ब्रह्माजी बोले- देवताओं एवं विष्णुकी स्तुति सुनकर योगज्ञानविशारद भगवान् शंकर यद्यपि निष्काम हैं तथापि उन्होंने भोगका परित्याग नहीं किया। फिर वे भक्तवत्सल शंकर दैत्यसे पीड़ित हुए देवताओंके समीप घरके दरवाजेपर आये ॥ 1-2 ll
उस समय मुझ ब्रह्मा तथा विष्णु के साथ देवगण भक्तवत्सल प्रभु शिवका दर्शनकर अत्यन्त सुखी हुए ॥ 3 ॥
उन देवताओंका पूर्वोक्त वचन सुनकर दुखी आत्मा-वाले भगवान् शंकरने उद्विग्नमन होकर उत्तर दिया ll 4 ॥
देवताओंने सिर झुकाकर परम स्नेहपूर्वक शंकरको प्रणाम किया और हे मुने! मुझ ब्रह्मा - तथा विष्णुके साथ सभी देवताओंने शंकरकी स्तुति की ॥ 5 ॥देवता बोले- हे देवदेव! हे महादेव! हे करुणासागर प्रभो! आप सबके अन्तर्यामी हैं, हे शंकर! आप सब कुछ जानते हैं। हे विभो ! हम देवताओंका कार्य कीजिये हे महेश्वर देवताओंकी रक्षा कीजिये तथा हे महाप्रभो! कृपा करके तारकादि असुरोंका विनाश कीजिये ll 6-7 ll
शिव बोले- हे विष्णो! हे विधाता! हे देवो! मैं आप सबके मनका अभिप्राय जान रहा हूँ, किंतु जो होना है, वह होता ही है, भावीका निवारण करनेवाला कोई नहीं है ॥ 8 ॥
हे देवो! जो होना था, वह तो हो गया, अब जो उपस्थित है, उसके विषयमें सुनिये। मुझ शिवके स्खलित इस तेजको इस समय कौन धारण करेगा ? ॥ 9 ॥
'जिसे धारण करना हो, वह धारण करे'- इस प्रकार कहकर शंकरजी मौन हो गये। तब देवताओंसे प्रेरणा प्राप्त अग्निने कपोत होकर अपनी चोंचमे शंकरके पृथ्वीपर गिरे समस्त तेजको ग्रहण कर लिया। हे नारद! इसी समय शिवके आगमनमें विलम्ब देखकर वहाँपर भगवती गिरिजा आकर उपस्थित हो गयीं। उन्होंने देवताओंको देखा। वहाँका वह सम्पूर्ण वृत्तान्त जानकर पार्वती महाक्रोधित हो गयीं। तब उन्होंने विष्णुप्रभृति सभी देवताओंसे क्रोधमें भरकर कहा- ॥ 10-13 ॥
देवी बोलीं- हे देवगणो! तुमलोग बड़े दुष्ट हो, तुम हमेशा अपने स्वार्थसाधनमें लगे रहते हो और अपने स्वार्थसाधनके निमित्त दूसरोंको कष्ट देते हो ॥ 14 ॥
RV तुमलोगोंने अपने स्वार्थके लिये परमप्रभु शिवकी स्तुतिकर मेरा विहार भंग किया, हे देवो! इसी कारण मैं वन्ध्या हो गयी। हे देवताओ! मेरा विरोध करनेसे तुम देवताओंको कभी सुख प्राप्त नहीं होगा और तुम दुष्ट देवताओंको इसी प्रकार महादुःख प्राप्त होगा ॥ 15-16 ll
ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार क्रोधसे जलती हुई शैलपुत्री पार्वतीने विष्णुप्रभृति सभी देवगणोंको शाप दिया ll 17 ॥पार्वती बोलीं- आजसे सब देवताओंकी स्त्रियों बन्ध्या हो जायँ और मेरा विरोध करनेवाले सभी | देवगण सर्वदा दुःख प्राप्त करें ॥ 18 ॥
ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार सर्वेश्वरी भगवती पार्वतीने विष्णुप्रभृति देवगणोंको शाप देकर क्रोधपूर्ण हो शिवके तेजका भक्षण करनेवाले अग्निसे कहा- ॥ 19 ॥
पार्वती बोलीं- हे अग्ने ! आजसे तुम सर्वभक्षी होकर सदैव दुःख प्राप्त करोगे। तुम्हें शिवतत्त्वका ज्ञान नहीं है। तुम देवगणोंका कार्य करनेवाले मूर्ख हो ॥ 20 ॥
हे शठ हे दुष्टोंमें महादुष्ट तुम बड़े दुर्बुद्धि हो, तुमने जो शिवके तेजका भक्षण किया है, यह अच्छा नहीं किया ॥ 21 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे मुने! इस प्रकार अग्निको शाप देकर असन्तुष्ट होकर भगवती पार्वती भगवान् महेश्वरके साथ शीघ्रतापूर्वक अपने आवासमें चली गयीं ॥ 22 ॥
हे मुनीश्वर वहाँ जाकर पार्वतीने प्रयत्नपूर्वक भलीभाँति शंकरजीको समझाया, फिर उनके सर्वश्रेष्ठ गणेश नामक पुत्र उत्पन्न हुए। हे मुने! इन गणेशजीका सम्पूर्ण वृत्तान्त मैं आगे कहूँगा। इस समय आप प्रेमपूर्वक कार्तिकेयकी उत्पत्तिका वृत्तान्त सुनिये, मैं कह रहा हूँ ll 23-24 ll
देवतालोग अग्निके मुखसे ही भोजन करते हैं ऐसा वेदका वचन है, अतः अग्निके गर्भधारण करनेसे सभी देवता गर्भयुक्त हो गये । ll 25 ॥
शिवके तेजको सहन न करते हुए वे देवता पीड़ित हो गये। यही दशा विष्णु आदि देवताओंकी भी हो गयी; क्योंकि देवी पार्वतीको आज्ञासे उनकी | बुद्धि नष्ट हो गयी थी ॥ 26 ॥
इसके बाद विष्णुप्रभृति सभी देवता मोहित होकर [शिक्के वीर्यरूप अग्निसे] जलते हुए शोध ही पार्वतीपति भगवान् शंकरको शरणमें गये। वे लोग शिवजीके गृहद्वारपर जाकर नम्रतासे हाथ जोड़ अत्यन्त प्रीतिपूर्वक पार्वतीसहित भगवान्की स्तुति करने लगे । ll 27-28 ॥देवता बोले- हे देवदेव! हे महादेव! हे गिरिजेश! हे महाप्रभो! हे नाथ! यह क्या हो गया? निश्चय ही आपकी मायाको समझना बड़ा कठिन है । ll 29 ॥
हमलोग गर्भयुक्त होकर आपकी असा वीर्यज्वालासे जल रहे हैं, हे शम्भो ! कृपा कीजिये और हमलोगों की दुरवस्थाका निवारण कीजिये ॥ 30 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे मुने! देवताओंकी इस प्रकारकी स्तुति सुनकर उमापति परमेश्वर शिव गृहद्वारपर जहाँ देवता स्थित थे, वहाँ शीघ्र आये ll 31 ॥
द्वारपर आये हुए सदाशिवको देखते ही विष्णुसमेत सभी देवगण विनम्र होकर प्रणामकर उन भक्तवत्सलकी प्रेमपूर्वक स्तुति करने लगे ॥ 32 ॥
देवता बोले- हे शम्भो ! हे शिव! हे महादेव! आपको विशेष रूपसे प्रणाम करते हैं। आपके तेजसे जलते हुए हम शरणागतोंकी रक्षा कीजिये ll 33 ॥
हे हर ! इस दुःखका हरण कीजिये, अन्यथा हमलोग निश्चित ही मर जायेंगे। इस समय देवताओंके दुःखका निवारण करनेमें आपके बिना कौन समर्थ ?
ब्रह्माजी बोले- भक्तवत्सल, सुरेश्वर भगवान् शिवने ऐसी दीनवाणीको सुनकर हँसते हुए देवताओंको उत्तर दिया ॥ ll 35 ll
शिव बोले- हे हरे! हे ब्रह्मन्! हे देवो! आप सभी मेरी बात सुनें आपलोग आज ही सुखी हो जायँगे, सावधान हो जायें। सभी देवगण मेरे तेजका शीघ्र ही वमन कर दें। मुझ सुप्रभुकी आज्ञा मानने से आपलोगोंको विशेष सुख होगा ll 36-37 ॥
ब्रह्माजी बोले- विष्णु आदि सभी देवताओंने इस आज्ञाको शिरोधार्य करके अव्यय भगवान् शिवका स्मरण करते हुए शीघ्र ही तेजका वमन कर दिया ॥ 38 ॥
शम्भुका स्वर्णिम आभावाला, अद्भुत तथा सुन्दर कान्तिवाला वह तेज भूमिपर गिरकर पर्वताकार हो गया और अन्तरिक्षका स्पर्श करने लगा । ll 39 ।।
श्रीहरिसहित सभी देवगण सुखी हो गये और भक्तवत्सल परमेश्वर शिवकी स्तुति करने लगे ॥ 40 ॥हे मुनीश्वर किंतु अग्निदेव वहाँ प्रसन्न नहीं हुए। तब परमेश्वर श्रेष्ठ शंकरने उन्हें आज्ञा दी ॥ 41 ॥ हे मुने! तदनन्तर वे अग्निदेव मनमें सुख न मानकर विकल हो हाथ जोड़कर नम्रतापूर्वक शिवको स्तुति करते हुए इस प्रकार बोले- ॥ 42 ॥
अग्नि बोले – देवाधिदेव महेश्वर ! मैं मूर्ख हूँ। तथापि आपका सेवक हूँ, मेरे अपराधको क्षमा करें और मेरे दाहका निवारण करें। हे स्वामिन्! आप दीनवत्सल परमेश्वर सदाशिव हैं। इस प्रकारसे प्रसन्नात्मा अग्निदेवने दीनवत्सल शिवसे कहा ।। 43-44 ॥
ब्रह्माजी बोले- अग्निकी यह बात सुनकर दीनवत्सल उन परमेशान सदाशिवने प्रसन्न होकर अग्निसे इस प्रकार कहा- ॥ 45 ॥
शिव बोले- [ हे अग्नि!] पापकी अधिकताके कारण ही तुमने यह अनुचित कार्य किया कि मेरे तेजका भक्षण कर लिया, अब मेरी आज्ञासे तुम्हारे दाहका निवारण हो गया। हे अग्ने ! अब तुम मेरी शरणमें आ गये हो, इससे मैं प्रसन्न हुआ। अब तुम्हारा सारा दुःख दूर हो जायगा और तुम सुखी हो जाओगे ।। 46-47 ll
अब तुम किसी सुलक्षणा स्त्रीमें मेरे रेतको प्रयत्नपूर्वक स्थापित करो। इससे तुम दाहमुक्त होकर विशेष रूपसे सुखी हो जाओगे ॥ 48 ॥
ब्रह्माजी बोले- भगवान् शंकरकी बातको सुनकर अग्नि हाथ जोड़कर मस्तक झुकाकर प्रीतिपूर्वक भक्तोंके कल्याण करनेवाले भगवान् शंकरसे धीरे-धीरे बोले- ।। 49 ।।
हे महेश्वर! हे नाथ! आपका यह तेज असा है। शक्तिस्वरूपा भगवतीके अतिरिक्त तीनों लोकोंमें इसे धारण करनेमें कोई समर्थ नहीं है॥ 50 ॥
हे मुनिश्रेष्ठ! अग्निने जब ऐसा कहा, तब हृदयसे अग्निका उपकार चाहनेवाले आपने भगवान् शंकरकी प्रेरणासे इस प्रकार कहा- ॥ 51 ॥
नारदजी बोले - हे अग्ने! तुम्हारे दाहका निवारण करनेवाला, कल्याणकारी, परम आनन्ददायक, रमणीय तथा सभी कष्टोंका निवारण करनेवाला मेरा | वचन सुनो ॥ 52 ॥हे बहे मेरे द्वारा बतलाये जानेवाले इस उपायको करके दाहरहित होकर सुखी हो जाओ। हे तात! भगवान् शिवकी इच्छासे ही मैंने आदरपूर्वक भलीभाँति कहा है ॥ 53 ॥
हे शुचे! माघमासमें प्रातःकाल जो स्त्रियाँ स्नान करती हों, इस महान् तेजको तुम उनके शरीरमें स्थापित कर दो ॥ 54 ॥ ब्रह्माजी बोले- हे मुने! उसी अवसरपर माघमासमें प्रातः काल नियमपूर्वक स्नान करनेकी इच्छासे सप्तर्षियोंकी स्त्रियाँ वहाँ आयीं ॥ 55 ॥
हे मुने! स्नान करके वे स्त्रियाँ अत्यन्त ठण्ढसे पीड़ित हो गयीं और उनमेंसे छः स्त्रियाँ अग्निज्वालाके समीप जानेकी इच्छासे वहाँसे चल पड़ीं ॥ 56 ॥
उन्हें मोहित देखकर सुचरित्रा, ज्ञानवती देवी अरुन्धतीने शिवकी आज्ञासे उन्हें जानेसे विशेषरूपसे रोका ॥ 57 ॥
हे मुने! भगवान् शिवकी मायासे मोहित वे छः ऋषिपत्नियाँ अपने शीतका निवारण करनेके लिये हठपूर्वक वहाँ जा पहुँचीं ॥ 58 ॥
हे मुने ! [ अग्निके द्वारा गृहीत] उस रेतके सभी कण रोमकूपोंके द्वारा शीघ्र ही उन ऋषिपत्नियोंके देहोंमें प्रविष्ट हो गये और वे अग्नि दाहसे मुक्त हो गये ॥ 59 ॥
अग्नि अन्तर्धान होकर ज्वालारूपसे शीघ्र ही उन भगवान् शंकर और आपका मनसे स्मरण करते हुए सुखपूर्वक अपने लोकको चले गये ॥ 60 ॥
हे साधो वे स्त्रियाँ अग्निके द्वारा दाहसे पीड़ित और गर्भवती हो गयीं। हे तात! अरुन्धती दुखी होकर अपने आश्रमको चली गयीं ॥ 61 ll
हे तात! अपनी स्त्रियोंकी गर्भावस्था देखकर उनके पति तुरंत क्रोधसे व्याकुल हो गये और परस्पर भलीभांति विचार-विमर्श करके उन्होंने अपनी पत्नियाँका त्याग कर दिया ॥ 62 ॥
हे तात! वे छहों ऋषिपत्नियाँ अपनी गर्भावस्थाका विचार करके अत्यन्त दुःखित और व्याकुल चित्तवाली हो गयीं ॥ 63 ॥उन मुनिपत्नियोंने शिवके उस गर्भरूप तेजको हिमशिखरपर त्याग दिया और वे दाहरहित हो गयीं ॥ 64 ॥
भगवान् शिवके उस असहनीय तेजको धारण करनेमें असमर्थ होनेके कारण हिमालय प्रकम्पित हो उठे और दाहसे पीड़ित होकर उन्होंने शीघ्र ही उस | तेजको गंगामें विसर्जित कर दिया ॥ 65 ॥
हे मुनीश्वर गंगाने भी परमात्माके उस दुःसह तेजको अपनी तरंगोंके द्वारा सरकण्डोंके समूहमें स्थापित कर दिया ॥ 66 ॥
वहाँ गिरा हुआ वह तेज शीघ्र ही एक सुन्दर, सौभाग्यशाली, शोभायुक्त, तेजस्वी और प्रीतिको बढ़ानेवाले बालकके रूपमें परिणत हो गया । ll 67 ।।
हे मुनीश्वर ! मार्गशीर्ष (अगहन) मासके शुक्लपक्षकी षष्ठी तिथिको उस शिवपुत्रका पृथ्वीपर प्रादुर्भाव हुआ ll 68 ll
हे ब्रह्मन् ! इस अवसरपर अपने कैलास पर्वतपर हिमालयपुत्री पार्वती तथा भगवान् शंकर भी अकस्मात् आनन्दित हो उठे ll 69 ॥
हे मुने! भगवती पार्वती के स्तनोंसे आनन्दातिरेकके कारण दुग्धस्राव होने लगा। वहाँ जाकर सबको अत्यन्त प्रसन्नता हुई ॥ 70 ॥
हे तात! त्रिलोकीमें सभी सज्जनोंके यहाँ अत्यन्त सुख देनेवाला मांगलिक वातावरण हो गया। दुष्ट दैत्योंके यहाँ विशेष रूपसे विघ्न होने लगे ॥ 71 ॥
हे नारद! अकस्मात् अन्तरिक्षमें महान् दुन्दुभिनाद होने लगा और उस बालकपर पुष्पोंकी वर्षा होने लगी ॥ 72 ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! विष्णु आदि सभी देवताओंको अकस्मात् परम आनन्द हुआ और महान् उत्सव भी होने लगा ॥ 73 ॥