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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 2 (सती खण्ड) , अध्याय 42 - Sanhita 2, Khand 2 (सती खण्ड) , Adhyaya 42

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भगवान् शिवका देवता आदिपर अनुग्रह, दक्षयज्ञ मण्डपमें पधारकर दक्षको जीवित करना तथा दक्ष और विष्णु आदिद्वारा शिवकी स्तुति

ब्रह्माजी बोले- [ हे नारद!] मुझ ब्रह्मा, लोकपाल, प्रजापति तथा मुनियोंसहित विष्णुके अनुनय विनय करनेपर परमेश्वर शिव प्रसन्न हो गये। विष्णु आदि देवताओंको आश्वासन देकर उनपर परम अनुग्रह करते हुए करुणानिधान परमेश्वर शिवजी हँसकर कहने लगे- ॥ 1-2 ॥

श्रीमहादेवजी बोले- हे श्रेष्ठ देवताओ ! आप दोनों सावधान होकर मेरी बात सुनें, मैं सच्ची बात कह रहा हूँ, हे तात! मैं आप दोनोंका क्रोध सर्वदा सहता रहता हूँ। बालकों अर्थात् अज्ञानियोंके द्वारा किये गये अपराधका मैं न तो वर्णन करता हूँ और न चिन्तन ही करता हूँ। इसपर भी मेरी मायासे भ्रान्त प्राणियोंके शिक्षणार्थ ही मैं दण्ड धारण करता हूँ ॥ 3-4 ll

दक्षके यज्ञका विध्वंस मैंने कभी नहीं किया है। दक्ष स्वयं ही दूसरोंसे द्वेष करते हैं। दूसरोंके प्रति जैसा व्यवहार किया जायगा, वह अपने लिये ही फलित होगा। अतः दूसरोंको कष्ट देनेवाला कार्य कभी नहीं करना चाहिये, जो दूसरोंसे द्वेष करता है, वह द्वेष अपने लिये ही होता है ।। 5-6 ।।

दक्षका मस्तक जल गया है, इसलिये इनके सिरके स्थानमें बकरेका सिर जोड़ दिया जाय। भग | देवता मित्रकी आँखसे यज्ञका भाग देखें। हे तात! पूषा नामक देवता, जिनके दाँत टूट गये हैं, यजमानके दाँतोंसे भलीभाँति पिसे हुए अन्नका भक्षण करें। यह | मैंने सच्ची बात बतायी है। मेरा विरोध करनेवाले | भृगुकी दाढ़ीके स्थानमें बकरेकी दाढ़ी लगा दी जाय। | शेष सभी देवताओंके, जिन्होंने मुझे यज्ञका उच्छिष्टभाग दिया, सारे अंग पहलेकी भाँति ठीक हो जायें। याज्ञिकोंमेंसे जिनकी भुजाएँ टूट गयी हैं, वे अश्विनीकुमारोंकी भुजाओंसे और जिनके हाथ नष्ट हो गये हैं, वे पूषाके हाथोंसे अपना काम चलायें। यह मैंने आपलोगोंके प्रेमवश कहा है ।। 7-10 ॥

ब्रह्माजी बोले- [हे नारद!] इस प्रकार कहकर वेदका अनुसरण करनेवाले सुरसम्राट् चराचरपति दयालु परमेश्वर महादेवजी चुप हो गये भगवान् शंकरका वह वचन सुनकर श्रीविष्णु और ब्रह्मासहित सम्पूर्ण देवता सन्तुष्ट हो गये। वे तत्काल साधुवाद | देने लगे। तदनन्तर भगवान् शम्भुको आमन्त्रित करके मुझ ब्रह्मा और देवर्षियोंके साथ भगवान् विष्णु अत्यन्त हर्षित हो पुनः दक्षकी यज्ञशालाकी ओर चले ॥ 11-13 ॥

इस प्रकार उनकी प्रार्थनासे भगवान् शम्भु विष्णु आदि देवताओंके साथ कनखल में स्थित प्रजापति | दक्षकी यज्ञशालामें गये। उस समय रुद्रदेवने वहाँ यज्ञका और विशेषतः देवताओं तथा ऋषियोंका विध्वंस, जो वीरभद्र के द्वारा किया गया था, उसे देखा ।। 14-15 ।।

स्वाहा, स्वधा, पूषा, तुष्टि, भूति, सरस्वती, अन्य समस्त ऋषि, पितर, अग्नि तथा अन्यान्य बहुत से यक्ष, गन्धर्व और राक्षस वहाँ पड़े थे। उनमेंसे कुछ लोगोंके अंग तोड़ डाले गये थे। कुछ लोगोंके बाल नॉच लिये गये थे और कितने ही उस समरांगणमें मरे पड़े थे ।॥ 16-17 ll

उस यज्ञको वैसी दुरवस्था देखकर भगवान् शंकरने अपने गणनायक पराक्रमी वीरभद्रको बुलाकर हँसते हुए कहा- हे महाबाहु वीरभद्र ! यह तुमने कैसा काम किया? हे तात! थोड़ी ही देरमें देवता तथा ऋषि आदिको बड़ा भारी दण्ड दे दिया! हे तात! जिसने ऐसा [द्रोहपूर्ण] कार्य किया तथा इस विलक्षण यज्ञका आयोजन किया और जिसे ऐसा फल मिला, उस दक्षको तुम शीघ्र यहाँ ले आओ ॥ 18-20 ॥ ब्रह्माजी बोले- भगवान् शंकरके ऐसा कहनेपर | वीरभद्रने शीघ्रतापूर्वक दक्षका धड़ लाकर उन शम्भुके समक्ष डाल दिया ॥ 21 ॥हे मुनिश्रेष्ठ! उसे सिररहित देख लोककल्याणकारी भगवान् शंकरने आगे खड़े हुए वीरभद्रसे हँसकर पूछा- दक्षका सिर कहाँ है? तब प्रभावशाली वीरभद्रने कहा- हे शंकर! मैंने तो उसी समय दक्षके सिरको आगमें होम कर दिया था ॥ 22-23 ॥

वीरभद्रकी यह बात सुनकर भगवान् शंकरने | देवताओंको प्रसन्नतापूर्वक वैसी ही आज्ञा दी, जो पहले से दे रखी थी। भगवान् भवने उस समय जो कुछ कहा, उसकी मेरे द्वारा पूर्ति कराकर श्रीहरि आदि सब देवताओंने

भृगु आदि सबको शीघ्र ही ठीक कर दिया ।। 24-25 ॥ तदनन्तर शम्भुके आदेशसे प्रजापति दक्षके धडके साथ सवनीय पशु-बकरेका सिर जोड़ दिया गया। उस सिरके जोड़े जाते ही शम्भुकी कृपादृष्टि पड़ने से प्रजापति दक्ष प्राण प्राप्त करके तत्क्षण सोकर जगे हुए पुरुषकी भाँति उठकर खड़े हो गये ।। 26-27 ॥

उठते ही दक्षने प्रसन्नचित्त होकर प्रेमपूर्वक अपने सामने करुणानिधि भगवान् शंकरको देखा। पहले महादेवजीसे द्वेष करनेके कारण उनका अन्तःकरण मलिन हो गया था, परंतु उस समय शिवजीके दर्शनसे वे तत्काल शरद् ऋतुके चन्द्रमाकी भाँति निर्मल हो गये ।। 28-29 ।।

यद्यपि वे [प्रेमके वशीभूत होकर ] मनमें शिवजीकी स्तुति करनेकी इच्छा कर रहे थे, किंतु उन्हें उसी समय सतीके ब्रह्माजी बोले- शरीरत्यागका स्मरण हो गया, इसलिये वे उत्कण्ठासे व्याकुल होनेके कारण स्तुति नहीं कर सके ॥ 30 ॥

तदनन्तर लज्जित होकर दक्ष प्रजापति प्रसन्नचित हो विनम्रतापूर्वक लोकका कल्याण करनेवाले शंकरकी स्तुति करने लगे ॥ 31 ॥

दक्ष बोले- वरदानी, श्रेष्ठ, महेश्वर, ज्ञाननिधि, सनातन देवको नमस्कार करता हूँ। देवाधिदेवोंके भी ईश्वर, सुखरूप एवं संसारके एकमात्र बन्धु भगवान् | शंकरजीको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ 32 ॥

हे विश्वेश्वर! [आप] विश्वरूप, पुरातन, ब्रह्मा | तथा आत्मस्वरूपको मैं नमस्कार करता है। मैं शर्वको नमस्कार करता हूँ। मैं संसारके भावोंका चिन्तन | करनेवाले परात्पर शंकरको नमस्कार करता हूँ ॥ 33 ॥हे देवदेव! हे महादेव ! आपको नमस्कार है, मुझपर कृपा कीजिये। हे कृपानिधे! हे शम्भो ! आज मेरे अपराधको क्षमा कीजिये। हे शंकर! आपने दण्डके बहाने ही मुझपर अनुग्रह किया है। मैं खल और मूर्ख हूँ: हे देव मुझे आपके तत्त्वका ज्ञान नहीं था ।। 34-35 ।।

हे प्रभो! आप विष्णु एवं ब्रह्मादि देवोंके भी सेव्य, वेदोंसे जाननेयोग्य तथा महेश्वर हैं। आज मुझे आपके तात्त्विक स्वरूपका ज्ञान हुआ है, आप सभी | लोगोंमें श्रेष्ठ माने गये हैं। आप सत्पुरुषोंके लिये कल्पवृक्ष हैं और दुष्टोंको सदा दण्ड प्रदान करनेवाले हैं। आप सर्वथा स्वतन्त्र परमात्मा हैं एवं भक्तोंको अभीष्ट वर प्रदान करनेवाले हैं ।। 36-37 ॥

आप परमेश्वरने ही अपने मुखसे विद्या, तप तथा व्रत धारण करनेवाले इन ब्राह्मणोंको तत्त्वका साक्षात्कार करनेके लिये उत्पन्न किया है ॥ 38 ॥

समस्त गोरूप पशुओंकी रक्षा जिस प्रकार गोपतिद्वारा की जाती है, उसी प्रकार आप सभी विपत्तियोंसे रक्षा करते हैं। आप मर्यादाके परिपालक तथा दुर्जनोंके लिये दण्ड धारण करते हैं। हे भगवन्! मैंने अनेक प्रकारके कटु वचनरूपी बाणोंसे आप परमेश्वरको बींध डाला था, फिर भी अत्यन्त क्षीण आशावाले इन देवताओं सहित मुझपर आपने दया ही की है ।। 39-40 ।।

इसलिये हे शम्भो ! हे दीनबन्धो! हे भक्तवत्सल ! आप परात्पर भगवान् मेरे द्वारा की गयी पूजासे सन्तुष्ट हो जाइये ॥ 41 ॥

ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार लोकका कल्याण करनेवाले महाप्रभु महेश्वरको विनम्रतापूर्वक स्तुतिकर प्रजापति मौन हो गये। उसके बाद भगवान् विष्णु प्रसन्नचित्त होकर दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करके गद्गद वाणी से वृषभध्वज शिवकी स्तुति करने लगे- ॥ 42-43 ।।

विष्णु बोले - हे महादेव! हे महेशान! लोकपर अनुग्रह करनेवाले हे दीनबन्धो। हे दयानिधे! आप परब्रह्म परमात्मा हैं। हे प्रभो। आप सर्वव्यापी स्वतन्त्र हैं, आपका यश वेदोंसे ही जाना जा सकता है। आपने हमलोगोंपर कृपा की है, उससे हमलोग कृतकृत्य हो गये ।। 44-45 ।।

हे महेश्वर। इस मेरे भक्त दुष्ट दक्षने पूर्वमें आपकी जो निन्दा की है, उसे आप आज क्षमा कीजिये;क्योंकि आप निर्विकार हैं। हे शंकर! मैंने भी मूर्खतावश आपका अपराध किया है, जो दक्षके पक्षसे आपके गण वीरभद्रके साथ युद्ध किया ।। 46-47 ।। हे सदाशिव! आप मेरे स्वामी हैं, आप परब्रह्म हैं, मैं आपका दास हूँ, आप सभीके पिता हैं। इसलिये आपको हम सबका पालन करना चाहिये ॥ 48 ।।

ब्रह्माजी बोले- हे देवदेव ! हे महादेव हे करुणासागर! हे प्रभो! आप स्वतन्त्र, परमात्मा, परमेश्वर, अद्वय तथा अविनाशी हैं ।। 49 ।।

हे ईश्वर! हे देव! आपने मेरे इस पुत्रपर अनुग्रह किया है, अब आप अपना अपमान भूलकर दक्षके यज्ञका उद्धार कीजिये। हे देवेश अब आप प्रसन्न हो जाइये और अपने सभी प्रकारके शापोंसे इसका उद्धार कीजिये आप ज्ञानवान् ही मुझे प्रेरणा देनेवाले हैं और आप ही निवारण करनेवाले हैं ॥ 50-51 ॥

हे महामुने। इस प्रकार परमात्मा महेश्वरकी स्तुति करके दोनों हाथ जोड़कर मैंने अपने मस्तकको झुकाकर उन्हें प्रणाम किया। तदनन्तर इन्द्र आदि | देवतागण एवं लोकपाल सावधान होकर प्रसन्न मुख कमलवाले शंकरजीकी स्तुति करने लगे । ll 52-53 ll

उसके बाद अन्य सभी देवता, सिद्ध, ऋषि एवं प्रजापतिगण भी प्रसन्नताके साथ शिवजीकी स्तुति करने लगे। तत्पश्चात् उपदेवता, नाग, सदस्य तथा ब्राह्मणलोग भी सद्भकिसे प्रणामकर अलग-अलग | स्तुति करने लगे ।। 54-55 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] सतीचरित्रवर्णन, दक्षयज्ञविध्वंसका संक्षिप्त वृत्तान्त तथा सतीका पार्वतीरूपमें हिमालयके यहाँ जन्म लेना
  2. [अध्याय 2] सदाशिवसे त्रिदेवोंकी उत्पत्ति, ब्रह्माजीसे देवता आदिकी सृष्टिके पश्चात् देवी सन्ध्या तथा कामदेवका प्राकट्य
  3. [अध्याय 3] कामदेवको विविध नामों एवं वरोंकी प्राप्ति कामके प्रभावसे ब्रह्मा तथा ऋषिगणोंका मुग्ध होना, धर्मद्वारा स्तुति करनेपर भगवान् शिवका प्राकट्य और ब्रह्मा तथा ऋषियोंको समझाना, ब्रह्मा तथा ऋषियोंसे अग्निष्वात्त आदि पितृगणोंकी उत्पत्ति, ब्रह्माद्वारा कामको शापकी प्राप्ति तथा निवारणका उपाय
  4. [अध्याय 4] कामदेवके विवाहका वर्णन
  5. [अध्याय 5] ब्रह्माकी मानसपुत्री कुमारी सन्ध्याका आख्यान
  6. [अध्याय 6] सन्ध्याद्वारा तपस्या करना, प्रसन्न हो भगवान् शिवका उसे दर्शन देना, सन्ध्याद्वारा की गयी शिवस्तुति, सन्ध्याको अनेक वरोंकी प्राप्ति तथा महर्षि मेधातिथिके यज्ञमें जानेका आदेश प्राप्त होना
  7. [अध्याय 7] महर्षि मेधातिथिकी यज्ञाग्निमें सन्ध्याद्वारा शरीरत्याग, पुनः अरुन्धतीके रूपमें ज्ञाग्नि उत्पत्ति एवं वसिष्ठमुनिके साथ उसका विवाह
  8. [अध्याय 8] कामदेवके सहचर वसन्तके आविर्भावका वर्णन
  9. [अध्याय 9] कामदेवद्वारा भगवान् शिवको विचलित न कर पाना, ब्रह्माजीद्वारा कामदेवके सहायक मारगणोंकी उत्पत्ति; ब्रह्माजीका उन सबको शिवके पास भेजना, उनका वहाँ विफल होना, गणोंसहित कामदेवका वापस अपने आश्रमको लौटना
  10. [अध्याय 10] ब्रह्मा और विष्णुके संवादमें शिवमाहात्म्यका वर्णन
  11. [अध्याय 11] ब्रह्माद्वारा जगदम्बिका शिवाकी स्तुति तथा वरकी प्राप्ति
  12. [अध्याय 12] दक्षप्रजापतिका तपस्याके प्रभावसे शक्तिका दर्शन और उनसे रुद्रमोहनकी प्रार्थना करना
  13. [अध्याय 13] ब्रह्माकी आज्ञासे दक्षद्वारा मैथुनी सृष्टिका आरम्भ, अपने पुत्र हर्यश्वों तथा सबलाश्वोंको निवृत्तिमार्गमें भेजने के कारण दक्षका नारदको शाप देना
  14. [अध्याय 14] दक्षकी साठ कन्याओंका विवाह, दक्षके यहाँ देवी शिवा (सती) - का प्राकट्य, सतीकी बाललीलाका वर्णन
  15. [अध्याय 15] सतीद्वारा नन्दा व्रतका अनुष्ठान तथा देवताओंद्वारा शिवस्तुति
  16. [अध्याय 16] ब्रह्मा और विष्णुद्वारा शिवसे विवाहके लिये प्रार्थना करना तथा उनकी इसके लिये स्वीकृति
  17. [अध्याय 17] भगवान् शिवद्वारा सतीको वरप्राप्ति और शिवका ब्रह्माजीको दक्ष प्रजापतिके पास भेजना
  18. [अध्याय 18] देवताओं और मुनियोंसहित भगवान् शिवका दक्षके घर जाना, दक्षद्वारा सबका सत्कार एवं सती तथा शिवका विवाह
  19. [अध्याय 19] शिवका सतीके साथ विवाह, विवाहके समय शम्भुकी मायासे ब्रह्माका मोहित होना और विष्णुद्वारा शिवतत्त्वका निरूपण
  20. [अध्याय 20] ब्रह्माजीका 'रुद्रशिर' नाम पड़नेका कारण, सती एवं शिवका विवाहोत्सव, विवाहके अनन्तर शिव और सतीका वृषभारूढ़ हो कैलासके लिये प्रस्थान
  21. [अध्याय 21] कैलास पर्वत पर भगवान् शिव एवं सतीकी मधुर लीलाएँ
  22. [अध्याय 22] सती और शिवका बिहार- वर्णन
  23. [अध्याय 23] सतीके पूछनेपर शिवद्वारा भक्तिकी महिमा तथा नवधा भक्तिका निरूपण
  24. [अध्याय 24] दण्डकारण्यमें शिवको रामके प्रति मस्तक झुकाते देख सतीका मोह तथा शिवकी आज्ञासे उनके द्वारा रामकी परीक्षा
  25. [अध्याय 25] श्रीशिवके द्वारा गोलोकधाममें श्रीविष्णुका गोपेशके पदपर अभिषेक, श्रीरामद्वारा सतीके मनका सन्देह दूर करना, शिवद्वारा सतीका मानसिक रूपसे परित्याग
  26. [अध्याय 26] सतीके उपाख्यानमें शिवके साथ दक्षका विरोधवर्णन
  27. [अध्याय 27] दक्षप्रजापतिद्वारा महान् यज्ञका प्रारम्भ, यज्ञमें दक्षद्वारा शिवके न बुलाये जानेपर दधीचिद्वारा दक्षकी भर्त्सना करना, दक्षके द्वारा शिव-निन्दा करनेपर दधीचिका वहाँसे प्रस्थान
  28. [अध्याय 28] दक्षयज्ञका समाचार पाकर एवं शिवकी आज्ञा प्राप्तकर देवी सतीका शिवगणोंके साथ पिताके यज्ञमण्डपके लिये प्रस्थान
  29. [अध्याय 29] यज्ञशाला में शिवका भाग न देखकर तथा दक्षद्वारा शिवनिन्दा सुनकर क्रुद्ध हो सतीका दक्ष तथा देवताओंको फटकारना और प्राणत्यागका निश्चय
  30. [अध्याय 30] दक्षयज्ञमें सतीका योगाग्निसे अपने शरीरको भस्म कर देना, भृगुद्वारा यज्ञकुण्डसे ऋभुओंको प्रकट करना, ऋभुओं और शंकरके गणोंका युद्ध, भयभीत गणोंका पलायित होना
  31. [अध्याय 31] यज्ञमण्डपमें आकाशवाणीद्वारा दक्षको फटकारना तथा देवताओंको सावधान करना
  32. [अध्याय 32] सतीके दग्ध होनेका समाचार सुनकर कुपित हुए शिवका अपनी जटासे वीरभद्र और महाकालीको प्रकट करके उन्हें यज्ञ विध्वंस करनेकी आज्ञा देना
  33. [अध्याय 33] गणोंसहित वीरभद्र और महाकालीका दक्षयज्ञ विध्वंसके लिये प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] दक्ष तथा देवताओंका अनेक अपशकुनों एवं उत्पात सूचक लक्षणोंको देखकर भयभीत होना
  35. [अध्याय 35] दक्षद्वारा यज्ञकी रक्षाके लिये भगवान् विष्णुसे प्रार्थना, भगवान्‌का शिवद्रोहजनित संकटको टालनेमें अपनी असमर्थता बताते हुए दक्षको समझाना तथा सेनासहित वीरभद्रका आगमन
  36. [अध्याय 36] युद्धमें शिवगणोंसे पराजित हो देवताओंका पलायन, इन्द्र आदिके पूछनेपर बृहस्पतिका रुद्रदेवकी अजेयता बताना, वीरभद्रका देवताओंको बुद्धके लिये ललकारना, श्रीविष्णु और वीरभद्रकी बातचीत
  37. [अध्याय 37] गणसहित वीरभद्रद्वारा दक्षयज्ञका विध्वंस, दक्षवध, वीरभद्रका वापस कैलास पर्वतपर जाना, प्रसन्न भगवान् शिवद्वारा उसे गणाध्यक्ष पद प्रदान करना
  38. [अध्याय 38] दधीचि मुनि और राजा ध्रुवके विवादका इतिहास, शुक्राचार्यद्वारा दधीचिको महामृत्युंजयमन्त्रका उपदेश, मृत्युंजयमन्त्र के अनुष्ठानसे दधीचिको अवध्यताकी प्राप्ति
  39. [अध्याय 39] श्रीविष्णु और देवताओंसे अपराजित दधीचिद्वारा देवताओंको शाप देना तथा राजा ध्रुवपर अनुग्रह करना
  40. [अध्याय 40] देवताओंसहित ब्रह्माका विष्णुलोकमें जाकर अपना दुःख निवेदन करना, उन सभीको लेकर विष्णुका कैलासगमन तथा भगवान् शिवसे मिलना
  41. [अध्याय 41] देवताओं द्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  42. [अध्याय 42] भगवान् शिवका देवता आदिपर अनुग्रह, दक्षयज्ञ मण्डपमें पधारकर दक्षको जीवित करना तथा दक्ष और विष्णु आदिद्वारा शिवकी स्तुति
  43. [अध्याय 43] भगवान् शिवका दक्षको अपनी भक्तवत्सलता, ज्ञानी भक्तकी श्रेष्ठता तथा तीनों देवोंकी एकता बताना, दक्षका अपने यज्ञको पूर्ण करना, देवताओंका अपने-अपने लोकोंको प्रस्थान तथा सतीखण्डका उपसंहार और माहात्म्य