ब्रह्माजी बोले- हे नारद! इस प्रकार रमापति विष्णु मेरे, देवताओं, ऋषियों तथा अन्य लोगोंके द्वारा स्तुति करनेपर महादेवजी बड़े प्रसन्न हो गये ॥ 1 ॥तब वे शम्भु कृपादृष्टिसे सभी ऋषियों एवं देवताओंको देखकर तथा मुझ ब्रह्मा और श्रीविष्णुका | समाधान करके दक्षसे इस प्रकार कहने लगे-॥ 2 ॥
महादेव बोले- हे प्रजापते! हे दक्ष! मैं [ जो कुछ] कह रहा हूँ, सुनिये, मैं प्रसन्न हूँ। यद्यपि मैं सबका ईश्वर हूँ और स्वतन्त्र हूँ, फिर भी सदा भक्तोंके अधीन रहता हूँ॥ 3 ॥
चार प्रकारके पुण्यात्मा मेरा भजन करते हैं। हे दक्ष हे प्रजापते। उनमें पूर्वकी अपेक्षा उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं ॥ 4 ॥
उनमें आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और चौथा ज्ञानी है। पहलेके तीन तो सामान्य [भक्त] हैं और चौथा विशिष्ट महत्त्वका है ॥ 5 ॥
उनमें चौथा ज्ञानी ही मुझे अधिक प्रिय है और वह मेरा रूप माना गया है। उससे बढ़कर दूसरा कोई मुझे प्रिय नहीं है, मैं सत्य सत्य कह रहा हूँ ॥ 6 ॥ वेद वेदान्तके पारगामी विद्वान् ही मुखानीको ज्ञानके द्वारा जान सकते हैं, अल्प बुद्धिवाले ही ज्ञानके बिना मुझे प्राप्त करनेका प्रयत्न करते हैं ॥ 7 ॥ कर्मके वशीभूत मूढ़ मानव न वेदोंसे, न यज्ञोंसे, न दानोंसे और न तपस्यासे ही मुझे पा सकते हैं ॥ 8 ॥ आप केवल कर्मके द्वारा ही इस संसारको पार करना चाहते थे, इसीलिये रुष्ट होकर मैंने इस यज्ञका विनाश किया है। अतः हे दक्ष! आजसे आप बुद्धिके | द्वारा मुझे परमेश्वर मानकर ज्ञानका आश्रय लेते हुए सावधान होकर कर्म कीजिये ।। 9-10 ll
प्रजापते! आप उत्तम बुद्धिके द्वारा मेरी दूसरी बात भी सुनिये, मैं अपने सगुण स्वरूपके विषयमें भी धर्मकी दृष्टिसे गोपनीय बात आपसे कहता हूँ ॥ 11 ॥
जगत्का परम कारणरूप में ही ब्रह्मा और विष्णु हूँ। मैं सबका आत्मा, ईश्वर, साक्षी, स्वयंप्रकाश तथा निर्विशेष हूँ ॥ 12 ॥
हे मुने! अपनी [त्रिगुणात्मिका] मायामें प्रवेश करके मैं ही जगत्का सृजन, पालन और संहार करता हुआ क्रियाओंके अनुरूप [ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र ] नामोंको धारण करता हूँ ॥ 13 ॥उस अद्वितीय (भेदरहित), केवल (विशुद्ध) मुझ परब्रह्म परमात्मामें अज्ञानी पुरुष ही ब्रह्म, ईश्वर तथा अन्य समस्त जीवोंको भिन्न रूपसे देखता है ॥ 14 ॥
जैसे मनुष्य अपने सिर, हाथ आदि अंगोंमें [ये मुझसे भिन्न हैं, ऐसी] परकीय बुद्धि कभी नहीं करता, उसी तरह मेरा भक्त सभी प्राणियों में भेदबुद्धि नहीं रखता ॥ 15 ॥ हे दक्ष ! सभी भूतोंके आत्मास्वरूप तथा एक ही भाववाले [ब्रह्मा, विष्णु और मुझ शिव] इन तीनों देवताओंमें जो भेद नहीं देखता, वही शान्ति प्राप्त करता है ॥ 16 ॥
जो नराधम तीनों देवताओंमें भेदबुद्धि रखता है, वह निश्चय ही जबतक चन्द्रमा और तारे रहते हैं, तबतक नरकमें निवास करता है ॥ 17 ॥
मुझमें परायण होकर जो बुद्धिमान् मनुष्य सभी देवताओंकी पूजा करता है, उसे इस प्रकारका ज्ञान हो जाता है, जिससे उसकी शाश्वती मुक्ति हो जाती है ll 18 ॥
विधाताकी भक्तिके बिना विष्णुकी भक्ति नहीं हो सकती और विष्णुकी भक्तिके बिना मेरी भक्ति कभी नहीं हो सकती है ॥ 19 ॥
ऐसा कहकर कृपालु, सबके स्वामी परमेश्वर शिव सबको सुनाते हुए फिर यह वचन बोले ॥ 20 ॥
यदि कोई विष्णुभक्त मेरी निन्दा करेगा और मेरा भक्त विष्णुकी निन्दा करेगा, तो आपको दिये हुए समस्त शाप उन्हीं दोनोंको प्राप्त होंगे और निश्चय ही उन्हें तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति नहीं हो सकती ॥21॥
ब्रह्माजी बोले- हे मुने! भगवान् महेश्वरके -हे | इस सुखकर वचनको सुनकर वहाँ [उपस्थित] सभी देवता, मुनि आदि अत्यन्त हर्षित हुए ॥ 22 ॥
शिवको अखिलेश्वर मानकर दक्ष कुटुम्बसहित प्रसन्नतापूर्वक शिवभक्तिमें तत्पर हो गये और वे देवता आदि भी शिवभक्तिपरायण हो गये॥ 23 ॥
जिसने जिस प्रकारसे परमात्मा शम्भुकी स्तुति की थी, उसे उसी प्रकार सन्तुष्टचित्त हुए शम्भुने वर दिया ll 24 ॥हे मुने। उसके बाद भगवान् शिवकी आज्ञा पाकर प्रसन्नचित्त हुए शिवभक्त दक्षने शिवजीकी | कृपासे यज्ञ पूरा किया ।। 25 ।।
उन्होंने देवताओंको यज्ञभाग दिया और शिवजीको पूर्ण भाग दिया। साथ ही उन्होंने ब्राह्मणोंको दान भी दिया। इस तरह उन्हें शम्भुका अनुग्रह प्राप्त हुआ ।। 26 ।।
इस प्रकार महादेवजीके उस महान् कर्मका विधि पूर्वक वर्णन किया गया। प्रजापति दक्षने ऋत्विजोंके सहयोगसे उस यज्ञकर्मको विधिवत् समाप्त किया ॥ 27 ॥ हे मुनीश्वर। इस प्रकार परब्रह्मस्वरूप शंकरकी कृपासे दक्षका यज्ञ पूरा हुआ ॥ 28 ॥
तदनन्तर सब देवता और ऋषि सन्तुष्ट होकर भगवान् शिवके यशका वर्णन करते हुए अपने अपने स्थानको चले गये। दूसरे लोग भी उस समय वहाँसे सुखपूर्वक चले गये ॥ 29 ॥
मैं और भगवान् विष्णु भी अत्यन्त प्रसन्न हो भगवान् शिवके सदा सर्वमंगलदायक सुयशका निरन्तर गान करते हुए अपने-अपने स्थानको सानन्द चल दिये ॥ 30 ॥
सत्पुरुषोंको आश्रय देनेवाले महादेवजी भी दक्षसे प्रीतिपूर्वक सम्मानित हो प्रसन्नताके साथ गणोंसहित अपने निवासस्थान कैलास पर्वतपर चले गये॥ 31 ll
अपने पर्वतपर आकर शम्भुने अपनी प्रिया सतीका स्मरण किया और प्रधान गणसे वह कथा कही ।। 32 ।। विज्ञानमय भगवान् शंकरने लौकिक गतिका अवलम्बनकर अपने सकामभावको प्रकट करते हुए तथा सतीचरित्र वर्णन करते हुए बहुत समय व्यतीत किया ॥ 33 ॥
हे मुने। वे सज्जनोंके शरणदाता, सबके स्वामी, अनीति न करनेवाले तथा परब्रह्म हैं, उन्हें मोह, शोक अथवा अन्य विकार कहाँसे हो सकता है।॥ 34 ॥
जब मैं और विष्णु भी उनके भेदको कभी नहीं जान पाये, तो अन्य देवता, मुनि, मनुष्य आदि तथा योगिजनकी बात ही क्या है ! ।। 35 ।।
भगवान् शंकरकी महिमा अनन्त है, जिसे बड़े बड़े विद्वान् भी जाननेमें असमर्थ हैं, किंतु भक्तलोग उनकी कृपासे बिना श्रमके ही उत्तम भक्तिके द्वारा उसे जान लेते हैं ll 36 llपरमात्मा शिवमें एक भी विकार नहीं है, किंतु लोकपरायण वे सगुणरूप धारणकर अपना चरित्र लोगोंको दिखाते हैं। हे मुने! जिसे पढ़कर और सुनकर सभी लोगों में बुद्धिमान् वह व्यक्ति इस लोकमें उत्तम सुख एवं [अन्तमें] दिव्य सद्गति प्राप्त कर लेता है ।। 37-38 ।।
इस प्रकार दक्षकन्या सती [ यज्ञमें] अपने शरीरको त्यागकर फिर हिमालयकी पत्नी मेनाके गर्भसे उत्पन्न हुईं, यह बात प्रसिद्ध ही है ॥ 39 ॥
तत्पश्चात् वहाँ तपस्या करके गौरी शिवाने भगवान् शिवका पतिरूपमें वरण किया। वे उनकी वाम अर्धांगिनी होकर अद्भुत लीलाएँ करने लगीं ॥ 40 ॥
[हे नारद!] इस प्रकार मैंने आपसे सतीके परम अद्भुत चरित्रका वर्णन किया, जो भोग-मोक्षको | देनेवाला, दिव्य तथा सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाला है ॥ 41 ॥
यह आख्यान कालुष्यरहित, पवित्र, दूसरोंको पवित्र करनेवाला, स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाला और.पुत्र-पौत्ररूप फल प्रदान करनेवाला है । 42 ।। हे तात! जो भक्तिमान् पुरुष भक्तिभावसे इसे सुनता है और अन्य मनुष्योंको सुनाता है। वह [इस लोकमें] सम्पूर्ण कर्मोंका फल पाकर परलोकमें परमगति प्राप्त करता है ॥ 43 ॥
जो इस शुभ आख्यानको पढ़ता है अथवा पढ़ाता है, वह भी समस्त सुखोंका उपभोग करके | अन्तमें मोक्ष प्राप्त करता है ll 44 ॥