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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 5 (युद्ध खण्ड) , अध्याय 46 - Sanhita 2, Khand 5 (युद्ध खण्ड) , Adhyaya 46

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भगवान् शिव एवं अन्धकासुरका युद्ध, अन्धककी मायासे उसके रक्तसे अनेक अन्धकगणोंकी उत्पत्ति, शिवकी प्रेरणासे विष्णुका कालीरूप धारणकर दानवोंके रक्तका पान करना, शिवद्वारा अन्धकको अपने त्रिशूलमें लटका लेना, अन्धककी स्तुतिसे प्रसन्न हो शिवद्वारा उसे गाणपत्य पद प्रदान करना

सनत्कुमार बोले- हे व्यास! शिवजीका अभिप्राय जानकर उस दैत्यराजने गदा लेकर देवगणोंसे सर्वथा अभेद्य गिल नामक दैत्यको आगेकर सेनाके सहित | शीघ्र शिवजीकी गुफाके दरवाजेपर पहुँचकर वज्रकेसमान तीखे शस्त्रोंसे प्रहार करना प्रारम्भ कर दिया, कुछ दैत्योंने वीरकपर और कुछ दैत्योंने पार्वतीपर शस्त्रोंसे प्रहार किया। कुछ दैत्योंने गुफाके मनोहर द्वारको तोड़ दिया, कुछने द्वारपर लगे पत्र, पुष्प, फल, मूल तथा मनोहर जल एवं उद्यानमार्गोको नष्ट कर दिया। कुछने प्रसन्न होकर पर्वतके दीप्तिमान् शिखरोंको तोड़ दिया ॥ 1-31/2 ॥

तदनन्तर त्रिशूलधारी शिवजीने कुपित होकर अपनी सेनाका, दारुण भूतगणोंका तथा सैन्यसहित विष्णु आदि देवगणोंका स्मरण किया। शिवजीके स्मरण करते ही रथ, गज, घोड़े, बैल, गाय, ऊँट, गधे, पक्षिगण, सिंह, व्याघ्र, मृग, सूकर, सारस, मीन, मत्स्य, शिशुमार, सर्प, सैकड़ों प्रेत-पिशाच, दिव्य विमान, तालाब, नदी, नद, पर्वत, वाहन एवं अन्य जीवोंके साथ समस्त देवता उपस्थित हो गये और हाथ जोड़कर शिवजीको प्रणामकर निर्भय होकर स्थित हो गये। उसके अनन्तर शिवजीने वीरकको सेनापति बनाकर थके वाहनवाले उन देवताओं एवं युद्धमें निश्चित विजय पानेवाले प्रधान वीरोंको भेजा। महेश्वरके द्वारा भेजे गये उन सभी देवगणोंने उस गिलसहित दैत्यराजकी सेनाके साथ निरन्तर प्रलयकालके समान मर्यादाहीन घनघोर युद्ध किया। तब विघसने युद्ध करते हुए उन ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य एवं चन्द्रमाआदि समस्त देवोंको क्रोधपूर्वक निगल लिया। इस प्रकार विघसके द्वारा अपनी समस्त सेनाके निगल लिये जानेपर केवल वीरक रह गया ॥ 4- 11 ॥

तब संग्रामभूमिको छोड़कर उस गुफामें प्रवेश करके सिर झुकाकर कामशत्रु शिवजीको प्रणाम करके वक्ताओंमें श्रेष्ठ वह वीरक दुखी होकर उनसे सारा वृत्तान्त कहने लगा। हे भगवन्! विघस दैत्यने आपकी सारी सेना निगल ली। वह त्रिलोकगुरु दैत्यविनाशक भगवान् विष्णुको निगल गया। उसने सूर्य तथा चन्द्रमाको, वरदायक ब्रह्मा तथा इन्द्रको निगल लिया। वह यम, वरुण, पवन एवं कुबेर आदिको भी निगल गया ।। 12-13 ॥

केवल मैं ही अकेला रह गया हूँ, मुझे अब क्या करना है। वह अजेय दैत्यपति सेनासहित प्रसन्नचित्त है। मैं भयभीत होकर वायुके समान वेगवान् होकर आप अजेयके पास आया हूँ। भगवान् विष्णुने अपना मुख फैलाकर कश्यपपुत्र हिरण्यकशिपुको अपने तीव्र नखोंसे विदीर्ण किया था, वे भक्तोंके वशीभूत हो त्रिलोकीके कण्टकोंका नाश करनेमें प्रवृत्त रहते हैं ॥ 14-15 ।। पूर्वकालमें उन्हें वसिष्ठादि लोकरक्षक सप्तर्षियोंने शाप दिया था कि तुम दैत्योंके साथ चिरकालपर्यन्त युद्ध करते हुए उनके द्वारा निगल लिये जाओगे ॥ 16 ॥

इसके बाद जब विष्णुने विनम्र होकर मुनियोंसे प्रार्थना की कि हे मुनिगणो! इस घोर शापसे मेरा छुटकारा कैसे होगा ? तब क्रुद्ध हुए उन मुनिगणोंने कहा- युद्धकालमें जब घोर बाणोंकी वर्षाकर विघस नामक दैत्य तुम्हें निगल लेगा, तब तुम अपने घूसोंसे उसके मुखपर प्रहारकर निकलोगे ॥ 17 ॥

तत्पश्चात् पुण्याश्रम बदरीवन नामक हरिगृहमें जब तुम अवतार लोगे, तब शापरहित हो अपने परमात्मा रूपमें अवस्थित हो जाओगे। तभीसे वह गिल नामक दैत्य प्रतिदिन भूखा रहकर बड़ी प्रसन्नताके साथ युद्धस्थलमें घूमता रहता था। जिस प्रकार जगत्को प्रकाशित करनेवाले सूर्य एवं चन्द्रमासे राहु शत्रुता करता है, उसी प्रकार देवताओंके परम शत्रु शुक्राचार्य देवोंके द्वारा मारे गये सभी दैत्योंको संजीवनी विद्याके स्तुतिपदोंसेप्रणरहितकर जीवित कर देते हैं। आपको तथा मुझे युद्धस्थलमें भले ही प्राण त्याग करना पड़े, किंतु अब आप ही इस युद्धमें प्रमाण हैं और आप ही इस कार्यको सँभालें ।। 18-20 ॥

सनत्कुमार बोले- त्रिभुवनपति प्रमथपति सदाशिव पुत्र वीरककी बात सुनकर बहुत कुपित हुए और देरतक विचार करते रहे, तदनन्तर उन्होंने सूर्यके समान देदीप्यमान अपने शरीरसे उत्तम सामवेदका गान किया और बड़ा अट्टहास किया, जिससे समस्त अन्धकार दूर हो गया ॥ 21 ॥

तब इस लोकमें प्रकाश हो जानेपर वीरक मुनिने रणमें विकृत मुखवाले दैत्योंके साथ पुनः महायुद्ध किया। शिलाद मुनिने पत्थरका चूर्ण खाकर जिन नन्दीश्वरको उत्पन्न किया था तथा जिन्होंने त्रिपुरको भी पूर्वकालमें जीत लिया था, उन नन्दीने घनघोर युद्ध प्रारम्भ कर दिया ॥ 22 ॥

नन्दीको भी उस राक्षसने निगल लिया। ऐसा देखकर योद्धाओं एवं मुनियोंमें अग्रगण्य तथा सभी विद्याओंके निवास, शमदम-धैर्यादि गुणोंसे युक्त स्वयं कपर्दी महारुद्र वृषभपर सवार हो निगले हुए देवगणोंको उगलवा देनेवाले दिव्य मन्त्रका जप करते हुए तीक्ष्ण बाण, शूल तथा खड्ग लेकर युद्धके लिये उस राक्षसके सम्मुख उपस्थित हुए। इतनेमें महावीर वीरक सभीको लेकर उस विघस राक्षसके मुखसे निकले। इसी प्रकार विष्णु, ब्रह्मा, इन्द्र, चन्द्रमा, सूर्य आदि सभी निकल आये तब उनकी सेना प्रसन्न होकर पुनः युद्ध करने लगी । ll 23-25 ॥

उस सेनाके जीत लेनेपर देवगणोंके द्वारा मारे गये समस्त दैत्योंको शुक्राचार्य अपनी संजीवनी विद्याके बलसे पुनः जीवित करने लगे। तब गणोंने शुक्राचार्यको पशुके समान बाँधकर शिवजीके समीप उपस्थित किया और त्रिपुरारि शिवजीने उन दानवगुरुको निगल लिया ॥ 26 ॥

इस प्रकार शुक्राचार्यके विनष्ट हो जानेपर देवताओंने सारी दैत्यसेनाको जीत लिया, विध्वस्त कर दिया और पूर्णरूपसे कुचल डाला। उस समय दैत्योंके शरीरको उत्साहपूर्वक खानेवाले भूतगणोंसेएवं तीक्ष्ण बाण तथा शक्ति हाथमें लिये नाचते हुए सिरकटे दैत्योंके धड़ोंसे सारी रणभूमि व्याप्त हो गयी। प्रमत्त वेतालों, अत्यन्त दृढ़ चोंच एवं पंजेवाले पक्षियों एवं नाना प्रकारके भेड़ियोंने मेरे हुए राक्षसोंके मांसको अपने मुखमें रखकर आनन्दसे भक्षण करना प्रारम्भ कर दिया। इस प्रकार हिरण्यकशिपुके वंशमें उत्पन्न हुआ वह दैत्यराज चिरकालपर्यन्त युद्ध करके विष्णु, महेन्द्र एवं शिवसे जीत लिया गया ।। 27-28 ll

पराजित होनेपर उस दैत्यकी सारी सेना पातालमें, पर्वतोंकी गुफाओंमें एवं समुद्रमें छिप गयी। अपनी सारी सेनाके क्षीण हो जानेपर दैत्यश्रेष्ठ अन्धक, जो क्रुद्ध होनेपर न केवल देवताओं, अपितु विश्वका नाश करनेमें समर्थ था, उसका विष्णुने गदाके भयंकर प्रहारोंसे मद चूर-चूर कर दिया ll 29 ॥

उसने युद्धभूमिका परित्याग नहीं किया; क्योंकि उसे ब्रह्माजीका वरदान प्राप्त था। उसके बाद इन्द्रके घोर अस्त्रोंसे पीड़ित हुआ वह दैत्य अपने शस्त्रास्त्रसमूहों, वृक्षों, पर्वतों एवं जलके प्रहारोंसे देवताओंको शीघ्र जीतकर जोरसे गर्जना करते हुए प्रमथपति शिवको संकेतोंके द्वारा बुलाकर युद्धभूमिमें गिरे हुए अनेक प्रकारके शस्त्रोंसे युद्ध करता हुआ स्थित रहा। उन सबके समाप्त हो जानेपर वह वृक्षों, सर्पों, कनके समान शस्त्रोंद्वारा तथा शम्बरकी सैकड़ों माया एवं कपट रचनाद्वारा गिरिजा एवं महादेवको पीड़ा पहुँचाने लगा ll 30-31 ll

शंकरके समान महावीर, देवताओंसे अवध्य, महासत्त्वसम्पन्न, मतिमान्, सैकड़ों वरदान पानेसे उन्मत्त हुए दैत्य अन्धकने शंकरको जीतनेके लिये एक और माया की, यद्यपि उसका शरीर देवताओंके शस्त्रास्त्रोंके द्वारा जर्जर हो उठा था उसकी मायाके प्रभावसे, उसके गिरे हुए रक्त-बिन्दुओंसे अनेक | विकृतवदन अन्धकगण रणभूमिमें व्याप्त हो गये। तब प्रलयकालीन अग्निके समान शरीर धारण करनेवाले त्रिपुरारि सदाशिवने अपने त्रिशूलसे उन दैत्योंका भेदन प्रारम्भ किया ।। 32-33 ॥इस प्रकार शिवजीके त्रिशूलके प्रहारके आघातसे मांस विदीर्ण हो जानेके कारण प्रवाहित रक्तबिन्दुओंसे अनेक अन्धक उत्पन्न होने लगे। तब महाबुद्धिमान् विष्णुने शंकरजीको बुलाकर योगद्वारा अत्यन्त विकृत मुखवाला, उग्र, अजेय, कराल तथा अत्यन्त शुष्क स्त्रीका रूप धारण कर लिया। अनेक भुजाओंसे युक्त तथा कुपित भगवान् विष्णु उस युद्धस्थलमें शंकरजीके कानसे प्रकट हुए। ll 34-35 ।।

युद्धभूमिमें उत्पन्न हुई वे देवी अपने युगलचरणोंसे पृथ्वीको सुशोभित करने लगीं। सभी देवगण उनकी स्तुति करने लगे। उसके बाद शंकरजीको प्रेरणासे क्षुधासे व्याकुल वे देवी मांसकी कीचसे युक्त उस रणभूमिमें दैत्यपतिके शरीरसे निकले हुए उष्ण रुधिरका पान करने लगीं ॥ 36 ll

इस प्रकार रक्तके सूख जानेपर वह दैत्य अकेला होनेपर भी अपने कुल क्रमागत सनातन क्षात्रधर्मका | स्मरण करता हुआ अपने वज्रके समान घूँसों, जानु, चरणों, नखों भुजाओं तथा सिरके द्वारा शंकरसे युद्ध करता रहा ।। 37 ॥

[इस प्रकार युद्धकर ] तब वह रणमें शान्त हो गया, बादमें क्रुद्ध हुए शिवजीने अपने त्रिशूलसे उसका हृदय विदीर्ण कर दिया और स्थाणुके समान उसके ठूंठ शरीरको त्रिशूलपर टाँगकर आकाशमें उठा लिया उसका शरीर सूर्यके तापसे सूखने लगा, पवनप्रेरित जलपूर्ण बादलोंने उसके शरीरको गीला कर दिया और उसका सारा शरीर जीर्ण-शीर्ण हो गया ll 38 ॥

सूर्यकी किरणोंसे सन्तप्त, हिमखण्डोंसे खण्डित होनेपर भी उस दैत्यराजने प्राण त्याग नहीं किया और वह भगवान् शंकरकी निरन्तर स्तुति करता रहा। यह देखकर करुणासागर परम दयालु भगवान् शंकरने उसकी स्तुति से प्रसन्न होकर उसे गाणपत्यपद प्रदान किया ।। 39 ।।

उस समय युद्धके अन्तमें भुवनपति श्रीहरि ब्रह्मा तथा समस्त देवताओंने शंकरजीकी विधिपूर्वक पूजाकर कंधा झुकाकर मनोहर एवं सारगर्भित स्तुतियोंसे उनकी स्तुति की तथा प्रसन्न होकर उनकी जय जयकार करके वे सुखी हो गये। तत्पश्चात् भगवान्भूतपति नाना प्रकारकी सामग्रीसे पूजित देवगणोंको सत्कारसहित विदाकर पार्वतीके साथ प्रसन्न हो गुहामें क्रीड़ा करने लगे। उस समय वे घोर विघसके मुखसे पापरहित पुत्र वीरकके निकल जानेसे बड़े ही प्रसन्न हो रहे थे । ll 40-41 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] तारकासुरके पुत्र तारकाक्ष, विद्युन्माली एवं कमलाक्षकी तपस्यासे प्रसन्न ब्रह्माद्वारा उन्हें वरकी प्राप्ति, तीनों पुरोंकी शोभाका वर्णन
  2. [अध्याय 2] तारकपुत्रोंसे पीड़ित देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और उनके परामर्शके अनुसार असुर- वधके लिये भगवान् शंकरकी स्तुति करना
  3. [अध्याय 3] त्रिपुरके विनाशके लिये देवताओंका विष्णुसे निवेदन करना, विष्णुद्वारा त्रिपुरविनाशके लिये यज्ञकुण्डसे भूतसमुदायको प्रकट करना, त्रिपुरके भयसे भूतोंका पलायित होना, पुनः विष्णुद्वारा देवकार्यकी सिद्धिके लिये उपाय सोचना
  4. [अध्याय 4] त्रिपुरवासी दैत्योंको मोहित करनेके लिये भगवान् विष्णुद्वारा एक मुनिरूप पुरुषकी उत्पत्ति, उसकी सहायताके लिये नारदजीका त्रिपुरमें गमन, त्रिपुराधिपका दीक्षा ग्रहण करना
  5. [अध्याय 5] मायावी यतिद्वारा अपने धर्मका उपदेश, त्रिपुरवासियोंका उसे स्वीकार करना, वेदधर्मके नष्ट हो जानेसे त्रिपुरमें अधर्माचरणकी प्रवृत्ति
  6. [अध्याय 6] त्रिपुरध्वंसके लिये देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  7. [अध्याय 7] भगवान् शिवकी प्रसन्नताके लिये देवताओंद्वारा मन्त्रजप, शिवका प्राकट्य तथा त्रिपुर- विनाशके लिये दिव्य रथ आदिके निर्माणके लिये विष्णुजीसे कहना
  8. [अध्याय 8] विश्वकर्माद्वारा निर्मित सर्वदेवमय दिव्य रथका वर्णन
  9. [अध्याय 9] ब्रह्माजीको सारथी बनाकर भगवान् शंकरका दिव्य रथमें आरूढ़ होकर अपने गणों तथा देवसेनाके साथ त्रिपुर- वधके लिये प्रस्थान, शिवका पशुपति नाम पड़नेका कारण
  10. [अध्याय 10] भगवान् शिवका त्रिपुरपर सन्धान करना, गणेशजीका विघ्न उपस्थित करना, आकाशवाणीद्वारा बोधित होनेपर शिवद्वारा विघ्ननाशक गणेशका पूजन, अभिजित् मुहूर्तमें तीनों पुरोंका एकत्र होना और शिवद्वारा बाणाग्निसे सम्पूर्ण त्रिपुरको भस्म करना, मयदानवका बचा रहना
  11. [अध्याय 11] त्रिपुरदाहके अनन्तर भगवान् शिवके रौद्ररूपसे भयभीत देवताओं द्वारा उनकी स्तुति और उनसे भक्तिका वरदान प्राप्त करना
  12. [अध्याय 12] त्रिपुरदाहके अनन्तर शिवभक्त मयदानवका भगवान् शिवकी शरणमें आना, शिवद्वारा उसे अपनी भक्ति प्रदानकर वितललोकमें निवास करनेकी आज्ञा देना, देवकार्य सम्पन्नकर शिवजीका अपने लोकमें जाना
  13. [अध्याय 13] बृहस्पति तथा इन्द्रका शिवदर्शन के लिये कैलासकी ओर प्रस्थान, सर्वज्ञ शिवका उनकी परीक्षा लेनेके लिये दिगम्बर जटाधारी रूप धारणकर मार्ग रोकना, कुद्ध इन्द्रद्वारा उनपर वज्रप्रहारकी चेष्टा, शंकरद्वारा उनकी भुजाको स्तम्भित कर देना, बृहस्पतिद्वारा उनकी स्तुति, शिवका प्रसन्न होना और अपनी नेत्राग्निको क्षार-समुद्रमें फेंकना
  14. [अध्याय 14] क्षारसमुद्रमें प्रक्षिप्त भगवान् शंकरकी नेत्राग्निसे समुद्रके पुत्रके रूपमें जलन्धरका प्राकट्य, कालनेमिकी पुत्री वृन्दाके साथ उसका विवाह
  15. [अध्याय 15] राहुके शिरश्छेद तथा समुद्रमन्थनके समयके देवताओंके छलको जानकर जलन्धरद्वारा क्रुद्ध होकर स्वर्गपर आक्रमण, इन्द्रादि देवोंकी पराजय, अमरावतीपर जलन्धरका आधिपत्य, भयभीत देवताओंका सुमेरुकी गुफामें छिपना
  16. [अध्याय 16] जलन्धरसे भयभीत देवताओंका विष्णुके समीप जाकर स्तुति करना, विष्णुसहित देवताओंका जलन्धरकी सेनाके साथ भयंकर युद्ध
  17. [अध्याय 17] विष्णु और जलन्धरके युद्धमें जलन्धरके पराक्रमसे सन्तुष्ट विष्णुका देवों एवं लक्ष्मीसहित उसके नगरमें निवास करना
  18. [अध्याय 18] जलन्धरके आधिपत्यमें रहनेवाले दुखी देवताओंद्वारा शंकरकी स्तुति, शंकरजीका देवर्षि नारदको जलन्धरके पास भेजना, वहाँ देवोंको आश्वस्त करके नारदजीका जलन्धरकी सभा में जाना, उसके ऐश्वर्यको देखना तथा पार्वतीके सौन्दर्यका वर्णनकर उसे प्राप्त करनेके लिये
  19. [अध्याय 19] पार्वतीको प्राप्त करनेके लिये जलन्धरका शंकरके पास दूतप्रेषण, उसके वचनसे उत्पन्न क्रोधसे शम्भुके भ्रूमध्यसे एक भयंकर पुरुषकी उत्पत्ति, उससे भयभीत जलन्धरके दूतका पलायन, उस पुरुषका कीर्तिमुख नामसे शिवगण
  20. [अध्याय 20] दूतके द्वारा कैलासका वृत्तान्त जानकर जलन्धरका अपनी सेनाको युद्धका आदेश देना, भयभीत देवोंका शिवकी शरणमें जाना, शिवगणों तथा जलन्धरकी सेनाका युद्ध, शिवद्वारा कृत्याको उत्पन्न करना, कृत्याद्वारा शुक्राचार्यको छिपा लेना
  21. [अध्याय 21] नन्दी, गणेश, कार्तिकेय आदि शिवगणोंका कालनेमि, शुम्भ तथा निशुम्भ के साथ घोर संग्राम, वीरभद्र तथा जलन्धरका युद्ध, भयाकुल शिवगणोंका शिवजीको सारा वृत्तान्त बताना
  22. [अध्याय 22] श्रीशिव और जलन्धरका युद्ध, जलन्धरद्वारा गान्धर्वी मायासे शिवको मोहितकर शीघ्र ही पार्वतीके पास पहुँचना, उसकी मायाको जानकर पार्वतीका अदृश्य हो जाना और भगवान् विष्णुको जलन्धरपत्नी वृन्दाके पास जानेके लिये कहना
  23. [अध्याय 23] विष्णुद्वारा माया उत्पन्नकर वृन्दाको स्वप्नके माध्यमसे मोहित करना और स्वयं जलन्धरका रूप धारणकर वृन्दाके पातिव्रतका हरण करना, वृन्दाद्वारा विष्णुको शाप देना तथा वृन्दाके तेजका पार्वतीमें विलीन होना
  24. [अध्याय 24] दैत्यराज जलन्धर तथा भगवान् शिवका घोर संग्राम, भगवान् शिवद्वारा चक्रसे जलन्धरका शिरश्छेदन, जलन्धरका तेज शिवमें प्रविष्ट होना, जलन्धर- वधसे जगत्में सर्वत्र शान्तिका विस्तार
  25. [अध्याय 25] जलन्धरवधसे प्रसन्न देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  26. [अध्याय 26] विष्णुजीके मोहभंगके लिये शंकरजीकी प्रेरणासे देवोंद्वारा मूलप्रकृतिकी स्तुति मूलप्रकृतिद्वारा आकाशवाणीके रूपमें देवोंको आश्वासन, देवताओंद्वारा त्रिगुणात्मिका देवियोंका स्तवन, विष्णुका मोहनाश, धात्री (आँवला), मालती तथा तुलसीकी उत्पत्तिका आख्यान
  27. [अध्याय 27] शंखचूडकी उत्पत्तिकी कथा
  28. [अध्याय 28] शंखचूडकी पुष्कर - क्षेत्रमें तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरकी प्राप्ति, ब्रह्माकी प्रेरणासे शंखचूडका तुलसीसे विवाह
  29. [अध्याय 29] शंखचूडका राज्यपदपर अभिषेक, उसके द्वारा देवोंपर विजय, दुखी देवोंका ब्रह्माजीके साथ वैकुण्ठगमन, विष्णुद्वारा शंखचूडके पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना और विष्णु तथा ब्रह्माका शिवलोक गमन
  30. [अध्याय 30] ब्रह्मा तथा विष्णुका शिवलोक पहुँचना, शिवलोककी तथा शिवसभाकी शोभाका वर्णन, शिवसभाके मध्य उन्हें अम्बासहित भगवान् शिवके दिव्यस्वरूपका दर्शन और शंखचूडसे प्राप्त कष्टोंसे मुक्ति के लिये प्रार्थना
  31. [अध्याय 31] शिवद्वारा ब्रह्मा-विष्णुको शंखचूडका पूर्ववृत्तान्त बताना और देवोंको शंखचूडवथका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] भगवान् शिक्के द्वारा शंखचूडको समझानेके लिये गन्धर्वराज चित्ररथ (पुष्पदन्त ) को दूतके रूपमें भेजना, शंखचूडद्वारा सन्देशकी अवहेलना और युद्ध करनेका अपना निश्चय बताना, पुष्पदन्तका वापस आकर सारा वृत्तान्त शिवसे निवेदित करना
  33. [अध्याय 33] शंखचूडसे युद्धके लिये अपने गणोंके साथ भगवान् शिवका प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] तुलसीसे विदा लेकर शंखचूडका युद्धके लिये ससैन्य पुष्पभद्रा नदीके तटपर पहुँचना
  35. [अध्याय 35] शंखचूडका अपने एक बुद्धिमान् दूतको शंकरके पास भेजना, दूत तथा शिवकी वार्ता, शंकरका सन्देश लेकर दूतका वापस शंखचूडके पास आना
  36. [अध्याय 36] शंखचूडको उद्देश्यकर देवताओंका दानवोंके साथ महासंग्राम
  37. [अध्याय 37] शंखचूडके साथ कार्तिकेय आदि महावीरोंका युद्ध
  38. [अध्याय 38] श्रीकालीका शंखचूडके साथ महान् युद्ध, आकाशवाणी सुनकर कालीका शिवके पास आकर युद्धका वृत्तान्त बताना
  39. [अध्याय 39] शिव और शंखमूहके महाभयंकर युद्ध शंखचूडके सैनिकोंके संहारका वर्णन
  40. [अध्याय 40] शिव और शंखचूडका युद्ध, आकाशवाणीद्वारा शंकरको युद्धसे विरत करना, विष्णुका ब्राह्मणरूप धारणकर शंखचूडका कवच माँगना, कवचहीन शंखचूडका भगवान् शिवद्वारा वध, सर्वत्र हर्षोल्लास
  41. [अध्याय 41] शंखचूडका रूप धारणकर भगवान् विष्णुद्वारा तुलसीके शीलका हरण, तुलसीद्वारा विष्णुको पाषाण होनेका शाप देना, शंकरजीद्वारा तुलसीको सान्त्वना, शंख, तुलसी, गण्डकी एवं शालग्रामकी उत्पत्ति तथा माहात्म्यकी कथा
  42. [अध्याय 42] अन्धकासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवके वरदानसे हिरण्याक्षद्वारा अन्धकको पुत्ररूपमें प्राप्त करना, हिरण्याक्षद्वारा पृथ्वीको पाताललोकमें ले जाना, भगवान् विष्णुद्वारा वाराहरूप धारणकर हिरण्याक्षका वधकर पृथ्वीको यथास्थान स्थापित करना
  43. [अध्याय 43] हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्मासे वरदान पाकर उसका अत्याचार, भगवान् नृसिंहद्वारा उसका वध और प्रह्लादको राज्यप्राप्ति
  44. [अध्याय 44] अन्धकासुरकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे अनेक वरोंकी प्राप्ति, त्रिलोकीको जीतकर उसका स्वेच्छाचारमें प्रवृत्त होना, मन्त्रियोंद्वारा पार्वतीके सौन्दर्यको सुनकर मुग्ध हो शिवके पास सन्देश भेजना और शिवका उत्तर सुनकर
  45. [अध्याय 45] अन्धकासुरका शिवकी सेनाके साथ युद्ध
  46. [अध्याय 46] भगवान् शिव एवं अन्धकासुरका युद्ध, अन्धककी मायासे उसके रक्तसे अनेक अन्धकगणोंकी उत्पत्ति, शिवकी प्रेरणासे विष्णुका कालीरूप धारणकर दानवोंके रक्तका पान करना, शिवद्वारा अन्धकको अपने त्रिशूलमें लटका लेना, अन्धककी स्तुतिसे प्रसन्न हो शिवद्वारा उसे गाणपत्य पद प्रदान करना
  47. [अध्याय 47] शुक्राचार्यद्वारा युद्धमें मरे हुए दैत्योंको संजीवनी विद्यासे जीवित करना, दैत्योंका युद्धके लिये पुनः उद्योग, नन्दीश्वरद्वारा शिवको यह वृत्तान्त बतलाना, शिवकी आज्ञासे नन्दीद्वारा युद्ध-स्थलसे शुक्राचार्यको शिवके पास लाना, शिवद्वारा शुक्राचार्यको निगलना
  48. [अध्याय 48] शुक्राचार्यकी अनुपस्थितिसे अन्धकादि दैत्योंका दुखी होना, शिवके उदरमें शुक्राचार्यद्वारा सभी लोकों तथा अन्धकासुरके युद्धको देखना और फिर शिवके शुकरूपमें बाहर निकलना, शिव-पार्वतीका उन्हें पुत्ररूपमें स्वीकारकर विदा करना
  49. [अध्याय 49] शुक्राचार्यद्वारा शिवके उदरमें जपे गये मन्त्रका वर्णन, अन्धकद्वारा भगवान् शिवकी नामरूपी स्तुति प्रार्थना, भगवान् शिवद्वारा अन्धकासुरको जीवनदानपूर्वक गाणपत्य पद प्रदान करना
  50. [अध्याय 50] शुक्राचार्यद्वारा काशीमें शुक्रेश्वर लिंगकी स्थापनाकर उनकी आराधना करना, मूर्त्यष्टक स्तोत्रसे उनका स्तवन, शिवजीका प्रसन्न होकर उन्हें मृतसंजीवनी विद्या प्रदान करना और ग्रहोंके मध्य प्रतिष्ठित करना
  51. [अध्याय 51] प्रह्लादकी वंशपरम्परामें बलिपुत्र वाणासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवभक्त बाणासुरद्वारा ताण्डव नृत्यके प्रदर्शनसे शंकरको प्रसन्न करना, वरदानके रूपमें शंकरका बाणासुरकी नगरीमें निवास करना, शिव-पार्वतीका बिहार, पार्वतीद्वारा बाणपुत्री ऊषाको वरदान
  52. [अध्याय 52] अभिमानी बाणासुरद्वारा भगवान् शिवसे युद्धकी याचना, बाणपुत्री ऊषाका रात्रिके समय स्वप्नमें अनिरुद्ध के साथ मिलन, चित्रलेखाद्वारा योगबलसे अनिरुद्धका द्वारकासे अपहरण, अन्तःपुरमें अनिरुद्ध और ऊषाका मिलन तथा द्वारपालोंद्वारा यह समाचार बाणासुरको बताना
  53. [अध्याय 53] क्रुद्ध बाणासुरका अपनी सेनाके साथ अनिरुद्धपर आक्रमण और उसे नागपाशमें बांधना, दुर्गाके स्तवनद्वारा अनिरुद्धका बन्धनमुक्त होना
  54. [अध्याय 54] नारदजीद्वारा अनिरुद्धके बन्धनका समाचार पाकर श्रीकृष्णकी शोणितपुरपर चढ़ाई, शिवके साथ उनका घोर युद्ध, शिवकी आज्ञासे श्रीकृष्णका उन्हें जृम्भणास्त्रसे मोहित करके बाणासुरकी सेनाका संहार करना
  55. [अध्याय 55] भगवान् कृष्ण तथा बाणासुरका संग्राम, श्रीकृष्णद्वारा बाणकी भुजाओंका काटा जाना, सिर काटनेके लिये उद्यत हुए श्रीकृष्णको शिवका रोकना और उन्हें समझाना, बाणका गर्वापहरण, श्रीकृष्ण और बाणासुरकी मित्रता, ऊषा अनिरुद्धको लेकर श्रीकृष्णका द्वारका आना
  56. [अध्याय 56] बाणासुरका ताण्डवनृत्यद्वारा भगवान् शिवको प्रसन्न करना, शिवद्वारा उसे अनेक मनोऽभिलषित वरदानोंकी प्राप्ति, बाणासुरकृत शिवस्तुति
  57. [अध्याय 57] महिषासुर के पुत्र गजासुरकी तपस्या तथा ब्रह्माद्वारा वरप्राप्ति, उन्मत्त गजासुरद्वारा अत्याचार, उसका काशीमें आना, देवताओंद्वारा भगवान् शिवसे उसके बधकी प्रार्थना, शिवद्वारा उसका वध और उसकी प्रार्थनासे उसका धर्म धारणकर 'कृत्तिवासा' नामसे विख्यात होना एवं कृत्तिवासेश्वर लिंगकी स्थापना करना
  58. [अध्याय 58] काशीके व्याघ्रेश्वर लिंग-माहात्म्यके सन्दर्भमें दैत्य दुन्दुभिनिर्ह्रादके वधकी कथा
  59. [अध्याय 59] काशीके कन्दुकेश्वर शिवलिंगके प्रादुर्भावमें पार्वतीद्वारा बिदल एवं उत्पल दैत्योंके वधकी कथा, रुद्रसंहिताका उपसंहार तथा इसका माहात्म्य