ब्रह्माजी बोले- [ हे नारद!] मुझ ब्रह्मा, लोकपाल, प्रजापति तथा मुनियोंसहित विष्णुके अनुनय विनय करनेपर परमेश्वर शिव प्रसन्न हो गये। विष्णु आदि देवताओंको आश्वासन देकर उनपर परम अनुग्रह करते हुए करुणानिधान परमेश्वर शिवजी हँसकर कहने लगे- ॥ 1-2 ॥
श्रीमहादेवजी बोले- हे श्रेष्ठ देवताओ ! आप दोनों सावधान होकर मेरी बात सुनें, मैं सच्ची बात कह रहा हूँ, हे तात! मैं आप दोनोंका क्रोध सर्वदा सहता रहता हूँ। बालकों अर्थात् अज्ञानियोंके द्वारा किये गये अपराधका मैं न तो वर्णन करता हूँ और न चिन्तन ही करता हूँ। इसपर भी मेरी मायासे भ्रान्त प्राणियोंके शिक्षणार्थ ही मैं दण्ड धारण करता हूँ ॥ 3-4 ll
दक्षके यज्ञका विध्वंस मैंने कभी नहीं किया है। दक्ष स्वयं ही दूसरोंसे द्वेष करते हैं। दूसरोंके प्रति जैसा व्यवहार किया जायगा, वह अपने लिये ही फलित होगा। अतः दूसरोंको कष्ट देनेवाला कार्य कभी नहीं करना चाहिये, जो दूसरोंसे द्वेष करता है, वह द्वेष अपने लिये ही होता है ।। 5-6 ।।
दक्षका मस्तक जल गया है, इसलिये इनके सिरके स्थानमें बकरेका सिर जोड़ दिया जाय। भग | देवता मित्रकी आँखसे यज्ञका भाग देखें। हे तात! पूषा नामक देवता, जिनके दाँत टूट गये हैं, यजमानके दाँतोंसे भलीभाँति पिसे हुए अन्नका भक्षण करें। यह | मैंने सच्ची बात बतायी है। मेरा विरोध करनेवाले | भृगुकी दाढ़ीके स्थानमें बकरेकी दाढ़ी लगा दी जाय। | शेष सभी देवताओंके, जिन्होंने मुझे यज्ञका उच्छिष्टभाग दिया, सारे अंग पहलेकी भाँति ठीक हो जायें। याज्ञिकोंमेंसे जिनकी भुजाएँ टूट गयी हैं, वे अश्विनीकुमारोंकी भुजाओंसे और जिनके हाथ नष्ट हो गये हैं, वे पूषाके हाथोंसे अपना काम चलायें। यह मैंने आपलोगोंके प्रेमवश कहा है ।। 7-10 ॥
ब्रह्माजी बोले- [हे नारद!] इस प्रकार कहकर वेदका अनुसरण करनेवाले सुरसम्राट् चराचरपति दयालु परमेश्वर महादेवजी चुप हो गये भगवान् शंकरका वह वचन सुनकर श्रीविष्णु और ब्रह्मासहित सम्पूर्ण देवता सन्तुष्ट हो गये। वे तत्काल साधुवाद | देने लगे। तदनन्तर भगवान् शम्भुको आमन्त्रित करके मुझ ब्रह्मा और देवर्षियोंके साथ भगवान् विष्णु अत्यन्त हर्षित हो पुनः दक्षकी यज्ञशालाकी ओर चले ॥ 11-13 ॥
इस प्रकार उनकी प्रार्थनासे भगवान् शम्भु विष्णु आदि देवताओंके साथ कनखल में स्थित प्रजापति | दक्षकी यज्ञशालामें गये। उस समय रुद्रदेवने वहाँ यज्ञका और विशेषतः देवताओं तथा ऋषियोंका विध्वंस, जो वीरभद्र के द्वारा किया गया था, उसे देखा ।। 14-15 ।।
स्वाहा, स्वधा, पूषा, तुष्टि, भूति, सरस्वती, अन्य समस्त ऋषि, पितर, अग्नि तथा अन्यान्य बहुत से यक्ष, गन्धर्व और राक्षस वहाँ पड़े थे। उनमेंसे कुछ लोगोंके अंग तोड़ डाले गये थे। कुछ लोगोंके बाल नॉच लिये गये थे और कितने ही उस समरांगणमें मरे पड़े थे ।॥ 16-17 ll
उस यज्ञको वैसी दुरवस्था देखकर भगवान् शंकरने अपने गणनायक पराक्रमी वीरभद्रको बुलाकर हँसते हुए कहा- हे महाबाहु वीरभद्र ! यह तुमने कैसा काम किया? हे तात! थोड़ी ही देरमें देवता तथा ऋषि आदिको बड़ा भारी दण्ड दे दिया! हे तात! जिसने ऐसा [द्रोहपूर्ण] कार्य किया तथा इस विलक्षण यज्ञका आयोजन किया और जिसे ऐसा फल मिला, उस दक्षको तुम शीघ्र यहाँ ले आओ ॥ 18-20 ॥ ब्रह्माजी बोले- भगवान् शंकरके ऐसा कहनेपर | वीरभद्रने शीघ्रतापूर्वक दक्षका धड़ लाकर उन शम्भुके समक्ष डाल दिया ॥ 21 ॥हे मुनिश्रेष्ठ! उसे सिररहित देख लोककल्याणकारी भगवान् शंकरने आगे खड़े हुए वीरभद्रसे हँसकर पूछा- दक्षका सिर कहाँ है? तब प्रभावशाली वीरभद्रने कहा- हे शंकर! मैंने तो उसी समय दक्षके सिरको आगमें होम कर दिया था ॥ 22-23 ॥
वीरभद्रकी यह बात सुनकर भगवान् शंकरने | देवताओंको प्रसन्नतापूर्वक वैसी ही आज्ञा दी, जो पहले से दे रखी थी। भगवान् भवने उस समय जो कुछ कहा, उसकी मेरे द्वारा पूर्ति कराकर श्रीहरि आदि सब देवताओंने
भृगु आदि सबको शीघ्र ही ठीक कर दिया ।। 24-25 ॥ तदनन्तर शम्भुके आदेशसे प्रजापति दक्षके धडके साथ सवनीय पशु-बकरेका सिर जोड़ दिया गया। उस सिरके जोड़े जाते ही शम्भुकी कृपादृष्टि पड़ने से प्रजापति दक्ष प्राण प्राप्त करके तत्क्षण सोकर जगे हुए पुरुषकी भाँति उठकर खड़े हो गये ।। 26-27 ॥
उठते ही दक्षने प्रसन्नचित्त होकर प्रेमपूर्वक अपने सामने करुणानिधि भगवान् शंकरको देखा। पहले महादेवजीसे द्वेष करनेके कारण उनका अन्तःकरण मलिन हो गया था, परंतु उस समय शिवजीके दर्शनसे वे तत्काल शरद् ऋतुके चन्द्रमाकी भाँति निर्मल हो गये ।। 28-29 ।।
यद्यपि वे [प्रेमके वशीभूत होकर ] मनमें शिवजीकी स्तुति करनेकी इच्छा कर रहे थे, किंतु उन्हें उसी समय सतीके ब्रह्माजी बोले- शरीरत्यागका स्मरण हो गया, इसलिये वे उत्कण्ठासे व्याकुल होनेके कारण स्तुति नहीं कर सके ॥ 30 ॥
तदनन्तर लज्जित होकर दक्ष प्रजापति प्रसन्नचित हो विनम्रतापूर्वक लोकका कल्याण करनेवाले शंकरकी स्तुति करने लगे ॥ 31 ॥
दक्ष बोले- वरदानी, श्रेष्ठ, महेश्वर, ज्ञाननिधि, सनातन देवको नमस्कार करता हूँ। देवाधिदेवोंके भी ईश्वर, सुखरूप एवं संसारके एकमात्र बन्धु भगवान् | शंकरजीको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ 32 ॥
हे विश्वेश्वर! [आप] विश्वरूप, पुरातन, ब्रह्मा | तथा आत्मस्वरूपको मैं नमस्कार करता है। मैं शर्वको नमस्कार करता हूँ। मैं संसारके भावोंका चिन्तन | करनेवाले परात्पर शंकरको नमस्कार करता हूँ ॥ 33 ॥हे देवदेव! हे महादेव ! आपको नमस्कार है, मुझपर कृपा कीजिये। हे कृपानिधे! हे शम्भो ! आज मेरे अपराधको क्षमा कीजिये। हे शंकर! आपने दण्डके बहाने ही मुझपर अनुग्रह किया है। मैं खल और मूर्ख हूँ: हे देव मुझे आपके तत्त्वका ज्ञान नहीं था ।। 34-35 ।।
हे प्रभो! आप विष्णु एवं ब्रह्मादि देवोंके भी सेव्य, वेदोंसे जाननेयोग्य तथा महेश्वर हैं। आज मुझे आपके तात्त्विक स्वरूपका ज्ञान हुआ है, आप सभी | लोगोंमें श्रेष्ठ माने गये हैं। आप सत्पुरुषोंके लिये कल्पवृक्ष हैं और दुष्टोंको सदा दण्ड प्रदान करनेवाले हैं। आप सर्वथा स्वतन्त्र परमात्मा हैं एवं भक्तोंको अभीष्ट वर प्रदान करनेवाले हैं ।। 36-37 ॥
आप परमेश्वरने ही अपने मुखसे विद्या, तप तथा व्रत धारण करनेवाले इन ब्राह्मणोंको तत्त्वका साक्षात्कार करनेके लिये उत्पन्न किया है ॥ 38 ॥
समस्त गोरूप पशुओंकी रक्षा जिस प्रकार गोपतिद्वारा की जाती है, उसी प्रकार आप सभी विपत्तियोंसे रक्षा करते हैं। आप मर्यादाके परिपालक तथा दुर्जनोंके लिये दण्ड धारण करते हैं। हे भगवन्! मैंने अनेक प्रकारके कटु वचनरूपी बाणोंसे आप परमेश्वरको बींध डाला था, फिर भी अत्यन्त क्षीण आशावाले इन देवताओं सहित मुझपर आपने दया ही की है ।। 39-40 ।।
इसलिये हे शम्भो ! हे दीनबन्धो! हे भक्तवत्सल ! आप परात्पर भगवान् मेरे द्वारा की गयी पूजासे सन्तुष्ट हो जाइये ॥ 41 ॥
ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार लोकका कल्याण करनेवाले महाप्रभु महेश्वरको विनम्रतापूर्वक स्तुतिकर प्रजापति मौन हो गये। उसके बाद भगवान् विष्णु प्रसन्नचित्त होकर दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करके गद्गद वाणी से वृषभध्वज शिवकी स्तुति करने लगे- ॥ 42-43 ।।
विष्णु बोले - हे महादेव! हे महेशान! लोकपर अनुग्रह करनेवाले हे दीनबन्धो। हे दयानिधे! आप परब्रह्म परमात्मा हैं। हे प्रभो। आप सर्वव्यापी स्वतन्त्र हैं, आपका यश वेदोंसे ही जाना जा सकता है। आपने हमलोगोंपर कृपा की है, उससे हमलोग कृतकृत्य हो गये ।। 44-45 ।।
हे महेश्वर। इस मेरे भक्त दुष्ट दक्षने पूर्वमें आपकी जो निन्दा की है, उसे आप आज क्षमा कीजिये;क्योंकि आप निर्विकार हैं। हे शंकर! मैंने भी मूर्खतावश आपका अपराध किया है, जो दक्षके पक्षसे आपके गण वीरभद्रके साथ युद्ध किया ।। 46-47 ।। हे सदाशिव! आप मेरे स्वामी हैं, आप परब्रह्म हैं, मैं आपका दास हूँ, आप सभीके पिता हैं। इसलिये आपको हम सबका पालन करना चाहिये ॥ 48 ।।
ब्रह्माजी बोले- हे देवदेव ! हे महादेव हे करुणासागर! हे प्रभो! आप स्वतन्त्र, परमात्मा, परमेश्वर, अद्वय तथा अविनाशी हैं ।। 49 ।।
हे ईश्वर! हे देव! आपने मेरे इस पुत्रपर अनुग्रह किया है, अब आप अपना अपमान भूलकर दक्षके यज्ञका उद्धार कीजिये। हे देवेश अब आप प्रसन्न हो जाइये और अपने सभी प्रकारके शापोंसे इसका उद्धार कीजिये आप ज्ञानवान् ही मुझे प्रेरणा देनेवाले हैं और आप ही निवारण करनेवाले हैं ॥ 50-51 ॥
हे महामुने। इस प्रकार परमात्मा महेश्वरकी स्तुति करके दोनों हाथ जोड़कर मैंने अपने मस्तकको झुकाकर उन्हें प्रणाम किया। तदनन्तर इन्द्र आदि | देवतागण एवं लोकपाल सावधान होकर प्रसन्न मुख कमलवाले शंकरजीकी स्तुति करने लगे । ll 52-53 ll
उसके बाद अन्य सभी देवता, सिद्ध, ऋषि एवं प्रजापतिगण भी प्रसन्नताके साथ शिवजीकी स्तुति करने लगे। तत्पश्चात् उपदेवता, नाग, सदस्य तथा ब्राह्मणलोग भी सद्भकिसे प्रणामकर अलग-अलग | स्तुति करने लगे ।। 54-55 ॥