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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 3 (पार्वती खण्ड) , अध्याय 19 - Sanhita 2, Khand 3 (पार्वती खण्ड) , Adhyaya 19

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भगवान् शिवकी नेत्रज्वालासे कामदेवका भस्म होना और रतिका विलाप, देवताओं द्वारा रतिको सान्त्वना प्रदान करना और भगवान् शिवसे कामको जीवित करनेकी प्रार्थना करना

नारदजी बोले - हे ब्रह्मन् ! हे विधे! हे महाभाग ! इसके अनन्तर फिर क्या हुआ? आप मुझपर दयाकर इस पापको विनष्ट करनेवाली कथाका पुनः वर्णन कीजिये ॥ 1 ॥

ब्रह्माजी बोले- हे तात! इसके अनन्तर जो हुआ, उसे आप सुनें। मैं आपके स्नेहवश आनन्ददायक शिवलीलाका वर्णन करूँगा। [हे नारद!] उसके बाद महायोगी महेश्वर [ अपने] धैर्यके नाशको देखकर अत्यन्त विस्मित हो मनमें इस प्रकार विचार करने लगे ।। 2-3 ।।

शिवजी बोले- मैं तो उत्तम तपस्या कर रहा था, उसमें विघ्न कैसे आ गया! किस कुकर्मीने यहाँ मेरे चित्तमें विकार पैदा कर दिया है। मैंने दूसरेकी स्त्रीके विषयमें प्रेमपूर्वक निन्दित वर्णन किया। यह तो धर्मका विरोध हो गया और शास्त्रमर्यादाका उल्लंघन हुआ ।। 4-5 ।।

ब्रह्माजी बोले- तब सज्जनोंके एकमात्र रक्षक महायोगी परमेश्वर शिव इस प्रकार विचारकर शंकित हो सम्पूर्ण दिशाओंकी ओर देखने लगे। इसी समय वामभागमें बाण खींचे खड़े हुए कामपर उनकी दृष्टि पड़ी। यह मूढचित्त मदन अपनी शक्तिके गर्वसे चूर होकर पुनः अपना बाण छोड़ना ही चाह रहा था ।। 6-7 ।।

हे नारद! उस अवस्थामें कामपर दृष्टि पड़ते ही | परमात्मा गिरीशको तत्काल क्रोध उत्पन्न हो गया ॥ 8 ॥हे मुने! इधर, आकाशमें बाणसहित धनुष लेकर खड़े हुए कामने भगवान् शंकरपर अपना दुर्निवार तथा अमोघ अस्त्र छोड़ दिया। परमात्मा शिवपर वह अमोघ अस्त्र व्यर्थ हो गया। कुपित हुए परमेश्वरके पास जाते ही वह शान्त हो गया । 9-10 ॥

तदनन्तर भगवान् शिवपर अपने अस्त्रके व्यर्थ हो जानेपर मन्मथको बड़ा भय हुआ। भगवान् मृत्युंजयको देखकर उनके सामने खड़ा होकर वह काँप उठा हे मुनिश्रेष्ठ! यह कामदेव अपने प्रयासके निष्फल हो जानेपर भयसे व्याकुल होकर इन्द्र आदि सभी देवताओंका स्मरण करने लगा ॥ 11-12 ॥

हे मुनीश्वर! कामदेवके स्मरण करनेपर वे इन्द्र आदि सब देवता आ गये और शम्भुको प्रणामकर उनकी स्तुति करने लगे ॥ 13 ॥

देवता स्तुति कर ही रहे थे कि कुपित हुए भगवान् शिवके ललाटके मध्यभागमें स्थित तृतीय नेत्रसे बड़ी भारी आगकी ज्वाला तत्काल प्रकट होकर निकली। वे लाएँ ऊपरकी ओर उठ रही थीं। वह आग धू-धू करके जलने लगी। उसकी ज्योति प्रलयाग्निके समान मालूम पड़ती थी । ll 14-15 ॥

वह ज्वाला तत्काल ही आकाशमें उछलकर पृथ्वीपर गिरकर फिर अपने चारों ओर चक्कर काटती हुई कामदेवपर जा गिरी हे साधी क्षमा कीजिये, क्षमा कीजिये, यह बात जबतक देवताओंने कही, तबतक उस आगने कामदेवको जलाकर राख कर दिया ।। 16-17 ॥

उस वीर कामदेवके मारे जानेपर देवताओंको बड़ा दुःख हुआ। वे व्याकुल होकर, यह क्या हुआ, इस प्रकार कहकर जोर-जोरसे चीत्कार करते हुए रोने बिलखने लगे। उस समय घबरायी हुई पार्वतीका समस्त शरीर सफेद पड़ गया और वे सखियोंको साथ लेकर अपने भवनको चली गयीं। [ कामदेवके जल जानेपर] रति वहाँ क्षणभरके लिये अचेत हो गयी। पतिके मृत्युजनित दुःखसे वह मरी हुईकी भाँति पड़ी रही ।। 18-20 ।।

[थोड़ी देरमें] चेतना आनेपर अत्यन्त व्याकुल होकर वह रति उस समय तरह-तरहकी बातें कहती | हुई विलाप करने लगी ॥ 21 ॥रति बोली- मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ ? देवताओनि यह क्या किया, मेरे उद्धत स्वामीको बुलाकर उन्होंने नष्ट करा दिया। हाय! हाय! हे नाथ! हे स्मर! हे स्वामिन्! हे प्राणप्रिय ! हे सुखप्रद । हे प्रिय ! हे प्रिय ! यह यहाँ क्या हो गया ? ।। 22-23 ।।

ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार रोती-बिलखती और अनेक प्रकारकी बातें कहती हुई वह हाथ-पैर पटककर सिरके बालोंको नोंचने लगी ॥ 24 ॥

हे नारद! उस समय उसका विलाप सुनकर वहाँ रहनेवाले समस्त वनवासी तथा सभी स्थावर प्राणी भी दुखी हो गये। इसी बीच इन्द्र आदि समस्त देवता महेश्वरका स्मरण करते हुए रतिको आश्वस्त करके उससे कहने लगे- ॥ 25-26 ll

देवता बोले- थोड़ा-सा भस्म लेकर उसे यत्नपूर्वक रखो और भय छोड़ दो। वे स्वामी महादेवजी [कामदेवको] जीवित कर देंगे और तुम पतिको पुनः प्राप्त कर लोगी ll 27 ॥

कोई न सुख देनेवाला है और न कोई दुःख ही देनेवाला है। सब लोग अपनी करनीका फल भोगते हैं। तुम देवताओंको दोष देकर व्यर्थ ही शोक करती हो ॥ 28 ॥

ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार रतिको समझा बुझाकर सब देवता भगवान् शिक्के समीप आये और उन्हें भक्तिसे प्रसन्न करके यह वचन कहने लगे- ॥ 29 ॥

देवता बोले-हे भगवन हे प्रभो हे महेशान! हे शरणागतवत्सल ! आप कृपा करके हमारे इस शुभ वचनको सुनिये ll 30 ॥

हे शंकर आप कामदेवके कृत्यपर भलीभाँति अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक विचार कीजिये। हे महेश्वर ! कामने जो यह कार्य किया है, इसमें उसका कोई स्वार्थ नहीं था 31 ॥

हे विभो। दुष्ट तारकासुरसे पीड़ित हुए सब देवताओंने मिलकर उससे यह कार्य कराया है। हे नाथ! हे शंकर! इसे आप अन्यथा न समझें ॥ 32 ॥

सब कुछ प्रदान करनेवाले हे देव! हे गिरिश! साध्वी रति अकेली अति दुखी होकर विलाप कर रही है, आप उसे सान्त्वना प्रदान कीजिये ॥ 33 ॥हे शंकर! यदि इस क्रोधके द्वारा आपने कामदेवको मार डाला, तो हम यही समझेंगे कि आप | देवताओं सहित समस्त प्राणियोंका अभी संहार कर डालना चाहते हैं ॥ 34 ॥

उस रतिका दुःख देखकर देवता नष्टप्राय हो गये हैं। इसलिये आपको रतिका शोक दूर कर देना चाहिये ।। 35 ।। ब्रह्माजी बोले- [हे नारद!] उन सम्पूर्ण देवताओंका यह वचन सुनकर भगवान् शिव प्रसन्न हो गये और यह वचन कहने लगे- ॥ 36 ॥

शिवजी बोले- हे देवताओ और ऋषियो। आप सब आदरपूर्वक मेरी बात सुनिये। मेरे क्रोधसे जो कुछ हो गया है, वह तो अन्यथा नहीं हो सकता, तथापि रतिका शक्तिशाली पति कामदेव तभीतक अनंग रहेगा, जबतक रुक्मिणीपति श्रीकृष्णका धरतीपर अवतार नहीं हो जाता ।। 37-38 ।।

जब श्रीकृष्ण द्वारकामें रहकर पुत्रको उत्पन्न करेंगे, तब ये रुक्मिणीके गर्भसे कामको भी जन्म देंगे ॥ 39 ॥ उस कामका ही नाम [उस समय ] प्रद्युम्न होगा, इसमें संशय नहीं है। उस पुत्रके जन्म लेते ही शम्बरासुर उसे हर लेगा। हरण करके दानवश्रेष्ठ मूर्ख शम्बर उसे समुद्रमें फेंककर और उसे मरा हुआ जानकर वृथा ही अपने नगरको लौट जायगा। हे रते! तुम्हें उस समयतक शम्बरासुरके नगरमें सुखपूर्वक निवास करना चाहिये, वहींपर तुम्हें अपने पति प्रद्युम्नकी प्राप्ति होगी ll 40-42 ॥

हे देवताओ। वहाँ बुद्धमें उस शम्बरासुरका वध | करके कामदेव अपनी पत्नीको प्राप्त करके सुखी होगा ।। 43 ।।

हे देवताओ ! प्रद्युम्न नामधारी वह काम शम्बरासुरका जो भी धन होगा, उसे लेकर उस रतिके साथ [अपने] नगरमें जायगा, मेरा यह कथन सर्वथा सत्य होगा ।। 44 ll

ब्रह्माजी बोले- [हे नारद!] शिवजीकी यह | बात सुनकर देवताओंके चित्तमें कुछ उल्लास हुआ और वे सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़कर उनसे कहने लगे - ॥ 45 ॥देवता बोले- हे देवदेव हे महादेव ! हे करुणा सागर! हे प्रभो ! हे हर ! आप कामदेवको शीघ्र जीवित कर दीजिये तथा रतिके प्राणोंकी रक्षा कीजिये ॥ 46 ॥ ब्रह्माजी बोले- देवताओंकी यह बात सुनकर सबके स्वामी करुणासागर परमेश्वर शिव प्रसन्न होकर पुनः कहने लगे - ॥ 47 ॥

शिवजी बोले- हे देवताओ! मैं बहुत प्रसन्न हूँ, मैं कामको सबके हृदयमें जीवित कर दूँगा और वह सदा मेरा गण होकर विहार करेगा ।। 48 ।।

हे देवताओ ! आपलोग इस आख्यानको किसीके सामने मत कहियेगा, आपलोग अपने स्थानको जाइये, मैं सब प्रकारसे [ आपलोगोंके] दुःखका नाश करूँगा ।। 49 ।।

ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार कहकर रुद्रदेव देवताओंके स्तुति करते-करते ही अन्तर्धान हो गये । तब सभी देवता अत्यन्त प्रसन्न तथा सन्देहरहित हो गये ॥ 50 ॥ हे मुने! तदनन्तर रुद्रकी बातपर भरोसा करके वे देवता रतिको आश्वासन देकर तथा उससे उनका वचन कहकर अपने-अपने धामको चले गये। हे मुनीश्वर ! तब वह कामपत्नी शिवके बताये हुए नगरको चली गयी तथा रुद्रके बताये गये समयकी प्रतीक्षा करने लगी ॥ 51-52 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] पितरोंकी कन्या मेनाके साथ हिमालयके विवाहका वर्णन
  2. [अध्याय 2] पितरोंकी तीन मानसी कन्याओं-मेना, धन्या और कलावतीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त तथा सनकादिद्वारा प्राप्त शाप एवं वरदानका वर्णन
  3. [अध्याय 3] विष्णु आदि देवताओंका हिमालयके पास जाना, उन्हें उमाराधनकी विधि बता स्वयं भी देवी जगदम्बाकी स्तुति करना
  4. [अध्याय 4] उमादेवीका दिव्यरूपमें देवताओंको दर्शन देना और अवतार ग्रहण करनेका आश्वासन देना
  5. [अध्याय 5] मेनाकी तपस्यासे प्रसन्न होकर देवीका उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन देकर वरदान देना, मेनासे मैनाकका जन्म
  6. [अध्याय 6] देवी उमाका हिमवान्‌के हृदय तथा मेनाके गर्भमें आना, गर्भस्था देवीका देवताओं द्वारा स्तवन, देवीका दिव्यरूपमें प्रादुर्भाव, माता मेनासे वार्तालाप तथा पुनः नवजात कन्याके रूपमें परिवर्तित होना
  7. [अध्याय 7] पार्वतीका नामकरण तथा उनकी बाललीलाएँ एवं विद्याध्ययन
  8. [अध्याय 8] नारद मुनिका हिमालयके समीप गमन, वहाँ पार्वतीका हाथ देखकर भावी लक्षणोंको बताना, चिन्तित हिमवान्‌को शिवमहिमा बताना तथा शिवसे विवाह करनेका परामर्श देना
  9. [अध्याय 9] पार्वतीके विवाहके सम्बन्धमें मेना और हिमालयका वार्तालाप, पार्वती और हिमालयद्वारा देखे गये अपने स्वप्नका वर्णन
  10. [अध्याय 10] शिवजीके ललाटसे भौमोत्पत्ति
  11. [अध्याय 11] भगवान् शिवका तपस्याके लिये हिमालयपर आगमन, वहाँ पर्वतराज हिमालयसे वार्तालाप
  12. [अध्याय 12] हिमवान्‌का पार्वतीको शिवकी सेवामें रखनेके लिये उनसे आज्ञा मांगना, शिवद्वारा कारण बताते हुए इस प्रस्तावको अस्वीकार कर देना
  13. [अध्याय 13] पार्वती और परमेश्वरका दार्शनिक संवाद, शिवका पार्वतीको अपनी सेवाके लिये आज्ञा देना, पार्वतीका महेश्वरकी सेवामें तत्पर रहना
  14. [अध्याय 14] तारकासुरकी उत्पत्तिके प्रसंगों दितिपुत्र बज्रांगकी कथा, उसकी तपस्या तथा वरप्राप्तिका वर्णन
  15. [अध्याय 15] वरांगीके पुत्र तारकासुरकी उत्पत्ति, तारकासुरकी तपस्या एवं ब्रह्माजीद्वारा उसे वरप्राप्ति, वरदानके प्रभावसे तीनों लोकोंपर उसका अत्याचार
  16. [अध्याय 16] तारकासुरसे उत्पीड़ित देवताओंको ब्रह्माजीद्वारा सान्त्वना प्रदान करना
  17. [अध्याय 17] इन्द्रके स्मरण करनेपर कामदेवका उपस्थित होना, शिवको तपसे विचलित करनेके लिये इन्द्रद्वारा कामदेवको भेजना
  18. [अध्याय 18] कामदेवद्वारा असमयमें वसन्त ऋतुका प्रभाव प्रकट करना, कुछ क्षणके लिये शिवका मोहित होना, पुनः वैराग्य भाव धारण करना
  19. [अध्याय 19] भगवान् शिवकी नेत्रज्वालासे कामदेवका भस्म होना और रतिका विलाप, देवताओं द्वारा रतिको सान्त्वना प्रदान करना और भगवान् शिवसे कामको जीवित करनेकी प्रार्थना करना
  20. [अध्याय 20] शिवकी क्रोधाग्निका वडवारूप धारण और ब्रह्माद्वारा उसे समुद्रको समर्पित करना
  21. [अध्याय 21] कामदेवके भस्म हो जानेपर पार्वतीका अपने घर आगमन, हिमवान् तथा मेनाद्वारा उन्हें धैर्य प्रदान करना, नारदद्वारा पार्वतीको पंचाक्षर मन्त्रका उपदेश
  22. [अध्याय 22] पार्वतीकी तपस्या एवं उसके प्रभावका वर्णन
  23. [अध्याय 23] हिमालय आदिका तपस्यानिरत पार्वतीके पास जाना, पार्वतीका पिता हिमालय आदिको अपने तपके विषयमें दृढ़ निश्चयकी बात बताना, पार्वतीके तपके प्रभावसे त्रैलोक्यका संतप्त होना, सभी देवताओंका भगवान् शंकरके पास जाना
  24. [अध्याय 24] देवताओंका भगवान् शिवसे पार्वतीके साथ विवाह करनेका अनुरोध, भगवान्का विवाहके दोष बताकर अस्वीकार करना तथा उनके पुनः प्रार्थना करनेपर स्वीकार कर लेना
  25. [अध्याय 25] भगवान् शंकरकी आज्ञासे सप्तर्षियोंद्वारा पार्वतीके शिवविषयक अनुरागकी परीक्षा करना और वह वृत्तान्त भगवान् शिवको बताकर स्वर्गलोक जाना
  26. [अध्याय 26] पार्वतीकी परीक्षा लेनेके लिये भगवान् शिवका जटाधारी ब्राह्मणका वेष धारणकर पार्वतीके समीप जाना, शिव-पार्वती संवाद
  27. [अध्याय 27] जटाधारी ब्राह्मणद्वारा पार्वतीके समक्ष शिवजीके स्वरूपकी निन्दा करना
  28. [अध्याय 28] पार्वतीद्वारा परमेश्वर शिवकी महत्ता प्रतिपादित करना और रोषपूर्वक जटाधारी ब्राह्मणको फटकारना, शिवका पार्वतीके समक्ष प्रकट होना
  29. [अध्याय 29] शिव और पार्वतीका संवाद, विवाहविषयक पार्वतीके अनुरोधको शिवद्वारा स्वीकार करना
  30. [अध्याय 30] पार्वतीके पिताके घरमें आनेपर महामहोत्सवका होना, महादेवजीका नटरूप धारणकर वहाँ उपस्थित होना तथा अनेक लीलाएँ दिखाना, शिवद्वारा पार्वतीकी याचना, किंतु माता-पिताके द्वारा मना करनेपर अन्तर्धान हो जाना
  31. [अध्याय 31] देवताओंके कहनेपर शिवका ब्राह्मण वेषमें हिमालयके यहाँ जाना और शिवकी निन्दा करना
  32. [अध्याय 32] ब्राह्मण वेषधारी शिवद्वारा शिवस्वरूपकी निन्दा सुनकर मेनाका कोपभवनमें गमन शिवद्वारा सप्तर्षियोंका स्मरण और उन्हें हिमालयके घर भेजना, हिमालयकी शोभाका वर्णन तथा हिमालयद्वारा सप्तर्षियोंका स्वागत
  33. [अध्याय 33] वसिष्ठपत्नी अरुन्धती reद्वारा मेना को समझाना तथा
  34. [अध्याय 34] सप्तर्षियोंद्वारा हिमालयको राजा अनरण्यका आख्यान सुनाकर पार्वतीका विवाह शिवसे करनेकी प्रेरणा देना
  35. [अध्याय 35] धर्मराजद्वारा मुनि पिप्पलादकी भार्या सती पद्माके पातिव्रत्यकी परीक्षा, पद्माद्वारा धर्मराजको शाप प्रदान करना तथा पुनः चारों युगोंमें शापकी व्यवस्था करना, पातिव्रत्यसे प्रसन्न हो धर्मराजद्वारा पद्माको अनेक वर प्रदान करना, महर्षि वसिष्ठद्वारा हिमवान्से पद्माके दृष्टान्तद्वारा अपनी पुत्री शिवको सौंपनेके लिये कहना
  36. [अध्याय 36] सप्तर्षियोंके समझानेपर हिमवान्‌का शिवके साथ अपनी पुत्रीके विवाहका निश्चय करना, सप्तर्षियोंद्वारा शिवके पास जाकर उन्हें सम्पूर्ण वृत्तान्त बताकर अपने धामको जाना
  37. [अध्याय 37] हिमालयद्वारा विवाहके लिये लग्नपत्रिकाप्रेषण, विवाहकी सामग्रियोंकी तैयारी तथा अनेक पर्वतों एवं नदियोंका दिव्य रूपमें सपरिवार हिमालयके घर आगमन
  38. [अध्याय 38] हिमालयपुरीकी सजावट, विश्वकर्माद्वारा दिव्यमण्डप एवं देवताओंके निवासके लिये दिव्यलोकोंका निर्माण करना
  39. [अध्याय 39] भगवान् शिवका नारदजीके द्वारा सब देवताओंको निमन्त्रण दिलाना, सबका आगमन तथा शिवका मंगलाचार एवं ग्रहपूजन आदि करके कैलाससे बाहर निकलना
  40. [अध्याय 40] शिवबरातकी शोभा भगवान् शिवका बरात लेकर हिमालयपुरीकी ओर प्रस्थान
  41. [अध्याय 41] नारदद्वारा हिमालयगृहमें जाकर विश्वकर्माद्वारा बनाये गये विवाहमण्डपका दर्शनकर मोहित होना और वापस आकर उस विचित्र रचनाका वर्णन करना
  42. [अध्याय 42] हिमालयद्वारा प्रेषित मूर्तिमान् पर्वतों और ब्राह्मणोंद्वारा बरातकी अगवानी, देवताओं और पर्वतोंके मिलापका वर्णन
  43. [अध्याय 43] मेनाद्वारा शिवको देखनेके लिये महलकी छतपर जाना, नारदद्वारा सबका दर्शन कराना, शिवद्वारा अद्भुत लीलाका प्रदर्शन, शिवगणों तथा शिवके भयंकर वेषको देखकर मेनाका मूर्च्छित होना
  44. [अध्याय 44] शिवजीके रूपको देखकर मेनाका विलाप, पार्वती तथा नारद आदि सभीको फटकारना, शिवके साथ कन्याका विवाह न करनेका हठ, विष्णुद्वारा मेनाको समझाना
  45. [अध्याय 45] भगवान् शिवका अपने परम सुन्दर दिव्य रूपको प्रकट करना, मेनाकी प्रसन्नता और क्षमा प्रार्थना तथा पुरवासिनी स्त्रियोंका शिवके रूपका दर्शन करके जन्म और जीवनको सफल मानना
  46. [अध्याय 46] नगरमें बरातियोंका प्रवेश द्वाराचार तथा पार्वतीद्वारा कुलदेवताका पूजन
  47. [अध्याय 47] पाणिग्रहण के लिये हिमालयके घर शिवके गमनोत्सवका वर्णन
  48. [अध्याय 48] शिव-पार्वती विवाहका प्रारम्भ, हिमालयद्वारा शिवके गोत्रके विषयमें प्रश्न होनेपर नारदजीके द्वारा उत्तरके रूपमें शिवमाहात्म्य प्रतिपादित करना, हर्षयुक्त हिमालयद्वारा कन्यादानकर विविध उपहार प्रदान करना
  49. [अध्याय 49] अग्निपरिक्रमा करते समय पार्वतीके पदनखको देखकर ब्रह्माका मोहग्रस्त होना, बालखिल्योंकी उत्पत्ति, शिवका कुपित होना, देवताओंद्वारा शिवस्तुति
  50. [अध्याय 50] शिवा शिवके विवाहकृत्यसम्पादनके अनन्तर देवियोंका शिवसे मधुर वार्तालाप
  51. [अध्याय 51] रतिके अनुरोधपर श्रीशंकरका कामदेवको जीवित करना, देवताओंद्वारा शिवस्तुति
  52. [अध्याय 52] हिमालयद्वारा सभी बरातियोंको भोजन कराना, शिवका विश्वकर्माद्वारा निर्मित वासगृहमें शयन करके प्रातःकाल जनवासेमें आगमन
  53. [अध्याय 53] चतुर्थीकर्म, बरातका कई दिनोंतक ठहरना, सप्तर्षियोंके समझानेसे हिमालयका बरातको विदा करनेके लिये राजी होना, मेनाका शिवको अपनी कन्या सौंपना तथा बरातका पुरीके बाहर जाकर ठहरना
  54. [अध्याय 54] मेनाकी इच्छा अनुसार एक ब्राह्मणपत्नीका पार्वतीको पातिव्रतधर्मका उपदेश देना
  55. [अध्याय 55] शिव-पार्वती तथा बरातकी विदाई, भगवान् शिवका समस्त देवताओंको विदा करके कैलासपर रहना और शिव विवाहोपाख्यानके श्रवणकी महिमा