष्ट हो जायगा ।। 39-40 ॥

वे बाणसे बोले- मेरी आज्ञासे तुम्हारी भुजाओंको काटनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण आ गये हैं, इसलिये तुम अब संग्रामसे लौट जाओ और [ श्रीकृष्णसे कहा-] वधू और वरके साथ अपने स्थानको चले जाओ ।। 41 ।।

ऐसा कहकर शिवजी उन दोनोंमें मित्रता कराकर उनको आज्ञा देकर गणों तथा पुत्रोंसहित अपने स्थानको चले गये ।। 42 ।।

सनत्कुमार बोले- इस प्रकार भगवान् शिवजीका वचन सुनकर अपने सुदर्शनचक्रको लौटाकर अक्षत शरीरवाले विजयी श्रीकृष्णने अन्तःपुरमें प्रवेश किया। भार्यासहित अनिरुद्धको आश्वासन देकर उन्होंने बाणासुरके द्वारा प्रदान किये गये अनेक रत्नसमुदायको स्वीकार किया। ऊषाकी सखी परमयोगिनी चित्रलेखाको लेकर शिवजीकी आज्ञासे कृतकृत्य श्रीकृष्ण अति प्रसन्न हुए ।। 43-45 ॥

इसके बाद श्रीकृष्ण हृदयसे शिवजीको प्रणामकर बलिपुत्र बाणासुरसे विदा लेकर कुटुम्ब सहित अपने नगरको चले गये। मार्गमें प्रतिकूल हुए वरुणको अनेक प्रकारसे जीतकर वे आनन्दित होकर द्वारकापुरीमें आये। इसके बाद गरुड़जीको विसर्जितकर अपने मित्रोंको देखकर तथा उनसे हास परिहास करते हुए द्वारकामें पहुँचकर इच्छानुसार विचरण करने लगे ॥ 46 - 48 ll

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] तारकासुरके पुत्र तारकाक्ष, विद्युन्माली एवं कमलाक्षकी तपस्यासे प्रसन्न ब्रह्माद्वारा उन्हें वरकी प्राप्ति, तीनों पुरोंकी शोभाका वर्णन
  2. [अध्याय 2] तारकपुत्रोंसे पीड़ित देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और उनके परामर्शके अनुसार असुर- वधके लिये भगवान् शंकरकी स्तुति करना
  3. [अध्याय 3] त्रिपुरके विनाशके लिये देवताओंका विष्णुसे निवेदन करना, विष्णुद्वारा त्रिपुरविनाशके लिये यज्ञकुण्डसे भूतसमुदायको प्रकट करना, त्रिपुरके भयसे भूतोंका पलायित होना, पुनः विष्णुद्वारा देवकार्यकी सिद्धिके लिये उपाय सोचना
  4. [अध्याय 4] त्रिपुरवासी दैत्योंको मोहित करनेके लिये भगवान् विष्णुद्वारा एक मुनिरूप पुरुषकी उत्पत्ति, उसकी सहायताके लिये नारदजीका त्रिपुरमें गमन, त्रिपुराधिपका दीक्षा ग्रहण करना
  5. [अध्याय 5] मायावी यतिद्वारा अपने धर्मका उपदेश, त्रिपुरवासियोंका उसे स्वीकार करना, वेदधर्मके नष्ट हो जानेसे त्रिपुरमें अधर्माचरणकी प्रवृत्ति
  6. [अध्याय 6] त्रिपुरध्वंसके लिये देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  7. [अध्याय 7] भगवान् शिवकी प्रसन्नताके लिये देवताओंद्वारा मन्त्रजप, शिवका प्राकट्य तथा त्रिपुर- विनाशके लिये दिव्य रथ आदिके निर्माणके लिये विष्णुजीसे कहना
  8. [अध्याय 8] विश्वकर्माद्वारा निर्मित सर्वदेवमय दिव्य रथका वर्णन
  9. [अध्याय 9] ब्रह्माजीको सारथी बनाकर भगवान् शंकरका दिव्य रथमें आरूढ़ होकर अपने गणों तथा देवसेनाके साथ त्रिपुर- वधके लिये प्रस्थान, शिवका पशुपति नाम पड़नेका कारण
  10. [अध्याय 10] भगवान् शिवका त्रिपुरपर सन्धान करना, गणेशजीका विघ्न उपस्थित करना, आकाशवाणीद्वारा बोधित होनेपर शिवद्वारा विघ्ननाशक गणेशका पूजन, अभिजित् मुहूर्तमें तीनों पुरोंका एकत्र होना और शिवद्वारा बाणाग्निसे सम्पूर्ण त्रिपुरको भस्म करना, मयदानवका बचा रहना
  11. [अध्याय 11] त्रिपुरदाहके अनन्तर भगवान् शिवके रौद्ररूपसे भयभीत देवताओं द्वारा उनकी स्तुति और उनसे भक्तिका वरदान प्राप्त करना
  12. [अध्याय 12] त्रिपुरदाहके अनन्तर शिवभक्त मयदानवका भगवान् शिवकी शरणमें आना, शिवद्वारा उसे अपनी भक्ति प्रदानकर वितललोकमें निवास करनेकी आज्ञा देना, देवकार्य सम्पन्नकर शिवजीका अपने लोकमें जाना
  13. [अध्याय 13] बृहस्पति तथा इन्द्रका शिवदर्शन के लिये कैलासकी ओर प्रस्थान, सर्वज्ञ शिवका उनकी परीक्षा लेनेके लिये दिगम्बर जटाधारी रूप धारणकर मार्ग रोकना, कुद्ध इन्द्रद्वारा उनपर वज्रप्रहारकी चेष्टा, शंकरद्वारा उनकी भुजाको स्तम्भित कर देना, बृहस्पतिद्वारा उनकी स्तुति, शिवका प्रसन्न होना और अपनी नेत्राग्निको क्षार-समुद्रमें फेंकना
  14. [अध्याय 14] क्षारसमुद्रमें प्रक्षिप्त भगवान् शंकरकी नेत्राग्निसे समुद्रके पुत्रके रूपमें जलन्धरका प्राकट्य, कालनेमिकी पुत्री वृन्दाके साथ उसका विवाह
  15. [अध्याय 15] राहुके शिरश्छेद तथा समुद्रमन्थनके समयके देवताओंके छलको जानकर जलन्धरद्वारा क्रुद्ध होकर स्वर्गपर आक्रमण, इन्द्रादि देवोंकी पराजय, अमरावतीपर जलन्धरका आधिपत्य, भयभीत देवताओंका सुमेरुकी गुफामें छिपना
  16. [अध्याय 16] जलन्धरसे भयभीत देवताओंका विष्णुके समीप जाकर स्तुति करना, विष्णुसहित देवताओंका जलन्धरकी सेनाके साथ भयंकर युद्ध
  17. [अध्याय 17] विष्णु और जलन्धरके युद्धमें जलन्धरके पराक्रमसे सन्तुष्ट विष्णुका देवों एवं लक्ष्मीसहित उसके नगरमें निवास करना
  18. [अध्याय 18] जलन्धरके आधिपत्यमें रहनेवाले दुखी देवताओंद्वारा शंकरकी स्तुति, शंकरजीका देवर्षि नारदको जलन्धरके पास भेजना, वहाँ देवोंको आश्वस्त करके नारदजीका जलन्धरकी सभा में जाना, उसके ऐश्वर्यको देखना तथा पार्वतीके सौन्दर्यका वर्णनकर उसे प्राप्त करनेके लिये
  19. [अध्याय 19] पार्वतीको प्राप्त करनेके लिये जलन्धरका शंकरके पास दूतप्रेषण, उसके वचनसे उत्पन्न क्रोधसे शम्भुके भ्रूमध्यसे एक भयंकर पुरुषकी उत्पत्ति, उससे भयभीत जलन्धरके दूतका पलायन, उस पुरुषका कीर्तिमुख नामसे शिवगण
  20. [अध्याय 20] दूतके द्वारा कैलासका वृत्तान्त जानकर जलन्धरका अपनी सेनाको युद्धका आदेश देना, भयभीत देवोंका शिवकी शरणमें जाना, शिवगणों तथा जलन्धरकी सेनाका युद्ध, शिवद्वारा कृत्याको उत्पन्न करना, कृत्याद्वारा शुक्राचार्यको छिपा लेना
  21. [अध्याय 21] नन्दी, गणेश, कार्तिकेय आदि शिवगणोंका कालनेमि, शुम्भ तथा निशुम्भ के साथ घोर संग्राम, वीरभद्र तथा जलन्धरका युद्ध, भयाकुल शिवगणोंका शिवजीको सारा वृत्तान्त बताना
  22. [अध्याय 22] श्रीशिव और जलन्धरका युद्ध, जलन्धरद्वारा गान्धर्वी मायासे शिवको मोहितकर शीघ्र ही पार्वतीके पास पहुँचना, उसकी मायाको जानकर पार्वतीका अदृश्य हो जाना और भगवान् विष्णुको जलन्धरपत्नी वृन्दाके पास जानेके लिये कहना
  23. [अध्याय 23] विष्णुद्वारा माया उत्पन्नकर वृन्दाको स्वप्नके माध्यमसे मोहित करना और स्वयं जलन्धरका रूप धारणकर वृन्दाके पातिव्रतका हरण करना, वृन्दाद्वारा विष्णुको शाप देना तथा वृन्दाके तेजका पार्वतीमें विलीन होना
  24. [अध्याय 24] दैत्यराज जलन्धर तथा भगवान् शिवका घोर संग्राम, भगवान् शिवद्वारा चक्रसे जलन्धरका शिरश्छेदन, जलन्धरका तेज शिवमें प्रविष्ट होना, जलन्धर- वधसे जगत्में सर्वत्र शान्तिका विस्तार
  25. [अध्याय 25] जलन्धरवधसे प्रसन्न देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  26. [अध्याय 26] विष्णुजीके मोहभंगके लिये शंकरजीकी प्रेरणासे देवोंद्वारा मूलप्रकृतिकी स्तुति मूलप्रकृतिद्वारा आकाशवाणीके रूपमें देवोंको आश्वासन, देवताओंद्वारा त्रिगुणात्मिका देवियोंका स्तवन, विष्णुका मोहनाश, धात्री (आँवला), मालती तथा तुलसीकी उत्पत्तिका आख्यान
  27. [अध्याय 27] शंखचूडकी उत्पत्तिकी कथा
  28. [अध्याय 28] शंखचूडकी पुष्कर - क्षेत्रमें तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरकी प्राप्ति, ब्रह्माकी प्रेरणासे शंखचूडका तुलसीसे विवाह
  29. [अध्याय 29] शंखचूडका राज्यपदपर अभिषेक, उसके द्वारा देवोंपर विजय, दुखी देवोंका ब्रह्माजीके साथ वैकुण्ठगमन, विष्णुद्वारा शंखचूडके पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना और विष्णु तथा ब्रह्माका शिवलोक गमन
  30. [अध्याय 30] ब्रह्मा तथा विष्णुका शिवलोक पहुँचना, शिवलोककी तथा शिवसभाकी शोभाका वर्णन, शिवसभाके मध्य उन्हें अम्बासहित भगवान् शिवके दिव्यस्वरूपका दर्शन और शंखचूडसे प्राप्त कष्टोंसे मुक्ति के लिये प्रार्थना
  31. [अध्याय 31] शिवद्वारा ब्रह्मा-विष्णुको शंखचूडका पूर्ववृत्तान्त बताना और देवोंको शंखचूडवथका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] भगवान् शिक्के द्वारा शंखचूडको समझानेके लिये गन्धर्वराज चित्ररथ (पुष्पदन्त ) को दूतके रूपमें भेजना, शंखचूडद्वारा सन्देशकी अवहेलना और युद्ध करनेका अपना निश्चय बताना, पुष्पदन्तका वापस आकर सारा वृत्तान्त शिवसे निवेदित करना
  33. [अध्याय 33] शंखचूडसे युद्धके लिये अपने गणोंके साथ भगवान् शिवका प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] तुलसीसे विदा लेकर शंखचूडका युद्धके लिये ससैन्य पुष्पभद्रा नदीके तटपर पहुँचना
  35. [अध्याय 35] शंखचूडका अपने एक बुद्धिमान् दूतको शंकरके पास भेजना, दूत तथा शिवकी वार्ता, शंकरका सन्देश लेकर दूतका वापस शंखचूडके पास आना
  36. [अध्याय 36] शंखचूडको उद्देश्यकर देवताओंका दानवोंके साथ महासंग्राम
  37. [अध्याय 37] शंखचूडके साथ कार्तिकेय आदि महावीरोंका युद्ध
  38. [अध्याय 38] श्रीकालीका शंखचूडके साथ महान् युद्ध, आकाशवाणी सुनकर कालीका शिवके पास आकर युद्धका वृत्तान्त बताना
  39. [अध्याय 39] शिव और शंखमूहके महाभयंकर युद्ध शंखचूडके सैनिकोंके संहारका वर्णन
  40. [अध्याय 40] शिव और शंखचूडका युद्ध, आकाशवाणीद्वारा शंकरको युद्धसे विरत करना, विष्णुका ब्राह्मणरूप धारणकर शंखचूडका कवच माँगना, कवचहीन शंखचूडका भगवान् शिवद्वारा वध, सर्वत्र हर्षोल्लास
  41. [अध्याय 41] शंखचूडका रूप धारणकर भगवान् विष्णुद्वारा तुलसीके शीलका हरण, तुलसीद्वारा विष्णुको पाषाण होनेका शाप देना, शंकरजीद्वारा तुलसीको सान्त्वना, शंख, तुलसी, गण्डकी एवं शालग्रामकी उत्पत्ति तथा माहात्म्यकी कथा
  42. [अध्याय 42] अन्धकासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवके वरदानसे हिरण्याक्षद्वारा अन्धकको पुत्ररूपमें प्राप्त करना, हिरण्याक्षद्वारा पृथ्वीको पाताललोकमें ले जाना, भगवान् विष्णुद्वारा वाराहरूप धारणकर हिरण्याक्षका वधकर पृथ्वीको यथास्थान स्थापित करना
  43. [अध्याय 43] हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्मासे वरदान पाकर उसका अत्याचार, भगवान् नृसिंहद्वारा उसका वध और प्रह्लादको राज्यप्राप्ति
  44. [अध्याय 44] अन्धकासुरकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे अनेक वरोंकी प्राप्ति, त्रिलोकीको जीतकर उसका स्वेच्छाचारमें प्रवृत्त होना, मन्त्रियोंद्वारा पार्वतीके सौन्दर्यको सुनकर मुग्ध हो शिवके पास सन्देश भेजना और शिवका उत्तर सुनकर
  45. [अध्याय 45] अन्धकासुरका शिवकी सेनाके साथ युद्ध
  46. [अध्याय 46] भगवान् शिव एवं अन्धकासुरका युद्ध, अन्धककी मायासे उसके रक्तसे अनेक अन्धकगणोंकी उत्पत्ति, शिवकी प्रेरणासे विष्णुका कालीरूप धारणकर दानवोंके रक्तका पान करना, शिवद्वारा अन्धकको अपने त्रिशूलमें लटका लेना, अन्धककी स्तुतिसे प्रसन्न हो शिवद्वारा उसे गाणपत्य पद प्रदान करना
  47. [अध्याय 47] शुक्राचार्यद्वारा युद्धमें मरे हुए दैत्योंको संजीवनी विद्यासे जीवित करना, दैत्योंका युद्धके लिये पुनः उद्योग, नन्दीश्वरद्वारा शिवको यह वृत्तान्त बतलाना, शिवकी आज्ञासे नन्दीद्वारा युद्ध-स्थलसे शुक्राचार्यको शिवके पास लाना, शिवद्वारा शुक्राचार्यको निगलना
  48. [अध्याय 48] शुक्राचार्यकी अनुपस्थितिसे अन्धकादि दैत्योंका दुखी होना, शिवके उदरमें शुक्राचार्यद्वारा सभी लोकों तथा अन्धकासुरके युद्धको देखना और फिर शिवके शुकरूपमें बाहर निकलना, शिव-पार्वतीका उन्हें पुत्ररूपमें स्वीकारकर विदा करना
  49. [अध्याय 49] शुक्राचार्यद्वारा शिवके उदरमें जपे गये मन्त्रका वर्णन, अन्धकद्वारा भगवान् शिवकी नामरूपी स्तुति प्रार्थना, भगवान् शिवद्वारा अन्धकासुरको जीवनदानपूर्वक गाणपत्य पद प्रदान करना
  50. [अध्याय 50] शुक्राचार्यद्वारा काशीमें शुक्रेश्वर लिंगकी स्थापनाकर उनकी आराधना करना, मूर्त्यष्टक स्तोत्रसे उनका स्तवन, शिवजीका प्रसन्न होकर उन्हें मृतसंजीवनी विद्या प्रदान करना और ग्रहोंके मध्य प्रतिष्ठित करना
  51. [अध्याय 51] प्रह्लादकी वंशपरम्परामें बलिपुत्र वाणासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवभक्त बाणासुरद्वारा ताण्डव नृत्यके प्रदर्शनसे शंकरको प्रसन्न करना, वरदानके रूपमें शंकरका बाणासुरकी नगरीमें निवास करना, शिव-पार्वतीका बिहार, पार्वतीद्वारा बाणपुत्री ऊषाको वरदान
  52. [अध्याय 52] अभिमानी बाणासुरद्वारा भगवान् शिवसे युद्धकी याचना, बाणपुत्री ऊषाका रात्रिके समय स्वप्नमें अनिरुद्ध के साथ मिलन, चित्रलेखाद्वारा योगबलसे अनिरुद्धका द्वारकासे अपहरण, अन्तःपुरमें अनिरुद्ध और ऊषाका मिलन तथा द्वारपालोंद्वारा यह समाचार बाणासुरको बताना
  53. [अध्याय 53] क्रुद्ध बाणासुरका अपनी सेनाके साथ अनिरुद्धपर आक्रमण और उसे नागपाशमें बांधना, दुर्गाके स्तवनद्वारा अनिरुद्धका बन्धनमुक्त होना
  54. [अध्याय 54] नारदजीद्वारा अनिरुद्धके बन्धनका समाचार पाकर श्रीकृष्णकी शोणितपुरपर चढ़ाई, शिवके साथ उनका घोर युद्ध, शिवकी आज्ञासे श्रीकृष्णका उन्हें जृम्भणास्त्रसे मोहित करके बाणासुरकी सेनाका संहार करना
  55. [अध्याय 55] भगवान् कृष्ण तथा बाणासुरका संग्राम, श्रीकृष्णद्वारा बाणकी भुजाओंका काटा जाना, सिर काटनेके लिये उद्यत हुए श्रीकृष्णको शिवका रोकना और उन्हें समझाना, बाणका गर्वापहरण, श्रीकृष्ण और बाणासुरकी मित्रता, ऊषा अनिरुद्धको लेकर श्रीकृष्णका द्वारका आना
  56. [अध्याय 56] बाणासुरका ताण्डवनृत्यद्वारा भगवान् शिवको प्रसन्न करना, शिवद्वारा उसे अनेक मनोऽभिलषित वरदानोंकी प्राप्ति, बाणासुरकृत शिवस्तुति
  57. [अध्याय 57] महिषासुर के पुत्र गजासुरकी तपस्या तथा ब्रह्माद्वारा वरप्राप्ति, उन्मत्त गजासुरद्वारा अत्याचार, उसका काशीमें आना, देवताओंद्वारा भगवान् शिवसे उसके बधकी प्रार्थना, शिवद्वारा उसका वध और उसकी प्रार्थनासे उसका धर्म धारणकर 'कृत्तिवासा' नामसे विख्यात होना एवं कृत्तिवासेश्वर लिंगकी स्थापना करना
  58. [अध्याय 58] काशीके व्याघ्रेश्वर लिंग-माहात्म्यके सन्दर्भमें दैत्य दुन्दुभिनिर्ह्रादके वधकी कथा
  59. [अध्याय 59] काशीके कन्दुकेश्वर शिवलिंगके प्रादुर्भावमें पार्वतीद्वारा बिदल एवं उत्पल दैत्योंके वधकी कथा, रुद्रसंहिताका उपसंहार तथा इसका माहात्म्य