सनत्कुमार बोले [हे व्यासजी!] इसके बाद महादेव शम्भु सम्पूर्ण सामग्रियोंसे युक्त हो उस रथपर बैठकर दैत्योंके सम्पूर्ण त्रिपुरको दग्ध करनेके लिये उद्यत हुए। उस रथके शीर्ष स्थानपर स्थित हो वे धनुषको चढ़ाकर उसपर उत्तम बाण सन्धानकर अत्यन्त अद्भुत प्रत्यालीढ आसनमें स्थित होकर दृढमुष्टिमें धनुषको पकड़कर अपनी दृष्टिमें दृष्टि डालकर निश्चल हो सौ हजार वर्षपर्यन्त वहाँ स्थित रहे। उस समय वे गणेशजी उन शिवजीके अँगूठेपर स्थिर हो निरन्तर उन्हें पीड़ित करने लगे, जिससे उनके लक्ष्यमें त्रिपुर दिखायी न पड़े ॥ 14॥तब मुंजकेश, विरूपाक्ष तथा धनुष- - बाणधारी शंकरने यह अत्यन्त मनोहर आकाशवाणी सुनी। हे जगदीश! हे ईश! हे भगवन्! जबतक आप इन गणेशजीका पूजन नहीं करेंगे, तबतक आप त्रिपुरका नाश नहीं कर सकेंगे ।। 5-6 ।।
तदनन्तर यह वचन सुनकर अन्धकका वध करनेवाले सदाशिवने भद्रकालीको बुलाकर गणेशजीकी पूजा की ॥ 7 ॥
पूजासे उन गणेश प्रसन्न हो जानेपर भगवान् शिवने आकाशमें स्वयं अपने आगे उन महात्मा दैत्य तारकपुत्रोंके तीनों पुरोंको देखा, जो यथायोग्य एक दूसरेसे युक्त थे। इस विषयमें कोई ऐसा कहते हैं कि परब्रह्म देवेश परमेश्वर तो सबके पूजनीय हैं, फिर उनके कार्यकी सिद्धि दूसरोंकी प्रसन्नतासे हो, यह तो उनके लिये उचित नहीं प्रतीत होता ॥ 8-10 ॥
वे परब्रह्म, स्वतन्त्र, सगुण, निर्गुण, परमात्मा तथा मायासे रहित एवं सभीसे अलक्ष्य हैं। वे परम प्रभु पंचदेवात्मक तथा पंचदेवोंके उपास्य हैं। उनका कोई भी उपास्य नहीं है, वे ही सबके उपास्य हैं। अथवा हे मुने। सबको वर देनेवाले उन देवाधिदेव महेश्वरकी लीलासे सभी चरित सम्भव हैं ॥ 11-13 ॥
जब महादेवजी गणेशका पूजनकर स्थित हो गये, उसी समय वे तीनों पुर शीघ्र ही एकमें मिल गये ॥ 14 ॥ हे मुने! इस प्रकार त्रिपुरके एक साथ मिल जानेपर देवताओं तथा महात्माओंको बड़ी प्रसन्नता हुई ।। 15 ।। तत्पश्चात् समस्त देवगण, महर्षि एवं सिद्धगण महादेवजीकी स्तुति करते हुए उनकी जय-जयकार करने लगे ॥ 16 ॥
इसके बाद जगत्पति ब्रह्मा तथा विष्णुने कहा हे महेश्वर! अब इन दैत्य तारकपुत्रोंके वधकार्यका समय उपस्थित हो गया है। हे विभो ! आप देवकार्य सम्पन्न कीजिये क्योंकि इनके तीनों पुर एक स्थानमें आ गये हैं। हे देवेश ! जबतक ये पुर एक-दूसरेसे अलग नहीं होते, तबतक आप बाण छोड़िये और त्रिपुरको भस्म कर दीजिये ॥ 17-19 ॥तब शंकरजीने धनुषकी डोरी चढ़ाकर उसपर बाण रखकर त्रिपुरसंहारके लिये अपने पूज्य पाशुपतास्त्रका ध्यान किया ॥ 20 ॥ उसके बाद श्रेष्ठ लीलाविशारद शिवजी किसी कारणसे उन पुरोंको निरादरकी दृष्टिसे देखने लगे ॥ 21 ॥ आप विरूपाक्ष हैं और इन तीनों पुरोंको क्षणमात्रमें दग्ध करनेमें समर्थ हैं तथा सज्जनोंकी एकमात्र गति हैं। यद्यपि आप देवेश्वर अपनी दृष्टिमात्रसे तीनों लोकोंको भस्म करनेमें समर्थ हैं, किंतु हमलोगोंके यशको बढ़ाने के लिये आप इनपर अपना बाण छोड़िये ॥ 22-23 ॥
इस प्रकार जब विष्णु, ब्रह्मा आदि समस्त देवताओंने महेश्वरकी स्तुति की, तब उन्होंने उसी बाणसे तीनों पुरोंको भस्म करनेकी इच्छा की। उन शिवजीने अभिजित मुहूर्तमें उस अद्भुत धनुषको खींचकर उसकी प्रत्यंचाकी टंकारसे अत्यन्त दुःसह शब्द करके और उन असुरोंको अपना नाम सुनाकर तथा उन्हें ललकारते हुए करोड़ों सूर्योके समान देदीप्यमान बाण छोड़ा ।। 24-26 ll
पापनाशक, जाज्वल्यमान, अग्निफलकसे युक्त तथा तीव्रगामी उस विष्णुमय बाणने त्रिपुरमें रहनेवाले उन तीनों दैत्योंको दग्ध कर दिया ॥ 27 ॥
इस प्रकार भस्म हुए वे तीनों पुर चार समुद्रोंकी मेखलावाली पृथ्वीपर एक साथ ही गिर पड़े और जले हुए वे पुर राखके रूपमें हो गये। शिवकी पूजामें व्यतिक्रमके कारण सैकड़ों दैत्य हाहाकार करते हुए उस बाणकी अग्निसे भस्म हो गये ।। 28-29 ।।
जब भाइयोंके सहित तारकाक्ष भस्म होने लगा, तब उसने अपने प्रभु भक्तवत्सल भगवान् सदाशिवका स्मरण किया। महादेवकी ओर देखकर परम भक्तिसे युक्त होकर वह नाना प्रकारके विलाप करता हुआ मन ही मन उनसे कहने लगा- ।। 30-31 ॥
तारकाक्ष बोला- हे भव! मैंने जान लिया है कि आप हमारे ऊपर प्रसन्न हैं, अपने इस सत्यके प्रभावसे आप पुनः भाइयों सहित हमें कब जलायेंगे ? हे भगवन्! हमलोगोंने वह दुर्लभ वस्तु प्राप्त की है, जो देवताओं और असुरोंके लिये भी अप्राप्य है, हमारी बुद्धि जन्म जन्मान्तरमें आपको भक्तिसे भावित रहे। ll 32-33॥हे मुने! ऐसा कहते हुए उन दैत्योंको शिवजीकी आज्ञासे अग्निने अद्भुत रीतिसे जलाकर राख कर दिया। हे व्यासजी ! उस अग्निने अन्य बालक तथा वृद्ध दानवोंको भी शिवजीकी आज्ञासे शीघ्र ही जलाकर राख कर दिया। जिस प्रकार कल्पान्तमें जगत् भस्म हो जाता है, उसी प्रकार उस अग्निने वहाँ जो भी स्त्री, पुरुष, वाहनादि थे, उन सभीको जला दिया ।। 34-36 ।।
बहुत-सी श्रेष्ठ स्त्रियाँ गलेमें भुजाएँ डालनेवाले अपने पतियोंको छोड़कर भस्म हो गयीं, सोयी हुई, प्रमत्त और रतिश्रान्त स्त्रियाँ भी भस्म हो गयीं ॥ 37 ॥ कोई आधी जलकर चेतनामें आ-आकर बारंबार मोहसे मूच्छित हो जाती थी। कोई अति सूक्ष्म भी ऐसी वस्तु शेष न बची, जो त्रिपुरकी अग्निसे भस्म न हुई हो ॥ 38 ॥
केवल एक अविनाशी विश्वकर्मा मयदानवको छोड़कर स्थावर तथा जंगम कोई भी बिना जले न बचा, वह देवताओंका विरोधी नहीं था, विपत्तिकालमें भी महेशका शरणागत भक्त था और शिवजीके तेजसे रक्षित था ॥ 39-40 ॥
चाहे दैत्य हों, चाहे अन्य प्राणी हों, भावाभावकी अवस्थामें तथा कृत-अकृत कालमें महेश्वरके शरणागत होनेपर उनका नाशकारक पतन नहीं होता है। इसलिये सत्पुरुषोंको ध्यानपूर्वक इस प्रकारका यत्न करना चाहिये, जिससे भक्ति बढ़े। निन्दासे लोकका क्षय होता है, अतः उस कर्मको कभी नही करना चाहिये ॥ 41-42 ।।
पुरुषको कभी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिये, जिससे उन त्रिपुरों-जैसा संयोग उपस्थित हो। क्या ही उत्तम बात होती कि प्रारब्धसे सभीका मन शिवजीमें लगता ।। 43 ।।
उस समय भी जो दैत्य बान्धवोंसहित शिवपूजनमें तत्पर थे, वे सब शिवपूजाके प्रभावसे गणोंके अधिपति हो गये ।। 44 ।।