शिवजी बोले- हे पुत्रो! आपकी कुशल तो है? मेरे अनुशासनमें जगत् तथा देवश्रेष्ठ अपने-अपने कार्यों में लगे तो हैं? हे देवताओ! ब्रह्मा और विष्णुके बीच होनेवाले युद्धका वृतान्त तो मुझे पहलेसे ही ज्ञात था; आपलोगोंने [यहाँ आनेका] परिश्रम करके उसे पुनः बताया है। हे सनत्कुमार! उमापति शंकरने इस प्रकार मुसकराते हुए मधुर वाणीमें उन देवगणोंको सन्तुष्ट किया ॥ 1-3॥
इसके बाद महादेवजीने ब्रह्मा और विष्णुको | युद्धस्थलीमें जानेके लिये अपने सैकड़ों गणोंको वहीं सभामें आज्ञा दी। तब महादेवजीके प्रयाणके लिये अनेक प्रकारके बाजे बजने लगे और उनके गणाध्यक्ष भी अनेक प्रकार से सज-धजकर वाहनोंपर सवार होकर जानेके लिये तैयार हो गये ।। 4-5 ।।भगवान् उमापति पाँच मण्डलोंसे सुशोभित आगेसे पीछेतक प्रणव (ॐ) की आकृतिवाले सुन्दर रथपर आरूढ़ हो गये। इस प्रकार पुत्रों और गणोंसहित प्रस्थान किये हुए शिवजीके पीछे-पीछे इन्द्र आदि सभी देवगण भी चल पड़े। विचित्र ध्वजाएँ, पंखे, चँवर, पुष्पवृष्टि, संगीत, नृत्य और वाद्योंसे सम्मानित पशुपति भगवान् शिव भगवती उमाके साथ सेनासहित उन दोनों (ब्रह्मा और विष्णु) की युद्धभूमिमें आ पहुँचे ।। 6-7 ।।
उन दोनोंका युद्ध देखकर शिवाजीने गणका कोलाहल तथा वाद्योंकी ध्वनि बन्द करा दी तथा वे छिपकर आकाशमें स्थित हो गये। उधर शूरवीर ब्रह्मा और विष्णु एक-दूसरेको मारनेकी इच्छासे माहेश्वरास्त्र और पाशुपतास्त्रका परस्पर सन्धान कर रहे थे। ब्रह्मा और विष्णुके अस्त्रोंकी ज्वालासे तीनों लोक जलने लगे। निराकार भगवान् शंकर इस अकाल प्रलयको आया देखकर एक भयंकर विशाल अग्निस्तम्भके रूपमें उन दोनोंके बीच प्रकट हो गये । ll 8-11 ॥
संसारको नष्ट करनेमें सक्षम वे दोनों दिव्यास्त्र अपने तेजसहित उस महान् अग्निस्तम्भके प्रकट होते ही तत्क्षण शान्त हो गये। दिव्यास्त्रोंको शान्त करनेवाले इस आश्चर्यकारी तथा शुभ (अग्निस्तम्भ) को देखकर सभी लोग परस्पर कहने लगे कि यह अद्भुत आकारवाला (स्तम्भ) क्या है ? ll 12-13 ॥
यह दिव्य अग्निस्तम्भ कैसे प्रकट हो गया ? इसकी ऊँचाईकी और इसकी जड़की हम दोनों जाँच करें ऐसा एक साथ निश्चय करके वे दोनों अभिमानी बोर उसकी परीक्षा करनेको तत्पर हो गये और शीघ्रतापूर्वक चल पड़े। हम दोनोंके साथ रहनेसे यह कार्य सम्पन्न नहीं होगा-ऐसा कहकर विष्णुने सूकरका रूप धारण किया और उसकी जड़की खोजमें चले। उसी प्रकार ब्रह्मा भी हंसका रूप धारण करके उसका अन्त खोजने के लिये चल पड़े। पाताललोकको खोदकर बहुत दूतक जानेपर भी विष्णुको उस अग्निके समान तेजस्वी स्तम्भका आधार नहीं दीखा। तब थक-हारकर सूकराकृति विष्णु रणभूमिमें वापस आ गये ॥ 14-18 ॥हे तात! आकाशमार्गसे जाते हुए आपके पिता ब्रह्माजीने मार्गमें अद्भुत केतकी (केवड़े) के पुष्पको गिरते देखा। अनेक वर्षोंसे गिरते रहनेपर भी वह ताजा और अति सुगन्धयुक्त था। ब्रह्मा और विष्णुके इस विग्रहपूर्ण कृत्यको देखकर भगवान् परमेश्वर हँस पड़े, जिससे कम्पनके कारण उनका मस्तक हिला और वह श्रेष्ठ केतकी पुष्प उन दोनोंके ऊपर कृपा करनेके लिये गिरा ॥ 19 - 21 ॥
[ब्रह्माजीने उससे पूछा-] हे पुष्पराज ! तुम्हें किसने धारण कर रखा था और तुम क्यों गिर रहे हो ? [केतकीने उत्तर दिया-] इस पुरातन और अप्रमेय स्तम्भके बीचसे मैं बहुत समयसे गिर रहा हूँ। फिर भी इसके आदिको नहीं देख सका। अतः आप भी इस स्तम्भका अन्त देखनेकी आशा छोड़ दें ॥ 22 1/2 ॥
[ब्रह्माजीने कहा-] मैं तो हंसका रूप लेकर इसका अन्त देखनेके लिये यहाँ आया हूँ। अब हे मित्र ! मेरा एक अभिलषित काम तुम्हें करना पड़ेगा। विष्णुके पास मेरे साथ चलकर तुम्हें इतना कहना है कि 'ब्रह्माने इस स्तम्भका अन्त देख लिया है। हे अच्युत ! मैं इस बातका साक्षी हूँ।' केतकीसे ऐसा कहकर ब्रह्माने उसे बार-बार प्रणाम किया और कहा कि आपत्कालमें तो मिथ्या भाषण भी प्रशस्त माना गया है- यह शास्त्रकी आज्ञा है ।। 23–25 ॥
वहाँ अति परिश्रमसे थके और [स्तम्भका अन्त न मिलनेसे] उदास विष्णुको देखकर ब्रह्मा प्रसन्नतासे नाच उठे और षण्ढ (नपुंसक) के समान पूर्ण बातें बनाकर अच्युत विष्णुसे इस प्रकार कहने लगे-हे हरे ! मैंने इस स्तम्भका अग्रभाग देख लिया है; इसका साक्षी यह केतकी पुष्प है। तब उस केतकीने भी झूठ ही विष्णुके समक्ष कह दिया कि ब्रह्माकी बात यथार्थ है ।। 26-27 ।।
विष्णुने उस बातको सत्य मानकर ब्रह्माको स्वयं प्रणाम किया और उनका षोडशोपचार पूजन किया ॥ 28 ॥उसी समय कपटी ब्रह्माको दण्डित करनेके लिये उस प्रज्वलित स्तम्भ लिंगसे महेश्वर प्रकट हो गये। तब परमेश्वरको प्रकट हुआ देखकर विष्णु उठ खड़े हुए और काँपते हाथोंसे उनका चरण पकड़कर कहने लगे। हे करुणाकर! आदि और अन्तसे रहित शरीरवाले आप परमेश्वरके विषयमें मैंने मोहबुद्धिसे बहुत विचार किया; किंतु कामनाओंसे उत्पन्न वह विचार सफल नहीं हुआ। अतः आप हमपर प्रसन्न हों, हमारे पापको नष्ट करें और हमें क्षमा करें; यह सब आपकी लीलासे ही हुआ है । ll 29-30 ॥
ईश्वर बोले - हे वत्स ! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ; क्योंकि श्रेष्ठताकी कामना होनेपर भी तुमने सत्य वचनका पालन किया, इसलिये लोगों में तुम मेरे समान ही प्रतिष्ठा और सत्कार प्राप्त करोगे। हे हरे अबसे आपकी पृथक् मूर्ति बनाकर पुण्य क्षेत्रोंमें प्रतिष्ठित की जायगी और उसका उत्सवपूर्वक पूजन होगा ।। 31-32 ॥
इस प्रकार परमेश्वरने विष्णुकी सत्यनिष्ठासे प्रसन्न होकर देवताओंके सामने उन्हें अपनी समानता प्रदान की थी ॥ 33 ॥