ब्रह्माजी बोले- हिमालयकी वह लोकपूजित पुत्री पार्वती उनके परमें बढ़ती हुई जब आठ वर्षकी हो गयी, तब हे नारद! उसका जन्म [हिमालयके घरमें] जानकर सतीके विरहसे दुखी हुए शंकरजी सतीकी इस अद्भुत लीलासे मन-ही-मन अत्यन्त प्रसन्न हो उठे ॥ 1-2 ॥उसी समय लौकिक गतिका आश्रय लेकर शम्भुने अपने मनको एकाग्र करनेके लिये तप करनेका विचार किया ॥ 3 ॥
नन्दी आदि कुछ शान्त, श्रेष्ठ पार्षदोंको साथ लेकर वे हिमालयके गंगावतार नामक उत्तम शिखरपर गये, हे मुने जहाँ पूर्वकालमें ब्रह्मधामसे प्रवाहित होकर समस्त पापराशिका विनाश करनेके लिये परम पावनी गंगा गिरी थीं ॥। 4-5 ।।
जितेन्द्रिय हरने वहीं रहकर तपस्या आरम्भ की, वे आलस्यका त्यागकर चेतन, ज्ञानस्वरूप, नित्य, ज्योतिर्मय, निरामय, जगन्मय, चिदानन्दस्वरूप, द्वैतहीन तथा आश्रयरहित अपने आत्मभूत परमात्माका एकाग्रभावसे चिन्तन करने लगे ॥ 6-7 ॥
भगवान् हरके ध्यानपरायण होनेपर नन्दी, भृंगी आदि कुछ अन्य पार्षदगण भी ध्यानमें तत्पर हो गये ॥ 8 ॥
उस समय कुछ गण परमात्मा शम्भुकी सेवा करते थे और कुछ द्वारपाल हो गये। वे सब के सब मौन रहते थे और कुछ नहीं बोलते थे ॥ 9 ॥
इसी समय गिरिराज हिमालय उस औषधि शिखरपर भगवान् शंकरका आगमन सुनकर आदरपूर्वक वहाँ गये ॥ 10 ॥
अपने गणसहित गिरिराजने प्रभु रुद्रको प्रणाम उनकी पूजा की और अत्यन्त प्रसन्न हो हाथ जोड़कर [वे शिवजीकी] स्तुति करने लगे ॥ 11 ॥ हिमालय बोले- हे देवदेव! हे महादेव! हे किया, कपर्दिन्! हे प्रभो! हे शंकर! आप लोकनाथने ही तीनों लोकोंका पालन किया है ॥ 12 ॥
योगीरूप धारण करनेवाले हे देवदेवेश! आपको नमस्कार है, निर्गुण, सगुण तथा विहार करनेवाले आपको नमस्कार है। हे शम्भो ! आप कैलासवासी, सभी लोकोंमें विचरण करनेवाले, लीला करनेवाले, त्रिशूलधारी परमेश्वरको नमस्कार है। [सभी प्रकारसे ] परिपूर्ण गुणोंके आकर, विकाररहित, सर्वथा इच्छारहित होते हुए भी इच्छावाले तथा धैर्यवान् आप परमात्माको नमस्कार है ॥ 13-15 ॥हे जनवत्सल! हे त्रिगुणाधीश! हे मायापते। बाहरी भोगोंको ग्रहण न करनेवाले आप परब्रह्म | परमात्माको नमस्कार है। हे भक्तप्रिय ! आप ब्रह्मा, विष्णु आदिके द्वारा सेव्य, ब्रह्मा-विष्णुस्वरूप तथा विष्णु-ब्रह्माको सुख प्रदान करनेवाले हैं, आपको नमस्कार है ।। 16-17 ॥
हे तपोरत! हे तपः स्थान! आप उत्तम तपस्याका फल प्रदान करनेवाले, तपस्यासे प्रेम करनेवाले, शान्त तथा ब्रह्मस्वरूप हैं, आपको नमस्कार है ॥ 18 ॥ व्यवहार तथा लोकाचार करनेवाले आप सगुण, परेश परमात्माको नमस्कार है ॥ 19 ॥
हे महेश्वर! आपकी लीलाको कोई जान नहीं सकता और यह साधुओंको सुख देनेवाली है। आप भक्तोंके अधीन स्वरूपवाले तथा भक्तोंके वशमें होकर कर्म करनेवाले हैं ॥ 20 ॥
हे प्रभो ! मेरे भाग्यके उदय होनेसे ही आप यहाँ आये हैं। आपने मुझे सनाथ कर दिया, इसीलिये आप दीनवत्सल कहे गये हैं। आज मेरा जन्म सफल हो गया, मेरा जीवन सफल हो गया, आज मेरा सब कुछ सफल हो गया, जो आप यहाँ पधारे हैं ।। 21-22 ॥
हे महेश्वर! मुझे अपना दास समझकर निःसंकोच आज्ञा दीजिये, मैं अनन्य बुद्धि होकर बड़े प्रेमसे आपकी सेवा करूँगा ॥ 23 ॥
ब्रह्माजी बोले- [हे नारद!] गिरिराजका यह वचन सुनकर महेश्वरने थोड़ी-सी आँखें खोलकर सेकसहित हिमालयको देखा ह गिरिराजको [ उपस्थित] देखकर ध्यानयोगमें स्थित हुए जगदीश्वर वृषभध्वज मुसकराते हुए कहने लगे - ।। 24-25 ।।
महेश्वर बोले - [हे शैलराज!] मैं आपके शिखरपर एकान्तमें तपस्या करनेके लिये आया हूँ, आप ऐसा प्रबन्ध कीजिये, जिससे कोई भी मेरे निकट न आ सके ॥ 26 ॥
आप महात्मा, तपस्याके धाम तथा मुनियों, देवताओं, राक्षसों और अन्य महात्माओंको सदा आश्रय देनेवाले हैं 27 ॥आप द्विज आदिके सदा निवासस्थान, गंगासे सर्वदा पवित्र, दूसरोंका उपकार करनेवाले तथा सम्पूर्ण पर्वतोंके सामर्थ्यशाली राजा हैं। हे गिरिराज ! मैं चित्तको नियममें रखकर यहाँ गंगावतरणस्थलमें आपके आश्रित होकर बड़ी प्रसन्नताके साथ तपस्या | करूँगा ।। 28-29 ॥
हे शैलराज! हे गिरिश्रेष्ठ! जिस साधनसे यहाँ मेरी तपस्या बिना किसी विघ्नके हो सके, उसे इस समय आप सर्वथा यत्नपूर्वक कीजिये ॥ 30 ॥
हे पर्वतप्रवर ! मेरी यही सबसे बड़ी सेवा है, आप अपने घर जाइये और उसका उत्तम प्रीतिसे यत्नपूर्वक प्रबन्ध कीजिये ॥ 31 ॥
ब्रह्माजी बोले- [ हे नारद!] ऐसा कहकर सृष्टिकर्ता वे जगदीश्वर चुप हो गये, तब गिरिराजने शम्भुसे प्रेमपूर्वक यह बात कही-॥32॥
हिमालय बोले- हे जगन्नाथ! हे परमेश्वर। आज मैंने आपका स्वागतपूर्वक पूजन किया है, [यही मेरे लिये महान् सौभाग्यकी बात है।] अब मैं अपने देशमें उपस्थित आपसे क्या प्रार्थना करूँ ? ॥ 33 ॥ हे महेश्वर ! बड़े-बड़े यत्नका आश्रय ले लेनेवाले देवतालोग महान् तपके द्वारा भी आपको नहीं पाते, वे आप स्वयं उपस्थित हो गये हैं । 34 ॥
मुझसे बढ़कर कोई सौभाग्यशाली नहीं है और मुझसे बढ़कर कोई पुण्यात्मा नहीं है; जो आप मेरे पृष्ठभागपर तपस्याके लिये उपस्थित हुए हैं ॥ 35 ॥
हे परमेश्वर ! मैं अपनेको देवराज इन्द्रसे भी बढ़कर समझता हूँ; क्योंकि गणोंसहित आपने [यहाँ ] आकर मुझे अनुग्रहका भागी बना दिया ॥ 36 ॥
हे देवेश! आप स्वतन्त्र होकर बिना किसी विघ्नके उत्तम तपस्या कीजिये। हे प्रभो! मैं आपका दास हूँ, अतः सदा आपकी सेवा करूँगा ॥ 37 ॥ ब्रह्माजी बोले – [हे नारद!] ऐसा कहकर वे गिरिराज तुरंत अपने घर आ गये और उन्होंने अपनी प्रियाको बड़े आदरसे वह सारा वृत्तान्त सुनाया ll 38 ll तत्पश्चात् शैलराज साथ जानेवाले परिजनोंको तथा अपने समस्त गणको बुलाकर उनसे भलीभाँति कहने लगे- ॥39॥हिमालय बोले- मेरी आज्ञासे आजसे कोई भी गंगावतरण नामक मेरे शिखरपर न जाय, यह मैं सत्य कह रहा हूँ। यदि कोई व्यक्ति वहाँ जायगा तो मैं उस महादुष्टको विशेष रूपसे दण्ड दूँगा, यह मैंने सत्य कहा है ।। 40-41 ॥
हेमुने! इस प्रकार अपने समस्त गणोंको शीघ्र ही नियन्त्रित करके हिमवान्ने [विघ्ननिवारणके लिये ] जो सुन्दर प्रयत्न किया, उसे आपको बता रहा हूँ, | आप सुनिये ॥ 42 ॥