नारदजी बोले - हे ब्रह्मन् ! हे प्रजापते ! हे तात! आप धन्य हैं; क्योंकि आपकी बुद्धि भगवान् शिवमें लगी हुई हैं। हे विधे! आप पुनः इसी विषयका सम्यक् | प्रकारसे विस्तारपूर्वक मुझसे वर्णन कीजिये ॥ 1॥
ब्रह्माजी बोले- हे तात! एक समयकी बात है: कमलसे उत्पन्न होनेवाले मैंने चारों ओरसे ऋषियों और देवताओंको बुलाकर प्रेमपूर्वक सुन्दर और मधुर वाणीमें कहा- ॥ 2 ॥
यदि आप सब नित्य सुख प्राप्त करनेकी इच्छा रखते हैं और नित्य अपने मनोरथको सिद्धि चाहते हैं, तो मेरे साथ क्षीरसागरके तटपर आयें ॥ 3 ॥
इस वचनको सुनकर वे सब मेरे साथ वहाँपर गये, जहाँ सर्वकल्याणकारी भगवान् विष्णु निवास करते हैं॥ 4 ll
हे मुने! वहाँपर जाकर सभी देवता भगवान् जगन्नाथ देवदेवेश्वर जनार्दन विष्णुको हाथ जोड़कर प्रणाम करके खड़े हो गये। ब्रह्मा आदि उन उपस्थित देवताओंको देखकर [मनमें] शिवके चरणकमलका स्मरण करते हुए विष्णु कहने लगे- ॥ 5-6 ll
विष्णुजी बोले- हे ब्रह्मादि देवो और ऋषियो आपलोग यहाँ किसलिये आये हुए हैं? प्रेमपूर्वक एव कुछ कहें ? इस समय कौन-सा कार्य आ पड़ा ? ॥ 7 ॥
ब्रह्माजी बोले—भगवान् विष्णुके द्वारा ऐसा पूछनेपर मैंने उन्हें प्रणाम किया और उपस्थित उन सभी देवताओंसे कहा कि इस समय आप सबके आनेका क्या प्रयोजन है? इसका निवेदन आप सब करें ॥ 8 ॥
देवता बोले – [हे विष्णो!] किसकी सेवा है, जो सभी दुःखोंको दूर करनेवाली है, जिसको कि हमें नित्य करना चाहिये। देवताओंका यह वचन सुनकर | भक्तवत्सल भगवान् विष्णु देवताओं सहित मेरी प्रसन्नताके लिये कृपापूर्वक यह वाक्य कहने लगे- ॥ 9-10 ॥
श्रीभगवान् बोले- हे ब्रह्मन् देवोंके साथ आपने पहले भी इस विषयमें सुना है, किंतु आज पुनः आपको और देवताओंको बता रहा हूँ ll 11 ॥हे ब्रह्मन्! अपने-अपने कार्योंमें संलग्न समस्त देवोंके साथ आपने जो देखा है और इस समय जो देख रहे हैं, उसके विषयमें बार-बार क्यों पूछ रहे हैं ? ॥ 12 ॥
सभी दुःखोंको दूर करनेवाले शंकरजीकी ही सदा सेवा करनी चाहिये। यह बात स्वयं ही उन्होंने विशेषकर मुझसे और ब्रह्मासे भी कही थी॥ 13 ॥ इस अद्भुत दृष्टान्तको आप सब लोगोंने भी देखा है। अतः सुख चाहनेवाले लोगोंको कभी भी उनका पूजन नहीं छोड़ना चाहिये ।। 14 ।।
देवदेवेश्वर भगवान् शंकरके लिंगमूर्तिरूप महेश्वरका त्याग करके अपने बन्धु बान्धवोंसहित तारपुत्र नष्ट हो गये। [शिवकी आराधनाका परित्याग करनेके कारण] वे सब मेरे द्वारा मायासे मोहित कर दिये गये और जब वे शिवकी भक्तिसे वंचित हो गये, तब वे सब नष्ट और ध्वस्त हो गये ।। 15-16 ll
अतः हे देवसत्तम! लिंगमूर्ति धारण करनेवाले भगवान् शंकरको विशेष श्रद्धाके साथ सदैव पूजा और सेवा करनी चाहिये। शिवलिंगकी पूजा करनेसे ही देवता दैत्य, हम और आप सभी श्रेष्ठताको प्राप्त कर सके हैं, हे ब्रह्मन्। आपने उसे कैसे भुला दिया है ? ।। 17-18 ।।
इसलिये जिस किसी भी तरहसे भगवान् शिवके लिंगका पूजन नित्य करना ही चाहिये हे ब्रह्मन् । ! सभी मनोकामनाओंकी पूर्ति के लिये देवताओंको भगवान् शिवकी पूजा करनी चाहिये ॥ 19 ॥
वही [मनुष्य जीवनकी बहुत बड़ी] हानि है, वही [ उसके चरित्रका ] बहुत बड़ा छिद्र है, वही उसकी अन्धता और वही महामूर्खता है, जिस मुहूर्त अथवा क्षणमें मनुष्य शिवका पूजन नहीं करता है ॥ 20 ॥
जो शिवभक्तिपरायण हैं, जो शिवमें अनुरक चित्तवाले हैं और जो शिवका स्मरण करते हैं, वे दुःखके पात्र नहीं होते जो महाभाग मनको अच्छे लगनेवाले सुन्दर-सुन्दर भवन, सुन्दर आभूषणोंसे युक्त स्त्रियों, इच्छानुकूल धन, पुत्र-पौत्रादि सन्तति, निरोग शरीर अलौकिक प्रतिष्ठा, स्वर्गलोकका सुख, अन्तकालमें मुक्तिलाभ तथा परमेश्वरकी भक्ति चाहते हैं. वे पूर्वजन्मकृत पुण्याधिक्यके कारण सदाशिवको अर्चना किया करते हैं ॥ 21-24 ॥जो भक्तिपरायण मनुष्य शिवलिंगकी नित्य करता है, उसीकी सिद्धि सफल होती है और वह पापोंसे लिप्त नहीं होता है ॥ 25 ॥
ब्रह्माजी बोले- श्रीभगवान् विष्णुने जब देवताओंसे ऐसा कहा, तब उन्होंने साक्षात् हरिको प्रणाम करके मनुष्योंकी समस्त कामनाओंकी प्राप्तिके लिये उनसे शिवलिंग देनेकी प्रार्थना की ॥ 26 ॥
उसको सुनकर भगवान् विष्णुने विश्वकर्मासे कहा- हे मुनिश्रेष्ठ ! मैं तो जीवोंका उद्धार करनेमें तत्पर हूँ। हे विश्वकर्मन् ! मेरी आज्ञासे आप भगवान् शिवके कल्याणकारी लिंगोंका निर्माण करके उन्हें सभी देवताओंको प्रदान कीजिये ।। 27-28 ॥
ब्रह्माजी बोले- तब विश्वकर्माने अधिकारके अनुसार शिवलिंगोंका निर्माण करके मेरी और विष्णुकी आज्ञासे उन सभी शिवलिंगोंको उन देवताओंको प्रदान किया ॥ 29 ॥
हे ऋषिश्रेष्ठ! वही मैं आज आपसे कह रहा हूँ, सुनिये । इन्द्र पद्मरागमणिसे बने शिवलिंग, विश्रवापुत्र कुबेर सुवर्णलिंग, धर्म पीतवर्ण पुखराजकी मणिसे निर्मित लिंग, वरुण श्यामवर्णकी मणियोंसे बने हुए लिंग, विष्णु इन्द्रनीलमणिसे निर्मित लिंग, ब्रह्मा सुवर्णसे बने शिवलिंग, हे मुने! सभी विश्वेदेव चाँदीसे निर्मित शिवलिंग, वसुगण पीतलके शिवलिंग, अश्विनीकुमार पार्थिव लिंग, देवी लक्ष्मी स्फटिकमणिनिर्मित लिंग, सभी आदित्य ताम्रनिर्मित लिंग, सोमराज चन्द्रमा मौक्तिक शिवलिंग, अग्निदेव वज्रमणि [हीरे] से बने शिवलिंग, श्रेष्ठ ब्राह्मण और उनकी पत्नियाँ मृण्मय पार्थिव शिवलिंग, मयदानव चन्दनके शिवलिंग, नाग मूँगेसे बने शिवलिंगका आदरपूर्वक विधिवत् पूजन करते हैं ।। 30-34 ॥
देवी दुर्गा मक्खनसे बने हुए शिवलिंग, योगी भस्मनिर्मित शिवलिंग, यक्ष दधिनिर्मित शिवलिंग तथा छाया चावल के आटेकी पीठीसे बने हुए शिवलिंगको विधिवत् पूजा करती हैं। ब्रह्माणी देवी रत्नमय शिवलिंगकी पूजा करती हैं। बाणासुर पारेसे बने शिवलिंग तथा दूसरे लोग मिट्टी आदिसे बनाये गये। पार्थिव शिवलिंगका विधिवत् पूजन करते हैं ।। 35-36 ।।विश्वकर्माने इसी प्रकारके शिवलिंग देवताओं और ऋषियोंको भी दिये थे, जिनकी पूजा वे सभी देवता और ऋषि सदैव करते रहते हैं॥ 37 ॥
देवताओंकी हितकामनाके लिये विष्णुने उन्हें शिवलिंग प्रदान करके मुझ ब्रह्मासे शिवका पूजन विधान भी बताया। उनके द्वारा कहे गये शिवलिंगके उस पूजनविधानको सुनकर प्रसन्नचित्त में ब्रह्मा देवताओंके साथ अपने स्थानपर लौट आया ।। 38-39 ॥
हे मुने! वहाँ आकरके मैंने सभी देवों और ऋषियोंको सम्पूर्ण अभीष्टकी सिद्धि करनेवाले शिवलिंगके पूजन-विधानको बताया ।। 40 ।।
ब्रह्माजी बोले- हे सभी देवताओं और ऋषियो! सुनिये। मैं प्रसन्नतापूर्वक आप सबसे शिवपूजनकी उस विधिका वर्णन करने जा रहा है, जो भोग और मोक्षको देनेवाली है ॥ 41 ॥
हे देवो! हे मुनीश्वरो सभी जीव-जन्तुओंमें मनुष्यका जन्म प्राप्त करना दुर्लभ है, उसमें भी उत्तम कुलमें जन्म लेना तो अत्यन्त दुर्लभ है। उत्तम कुलमें भी सदाचारी ब्राह्मणोंके यहाँ जन्म लेना अच्छे पुण्योंसे ही सम्भव है। अतः भगवान् सदाशिवकी प्रसन्नताके लिये सदैव स्ववर्णाश्रम-विहित कर्म करते रहना चाहिये ।। 42-43 ।।
जिस जातिके लिये जो-जो सत्कर्म बताया गया है, उस उस कर्मका उल्लंघन नहीं करना चाहिये, जितनी सम्पत्ति हो, उसके अनुसार दानकर्म करना चाहिये ।। 44 ।।
कर्ममय सहस्रों यज्ञोंकी अपेक्षा तपयज्ञ श्रेष्ठ है। सहस्रों तपयज्ञोंकी अपेक्षा जपयज्ञका महत्त्व अधिक है। ध्यान-यज्ञसे बढ़कर तो कोई वस्तु है ही नहीं। ध्यान ज्ञानका साधन है; क्योंकि योगी ध्यानके द्वारा अपने इष्टदेव एकरस सदाशिवका साक्षात्कार करता है ।। 45-46 ॥
भगवान् सदाशिव सदैव ध्यानयज्ञमें तत्पर रहनेवाले उपासकके सान्निध्य में रहते हैं जो विज्ञानसे सम्पन्न हैं, उनकी शुद्धिके लिये किसी प्रायश्चित्त आदिकी आवश्यकता नहीं है ॥ 47 ॥हे ब्रह्मन् ! जो ब्रह्मविद् विशुद्ध ब्रह्मविद्याके द्वारा ब्रह्म-साक्षात्कार कर लेते हैं, उन्हें क्रिया, सुख-दुःख, इस धर्म-अधर्म, जप, होम, ध्यान और ध्यान-विधिको जानने तथा करनेकी आवश्यकता नहीं है। वे विद्यासे सदा निर्विकार रहते हैं और अन्तमें अमर हो जाते हैं । ll 48-49 ॥
इस शिवलिंगको परमानन्द देनेवाला, विशुद्ध, कल्याणस्वरूप, अविनाशी, निष्कल, सर्वव्यापक तथा योगियोंके हृदयमें अवस्थित रहनेवाला जानना चाहिये ॥ 50 ll
हे द्विजो! शिवलिंग दो प्रकारका बताया गया है- बाह्य और आभ्यन्तर । बाह्य लिंगको स्थूल एवं आभ्यन्तर लिंगको सूक्ष्म माना गया है ॥ 51 ॥
जो कर्मयज्ञमें तत्पर रहनेवाले हैं, वे स्थूल लिंगकी अर्चनामें रत रहते हैं। सूक्ष्मतया शिवके प्रति ध्यान करनेमें अशक्त अज्ञानियोंके लिये शिवके इस स्थूलविग्रहकी कल्पना की गयी है। जिसको इस आध्यात्मिक सूक्ष्मलिंगका प्रत्यक्षीकरण नहीं होता है, उसे उस स्थूल लिंगमें इस सूक्ष्म लिंगकी कल्पना करनी चाहिये, इसके अतिरिक्त कोई अन्य उपाय नहीं है ।। 52-53 ।।
ज्ञानियोंके लिये सूक्ष्मलिंगकी पूजाका विधान हैं, [जिसमें ध्यानकी प्रधानता होती है।] ध्यान करनेसे उस शिवका साक्षात्कार होता है, जो सदैव निर्मल और अव्यय रहनेवाला है। जिस प्रकार अज्ञानियोंके | लिये स्थूल लिंगकी उत्कृष्टता बतायी गयी है, उसी | प्रकार ज्ञानियोंके लिये इस सूक्ष्मलिंगको उत्तम माना गया है ॥ 54 ॥
दूसरे तत्त्वार्थवादियोंके विचारसे आगे कोई | अन्तर नहीं है; क्योंकि निष्कल तथा कलामयरूपसे वह सबके चित्तमें रहता है। सम्पूर्ण जगत् शिवस्वरूप ही है ॥ 55 ॥
इस प्रकार ज्ञानके द्वारा शिवका साक्षात्कार | करके विमुक्त हुए लोगोंको कोई भी पाप नहीं लगता। उनके लिये विधि-निषेध और विहित-अविहित कुछ भी नहीं है ॥ 56 ॥जिस प्रकार जलके भीतर रहते हुए भी कमल जलसे लिप्त नहीं होता है, उसी प्रकार घरमें रहते हुए भी ज्ञानी पुरुषको कर्म अपने बन्धनमें बाँध नहीं पाते हैं ॥ 57 ॥
इस प्रकारका ज्ञान जबतक मनुष्यको प्राप्त न हो जाय, तबतक उसे कर्मविहित स्थूल या सूक्ष्म शिवलिंगका निर्माणादि करके सदाशिवकी ही आराधना करनी चाहिये ।। 58 ।।
जिस प्रकार विश्वासके लिये जगत्में सूर्य एक ही स्थित है और एक होते हुए भी जलके आधार जलाशय आदि वस्तुओंमें [ अपने प्रतिबिम्बके कारण ] बहुत-से रूपोंमें दिखायी पड़ता है, उसी प्रकार हे देवो! यह सत्-असत्रूप जो कुछ भी इस संसारमें सुनायी और दिखायी दे रहा है, उसे आपलोग शिवस्वरूप परब्रह्म ही समझें ॥। 59-60 ।।
जलतत्त्वके एक होनेपर भी उनके सम्बन्धमें जो भेद प्रतीत होता है, वह संसारमें सम्यक् विचार न करनेके कारण ही है-ऐसा अन्य सभी वेदार्थतत्त्वज्ञ भी कहते हैं ॥ 61 ॥
संसारियोंके हृदयमें सकल लिंगस्वरूप साक्षात् परमेश्वरका वास है—ऐसा ज्ञान जिसको हो गया है, उसको प्रतिमा आदिसे क्या प्रयोजन है ! ll 62 ॥
इस प्रकारके ज्ञानसे हीन प्राणीके लिये शुभ प्रतिमाकी कल्पना की गयी है; क्योंकि ऊँचे स्थानपर चढ़नेके लिये मनुष्यके लिये आलम्बन आवश्यक बताया गया है ॥ 63 ॥
जैसे आलम्बनके बिना ऊँचे स्थानपर चढ़ना मनुष्यके लिये अत्यन्त कठिन ही नहीं सर्वथा असम्भव है, वैसे ही निर्गुण ब्रह्मकी प्राप्तिके लिये प्रतिमाका अवलम्बन आवश्यक कहा गया है ॥ 64 ॥
सगुणसे ही निर्गुणकी प्राप्ति होती है ऐसा निश्चित है। इस प्रकार सभी देवताओंकी प्रतिमाएँ उन देवोंमें विश्वास उत्पन्न करनेके लिये होती हैं ॥ 65 ॥
ये देव सभी देवताओंसे महान हैं। इन्हींके लिये यह पूजनका विधान है। यदि प्रतिमा न हो, तो गन्ध चन्दन, पुष्पादिकी आवश्यकता किस कार्यसिद्धिके लिये रह जायगी ॥ 66 ॥प्रतिमाका पूजन तबतक करते रहना चाहिये, जबतक विज्ञान [परब्रह्म परमेश्वरका ज्ञान] प्राप्त नहीं हो जाता। बिना ज्ञान प्राप्त किये ही जो प्रतिमाका पूजन छोड़ देता है, उसका निश्चित ही पतन होता है ॥ 67 ॥ हे ब्राह्मणो! इस कारण आपलोग परमार्थरूपसे
सुनें। अपनी जातिके अनुसार [शास्त्रोंमें] जो कर्म बताया गया है, उसे प्रयत्नपूर्वक करना चाहिये ।। 68 ।। जहाँ-जहाँ जैसी भक्ति हो, वहाँ-वहाँ तदनुरूप पूजनादि कर्म करना चाहिये क्योंकि पूजन, दान आदिके बिना पाप दूर नहीं होता ॥ 69 ॥
जबतक शरीरमें पाप रहता है, तबतक सिद्धिकी प्राप्ति नहीं होती है। पापके दूर हो जानेपर उसका सब कुछ सफल हो जाता है ॥ 70 ॥
जिस प्रकार मलिन वस्त्रमें रंग बहुत सुन्दर नहीं चढ़ता, किंतु उसे भली प्रकारसे धोकर स्वच्छ कर लेनेपर पूरा रंग अच्छी तरहसे चढ़ता है, उसी प्रकार | देवताओंकी विधिवत् पूजा करनेसे जब निर्मल शरीरमें ज्ञानरूपी रंग चढ़ता है, तब जाकर उस ब्रह्मविज्ञानका प्रादुर्भाव होता है ।। 71-72 ।।
विज्ञानका मूल अनन्य भक्ति है और ज्ञानका मूल भी भक्ति ही कही जाती है ।। 73 ।। भक्तिका मूल सत्कर्म और अपने इष्टदेव आदिका पूजन है और उसका मूल सद्गुरु कहे गये हैं और उन सद्गुरुका मूल सत्संगति है ॥ 74 ॥ सत्संगति से सद्गुरुको प्राप्त करना चाहिये। | सद्गुरुसे प्राप्त मन्त्रसे देवपूजन आदि सत्कर्म करने चाहिये क्योंकि देवपूजनसे भक्ति उत्पन्न होती है और उस भक्तिसे ज्ञानका प्रादुर्भाव होता है ॥ 75 ॥
ज्ञानसे परब्रह्मके प्रकाशक विज्ञानका उदय होता है जब विज्ञानका उदय हो जाता है, तब भेदबुद्धि [स्वतः ही] नष्ट हो जाती है ll 76 ll
समस्त भेदोंके नष्ट हो जानेपर द्वन्द्व-दुःख भी नष्ट हो जाते हैं। द्वन्द्व दुःखसे रहित हो जानेपर वह साधक शिवस्वरूप हो जाता है ॥ 77 ॥
हे देवर्षियो। द्वन्द्वके नष्ट हो जानेपर ज्ञानीको सुख | दुःखकी अनुभूति नहीं होती और विहित-अविहितका प्रपंच भी उसके लिये नहीं रह जाता है ॥ 78 ॥इस संसार में ऐसा गृहस्थाश्रमरहित प्राणी विरला ही होता है। यदि लोकमें कोई हो, तो उसके दर्शनमात्रसे ही पाप नष्ट हो जाते हैं। सभी तीर्थ, देवता और मुनि भी उस प्रकारके परब्रह्ममय शिवस्वरूप परमज्ञानीकी प्रशंसा करते रहते हैं ।। 79-80 ॥
वैसे न तो तीर्थ हैं, न मिट्टी और पत्थरसे बने देवता ही हैं, वे तो बहुत समयके बाद पवित्र करते हैं, किंतु विज्ञानी दर्शनमात्रसे पवित्र कर देता है ॥ 81 ॥
जबतक मनुष्य गृहस्थाश्रममें रहे, तबतक प्रेमपूर्वक उसे पाँच देवताओं (गणेश, सूर्य, विष्णु, शिव तथा देवी) की और उनमें भी सर्वश्रेष्ठ भगवान् सदाशिवकी प्रतिमाका पूजन करना चाहिये अथवा मात्र सदाशिवकी ही पूजा करनी चाहिये; एकमात्र वे ही सबके मूल कहे गये हैं। हे देवो! जैसे मूल (जड़) के सींचे जानेपर सभी शाखाएँ स्वतः तृप्त हो जाती हैं, वैसे ही सर्वदेवमय सदाशिवके ही पूजनसे सभी देवताओंका पूजन हो जाता है और वे प्रसन्न हो जाते हैं ।। 82-83 ।।
जैसे वृक्षकी शाखाओंके तृप्त होनेपर अर्थात् उन्हें सींचनेपर कभी भी मूलकी तृप्ति नहीं होती, वैसे ही हे मुनिश्रेष्ठो ! सभी देवताओंके तृप्त होनेपर शिवकी भी तृप्ति नहीं होती है-ऐसा सूक्ष्म बुद्धिवाले लोगोंको जानना चाहिये। शिवके पूजित हो जानेपर सभी देवताओंका पूजन स्वतः ही हो जाता है ।। 84-85 ।।
अतः सभी प्राणियोंके कल्याणमें लगे हुए मनुष्यको चाहिये कि वह सभी कामनाओंकी फलप्राप्तिके लिये संसारका कल्याण करनेवाले भगवान् सदाशिवकी पूजा करे ॥ 86 ll