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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 5 (युद्ध खण्ड) , अध्याय 7 - Sanhita 2, Khand 5 (युद्ध खण्ड) , Adhyaya 7

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भगवान् शिवकी प्रसन्नताके लिये देवताओंद्वारा मन्त्रजप, शिवका प्राकट्य तथा त्रिपुर- विनाशके लिये दिव्य रथ आदिके निर्माणके लिये विष्णुजीसे कहना

सनत्कुमार बोले- समस्त देवता आदिके इस वचनको सुनकर शरणागतोंकी रक्षा करनेवाले भक्तवत्सल सदाशिवने उनकी बात स्वीकार कर ली हे मुने! इसी बीच देवी पार्वती अपने दोनों पुत्रोंको लेकर वहाँ आ गयीं, जहाँ सदाशिव देवताओंके साथ स्थित थे ॥ 1-2 ॥

तब देवीको वहाँ उपस्थित देखकर विष्णु आदि सभी देवता आश्चर्ययुक्त हो गये और सम्भ्रमयुक्त होकर नम्रतासे उन्हें शीघ्रतापूर्वक प्रणाम करने लगे ॥ 3 ॥हे मुने! उन सभीने शुभ लक्षण प्रकट करनेवाला जय-जयकार किया और उनके आनेका कारण न जानते हुए वे लोग मौन हो गये। इसके बाद सभी देवताओंसे स्तुत एवं अद्भुत कुतूहल करनेवाली वे देवी नानालीला विशारद अपने स्वामीसे प्रेमपूर्वक कहने लगीं- ॥ 4-5 ॥

देवी बोलीं- हे विभो ! हे पुत्रवानोंमें श्रेष्ठ! उत्तम आभूषणोंसे भूषित तथा सूर्यके समान देदीप्यमान खेलते हुए अपने षण्मुख पुत्रको देखिये ॥ 6 ॥

सनत्कुमार बोले- जब लोकमाताने अपनी वाणीसे इस प्रकार शिवजीको सम्बोधित करते हुए कहा, तब स्कन्दके मुखामृतका पान करते हुए शिवजीको तृप्ति नहीं हुई ॥ 7 ॥

उस समय महेश्वरको दैत्योंके तेजसे पीड़ित होकर आये हुए देवताओंका स्मरण नहीं रहा और वे स्कन्दका आलिंगन करके तथा उनका सिर सूँघकर बड़े प्रसन्न हुए ॥ 8 ॥

अनेक लीलाओंमें विशारद श्रीजगदम्बा भी महेश्वरसे मन्त्रणाकर कुछ कालतक वहीं स्थित | रहकर पुनः उठ खड़ी हुईं। इसके बाद सभी देवताओंसे वन्दित होते हुए उत्तम लीलावाले भगवान् सदाशिवने कार्तिकेय, नन्दी तथा उन गिरिराजपुत्रीके साथ अपने भवनमें प्रवेश किया ll 9-10 ॥

हे मुने! [शंकरको घरमें गया देख] सम्पूर्ण | देवता महाव्याकुल एवं क्षुब्धमन होकर बुद्धिमान् देवाधिदेवके द्वारके समीप खड़े रहे। अब हम क्या करें, कहाँ जायँ, कौन हमलोगोंको सुख देनेवाला है और यह क्या हो गया ? हाय हमलोग मारे गये ऐसा वे सब कहने लगे। एक-दूसरेको देखकर इन्द्र | आदि अत्यन्त व्याकुल हो गये और अपने भाग्यको धिक्कारते हुए विकल वचन कहने लगे। कुछ देवताओंने कहा- हाय! हमलोग बड़े पापी हैं। दूसरोंने कहा- हाय, हम अभागे हैं, अन्योंने कहा वे असुर तो बड़े भाग्यवान् हैं ॥ 11-14 ॥

उसी समय उनके अनेक प्रकारके शब्दोंको सुनकर महातेजस्वी कुम्भोदर [नामका गण] देवताओंको | दण्डसे मारने लगा। तब वे देवता भयभीत होकरहाय हाय करते हुए वहाँसे भाग गये। कितने ही मुनि तथा अन्य लोग गिर पड़े, उस समय चारों और हाहाकार होने लगा। इन्द्र अत्यन्त व्याकुल होकर घुटनोंके बल पृथ्वीपर गिर पड़े, इसी प्रकार अन्य देवता तथा ऋषि भी व्याकुल होकर पृथ्वीपर गिर पड़े । ll 15 - 17 ॥ तब सभी देवता एवं मुनि परस्पर मिलकर व्याकुल हो शिवके मित्रभूत ब्रह्मा एवं विष्णु के समीप गये ।। 18 ।।

उस समय कश्यपादि सभी मुनि संसारका भय दूर करनेवाले विष्णुजीसे कहने लगे-अहो ! यह प्रारब्धका बल है। दूसरे द्विज कहने लगे कि अभाग्यसे हमारा काम पूरा नहीं हुआ और दूसरे लोग अति विस्मित होकर विचार करने लगे कि यह विघ्न कैसे उपस्थित हो गया हे मुने। तब कश्यपादिके द्वारा कहे गये इस वचनको सुनकर विष्णुजी मुनियों तथा देवताओंको सान्त्वना देते हुए यह वचन कहने लगे - ॥ 19-21 ॥

विष्णु बोले- हे देवताओ! हे मुनियो आप सभीलोग हमारा वचन आदरसे सुनिये, आपलोग इस प्रकार क्यों दुखी हो रहे हैं, आपलोग अपने समस्त दुःखोंका त्याग कर दीजिये हे देवताओ महान् लोगोंका आराधन सरल नहीं है आपलोग स्वयं विचार कीजिये, बड़े लोगोंकी आराधनामें पहले दुःख ही होता है - ऐसा हमने सुना है। हे देवताओ! शिवजी दृढ़ताको जानकर निश्चय ही प्रसन्न हो जाते हैं ॥ 22-23 ॥

सदाशिव सभी गणोंके अध्यक्ष एवं परमेश्वर हैं। आप सभीलोग अपने मनमें विचार कीजिये कि वे सहसा कैसे वशमें हो सकते हैं। सबसे पहले ॐ का उच्चारण करके उसके बाद 'नमः' उच्चारण करे। पुनः 'शिवाय', फिर दो बार शुभं शुभं, इसके बाद | दो बार 'कुरु' बताया गया है। तदनन्तर 'शिवाय नमः' तदनन्तर प्रणव लगाना चाहिये (ॐ नमः शिवाय शुभं शुभं कुरु कुरु शिवाय नमः ॐ) हें देवताओ! यदि आपलोग शिवजीके लिये इस मन्त्रका एक करोड़ सदा जप करें, तो शिवजी प्रसन्न होकर तुम्हारा कार्य अवश्य करेंगे ।। 24-27 ॥हे मुने। उन सर्वसमर्थ विष्णुके द्वारा ऐसा कहे जानेपर देवतालोग उसी तरह शिवकी आराधना करने लगे। उस समय विष्णुजी भी ब्रह्माजीके साथ शिवमें अपना मन एकाकर देवताओं एवं मुनियोंका विशेष रूपसे कार्य सिद्ध करनेके निमित्त जप करने लगे। हे मुनिसत्तम! धैर्य धारणकर वे देवगण बारंबार 'शिव' इस प्रकार उच्चारण करते हुए एक करोड़ मन्त्रका जपकर वहीं स्थित हो गये ॥ 28-30 ॥

इसी बीच स्वयं सदाशिव उनके सामने साक्षात् यथोक्त स्वरूपसे प्रकट हो गये और यह वचन कहने लगे- ॥ 31 ॥

श्रीशिव बोले- हे हरे हे विधे हे देवगण! शुभव्रतवाले हे मुनियो ! मैं इस जपसे प्रसन्न हूँ, आपलोग अभीष्ट वर माँगिये ॥ 32 ॥

देवगण बोले- हे देवेश! हे जगदीश ! हे शंकर! यदि आप प्रसन्न हैं, तो देवताओंको व्याकुल जानकर त्रिपुरोंका वध कीजिये। हे परमेशान! हे दीनबन्धो हे कृपाकर! आप हम सबकी रक्षा करें; क्योंकि आपने ही विपत्तियोंसे देवताओंकी सदा बारंबार रक्षा की है ।। 33-34 ॥

सनत्कुमार बोले- हे ब्रह्मन् तब ब्रह्मा, विष्णु एवं देवताओंका कहा गया यह वचन सुनकर शिवजीने मन-ही-मन हँसकर कहा- ॥ 35 ॥ महेश बोले- हे विष्णो! हे विधे! हे देवगणो!

हे मुनियो! आप सब त्रिपुरको नष्ट हुआ समझकर आदर करके मेरे वचनको सुनें आपलोगोंने पूर्व समयमें जो रथ, सारथी, दिव्य धनुष तथा उत्तम बाण देना स्वीकार किया था, वह सब शीघ्र उपस्थित कीजिये। हे विष्णो! हे विधे! आप त्रिलोकाधिपति हैं, इसलिये शीघ्र हमारे सम्राट् पदके योग्य सामग्री यत्नपूर्वक उपस्थित कीजिये। त्रिपुरको नष्ट समझकर सृष्टि तथा पालनके लिये नियुक्त किये गये आप दोनों इन देवताओंकी सहायता करें ।। 36-39 ।।

यह मन्त्र महापुण्यप्रद, मुझे प्रसन्न करनेवाला, शुभ, भोग-मोक्ष प्रदान करनेवाला, सभी प्रकारकी कामनाओंको पूर्ण करनेवाला, शिवभक्तोंको सुख देनेवाला, धन्य, यश देनेवाला, आयुको बढ़ानेवाला,स्वर्गकी इच्छा करनेवालोंको स्वर्ग तथा कामनारहित पुरुषोंको मुक्ति देनेवाला है, यह मुमुक्षुओंको भोग तथा मोक्ष दोनों प्रदान करता है। जो मनुष्य पवित्र होकर नित्य इस मन्त्रका जप करता है अथवा इस मन्त्रको सुनता अथवा सुनाता है, उसकी समस्त कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं ॥। 40-42 ॥

सनत्कुमार बोले- उन परमात्मा शिवजीके इस वचनको सुनकर सभी देवता प्रसन्न हो गये और विष्णु एवं ब्रह्माको अधिक प्रसन्नता हुई । तदनन्तर उनकी आज्ञासे विश्वकर्माने संसारके कल्याणके लिये सर्वदेवमय, दिव्य तथा अत्यन्त सुन्दर रथका निर्माण किया ।। 43-44 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] तारकासुरके पुत्र तारकाक्ष, विद्युन्माली एवं कमलाक्षकी तपस्यासे प्रसन्न ब्रह्माद्वारा उन्हें वरकी प्राप्ति, तीनों पुरोंकी शोभाका वर्णन
  2. [अध्याय 2] तारकपुत्रोंसे पीड़ित देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और उनके परामर्शके अनुसार असुर- वधके लिये भगवान् शंकरकी स्तुति करना
  3. [अध्याय 3] त्रिपुरके विनाशके लिये देवताओंका विष्णुसे निवेदन करना, विष्णुद्वारा त्रिपुरविनाशके लिये यज्ञकुण्डसे भूतसमुदायको प्रकट करना, त्रिपुरके भयसे भूतोंका पलायित होना, पुनः विष्णुद्वारा देवकार्यकी सिद्धिके लिये उपाय सोचना
  4. [अध्याय 4] त्रिपुरवासी दैत्योंको मोहित करनेके लिये भगवान् विष्णुद्वारा एक मुनिरूप पुरुषकी उत्पत्ति, उसकी सहायताके लिये नारदजीका त्रिपुरमें गमन, त्रिपुराधिपका दीक्षा ग्रहण करना
  5. [अध्याय 5] मायावी यतिद्वारा अपने धर्मका उपदेश, त्रिपुरवासियोंका उसे स्वीकार करना, वेदधर्मके नष्ट हो जानेसे त्रिपुरमें अधर्माचरणकी प्रवृत्ति
  6. [अध्याय 6] त्रिपुरध्वंसके लिये देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  7. [अध्याय 7] भगवान् शिवकी प्रसन्नताके लिये देवताओंद्वारा मन्त्रजप, शिवका प्राकट्य तथा त्रिपुर- विनाशके लिये दिव्य रथ आदिके निर्माणके लिये विष्णुजीसे कहना
  8. [अध्याय 8] विश्वकर्माद्वारा निर्मित सर्वदेवमय दिव्य रथका वर्णन
  9. [अध्याय 9] ब्रह्माजीको सारथी बनाकर भगवान् शंकरका दिव्य रथमें आरूढ़ होकर अपने गणों तथा देवसेनाके साथ त्रिपुर- वधके लिये प्रस्थान, शिवका पशुपति नाम पड़नेका कारण
  10. [अध्याय 10] भगवान् शिवका त्रिपुरपर सन्धान करना, गणेशजीका विघ्न उपस्थित करना, आकाशवाणीद्वारा बोधित होनेपर शिवद्वारा विघ्ननाशक गणेशका पूजन, अभिजित् मुहूर्तमें तीनों पुरोंका एकत्र होना और शिवद्वारा बाणाग्निसे सम्पूर्ण त्रिपुरको भस्म करना, मयदानवका बचा रहना
  11. [अध्याय 11] त्रिपुरदाहके अनन्तर भगवान् शिवके रौद्ररूपसे भयभीत देवताओं द्वारा उनकी स्तुति और उनसे भक्तिका वरदान प्राप्त करना
  12. [अध्याय 12] त्रिपुरदाहके अनन्तर शिवभक्त मयदानवका भगवान् शिवकी शरणमें आना, शिवद्वारा उसे अपनी भक्ति प्रदानकर वितललोकमें निवास करनेकी आज्ञा देना, देवकार्य सम्पन्नकर शिवजीका अपने लोकमें जाना
  13. [अध्याय 13] बृहस्पति तथा इन्द्रका शिवदर्शन के लिये कैलासकी ओर प्रस्थान, सर्वज्ञ शिवका उनकी परीक्षा लेनेके लिये दिगम्बर जटाधारी रूप धारणकर मार्ग रोकना, कुद्ध इन्द्रद्वारा उनपर वज्रप्रहारकी चेष्टा, शंकरद्वारा उनकी भुजाको स्तम्भित कर देना, बृहस्पतिद्वारा उनकी स्तुति, शिवका प्रसन्न होना और अपनी नेत्राग्निको क्षार-समुद्रमें फेंकना
  14. [अध्याय 14] क्षारसमुद्रमें प्रक्षिप्त भगवान् शंकरकी नेत्राग्निसे समुद्रके पुत्रके रूपमें जलन्धरका प्राकट्य, कालनेमिकी पुत्री वृन्दाके साथ उसका विवाह
  15. [अध्याय 15] राहुके शिरश्छेद तथा समुद्रमन्थनके समयके देवताओंके छलको जानकर जलन्धरद्वारा क्रुद्ध होकर स्वर्गपर आक्रमण, इन्द्रादि देवोंकी पराजय, अमरावतीपर जलन्धरका आधिपत्य, भयभीत देवताओंका सुमेरुकी गुफामें छिपना
  16. [अध्याय 16] जलन्धरसे भयभीत देवताओंका विष्णुके समीप जाकर स्तुति करना, विष्णुसहित देवताओंका जलन्धरकी सेनाके साथ भयंकर युद्ध
  17. [अध्याय 17] विष्णु और जलन्धरके युद्धमें जलन्धरके पराक्रमसे सन्तुष्ट विष्णुका देवों एवं लक्ष्मीसहित उसके नगरमें निवास करना
  18. [अध्याय 18] जलन्धरके आधिपत्यमें रहनेवाले दुखी देवताओंद्वारा शंकरकी स्तुति, शंकरजीका देवर्षि नारदको जलन्धरके पास भेजना, वहाँ देवोंको आश्वस्त करके नारदजीका जलन्धरकी सभा में जाना, उसके ऐश्वर्यको देखना तथा पार्वतीके सौन्दर्यका वर्णनकर उसे प्राप्त करनेके लिये
  19. [अध्याय 19] पार्वतीको प्राप्त करनेके लिये जलन्धरका शंकरके पास दूतप्रेषण, उसके वचनसे उत्पन्न क्रोधसे शम्भुके भ्रूमध्यसे एक भयंकर पुरुषकी उत्पत्ति, उससे भयभीत जलन्धरके दूतका पलायन, उस पुरुषका कीर्तिमुख नामसे शिवगण
  20. [अध्याय 20] दूतके द्वारा कैलासका वृत्तान्त जानकर जलन्धरका अपनी सेनाको युद्धका आदेश देना, भयभीत देवोंका शिवकी शरणमें जाना, शिवगणों तथा जलन्धरकी सेनाका युद्ध, शिवद्वारा कृत्याको उत्पन्न करना, कृत्याद्वारा शुक्राचार्यको छिपा लेना
  21. [अध्याय 21] नन्दी, गणेश, कार्तिकेय आदि शिवगणोंका कालनेमि, शुम्भ तथा निशुम्भ के साथ घोर संग्राम, वीरभद्र तथा जलन्धरका युद्ध, भयाकुल शिवगणोंका शिवजीको सारा वृत्तान्त बताना
  22. [अध्याय 22] श्रीशिव और जलन्धरका युद्ध, जलन्धरद्वारा गान्धर्वी मायासे शिवको मोहितकर शीघ्र ही पार्वतीके पास पहुँचना, उसकी मायाको जानकर पार्वतीका अदृश्य हो जाना और भगवान् विष्णुको जलन्धरपत्नी वृन्दाके पास जानेके लिये कहना
  23. [अध्याय 23] विष्णुद्वारा माया उत्पन्नकर वृन्दाको स्वप्नके माध्यमसे मोहित करना और स्वयं जलन्धरका रूप धारणकर वृन्दाके पातिव्रतका हरण करना, वृन्दाद्वारा विष्णुको शाप देना तथा वृन्दाके तेजका पार्वतीमें विलीन होना
  24. [अध्याय 24] दैत्यराज जलन्धर तथा भगवान् शिवका घोर संग्राम, भगवान् शिवद्वारा चक्रसे जलन्धरका शिरश्छेदन, जलन्धरका तेज शिवमें प्रविष्ट होना, जलन्धर- वधसे जगत्में सर्वत्र शान्तिका विस्तार
  25. [अध्याय 25] जलन्धरवधसे प्रसन्न देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  26. [अध्याय 26] विष्णुजीके मोहभंगके लिये शंकरजीकी प्रेरणासे देवोंद्वारा मूलप्रकृतिकी स्तुति मूलप्रकृतिद्वारा आकाशवाणीके रूपमें देवोंको आश्वासन, देवताओंद्वारा त्रिगुणात्मिका देवियोंका स्तवन, विष्णुका मोहनाश, धात्री (आँवला), मालती तथा तुलसीकी उत्पत्तिका आख्यान
  27. [अध्याय 27] शंखचूडकी उत्पत्तिकी कथा
  28. [अध्याय 28] शंखचूडकी पुष्कर - क्षेत्रमें तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरकी प्राप्ति, ब्रह्माकी प्रेरणासे शंखचूडका तुलसीसे विवाह
  29. [अध्याय 29] शंखचूडका राज्यपदपर अभिषेक, उसके द्वारा देवोंपर विजय, दुखी देवोंका ब्रह्माजीके साथ वैकुण्ठगमन, विष्णुद्वारा शंखचूडके पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना और विष्णु तथा ब्रह्माका शिवलोक गमन
  30. [अध्याय 30] ब्रह्मा तथा विष्णुका शिवलोक पहुँचना, शिवलोककी तथा शिवसभाकी शोभाका वर्णन, शिवसभाके मध्य उन्हें अम्बासहित भगवान् शिवके दिव्यस्वरूपका दर्शन और शंखचूडसे प्राप्त कष्टोंसे मुक्ति के लिये प्रार्थना
  31. [अध्याय 31] शिवद्वारा ब्रह्मा-विष्णुको शंखचूडका पूर्ववृत्तान्त बताना और देवोंको शंखचूडवथका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] भगवान् शिक्के द्वारा शंखचूडको समझानेके लिये गन्धर्वराज चित्ररथ (पुष्पदन्त ) को दूतके रूपमें भेजना, शंखचूडद्वारा सन्देशकी अवहेलना और युद्ध करनेका अपना निश्चय बताना, पुष्पदन्तका वापस आकर सारा वृत्तान्त शिवसे निवेदित करना
  33. [अध्याय 33] शंखचूडसे युद्धके लिये अपने गणोंके साथ भगवान् शिवका प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] तुलसीसे विदा लेकर शंखचूडका युद्धके लिये ससैन्य पुष्पभद्रा नदीके तटपर पहुँचना
  35. [अध्याय 35] शंखचूडका अपने एक बुद्धिमान् दूतको शंकरके पास भेजना, दूत तथा शिवकी वार्ता, शंकरका सन्देश लेकर दूतका वापस शंखचूडके पास आना
  36. [अध्याय 36] शंखचूडको उद्देश्यकर देवताओंका दानवोंके साथ महासंग्राम
  37. [अध्याय 37] शंखचूडके साथ कार्तिकेय आदि महावीरोंका युद्ध
  38. [अध्याय 38] श्रीकालीका शंखचूडके साथ महान् युद्ध, आकाशवाणी सुनकर कालीका शिवके पास आकर युद्धका वृत्तान्त बताना
  39. [अध्याय 39] शिव और शंखमूहके महाभयंकर युद्ध शंखचूडके सैनिकोंके संहारका वर्णन
  40. [अध्याय 40] शिव और शंखचूडका युद्ध, आकाशवाणीद्वारा शंकरको युद्धसे विरत करना, विष्णुका ब्राह्मणरूप धारणकर शंखचूडका कवच माँगना, कवचहीन शंखचूडका भगवान् शिवद्वारा वध, सर्वत्र हर्षोल्लास
  41. [अध्याय 41] शंखचूडका रूप धारणकर भगवान् विष्णुद्वारा तुलसीके शीलका हरण, तुलसीद्वारा विष्णुको पाषाण होनेका शाप देना, शंकरजीद्वारा तुलसीको सान्त्वना, शंख, तुलसी, गण्डकी एवं शालग्रामकी उत्पत्ति तथा माहात्म्यकी कथा
  42. [अध्याय 42] अन्धकासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवके वरदानसे हिरण्याक्षद्वारा अन्धकको पुत्ररूपमें प्राप्त करना, हिरण्याक्षद्वारा पृथ्वीको पाताललोकमें ले जाना, भगवान् विष्णुद्वारा वाराहरूप धारणकर हिरण्याक्षका वधकर पृथ्वीको यथास्थान स्थापित करना
  43. [अध्याय 43] हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्मासे वरदान पाकर उसका अत्याचार, भगवान् नृसिंहद्वारा उसका वध और प्रह्लादको राज्यप्राप्ति
  44. [अध्याय 44] अन्धकासुरकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे अनेक वरोंकी प्राप्ति, त्रिलोकीको जीतकर उसका स्वेच्छाचारमें प्रवृत्त होना, मन्त्रियोंद्वारा पार्वतीके सौन्दर्यको सुनकर मुग्ध हो शिवके पास सन्देश भेजना और शिवका उत्तर सुनकर
  45. [अध्याय 45] अन्धकासुरका शिवकी सेनाके साथ युद्ध
  46. [अध्याय 46] भगवान् शिव एवं अन्धकासुरका युद्ध, अन्धककी मायासे उसके रक्तसे अनेक अन्धकगणोंकी उत्पत्ति, शिवकी प्रेरणासे विष्णुका कालीरूप धारणकर दानवोंके रक्तका पान करना, शिवद्वारा अन्धकको अपने त्रिशूलमें लटका लेना, अन्धककी स्तुतिसे प्रसन्न हो शिवद्वारा उसे गाणपत्य पद प्रदान करना
  47. [अध्याय 47] शुक्राचार्यद्वारा युद्धमें मरे हुए दैत्योंको संजीवनी विद्यासे जीवित करना, दैत्योंका युद्धके लिये पुनः उद्योग, नन्दीश्वरद्वारा शिवको यह वृत्तान्त बतलाना, शिवकी आज्ञासे नन्दीद्वारा युद्ध-स्थलसे शुक्राचार्यको शिवके पास लाना, शिवद्वारा शुक्राचार्यको निगलना
  48. [अध्याय 48] शुक्राचार्यकी अनुपस्थितिसे अन्धकादि दैत्योंका दुखी होना, शिवके उदरमें शुक्राचार्यद्वारा सभी लोकों तथा अन्धकासुरके युद्धको देखना और फिर शिवके शुकरूपमें बाहर निकलना, शिव-पार्वतीका उन्हें पुत्ररूपमें स्वीकारकर विदा करना
  49. [अध्याय 49] शुक्राचार्यद्वारा शिवके उदरमें जपे गये मन्त्रका वर्णन, अन्धकद्वारा भगवान् शिवकी नामरूपी स्तुति प्रार्थना, भगवान् शिवद्वारा अन्धकासुरको जीवनदानपूर्वक गाणपत्य पद प्रदान करना
  50. [अध्याय 50] शुक्राचार्यद्वारा काशीमें शुक्रेश्वर लिंगकी स्थापनाकर उनकी आराधना करना, मूर्त्यष्टक स्तोत्रसे उनका स्तवन, शिवजीका प्रसन्न होकर उन्हें मृतसंजीवनी विद्या प्रदान करना और ग्रहोंके मध्य प्रतिष्ठित करना
  51. [अध्याय 51] प्रह्लादकी वंशपरम्परामें बलिपुत्र वाणासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवभक्त बाणासुरद्वारा ताण्डव नृत्यके प्रदर्शनसे शंकरको प्रसन्न करना, वरदानके रूपमें शंकरका बाणासुरकी नगरीमें निवास करना, शिव-पार्वतीका बिहार, पार्वतीद्वारा बाणपुत्री ऊषाको वरदान
  52. [अध्याय 52] अभिमानी बाणासुरद्वारा भगवान् शिवसे युद्धकी याचना, बाणपुत्री ऊषाका रात्रिके समय स्वप्नमें अनिरुद्ध के साथ मिलन, चित्रलेखाद्वारा योगबलसे अनिरुद्धका द्वारकासे अपहरण, अन्तःपुरमें अनिरुद्ध और ऊषाका मिलन तथा द्वारपालोंद्वारा यह समाचार बाणासुरको बताना
  53. [अध्याय 53] क्रुद्ध बाणासुरका अपनी सेनाके साथ अनिरुद्धपर आक्रमण और उसे नागपाशमें बांधना, दुर्गाके स्तवनद्वारा अनिरुद्धका बन्धनमुक्त होना
  54. [अध्याय 54] नारदजीद्वारा अनिरुद्धके बन्धनका समाचार पाकर श्रीकृष्णकी शोणितपुरपर चढ़ाई, शिवके साथ उनका घोर युद्ध, शिवकी आज्ञासे श्रीकृष्णका उन्हें जृम्भणास्त्रसे मोहित करके बाणासुरकी सेनाका संहार करना
  55. [अध्याय 55] भगवान् कृष्ण तथा बाणासुरका संग्राम, श्रीकृष्णद्वारा बाणकी भुजाओंका काटा जाना, सिर काटनेके लिये उद्यत हुए श्रीकृष्णको शिवका रोकना और उन्हें समझाना, बाणका गर्वापहरण, श्रीकृष्ण और बाणासुरकी मित्रता, ऊषा अनिरुद्धको लेकर श्रीकृष्णका द्वारका आना
  56. [अध्याय 56] बाणासुरका ताण्डवनृत्यद्वारा भगवान् शिवको प्रसन्न करना, शिवद्वारा उसे अनेक मनोऽभिलषित वरदानोंकी प्राप्ति, बाणासुरकृत शिवस्तुति
  57. [अध्याय 57] महिषासुर के पुत्र गजासुरकी तपस्या तथा ब्रह्माद्वारा वरप्राप्ति, उन्मत्त गजासुरद्वारा अत्याचार, उसका काशीमें आना, देवताओंद्वारा भगवान् शिवसे उसके बधकी प्रार्थना, शिवद्वारा उसका वध और उसकी प्रार्थनासे उसका धर्म धारणकर 'कृत्तिवासा' नामसे विख्यात होना एवं कृत्तिवासेश्वर लिंगकी स्थापना करना
  58. [अध्याय 58] काशीके व्याघ्रेश्वर लिंग-माहात्म्यके सन्दर्भमें दैत्य दुन्दुभिनिर्ह्रादके वधकी कथा
  59. [अध्याय 59] काशीके कन्दुकेश्वर शिवलिंगके प्रादुर्भावमें पार्वतीद्वारा बिदल एवं उत्पल दैत्योंके वधकी कथा, रुद्रसंहिताका उपसंहार तथा इसका माहात्म्य