नन्दीश्वर बोले- सेनाके साथ किरातेश्वरको युद्धके लिये आया देखकर शिवजीका ध्यान करते हुए अर्जुनने वहाँ जाकर उसके साथ भयंकर युद्ध किया ॥ 1 ॥
उस भीलराजने अपने अनेक गणों तथा तीक्ष्ण शस्त्रोंके द्वारा अर्जुनको अत्यधिक पीड़ित | किया। तब उनसे पीड़ित हुए अर्जुन अपने इष्टदेव शिवका स्मरण करने लगे। अर्जुनने शत्रुओंके सारे बाण काट डाले। जब गणोंने युद्ध करना छोड़ दिया, तो अर्जुनने [ किरातवेषधारी] शिवजीको ललकारा ।। 2-3 ॥
अर्जुनसे पीड़ित गण दसों दिशाओंमें भागने लगे। यद्यपि किरातपतिने उन गणस्वामियोंको ऐसा करनेसे रोका, किंतु वे अपने स्वामीके बुलानेपर भीनहीं लौटे तब महाबली एवं पराक्रमी अर्जुन और शिवजीने नाना प्रकारके शस्त्रास्त्रोंसे परस्पर युद्ध किया ।। 4-5 ।। यद्यपि शिवजी दया करते हुए अर्जुनके पास गये, किंतु अर्जुनने निर्दयतापूर्वक शिवपर प्रहार किया ॥ 6 ॥ तदनन्तर शिवजीने अर्जुनके समस्त शस्त्र अस्त्रोंको काट डाला और कवचोंको भी छिन्न-भिन्न कर दिया; केवल उनका शरीर शेष रह गया ॥ 7 ॥
तब धैर्यशाली उन अर्जुनने भयसे व्यथित होते हुए भी शिवजीका स्मरणकर वाहिनीपतिके साथ मल्लयुद्ध करना प्रारम्भ किया। उन दोनोंके संग्रामको देखकर सागरसहित पृथ्वी काँप रही थी और देवता दुखी हो रहे थे कि अब और क्या होनेवाला है ? ।। 8-9 ।।
इसी बीचमें शिवजी ऊपर जाकर आकाशमें स्थित हो युद्ध करने लगे और अर्जुन भी उसी प्रकार आकाशमें स्थित हो युद्ध करने लगे। इस प्रकार शिव एवं अर्जुन दोनों ही उड़-उड़कर आकाशमें जब युद्ध कर रहे थे, तब उस अद्भुत युद्धको देखकर देवगण विस्मित हो रहे थे ॥ 10-11 ॥
उसके पश्चात् अर्जुनने उन्हें अपनेसे अधिक बलवान् जानकर शिवजीके चरणोंका स्मरणकर तथा उनके ध्यानसे विशेष बल प्राप्तकर भीलके दोनों चरणोंको पकड़ लिया। ज्यों ही चरण पकड़कर अर्जुन उन्हें आकाशमें घुमाने लगे, तभी लीला करनेवाले भक्तवत्सल भगवान् शिव हँस पड़े ।। 12-13 ।।
हे मुने। भसके अधीन रहनेवाले शिवजीने अर्जुनको अपना दास्य प्रदान करनेके लिये जो यह चरित्र किया, वह अन्यथा कैसे हो सकता है। | इसके बाद भक्तवश्यताके कारण शिवजीने हँसकर अपना अद्भुत सुन्दर रूप अर्जुनके सामने प्रकट किया ।। 14-15 ।।हे पुरुषोतम वेद-शास्त्रों तथा पुराणोंमें उनके जिस रूपका वर्णन है और व्यासजीने अर्जुनको ध्यानके लिये जिस रूपका उपदेश दिया था, जिसके दर्शनमात्रसे सारी सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। [ उसी प्रकारका रूप धारणकर शिवजी प्रकट हुए] अर्जुन जिस रूपका ध्यान करते थे, उसी सुन्दर रूपको अपने सामने प्रत्यक्ष प्रकट देखकर वे अत्यन्त विस्मित तथा लज्जित हो उठे और मनमें। कहने लगे-अहो! यह तो परम कल्याणकारी के शिवजी ही हैं, जिन्हें मैंने अपना स्वामी स्वीकार किया है। ये तो स्वयं त्रिलोकीके साक्षात् ईश्वर हैं यह मैंने आज क्या कर डाला ! ।। 16-18 ॥
निश्चय ही भगवान् शिवकी माया वही बलवती है, जो बड़े-बड़े मायाविदोंको मोह लेती है। इन्होंने अपना रूप छिपाकर मेरे साथ इस प्रकारका छल क्यों किया; निश्चय ही मैं इनके द्वारा छला गया हूँ ॥ 19 ॥
इस प्रकार अपने मनमें विचारकर अर्जुनने हाथ जोड़कर सिर झुकाकर और खिन्न मनसे भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और उनसे कहा- ॥ 20 ॥
अर्जुन बोले- हे देवदेव ! हे महादेव! हे करुणाकर! हे शंकर! हे सर्वेश! मैं आपका अपराधी हूँ, मुझे क्षमा कीजिये। हे प्रभो! इस समय आपने यह क्या किया, जो अपना रूप छिपाकर मुझसे छल किया। हे प्रभो ! आप जैसे स्वामीसे युद्ध करते हुए मुझे लज्जा नहीं आयी; मुझको धिक्कार है! ॥ 21-22 ॥
नन्दीश्वर बोले – [हे सनत्कुमार!] इस प्रकार पाण्डुपुत्र अर्जुन पश्चात्ताप करने लगे और तत्काल महाप्रभु शिवजीके चरणोंमें शीघ्र गिर पड़े। तदनन्तर भक्तवत्सल महेश्वरने प्रसन्न होकर अर्जुनको अनेक प्रकारसे आश्वासन दिया और उनसे कहा- ॥ 23-24 ॥
शिवजी बोले- हे पार्थ! तुम खेद मत करो, तुम मेरे प्रिय भक्त हो मैंने यह सारी लीला तुम्हारी परीक्षाके लिये की थी, तुम शोकका परित्याग कर दो ॥ 25 ॥नन्दीश्वर बोले- इस प्रकार कहकर प्रभु सदाशिवने स्वयं अपने हाथोंसे अर्जुनको उठाया और स्वामी [ शिवजी ] के जैसे गुणोंवाले गणोंद्वारा उन [ अर्जुन ] की लज्जा दूर करायी। उसके अनन्तर भक्तवत्सल भगवान् शिव वीरोंमें माननीय पाण्डुपुत्र अर्जुनको प्रीतिसे पूर्णतः हर्षित करते हुए कहने लगे- ॥ 26-27 ll
शिवजी बोले- हे पाण्डवश्रेष्ठ ! हे पृथापुत्र अर्जुन! मैं प्रसन्न हूँ, तुम वर माँगो। मैंने तुम्हारे द्वारा आज किये गये प्रहारों एवं सन्ताड़नोंको अपनी पूजा मान ली है। आज यह सब मैंने अपनी इच्छासे किया है, इसमें तुम्हारा कोई अपराध नहीं है, मुझे तुम्हारे लिये इस समय कुछ भी अदेय नहीं है, तुम जो चाहते हो, उसे माँग लो। मैंने शत्रुओंमें तुम्हारा यश तथा राज्य प्रतिष्ठित करनेके लिये [ही यह ] कल्याणकर [कृत्य] किया है। तुम इस घटनाके लिये दुःख न मानो और अपनी सारी विकलताका त्याग करो ॥ 28-30॥ | प्रकार कहे जानेपर अर्जुन सावधान होकर भक्तिपूर्वक नन्दीश्वर बोले- प्रभु शंकरजीके द्वारा इस
शिवजीसे कहने लगे - ॥ 31 ॥
अर्जुन बोले- हे प्रभो! आप भक्तप्रिय हैं, आपकी इच्छाका वर्णन मैं किस प्रकार कर सकता हूँ। हे सदाशिव आप कृपालु हैं [हर प्रकारसे भक्तोंपर दया करते हैं ] ॥ 32 ॥
[ नन्दीश्वर बोले- ] इस प्रकार कहकर वे पाण्डुपुत्र अर्जुन महाप्रभु सदाशिवकी वेदसम्मत तथा | सद्भक्तियुक्त स्तुति करने लगे ॥ 33 ॥
अर्जुन बोले- हे देवाधिदेव ! आपको नमस्कार है । कैलासवासी आपको नमस्कार है, सदाशिव ! आपको नमस्कार है, पाँच मुखवाले आपको नमस्कार है ॥ 34 ॥
जटाजूटधारी आपको नमस्कार है, त्रिनेत्र आपको नमस्कार है, प्रसन्न स्वरूपवाले आपको नमस्कार है। सहस्रमुख आपको नमस्कार है ॥ 35 ॥हे नीलकण्ठ! आपको नमस्कार है। सद्योजातरूप आपके लिये नमस्कार है। हे वृषभध्वज! आपको नमस्कार है, वामभागमें पार्वतीको धारण करनेवाले आपको नमस्कार है। दस भुजावाले आपको नमस्कार है, परमात्मन्! आपको नमस्कार है, हाथमें डमरू तथा कपाल लेनेवाले आपको नमस्कार है, मुण्डमालाधारी आपको नमस्कार है ।। 36-37 ।।
शुद्ध स्फटिक तथा शुद्ध कपूरक समान उज्ज्वल गौर वर्णवाले आपको नमस्कार है। पिनाक नामक धनुष एवं श्रेष्ठ त्रिशूल धारण करनेवाले आपको नमस्कार है। व्याघ्र चर्मका उत्तरीय तथा गजचर्मका वस्त्र धारण करनेवाले आपको नमस्कार है। सर्पसे आवेष्टित अंगोंवाले तथा सिरपर गंगाको धारण करनेवाले आपको नमस्कार है ॥ 38-39 ॥
सुन्दर पैरवाले आपको नमस्कार है। अरुणाभ चरणोंवाले आपको नमस्कार है। नन्दी आदि प्रमुख गणोंसे सेवित आपको नमस्कार है। गणेशरूप आपको नमस्कार है। कार्तिकेयके अनुगामी आपको नमस्कार है, भक्तोंको भक्ति देनेवाले तथा [मुमुक्षुओंको] मुक्ति देनेवाले आपको नमस्कार है ll 40-41 ll
गुणरहित आपको नमस्कार है, सगुणरूपधारी आपको नमस्कार है। अरूप, सरूप, सकल एवं अकल आपको नमस्कार है। किरातरूप धारणकर मुझपर अनुग्रह करनेवाले, वीरोंसे प्रीतिपूर्वक युद्ध करनेवाले एवं [नटकी भाँति] अनेक प्रकारकी लीला दिखानेवाले आपको नमस्कार है ॥ 42-43 ।।
इस त्रिलोकीमें जो भी रूप दिखायी देता है, वह आपका ही तेज कहा गया है। आप ज्ञानस्वरूप हैं | और शरीरभेदसे रमण करते हैं। हे प्रभो! जिस प्रकार संसारमें पृथ्वीके रजकण, आकाशके तारे तथा वृष्टिको बूँदें असंख्य हैं, उसी प्रकार आपके गुण भी असंख्य हैं ।। 44-45 ।।
हे नाथ! आपके गुणोंकी गणना करनेमें तो वेद भी असमर्थ हैं, मैं तो मन्दबुद्धि ही हूँ। आपके | गुणोंका वर्णन कैसे करूँ ? हे महेश्वर ! आप जो हैं,सो हैं, आपको नमस्कार है। हे महेशान मैं आपका सेवक हूँ, आप मेरे स्वामी हैं, अतः मुझपर कृपा कीजिये ।। 46-47 ।।
नन्दीश्वर बोले- अर्जुनके द्वारा की गयी स्तुतिको सुनकर परम प्रसन्न हुए भगवान् सदाशिवने हँसकर अर्जुनसे फिर कहा- ।। 48 ।। शिवजी बोले- हे पुत्र ! बारंबार कहने से क्या प्रयोजन, मेरी बात सुनो तुम शीघ्र ही मुझसे वर
माँगो, मैं तुम्हें वह सब कुछ दूंगा ॥ 49 ॥ नन्दीश्वर बोले- शिवजीका यह वचन सुनकर अर्जुनने सदाशिवको हाथ जोड़कर प्रणाम किया और सिर झुका करके प्रेमपूर्वक गद्गद वाणीसे कहा- ॥ 50 ॥
अर्जुन बोले- हे प्रभो! आप तो सबके अन्तःकरणमें अन्तर्यामीरूपसे स्थित हैं, अतः आपसे क्या कहूँ आप सब कुछ जानते हैं, फिर भी मैं आपसे जो प्रार्थना करता हूँ उसे सुनिये आपके दर्शनसे शत्रुओंसे उत्पन्न होनेवाला जो मेरा संकट था, वह दूर हो गया। अब मैं जिस प्रकार इस लोकमें सर्वश्रेष्ठ सिद्धि प्राप्त करूँ, वैसा उपाय | कीजिये ।। 51-52 ॥
नन्दीश्वर बोले- ऐसा कहकर विनम्र हो हाथ जोड़कर अर्जुन नमस्कार करके भक्तवत्सल भगवान् शिवके सन्निकट स्थित हो गये ॥ 53 ॥ स्वामी शिवजी भी पाण्डुपुत्र अर्जुनको इस प्रकार अपना परमभक्त जानकर बहुत सन्तुष्ट हो गये ॥ 54 ॥
उन्होंने प्रसन्न होकर सभीके लिये सर्वदा दुर्जेय अपना पाशुपत अस्त्र अर्जुनको प्रदान किया और यह वचन कहा- ॥ 55 ॥
शिवजी बोले- मैंने अपना यह महान् पाशुपत अस्त्र तुम्हें प्रदान किया। [हे अर्जुन!] तुम इससे दुर्जेय हो जाओगे, तुम इस अस्त्रको सहायतासे शत्रुओंपर विजय प्राप्त करो। मैं स्वयं श्रीकृष्णसे कहूँगा कि वे तुम्हारी सहायता करें। वे मेरे भक्त तथा मेरी आत्मा हैं और कार्य करनेमें सर्वथा समर्थ है ॥56-57 ॥हे भारत! अब तुम मेरे प्रभावसे निष्कण्टक राज्य करो और अपने भ्राता [ युधिष्ठिर) से सर्वदा नाना प्रकारका धर्माचरण कराते रहो ॥ 58 ॥
नन्दीश्वर बोले- ऐसा कहकर उन शिवने अर्जुनके सिरपर अपना हाथ रखा और उनसे पूजित | होकर वे तत्काल अन्तर्धान हो गये और प्रसन्न मनवाले अर्जुन भी प्रभुसे श्रेष्ठ पाशुपतास्त्र प्राप्तकर भक्तिपूर्वक गुरुवर शिवजीका स्मरण करते हुए अपने आश्रमको चले गये ॥ 59-60 ।। जिस प्रकार शरीरमें पुनः प्राण आ जाता है, उसी प्रकार अर्जुनको आया देख [युधिष्ठिर आदि] सभी भाई प्रसन्न हो गये और पतिव्रता द्रौपदीको भी अर्जुनके दर्शनसे सुखकी प्राप्ति हुई ॥ 61 ॥ सभी पाण्डव परमात्मा शिवजीको प्रसन्न जानकर आनन्दित हो गये तथा अर्जुनसे सारा समाचार सुनकर [ भी उस वृत्तान्त श्रवणसे] तृप्त नहीं हुए ॥ 62 ॥
उस समय उन महात्मा पाण्डवोंके आश्रम में | उनका मंगल प्रदर्शित करनेके लिये चन्दनयुक्त फूलोंकी वर्षा होने लगी ॥ 63 ॥
उन लोगोंने भगवान् शंकरको धन्य धन्य कहते हुए आनन्दके साथ नमस्कार किया और अपने वनवासको अवधिको समाप्त जानकर यह समझ लिया कि अब अवश्य ही हमलोगोंकी विजय होगी ॥ 64 ॥
इसी समय अर्जुनको आश्रमपर आया हुआ जानकर श्रीकृष्ण उनसे मिलनेके लिये आये और सारा वृत्तान्त जानकर हर्षित हुए [और कहने लगे- ] ll 65 ॥
इसीलिये तो मैंने कहा था कि शंकर सभी दुःखोंको नष्ट करनेवाले हैं। मैं उनकी सेवा नित्य करता हूँ, आपलोग भी नित्य उनकी सेवा करें। [हे सनत्कुमार!] इस प्रकार मैंने किरातेश्वर नामक शिवावतारका वर्णन आपसे किया, उसको सुनकर | अथवा सुनाकर भी मनुष्य अपने समस्त मनोरथोंको प्राप्त कर लेता है ॥ 66-67 ॥