नन्दीश्वरजी बोले- हे ब्रह्मपुत्र ! अब आप शिवजीके अवधूतेश्वर नामक अवतारका वर्णन सुनिये, जो इन्द्रके घमण्डको नष्ट करनेवाला है ॥ 1 ॥ हे मुने! पूर्व समयमें बृहस्पति एवं देवताओंके सहित इन्द्र शिवजीका दर्शन करनेके लिये कैलास पर्वतपर जा रहे थे ॥ 2 ॥
अपने दर्शनके लिये निरत चित्तवाले बृहस्पति तथा इन्द्रको आते जानकर उनके भावकी परीक्षा करनेके लिये नाना प्रकारकी लीला करनेवाले प्रभु शिवजी दिगम्बर, महाभीमरूप तथा जलती हुई अग्निके समान प्रभावाले अवधूतके रूपमें स्थित हो गये। सज्जनोंको गति प्रदान करनेवाले तथा सुन्दर आकृतिवाले वे अवधूतस्वरूप शिवजी लटकते हुए वस्त्र धारण किये उनका मार्ग रोककर खड़े हो गये ॥ 3-5 ॥
उसके बाद शिवजीके समीप जाते हुए उन बृहस्पति तथा इन्द्रने [ अपने] मार्गक मध्यमें अद्भुत आकारवाले एक भयंकर पुरुषको देखा ॥ 6 ॥
हे मुने! यह देखकर अधिकारमदमें चूर हुए इन्द्रने अपने मार्गके बीचमें खड़े पुरुषको उसे शंकर न जानकर उससे पूछा ॥ 7 ॥शक्र बोले- दिगम्बर अवधूत वेष धारण किये हुए तुम कौन हो, कहाँसे आये हो और तुम्हारा क्या नाम है? तुम मुझे ठीक ठीक शीघ्र बताओ ॥ 8 ॥
इस समय शिवजी अपने स्थानपर हैं अथवा कहीं गये हुए हैं? मैं देवताओं और गुरु बृहस्पतिको साथ लेकर उनके दर्शन हेतु जा रहा हूँ ॥ 9 ॥
नन्दीश्वर बोले [हे सनत्कुमार।] इन्द्रके द्वारा इस प्रकार पूछे जाने पर लीलासे [अवधूत) | देहधारी तथा अहंकारको चूर्ण करनेवाले उन पुरुषरूप प्रभु शिवने कुछ भी उत्तर नहीं दिया ॥ 10 ॥
इन्द्रने उनसे पुन: पूछा, किंतु अलक्षित गतिवाले महाकौतुकी वे दिगम्बर शिव फिर भी कुछ नहीं बोले ॥ 11 ॥
जब त्रैलोक्याधिपति स्वराट् इन्द्रने पुनः पूछा, तो भी महान लीला करनेवाले वे महायोगी मौन हो रहे। इस प्रकार बारंबार इन्द्रके द्वारा पूछे जानेपर भी दिगम्बर भगवान् शिवजी इन्द्रका गर्व नष्ट करनेकी | इच्छासे कुछ नहीं बोले ॥ 12-13 ॥
तब तीनों लोकोंके ऐश्वर्यसे गर्वित इन्द्रको बड़ा क्रोध उत्पन्न हुआ और उन्होंने क्रोधसे उन जटाधारीको धमकाते हुए कहा- ॥ 14 ॥
इन्द्र बोले रे मूढ रे दुर्मते तुमने मेरे पूछनेपर भी कुछ भी उत्तर नहीं दिया, इसलिये मैं इस वज्रसे तुम्हारा वध करता हूँ, देखें, कौन तुम्हारी रक्षा करता है। ऐसा कहकर इन्द्रने क्रोधपूर्वक उनकी ओर देखकर उन दिगम्बरको मारनेके लिये वज्र उठाया ।। 15-16 ॥
सदाशिव शंकरने हाथमें वज्र उठाये हुए इन्द्रको देखकर शीघ्र ही उनका स्तम्भन कर दिया ॥ 17 ॥ तदनन्तर भयंकर तथा विकराल नेत्रोंवाले वे पुरुष कुपित होकर अपने तेजसे [मानो इन्द्रको] जलाते हुए शीघ्र ही प्रज्वलित हो उठे ॥ 18 ॥
उस समय अपनी बाहुके स्तम्भित हो जानेके कारण उत्पन्न हुए क्रोधसे इन्द्र भीतर-ही भीतर इस तरह जल रहे थे, जिस प्रकार मन्त्रके द्वारा अपने पराक्रमके रुक जानेसे सर्प मन-ही-मन जलता है ॥ 19 ॥बृहस्पतिने तेजसे प्रज्वलित होते हुए उन पुरुषको देखकर अपनी बुद्धिसे उन्हें शिव जान लिया और शीघ्रतासे उन्हें प्रणाम किया ॥ 20 ॥ इसके बाद उदार बुद्धिवाले वे गुरु बृहस्पति हाथ जोड़कर पुनः पृथ्वीमें [लेटकर] दण्डवत् प्रणाम करके भक्तिपूर्वक शिवजीकी स्तुति करने लगे ॥ 21 ॥
गुरु बोले- हे देवदेव ! हे महादेव ! हे शरणागत वत्सल! प्रसन्न होइये हे गौरीश हे सर्वेश्वर। आपको नमस्कार है। ब्रह्मा, विष्णु आदि समस्त देवता भी आपकी मायासे मोहित होकर आपको यथार्थ रूपमें नहीं जान पाते हैं, केवल आपकी कृपासे ही जान सकते हैं ।। 22-23 ॥
नन्दीश्वर बोले- बृहस्पतिने इस प्रकार प्रभु | शिवजीकी स्तुति करके इन्द्रको उन ईश्वरके चरणों में गिरा दिया। तदनन्तर हे तात! उदार बुद्धिवाले विद्वान् देवगुरु बृहस्पतिने हाथ जोड़कर विनम्रतासे कहा ।। 24-25 ।।
बृहस्पति बोले - हे दीननाथ! हे महादेव! मैं आपके चरणों में पड़ा हूँ, आप मेरा और इनका उद्धार कीजिये; क्रोध नहीं, बल्कि प्रेम कीजिये ॥ 26 ॥
हे महादेव! आप प्रसन्न होइये और अपने शरणमें आये हुए इन्द्रकी रक्षा कीजिये; क्योंकि आपके भालस्थ नेत्रसे उत्पन्न हुई यह अग्नि [इन्द्रको जलाने के लिये] आ रही है॥ 27 ॥
नन्दीश्वर बोले- देवगुरुका यह वचन सुनकर अवधूत आकृतिवाले, करुणासिन्धु, उत्तम लीला करनेवाले उन प्रभुने हँसते हुए कहा- ॥ 28 ॥
अवधूत बोले- मैं क्रोधके कारण अपने नेत्रसे निकले हुए तेजको किस प्रकार धारण करूँ? क्या | सर्प कंचुकीका त्याग करनेके उपरान्त पुनः उसे धारण कर सकता है ।। 29 ।।
नन्दीश्वर बोले- उन शंकरके इस वचनको सुनकर भयसे व्याकुल मनवाले बृहस्पतिने हाथ जोड़कर पुनः कहा- ॥ 30 ॥
बृहस्पति बोले हे देव! हे भगवन्! भक सर्वदा अनुकम्पा के योग्य होते हैं। हे शंकर अपने भक्तवत्सल नामको सार्थक कीजिये ॥ 31 ॥हे देवेश! आप अपने इस अत्यन्त उग्र तेजको किसी अन्य स्थानपर रख सकते हैं; आप सभी भक्तोंका उद्धार करनेवाले हैं, अतः इन्द्रका उद्धार कीजिये ॥ 32 ॥
नन्दीश्वर बोले- इस प्रकार बृहस्पतिके कहने पर भक्तवत्सल नामसे पुकारे जानेवाले तथा भक्तोंका | कष्ट दूर करनेवाले भगवान् रुद्रने प्रसन्नचित्त होकर देवगुरुसे कहा- ॥ 33 ॥
रुद्र बोले – हे सुराचार्य ! मैं आपपर प्रसन्न हूँ, इसलिये आपको उत्तम वर देता हूँ कि इन्द्रको जीवनदान देनेके कारण आप लोकमें जीव नामसे विख्यात होंगे। मेरे भालस्थ नेत्रसे जो देवताओंके लिये असह्य अग्नि उत्पन्न हुई है, उसे मैं दूर फेंक देता हूँ, जिससे कि यह इन्द्रको पीड़ित न कर सके ।। 34-35 ।।
नन्दीश्वर बोले- ऐसा कहकर शिवजीने अपने भालस्थ नेत्रसे उत्पन्न हुई उस अद्भुत अग्निको हाथमें लेकर लवणसमुद्रमें फेंक दिया ॥ 36 ॥
तत्पश्चात् शिवके भालनेत्रसे उत्पन्न वह तेज, जो लवणसमुद्रमें फेंका गया था, शीघ्र ही बालकरूपमें परिणत हो गया ॥ 37 ॥
वही बालक समुद्रका पुत्र तथा समस्त असुरोंका अधिपति होकर जलन्धर नामसे विख्यात हुआ, फिर | देवताओंकी प्रार्थनासे प्रभु शिवजीने ही उसका वध | किया ॥ 38 ॥
लोककल्याणकारी शिवजी अवधूतरूपसे इस प्रकारका सुन्दर चरित्रकर पुनः अन्तर्धान हो गये और सभी देवता सुखी तथा निर्भय हो गये। बृहस्पति और इन्द्र भी भयमुक्त होकर अत्यन्त सुखी हो गये ।। 39-40 ।।
जिनका दर्शन करने हेतु इन्द्र और बृहस्पति जा रहे थे, उनका दर्शन प्राप्तकर वे कृतार्थ हो गये और प्रसन्नतापूर्वक अपने स्थानको चले गये ॥ 41 ॥
[हे सनत्कुमार!] मैंने दुष्टोंको दण्ड देनेवाले तथा परमानन्ददायक परमेश्वर शिवजीके अवधूतेश्वर नामक अवतारका वर्णन आपसे कर दिया ॥ 42 ॥यह आख्यान पवित्र, दिव्य, यशको बढ़ानेवाला, स्वर्ग, भोग और मोक्ष देनेवाला तथा सम्पूर्ण मनोरथोंको पूर्ण करनेवाला है। जो स्थिरचित्त हो प्रतिदिन इसे सुनता अथवा सुनाता है, वह इस लोकमें सभी सुखोंको भोगकर अन्तमें शिवकी गतिको प्राप्त कर लेता है । ll 43-44 ॥