सनत्कुमार बोले- हे व्यास! शिवजीका अभिप्राय जानकर उस दैत्यराजने गदा लेकर देवगणोंसे सर्वथा अभेद्य गिल नामक दैत्यको आगेकर सेनाके सहित | शीघ्र शिवजीकी गुफाके दरवाजेपर पहुँचकर वज्रकेसमान तीखे शस्त्रोंसे प्रहार करना प्रारम्भ कर दिया, कुछ दैत्योंने वीरकपर और कुछ दैत्योंने पार्वतीपर शस्त्रोंसे प्रहार किया। कुछ दैत्योंने गुफाके मनोहर द्वारको तोड़ दिया, कुछने द्वारपर लगे पत्र, पुष्प, फल, मूल तथा मनोहर जल एवं उद्यानमार्गोको नष्ट कर दिया। कुछने प्रसन्न होकर पर्वतके दीप्तिमान् शिखरोंको तोड़ दिया ॥ 1-31/2 ॥
तदनन्तर त्रिशूलधारी शिवजीने कुपित होकर अपनी सेनाका, दारुण भूतगणोंका तथा सैन्यसहित विष्णु आदि देवगणोंका स्मरण किया। शिवजीके स्मरण करते ही रथ, गज, घोड़े, बैल, गाय, ऊँट, गधे, पक्षिगण, सिंह, व्याघ्र, मृग, सूकर, सारस, मीन, मत्स्य, शिशुमार, सर्प, सैकड़ों प्रेत-पिशाच, दिव्य विमान, तालाब, नदी, नद, पर्वत, वाहन एवं अन्य जीवोंके साथ समस्त देवता उपस्थित हो गये और हाथ जोड़कर शिवजीको प्रणामकर निर्भय होकर स्थित हो गये। उसके अनन्तर शिवजीने वीरकको सेनापति बनाकर थके वाहनवाले उन देवताओं एवं युद्धमें निश्चित विजय पानेवाले प्रधान वीरोंको भेजा। महेश्वरके द्वारा भेजे गये उन सभी देवगणोंने उस गिलसहित दैत्यराजकी सेनाके साथ निरन्तर प्रलयकालके समान मर्यादाहीन घनघोर युद्ध किया। तब विघसने युद्ध करते हुए उन ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य एवं चन्द्रमाआदि समस्त देवोंको क्रोधपूर्वक निगल लिया। इस प्रकार विघसके द्वारा अपनी समस्त सेनाके निगल लिये जानेपर केवल वीरक रह गया ॥ 4- 11 ॥
तब संग्रामभूमिको छोड़कर उस गुफामें प्रवेश करके सिर झुकाकर कामशत्रु शिवजीको प्रणाम करके वक्ताओंमें श्रेष्ठ वह वीरक दुखी होकर उनसे सारा वृत्तान्त कहने लगा। हे भगवन्! विघस दैत्यने आपकी सारी सेना निगल ली। वह त्रिलोकगुरु दैत्यविनाशक भगवान् विष्णुको निगल गया। उसने सूर्य तथा चन्द्रमाको, वरदायक ब्रह्मा तथा इन्द्रको निगल लिया। वह यम, वरुण, पवन एवं कुबेर आदिको भी निगल गया ।। 12-13 ॥
केवल मैं ही अकेला रह गया हूँ, मुझे अब क्या करना है। वह अजेय दैत्यपति सेनासहित प्रसन्नचित्त है। मैं भयभीत होकर वायुके समान वेगवान् होकर आप अजेयके पास आया हूँ। भगवान् विष्णुने अपना मुख फैलाकर कश्यपपुत्र हिरण्यकशिपुको अपने तीव्र नखोंसे विदीर्ण किया था, वे भक्तोंके वशीभूत हो त्रिलोकीके कण्टकोंका नाश करनेमें प्रवृत्त रहते हैं ॥ 14-15 ।। पूर्वकालमें उन्हें वसिष्ठादि लोकरक्षक सप्तर्षियोंने शाप दिया था कि तुम दैत्योंके साथ चिरकालपर्यन्त युद्ध करते हुए उनके द्वारा निगल लिये जाओगे ॥ 16 ॥
इसके बाद जब विष्णुने विनम्र होकर मुनियोंसे प्रार्थना की कि हे मुनिगणो! इस घोर शापसे मेरा छुटकारा कैसे होगा ? तब क्रुद्ध हुए उन मुनिगणोंने कहा- युद्धकालमें जब घोर बाणोंकी वर्षाकर विघस नामक दैत्य तुम्हें निगल लेगा, तब तुम अपने घूसोंसे उसके मुखपर प्रहारकर निकलोगे ॥ 17 ॥
तत्पश्चात् पुण्याश्रम बदरीवन नामक हरिगृहमें जब तुम अवतार लोगे, तब शापरहित हो अपने परमात्मा रूपमें अवस्थित हो जाओगे। तभीसे वह गिल नामक दैत्य प्रतिदिन भूखा रहकर बड़ी प्रसन्नताके साथ युद्धस्थलमें घूमता रहता था। जिस प्रकार जगत्को प्रकाशित करनेवाले सूर्य एवं चन्द्रमासे राहु शत्रुता करता है, उसी प्रकार देवताओंके परम शत्रु शुक्राचार्य देवोंके द्वारा मारे गये सभी दैत्योंको संजीवनी विद्याके स्तुतिपदोंसेप्रणरहितकर जीवित कर देते हैं। आपको तथा मुझे युद्धस्थलमें भले ही प्राण त्याग करना पड़े, किंतु अब आप ही इस युद्धमें प्रमाण हैं और आप ही इस कार्यको सँभालें ।। 18-20 ॥
सनत्कुमार बोले- त्रिभुवनपति प्रमथपति सदाशिव पुत्र वीरककी बात सुनकर बहुत कुपित हुए और देरतक विचार करते रहे, तदनन्तर उन्होंने सूर्यके समान देदीप्यमान अपने शरीरसे उत्तम सामवेदका गान किया और बड़ा अट्टहास किया, जिससे समस्त अन्धकार दूर हो गया ॥ 21 ॥
तब इस लोकमें प्रकाश हो जानेपर वीरक मुनिने रणमें विकृत मुखवाले दैत्योंके साथ पुनः महायुद्ध किया। शिलाद मुनिने पत्थरका चूर्ण खाकर जिन नन्दीश्वरको उत्पन्न किया था तथा जिन्होंने त्रिपुरको भी पूर्वकालमें जीत लिया था, उन नन्दीने घनघोर युद्ध प्रारम्भ कर दिया ॥ 22 ॥
नन्दीको भी उस राक्षसने निगल लिया। ऐसा देखकर योद्धाओं एवं मुनियोंमें अग्रगण्य तथा सभी विद्याओंके निवास, शमदम-धैर्यादि गुणोंसे युक्त स्वयं कपर्दी महारुद्र वृषभपर सवार हो निगले हुए देवगणोंको उगलवा देनेवाले दिव्य मन्त्रका जप करते हुए तीक्ष्ण बाण, शूल तथा खड्ग लेकर युद्धके लिये उस राक्षसके सम्मुख उपस्थित हुए। इतनेमें महावीर वीरक सभीको लेकर उस विघस राक्षसके मुखसे निकले। इसी प्रकार विष्णु, ब्रह्मा, इन्द्र, चन्द्रमा, सूर्य आदि सभी निकल आये तब उनकी सेना प्रसन्न होकर पुनः युद्ध करने लगी । ll 23-25 ॥
उस सेनाके जीत लेनेपर देवगणोंके द्वारा मारे गये समस्त दैत्योंको शुक्राचार्य अपनी संजीवनी विद्याके बलसे पुनः जीवित करने लगे। तब गणोंने शुक्राचार्यको पशुके समान बाँधकर शिवजीके समीप उपस्थित किया और त्रिपुरारि शिवजीने उन दानवगुरुको निगल लिया ॥ 26 ॥
इस प्रकार शुक्राचार्यके विनष्ट हो जानेपर देवताओंने सारी दैत्यसेनाको जीत लिया, विध्वस्त कर दिया और पूर्णरूपसे कुचल डाला। उस समय दैत्योंके शरीरको उत्साहपूर्वक खानेवाले भूतगणोंसेएवं तीक्ष्ण बाण तथा शक्ति हाथमें लिये नाचते हुए सिरकटे दैत्योंके धड़ोंसे सारी रणभूमि व्याप्त हो गयी। प्रमत्त वेतालों, अत्यन्त दृढ़ चोंच एवं पंजेवाले पक्षियों एवं नाना प्रकारके भेड़ियोंने मेरे हुए राक्षसोंके मांसको अपने मुखमें रखकर आनन्दसे भक्षण करना प्रारम्भ कर दिया। इस प्रकार हिरण्यकशिपुके वंशमें उत्पन्न हुआ वह दैत्यराज चिरकालपर्यन्त युद्ध करके विष्णु, महेन्द्र एवं शिवसे जीत लिया गया ।। 27-28 ll
पराजित होनेपर उस दैत्यकी सारी सेना पातालमें, पर्वतोंकी गुफाओंमें एवं समुद्रमें छिप गयी। अपनी सारी सेनाके क्षीण हो जानेपर दैत्यश्रेष्ठ अन्धक, जो क्रुद्ध होनेपर न केवल देवताओं, अपितु विश्वका नाश करनेमें समर्थ था, उसका विष्णुने गदाके भयंकर प्रहारोंसे मद चूर-चूर कर दिया ll 29 ॥
उसने युद्धभूमिका परित्याग नहीं किया; क्योंकि उसे ब्रह्माजीका वरदान प्राप्त था। उसके बाद इन्द्रके घोर अस्त्रोंसे पीड़ित हुआ वह दैत्य अपने शस्त्रास्त्रसमूहों, वृक्षों, पर्वतों एवं जलके प्रहारोंसे देवताओंको शीघ्र जीतकर जोरसे गर्जना करते हुए प्रमथपति शिवको संकेतोंके द्वारा बुलाकर युद्धभूमिमें गिरे हुए अनेक प्रकारके शस्त्रोंसे युद्ध करता हुआ स्थित रहा। उन सबके समाप्त हो जानेपर वह वृक्षों, सर्पों, कनके समान शस्त्रोंद्वारा तथा शम्बरकी सैकड़ों माया एवं कपट रचनाद्वारा गिरिजा एवं महादेवको पीड़ा पहुँचाने लगा ll 30-31 ll
शंकरके समान महावीर, देवताओंसे अवध्य, महासत्त्वसम्पन्न, मतिमान्, सैकड़ों वरदान पानेसे उन्मत्त हुए दैत्य अन्धकने शंकरको जीतनेके लिये एक और माया की, यद्यपि उसका शरीर देवताओंके शस्त्रास्त्रोंके द्वारा जर्जर हो उठा था उसकी मायाके प्रभावसे, उसके गिरे हुए रक्त-बिन्दुओंसे अनेक | विकृतवदन अन्धकगण रणभूमिमें व्याप्त हो गये। तब प्रलयकालीन अग्निके समान शरीर धारण करनेवाले त्रिपुरारि सदाशिवने अपने त्रिशूलसे उन दैत्योंका भेदन प्रारम्भ किया ।। 32-33 ॥इस प्रकार शिवजीके त्रिशूलके प्रहारके आघातसे मांस विदीर्ण हो जानेके कारण प्रवाहित रक्तबिन्दुओंसे अनेक अन्धक उत्पन्न होने लगे। तब महाबुद्धिमान् विष्णुने शंकरजीको बुलाकर योगद्वारा अत्यन्त विकृत मुखवाला, उग्र, अजेय, कराल तथा अत्यन्त शुष्क स्त्रीका रूप धारण कर लिया। अनेक भुजाओंसे युक्त तथा कुपित भगवान् विष्णु उस युद्धस्थलमें शंकरजीके कानसे प्रकट हुए। ll 34-35 ।।
युद्धभूमिमें उत्पन्न हुई वे देवी अपने युगलचरणोंसे पृथ्वीको सुशोभित करने लगीं। सभी देवगण उनकी स्तुति करने लगे। उसके बाद शंकरजीको प्रेरणासे क्षुधासे व्याकुल वे देवी मांसकी कीचसे युक्त उस रणभूमिमें दैत्यपतिके शरीरसे निकले हुए उष्ण रुधिरका पान करने लगीं ॥ 36 ll
इस प्रकार रक्तके सूख जानेपर वह दैत्य अकेला होनेपर भी अपने कुल क्रमागत सनातन क्षात्रधर्मका | स्मरण करता हुआ अपने वज्रके समान घूँसों, जानु, चरणों, नखों भुजाओं तथा सिरके द्वारा शंकरसे युद्ध करता रहा ।। 37 ॥
[इस प्रकार युद्धकर ] तब वह रणमें शान्त हो गया, बादमें क्रुद्ध हुए शिवजीने अपने त्रिशूलसे उसका हृदय विदीर्ण कर दिया और स्थाणुके समान उसके ठूंठ शरीरको त्रिशूलपर टाँगकर आकाशमें उठा लिया उसका शरीर सूर्यके तापसे सूखने लगा, पवनप्रेरित जलपूर्ण बादलोंने उसके शरीरको गीला कर दिया और उसका सारा शरीर जीर्ण-शीर्ण हो गया ll 38 ॥
सूर्यकी किरणोंसे सन्तप्त, हिमखण्डोंसे खण्डित होनेपर भी उस दैत्यराजने प्राण त्याग नहीं किया और वह भगवान् शंकरकी निरन्तर स्तुति करता रहा। यह देखकर करुणासागर परम दयालु भगवान् शंकरने उसकी स्तुति से प्रसन्न होकर उसे गाणपत्यपद प्रदान किया ।। 39 ।।
उस समय युद्धके अन्तमें भुवनपति श्रीहरि ब्रह्मा तथा समस्त देवताओंने शंकरजीकी विधिपूर्वक पूजाकर कंधा झुकाकर मनोहर एवं सारगर्भित स्तुतियोंसे उनकी स्तुति की तथा प्रसन्न होकर उनकी जय जयकार करके वे सुखी हो गये। तत्पश्चात् भगवान्भूतपति नाना प्रकारकी सामग्रीसे पूजित देवगणोंको सत्कारसहित विदाकर पार्वतीके साथ प्रसन्न हो गुहामें क्रीड़ा करने लगे। उस समय वे घोर विघसके मुखसे पापरहित पुत्र वीरकके निकल जानेसे बड़े ही प्रसन्न हो रहे थे । ll 40-41 ॥