ब्रह्माजी बोले- हे देवर्षे! जब नारायणदेव जलमें शयन करने लगे, उस समय उनकी नाभिसे भगवान् शंकरकी इच्छासे सहसा एक विशाल तथा | उत्तम कमल प्रकट हुआ ॥ 1 ॥उसमें असंख्य नालदण्ड थे, उसकी कान्ति कनेर के फूलके समान पीले रंगकी थी तथा उसकी लम्बाई और ऊँचाई भी अनन्त योजन थी। वह कमल करोड़ों सूर्योंके समान प्रकाशित, सुन्दर, सम्पूर्ण तत्त्वोंसे युक्त, अत्यन्त अद्भुत, परम रमणीय, दर्शनके योग्य तथा सबसे उत्तम था ॥ 2-3 ॥
तत्पश्चात् कल्याणकारी परमेश्वर साम्बसदाशिवने पूर्ववत् प्रयत्न करके मुझे अपने दाहिने अंगसे उत्पन्न किया ll 4 ॥
हे मुने! उन महेश्वरने मुझे तुरंत ही अपनी मायासे मोहित करके नारायणदेवके नाभिकमलमें डाल दिया और लीलापूर्वक मुझे वहाँसे प्रकट किया॥ 5 ॥
इस प्रकार उस कमलसे पुत्रके रूपमें मुझ हिरण्य गर्भका जन्म हुआ। मेरे चार मुख हुए और शरीरकी कान्ति लाल हुई। मेरे मस्तक त्रिपुण्ड्रकी रेखासे अंकित थे ॥ 6 ॥
हे तात! भगवान् शिवकी मायासे मोहित होनेके | कारण मेरी ज्ञानशक्ति इतनी दुर्बल हो रही थी कि मैंने उस कमलके अतिरिक्त दूसरे किसीको अपने शरीरका जनक या पिता नहीं जाना ॥ 7 ॥
मैं कौन हूँ, कहाँसे आया है, मेरा कार्य क्या है, मैं किसका पुत्र होकर उत्पन्न हुआ हूँ और किसने इस समय मेरा निर्माण किया है-इस प्रकार संशयमें पड़े हुए मेरे मनमें यह विचार उत्पन्न हुआ-मैं किसलिये मोहमें पड़ा हुआ हूँ? जिसने मुझे उत्पन्न किया है, उसका पता लगाना तो बहुत सरल है ॥ 8-9 ॥
इस कमलपुष्पका जो पत्रयुक्त नाल है, उसका उद्गमस्थान इस जलके भीतर नीचे की ओर है। जिसने मुझे उत्पन्न किया है, वह पुरुष भी वहीं होगा, इसमें संशय नहीं है ॥ 10 ॥
ऐसा निश्चय करके मैंने अपनेको कमलसे नीचे उतारा है मुने! उस कमलकी एक-एक नालमें गया | और सैकड़ों वर्षोंतक वहाँ भ्रमण करता रहा ॥ 11 ॥
कहीं भी उस कमलके उत्तम स्थान मुझे। नहीं मिला। तब पुनः संशयमें पड़कर मैं उस कमलपुष्पपर | जानेके लिये उत्सुक हुआ और हे मुने। नालके मार्ग से उस कमलपर चढ़ने लगा। इस तरह बहुत ऊपर जानेपर भी मैं उस कमलके कोशको न पा सका। उस दशामें मैं और भी मोहित हो उठा ।। 12-13 ॥मुझे नालमार्गसे भ्रमण करते हुए पुनः सैकड़ों वर्ष व्यतीत हो गये, [किंतु उसका कोई पता न चल सका] तब मैं मोहित (किंकर्तव्यविमूढ़) होकर एक क्षण वहीं रुक गया ॥ 14 ॥
हे मुने। उस समय भगवान् शिवकी इच्छाये परम मंगलमयी तथा उत्तम आकाशवाणी प्रकट हुई, जो मेरे मोहका विध्वंस करनेवाली थी, उस वाणीने कहा—'तप' तपस्या करो ।। 15 ।।
उस आकाशवाणीको सुनकर मैंने अपने जन्मदाता पिताका दर्शन करनेके लिये उस समय पुनः प्रयत्नपूर्वक बारह वर्षोंतक घोर तपस्या की ॥ 16 ॥
तब मुझपर अनुग्रह करने के लिये ही चार भुजाओं और सुन्दर नेत्रोंसे सुशोभित भगवान् विष्णु वहाँ सहसा प्रकट हो गये। उन परम पुरुषने अपने हाथोंमें शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण कर रखे थे। उनके सारे अंग सजल जलधरके समान श्यामकान्तिसे सुशोभित थे। उन परम प्रभुने सुन्दर पीताम्बर पहन रखा था। उनके मस्तक आदि अंगोंमें मुकुट आदि महामूल्यवान् आभूषण शोभा पा रहे थे। उनका मुखारविन्द प्रसन्नतासे खिला हुआ था। मैं उनकी छविपर मोहित हो रहा था। वे मुझे करोड़ों कामदेवोंके समान मनोहर दिखायी दिये ।। 17-19 ll
उन चतुर्भुज भगवान् विष्णुका वह अत्यन्त सुन्दर रूप देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। वे साँवली और सुनहरी आभासे उद्भासित हो रहे थे ॥ 20 ॥
उस समय उन सदसत्स्वरूप, सर्वात्मा, महाबाहु नारायणदेवको वहाँ उस रूपमें अपने साथ देखकर मुझे बड़ा हर्ष हुआ ll 21 ॥
मैं उस समय प्रभु शम्भुकी लीलासे मोहित हो रहा था, इसलिये मैं अपने उत्पन्न करनेवालेको न जानकर अति हर्षित होकर उनसे कहने लगा- ॥ 22 ॥
ब्रह्माजी बोले- मैंने उन सनातन पुरुषको हाथसे उठाकर कहा कि आप कौन हैं, उस समय हाथके तीव्र तथा सुद्द प्रहारसे क्षणमात्रमें ही वे जितेन्द्रिय जाग | करके शय्यासे उठकर बैठ गये। तदनन्तर अविकल रूपसे निद्रारहित होकर उन राजीवलोचन भगवान् विष्णुने मुझको वहाँपर अवस्थित देखा और हँसते हुए बार बार मधुर वाणीमें [वे] कहने लगे- ॥ 23-25 ॥विष्णुजी बोले- हे वत्स! आपका स्वागत है। हे महाद्युतिमान् पितामह। आपका स्वागत है। निर्भय होकर रहिये। मैं आपकी सभी कामनाओंको पूर्ण करूंगा, इसमें सन्देह नहीं है ॥ 26 ॥
[हे देवर्षे!] उनके मन्दहासयुक्त उस वचनको सुनकर रजोगुणके कारण शत्रुता मान बैठा देवश्रेष्ठ मैं उन जनार्दन भगवान् विष्णुसे कहने लगा- ॥ 27 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे निष्पाप ! समस्त संहारके कारणभूत मुझे आप हँसते हुए जो हे वत्स! हे वत्स ! कह रहे हैं, वह तो वैसे ही लग रहा है, जैसे कोई गुरु अपने शिष्यको हे वत्स ! हे वत्स! कह रहा हो ॥ 28 ॥
मैं ही संसारका साक्षात् कर्ता, प्रकृतिका प्रवर्तक, सनातन, अजन्मा, विष्णु, ब्रह्मा, विष्णुको उत्पन्न करनेवाला विश्वात्मा, विधाता धाता और पुण्डरीकाक्ष हूँ। आप अज्ञानवश मुझे हे वत्स! हे वत्स! ऐसा क्यों कह रहे हैं? इसका कारण शीघ्र बताइये ॥ 29-30 ॥ नियमतः वेद भी मुझे स्वयम्भू, अज, विभु, पितामह, स्वराज, सर्वोत्तम और परमेष्ठी कहते हैं॥ 31 ॥ मेरे इस वचनको सुनकर लक्ष्मीपति भगवान् हरि क्रुद्ध हो उठे और कहने लगे कि मैं जानता हूँ संसार आपको जगत्का कर्ता मानता है ॥ 32 ॥
विष्णुजी बोले- आप संसारकी सृष्टि करने और पालन करनेके लिये मुझ अव्ययके अंगसे अवतीर्ण हुए हैं, फिर भी आप मुझ जगन्नाथ, नारायण, पुरुष, परमात्मा, निर्विकार, पुरुहूत, पुरुष्टुत्, विष्णु, अच्युत, ईशान, संसारके उत्पत्ति स्थानरूप, नारायण, महाबाहु और सर्वव्यापकको भूल गये हैं। मेरे ही नाभिकमलसे आप उत्पन्न हुए हैं, इसमें सन्देह नहीं है।। 33-35 ॥
इस विषय में आपका अपराध भी नहीं है, आपके ऊपर तो मेरी माया है। हे चतुर्मुख! सुनिये, यह सत्य है कि मैं ही सभी देवोंका ईश्वर हूँ॥ 36 ॥
मैं ही कर्ता, हर्ता और भर्ता हूँ। मेरे समान अन्य शक्तिशाली कोई देव नहीं है। हे पितामह! मैं ही | परब्रह्म तथा परम तत्त्व हूँ ॥ 37 ॥
मैं ही परमज्योति और वह परमात्मा विभु हूँ, इस जगत्में आज जो यह सब चराचर दिखायी दे रहा है और सुनायी पड़ रहा है, हे चतुर्मुख यह जोभी है, वह मुझमें व्याप्त है - ऐसा आप जान लें। मैंने ही सृष्टिके पहले जगत्के चौबीस अव्यक्त तत्त्वोंकी रचना की है ।। 38-39 ॥
उन्हीं तत्त्वोंसे प्राणियोंके शरीरधारक अणुओंका निर्माण होता है और क्रोध, भय आदि षड्गुणोंकी सृष्टि हुई है। मेरे प्रभाव और मेरी लीलासे ही आपके अनेक अंग हैं ll 40 ॥
मैंने ही बुद्धितत्त्वकी सृष्टि की है और उसमें तीन प्रकारके अहंकार उत्पन्न किये हैं। तदनन्तर उससे रूप, रस, गन्ध, शब्द, स्पर्श- इन पंचतन्मात्राओं, मन एवं चक्षु, जिह्वा, घ्राण, श्रोत्र तथा त्वचा- इन पाँच ज्ञानेन्द्रियों और वाक्, पाणि, पाद, पायु, उपस्थ इन पाँच कर्मेन्द्रियों, क्षिति, जल, पावक, गगन और वायु - इन पंच महाभूतों तथा अन्य सभी भौतिक पदार्थोंकी रचना लीलासे ही की है। हे प्रजापते ! हे | ब्रह्मन् ! ऐसा जानकर आप मेरी शरणमें आ जाइये, मैं सभी दुःखोंसे आपकी रक्षा करूँगा, इसमें संशय नहीं है । ll 41-421/2 ॥
ब्रह्माजी बोले- विष्णुका यह वचन सुनकर मुझ ब्रह्माको क्रोध आ गया और मायाके वशीभूत हुआ मैं उनको डाँटते हुए पूछने लगा कि आप कौन हैं और किसलिये इतना अधिक निरर्थक बोल रहे हैं? आप न ईश्वर हैं, न परब्रह्म हैं। आपका कोई कर्ता अवश्य है ।। 43-44 ॥
महाप्रभु शंकरकी मायासे विमोहित मैं उन भगवान् विष्णुके साथ भयंकर युद्ध करने लगा । 45 ।। उस प्रलयकालीन महासमुद्रके मध्य रजोगुणके कारण परस्पर बढ़ी शत्रुतासे हमारा और विष्णुका | रोमांचकारी युद्ध होने लगा ॥ 46 ॥
इसी बीच हम दोनोंके छिड़े विवादको शान्त करनेके लिये और ज्ञान प्रदान करनेके लिये हम दोनोंके सामने ही एक लिंग प्रकट हुआ ॥ 47 ॥
वह लिंग अग्निकी प्रचण्ड हजार ज्वालाओंसे भी अधिक ज्वालासमूहोंवाला, सैकड़ों कालाग्नियोंके समान कान्तिमान्, क्षय एवं वृद्धिसे रहित, आदि-मध्य और अन्तसे विहीन था ॥ 48 ॥वह उपमारहित, अनिर्देश्य, बिना किसीके द्वारा उपस्थापित, अव्यक्त और विश्वसर्जक था। उस लिंगकी सहस्र ज्वालाओंके समूहको देखनेमात्रसे ही भगवान् विष्णु मोहित हो उठे ।। 49 ।।
शिवकी मायासे मोहित मुझसे वे कहने लगे कि | इस समय मुझसे तुम इतनी स्पर्धा क्यों कर रहे हो ? हम दोनोंके मध्य तो एक तीसरा भी आ गया है, | इसलिये युद्ध रोक दिया जाय ॥ 50 ॥
हम दोनों इस अग्निसे उत्पन्न लिंगकी परीक्षा करें कि यह कहाँसे प्रकट हुआ है। मैं इस अनुपम अग्निस्तम्भके नीचे जाऊँगा और हे प्रजानाथ! आप इसकी परीक्षा करनेके लिये वायुवेगसे प्रयत्नपूर्वक शीघ्र ऊपरकी ओर जायें 51-52 ॥
ब्रह्माजी बोले- तब ऐसा कहकर विश्वात्मा भगवान् विष्णुने वाराहका रूप धारण किया और हे मुने! मैंने भी शीघ्र हंसका रूप बना लिया ॥ 53 ॥ उसी समयसे लोग मुझे हंस-हंस और विराट् ऐसा कहने लगे। जो 'हंस-हंस' यह कहकर मेरे नामका जप करता है, वह हंसस्वरूप ही हो जाता है ॥ 54 ॥
अत्यन्त श्वेत, अग्निके समान, चारों ओरसे पंखोंसे युक्त और मन तथा वायुके वेगवाला होकर मैं ऊपरके भी ऊपर लिंगका पता लगाते हुए चला गया ॥ 55 ॥
उसी समय विश्वात्मा नारायणने भी अत्यन्त श्वेत स्वरूप धारण किया। दस योजन चौड़े, सौ योजन लम्बे मेरुपर्वतके समान शरीरवाले, श्वेत तथा अत्यन्त तेज दादोंसे युक्त, प्रलयकालीन सूर्यके समान कान्तिमान्, दीर्घ नासिकासे सुशोभित, भयंकर [घुर्र घुरंकी] ध्वनि करनेवाले, छोटे-छोटे पैरोंसे युक्त, विचित्र अंगोंवाले, विजय प्राप्त करनेकी इच्छासे परिपूर्ण, दृढ़ तथा अनुपम वाराहका स्वरूप धारण करके वे भगवान् विष्णु भी अत्यन्त वेगसे उसके नीचेकी ओर गये । ll 56-58 ॥
इस प्रकार रूप धारणकर भगवान् विष्णु एक हजार वर्षतक नीचेकी ओर ही चलते रहे। उसी समयसे [पृथिवी आदि ] लोकोंमें श्वेतवाराह नामक कल्पका प्रादुर्भाव हुआ। हे देवर्षे! यह मनुष्योंकी कालगणनाकी अवधि है ।। 5992 ॥इधर [ अत्यन्त तीव्र गतिसे] नीचेकी ओरसे जाते हुए महातेजस्वी विष्णु बहुत प्रकारसे भ्रमण करते रहे. किंतु महावाराहरूपधारी विष्णु उस ज्योतिर्लिंगके मूलका अल्प भाग भी न देख सके ॥ 609/2 ॥
हे अरिसूदन। तबतक मैं भी उस ज्योतिर्लिंगके अन्तका पता लगानेके लिये वेगसे ऊपरकी ओर जाता रहा यत्नपूर्वक उस ज्योतिर्लिंगके अन्तको जाननेका इच्छुक मैं अत्यन्त परिश्रमके कारण थक गया और | उसका अन्त बिना देखे ही थोड़े समयमें नीचे की ओर लौट पड़ा ।। 61-62 ll
उसी प्रकार सर्वदेवस्वरूप, महाकाय, कमललोचन, भगवान् विष्णु भी थकान के कारण ज्योतिर्लिंगका अन्त देखे बिना ही ऊपर निकल आये ॥ 63 ॥
शिवकी मायासे विमोहित विष्णु आकर मेरे साथ ही भगवान् शिवको बार-बार प्रणाम करके व्याकुल चित्तसे वहाँ खड़े रहे ॥ 64 ॥
पृष्ठ प्रदेशकी ओरसे, पाश्र्वौकी ओर और आगेकी ओरसे परमेश्वर शिवको मेरे साथ ही प्रणाम करके विष्णु भी सोचने लगे कि यह क्या है ? ॥ 65 ॥
वह रूप तो अनिर्देश्य नाम तथा कर्मसे रहित अलिंग होते हुए भी लिंगताको प्राप्त और ध्यानमार्गसे अगम्य था । तदनन्तर अपने मनको शान्त करके मैं और विष्णु दोनों शिवको बार-बार प्रणामकर कहने लगे हे महाप्रभो! हम आपके स्वरूपको नहीं जानते। आप जो हैं, वही हैं, आपको हमारा नमस्कार है। हे महेशान! आप शीघ्र ही हमें अपने स्वरूपका दर्शन करायें।। 66-68 ॥
हे मुनिश्रेष्ठ। इस प्रकार अहंकारसे आविष्ट हुए हम दोनोंको वहाँ नमस्कार करते हुए सैकड़ों वर्ष बीत गये ।। 69 ।।