नन्दीश्वर बोले- हे तात! अब मैं सज्जनोंके लिये कल्याणकारी तथा उन्हें सुख देनेवाले परमात्मा शिवके द्विजेश्वरावतारका वर्णन करता हूँ, उसे सुनिये ॥ 1 ॥ हे तात! मैंने पहले जिन नृपश्रेष्ठ भद्रायुका वर्णन किया था और जिनपर शिवजीने ऋषभरूप धारणकर अनुग्रह किया था, उन्होंके धर्मकी परीक्षा लेनेके लिये वे पुनः द्विजेश्वरस्वरूपसे प्रकट हुए थे, | उसी वृत्तान्तको मैं कह रहा हूँ ॥ 2-3 ॥
हे तात! उन प्रभविष्णु राजा भद्राने ऋषभके प्रभावसे संग्राममें समस्त शत्रुओंको जीतकर राज्यसिंहासन प्राप्त किया। हे ब्रह्मन्! राजा चन्द्रांगदकी सीमन्तिनी नामक पत्नीसे उत्पन्न सुन्दरी पुत्री तथा परम साध्वी कीर्तिमालिनी उनकी पत्नी हुई ॥ 4-5 ॥
हे मुने। किसी समय उन भद्रायने वसन्तकालमें अपनी पत्नीके साथ वनविहार करनेके लिये घने वनमें प्रवेश किया। इसके बाद वे राजा उस सुरम्य वनमें शरणागतोंका पालन करनेवाली अपनी प्रियाके साथ विहार करने लगे ॥ 6-7 ॥तब उनके धर्मकी दृढ़ताकी परीक्षाके लिये पार्वतीसहित भगवान् शिवने वहीं पर एक लीला की ॥ 8 ॥
शिवजी और पार्वतीजी द्विजदम्पती बनकर तथा अपनी लीलासे एक मायामय व्याघ्रको बनाकर उस वनमें प्रकट हुए ।। 9 ॥
वे दोनों द्विजदम्पती जहाँ राजा विहार कर रहे थे, वहींसे थोड़ी दूरपर व्याघ्रद्वारा पीछा किये जानेपर भयसे व्याकुल होकर दौड़ते, रोते-चिल्लाते हुए राजाके समीप पहुँचे। शरणागतवत्सल एवं क्षत्रियों में श्रेष्ठ उन राजा भद्रायुने व्याघ्रसे आक्रान्त होकर 'है तात!' चिल्लाते हुए उन दोनोंको देखा ॥ 10-11 ॥
हे मुनिश्रेष्ठ अपनी मायासे द्विजदम्पती बने हुए उन दोनोंने भयसे व्याकुल होकर महाराज भद्रायु से इस प्रकार कहा- ॥ 12 ॥
द्विजदम्पती बोले- हे महाराज ! हे धर्मवित्तम! हम दोनोंकी रक्षा कीजिये। हे महाप्रभो! हम दोनोंको खानेके लिये यह व्याघ्र आ रहा है। हे धर्मज्ञ । यह हिंसक, कालसदृश तथा सभी प्राणियोंके लिये भयंकर व्याघ्र आकर जबतक हम दोनोंको खा न ले, उसके पहले ही आप इस व्याघ्रसे हमलोगोंको बचा लीजिये ।। 13-14 ।।
नन्दीश्वर बोले- - उन महावीर राजाने उन दोनोंका करुण क्रन्दन सुनकर ज्यों ही अत्यन्त शीघ्रतापूर्वक धनुष धारण किया, इतनेमें अति मायावी उस व्याघ्रने बड़ी शीघ्रताके साथ पहुँचकर उस द्विजश्रेष्ठकी स्त्रीको पकड़ लिया, और 'हे नाथ! हा कान्त ! हा शम्भो ! हे जगद्गुरो !'- इस प्रकार कहकर रोती हुई उस स्त्रीको भयंकर व्याघ्रने ग्रास बना लिया ।। 15- 17 ॥
तबतक राजाने अपने तीक्ष्ण भालोंसे व्याघ्रपर प्रहार किया, किंतु उसे उन भालोंसे किसी प्रकारकी व्यथा नहीं हुई, जैसे वृष्टिधाराओंसे पर्वतराजपर कोई | प्रभाव नहीं पड़ता है ॥ 18 ॥
राजाके द्वारा यथेच्छ आघात किये जानेपर भी व्यथारहित वह महाबलवान् व्याघ्र बलपूर्वक उस स्त्रीको लेकर बड़ी शीघ्रताके साथ वहाँसे भाग गया ॥ 19 ॥इस प्रकार बाघके द्वारा अपहृत अपनी स्त्रीको देखकर ब्राह्मण अत्यन्त विस्मित हो गया और लौकिकी गतिका आश्रय लेकर बारंबार रोने लगा ॥ 20 ॥
फिर देरतक रोनेके बाद अभिमान नष्ट करनेवाले तथा मायासे विप्ररूप धारण करनेवाले उन परमेश्वरने राजा भद्रायु कहा- ॥ 21 ॥
द्विजेश्वर बोले- हे राजन्! [इस समय ] तुम्हारे महान् अस्त्र कहाँ हैं, रक्षा करनेवाला तुम्हारा महाधनुष कहाँ है और बारह हजार हाथियोंका तुम्हारा बल कहाँ है ? ॥ 22 ॥
तुम्हारे शंख तथा खड्गसे क्या लाभ? तुम्हारी समन्त्रक अस्त्रविद्यासे क्या लाभ? तुम्हारे सत्त्वसे क्या लाभ और तुम्हारे महान् अस्त्रोंके उत्कृष्ट और अतिशय प्रभावसे क्या लाभ? अन्य जो कुछ भी तुममें है, वह सब निष्फल हो गया; क्योंकि तुम वनमें रहनेवाले जन्तुओंके आक्रमणको भी रोकने में सक्षम न हो सके ।। 23-24 ।।
[प्रजाजनोंको] क्षीण होनेसे बचाना क्षत्रियका परम धर्म है। उस कुलधर्मके नष्ट हो जानेपर तुम्हारे जीवित रहनेसे क्या लाभ है ? ॥ 25
धर्मज्ञ राजा अपने प्राणों तथा धनसे अपने शरणमें आये हुए दीन-दुखियोंकी रक्षा करते हैं, यदि वे ऐसा नहीं करते तो मृतकके समान हैं ॥ 26 ॥
पीड़ितोंकी रक्षा करनेमें असमर्थ राजाओंके लिये जीवित रहनेकी अपेक्षा मर जाना ही श्रेयस्कर है, दानसे हीन धनी लोगोंके लिये गृहस्थ होनेकी अपेक्षा भिखारी होना कहीं अधिक श्रेष्ठ है ॥ 27 ॥
अनाथ, दीन एवं आर्तजनोंकी रक्षा करनेमें जो अक्षम हैं, उनके लिये विष खाना या अग्निमें प्रवेश कर जाना कहीं अच्छा है ऐसा बुद्धिमान् लोग कहते हैं ।। 28 ।।
नन्दीश्वर बोले- इस प्रकार उस ब्राह्मणका विलाप तथा उसके मुखसे अपने पराक्रमको निन्दा सुनकर राजा भद्रायु शोकसन्तप्त हो अपने मनमें इस प्रकार विचार करने लगे ॥ 29 ॥
अहो! आज भाग्यके उलट-फेरसे मेरा पराक्रम नष्ट हो गया, आज मेरी कीर्ति नष्ट हो गयी और मुझे भयंकर पापका भागी होना पड़ा ॥ 30 ॥मुझ अभागे तथा दुर्बुद्धिका कुलोचित धर्म नष्ट हो गया। निश्चय ही [इस प्रकारके पापके कारण] मेरी सम्पत्तियों, राज्य और आयुका भी नाश हो जायगा ॥ 31 ॥
अपनी पत्नीके मर जानेसे शोकसन्तप्त इस ब्राह्मणको मैं आज अतिप्रिय प्राणोंको देकर शोकरहित करूँगा ॥ 32 ॥
इस प्रकार नृपश्रेष्ठ भद्रायने अपने मनमें निश्चयकर उस ब्राह्मणके चरणोंमें गिरकर उसे सान्त्वना देते हुए कहा- ॥ 33 ॥ भद्रायु बोले - हे ब्रह्मन् ! हे महाप्राज्ञ ! मुझ नष्ट तेजवाले क्षत्रियाधमपर कृपा करके अपने शोकका त्याग कीजिये, मैं आज आपका अभीष्ट पूरा करूँगा। यह राज्य, यह रानी और मेरा यह शरीर सब कुछ आपके अधीन है, इसके अतिरिक्त आप और क्या चाहते हैं ? ।। 34-35 ॥
ब्राह्मण बोले- [हे राजन्!] अन्धेको दर्पणसे क्या लाभ, भिक्षासे जीवन-निर्वाह करनेवालेको घरकी क्या आवश्यकता, मूर्खको पुस्तकसे क्या लाभ और स्त्रीविहीन पुरुषको धनसे क्या प्रयोजन! इस समय मेरी स्त्री मर चुकी है और मैंने कभी कामसुखका उपभोग नहीं किया, अतः मैं आपकी इस पटरानीको चाहता हूँ, इसे मुझे दे दीजिये ।। 36-37 ॥
भद्रायु बोले - [ हे ब्राह्मण!] पूरी पृथ्वीके धनका और राज्य, हाथी, घोड़े तथा अपने शरीरका भी दाता तो हुआ जा सकता है, किंतु अपनी स्त्रीका दान करनेवाला तो कहीं नहीं होता ॥ 38 ॥
दूसरेकी स्त्रीके साथ समागम करनेसे जो पाप अर्जित किया जाता है, उसे सैकड़ों प्रायश्चित्तोंसे भी दूर नहीं किया जा सकता है ॥ 39 ॥
ब्राह्मण बोले- मुझे घोर ब्रह्महत्या तथा मद्य पीनेका महापाप ही क्यों न लगे, मैं उसे तपस्यासे नष्ट कर दूँगा, फिर परस्त्रीगमन कितना बड़ा पाप है ॥ 40 ॥
अतः आप मुझे अपनी यह स्त्री प्रदान कीजिये, मैं दूसरा कुछ नहीं चाहता, अन्यथा भयभीतोंकी रक्षा करनेमें असमर्थ होनेके कारण आपको निश्चित रूपसे नरककी प्राप्ति होगी ॥ 41 ॥नन्दीश्वर बोले- ब्राह्मणकी इस बातसे भयभीत राजा विचार करने लगे कि भयभीतकी रक्षा न कर सकना महान् पाप है, उसकी अपेक्षा स्त्री दे देना ही श्रेयस्कर है ।। 42 ।।
अतः श्रेष्ठ ब्राह्मणको अपनी स्त्री प्रदानकर पापसे मुक्त हो शीघ्र ही अग्निमें प्रवेश कर जाऊँगा, ऐसा करनेसे मेरी कीर्ति भी बढ़ेगी ॥ 43 ॥
मनमें ऐसा विचारकर राजाने अग्नि प्रज्वलित करके उस ब्राह्मणको बुलाकर जल लेकर [संकल्पके साथ] अपनी पत्नीका दान कर दिया ।। 44 ।।
इसके बाद स्वयं स्नान करके पवित्र हो देवेश्वरोंको प्रणामकर उस अग्निकी तीन बार प्रदक्षिणा करके समाहितचित्त हो, उन्होंने शिवजीका ध्यान किया ।। 45 ।।
तदनन्तर द्विजेश्वरने साक्षात् शिवरूपमें प्रकट होकर अपने चरणों में मन लगाकर [प्रज्वलित] अग्निमें गिरनेको उद्यत हुए उन राजाको रोक दिया ।। 46 ।।
पाँच मुखोंवाले, तीन नेत्रोंवाले, पिनाकी, मस्तकपर चन्द्रकला धारण करनेवाले, लम्बी एवं पीली-पीली जटाओंसे युक्त, मध्याह्नकालीन करोड़ों सूर्योकी भाँति तेजवाले, मृणालके समान शुभ्र वर्णवाले, गजचर्म धारण किये हुए, गंगाकी तरंगोंसे सिंचित शिर: प्रदेशवाले, कण्डमें नागेन्द्रहाररूप आभूषण धारण करनेवाले, मुकुट करधनी बाजूबन्द तथा कंकण धारण करनेसे उज्ज्वल प्रतीत होनेवाले, त्रिशूल- खड्ग खट्वांग कुठार- चर्म- मृग- अभय मुद्रा तथा पिनाक नामक धनुषसे युक्त आठ हाथोंवाले, बैलपर बैठे हुए और कण्ठमें विषकी कालिमासे सुशोभित उन शिवजीको राजाने अपने सामने प्रकट हुआ देखा ll 47-49 ll
तब आकाशमण्डलसे शीघ्र ही दिव्य पुष्पवृष्टि होने लगी, देवताओंकी दुन्दुभियाँ बजने लगीं और अप्सराएँ नाचने तथा गाने लगीं ॥50॥ ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्रादि देवता, नारदादि महर्षि तथा अन्य मुनिगण भी स्तुति करते हुए वहाँ आ पहुँचे ॥ 51 ॥ उस समय भक्तिसे विनम्र हो हाथ जोड़े हुए राजाके देखते-देखते ही भक्तिको बढ़ानेवाला महान् उत्सव होने लगा ॥ 52 ॥भगवान् सदाशिव के दर्शनमात्र राजाका अन्तःकरण प्रसन्नतासे खिल उठा, अश्रुपातसे सारा शरीर आई हो गया, शरीर रोमांचित हो गया। तब वे हाथ जोड़े गद्गद वाणीसे शिवजीकी स्तुति करने लगे ॥ 53 ॥ इसके बाद राजाके द्वारा स्तुति किये जानेपर पार्वती के साथ प्रसन्न हुए दयानिधि भगवान् महेश्वरने उनसे कहा- हे राजन् मैं आपकी भक्तिसे अत्यन्त प्रसन्न हो गया हूँ और आपके धर्मपालनसे तो और भी प्रसन्न हुआ हूँ। अब आप अपनी पत्नीसहित वर माँगिये, मैं उसे दूँगा, इसमें संशय नहीं है। मैं आपके भक्तिभावकी परीक्षाके लिये ही ब्राह्मणवेष धारण करके आया था और व्याघ्रने जिसे पकड़ लिया था, वे साक्षात् देवी पार्वती थीं। तुम्हारे बाणोंसे आहत न होनेवाला जो व्याघ्र था, वह मायासे बनाया गया था और मैंने आपके धैर्यकी परीक्षाके लिये ही आपकी स्त्रीको माँगा था ll 54-57 ॥
नन्दीश्वर बोले- प्रभुका यह वचन सुनकर उन्हें पुनः प्रणामकर तथा उनकी स्तुति करके विनम्र होकर वे राजा भद्रायु स्वामी [शिव] से कहने लगे-ll 58 ॥
भद्रायु बोले- हे नाथ! मेरा एक ही वर है जो कि आप परमेश्वरने सांसारिक तापसे सन्तप्त मुझको प्रत्यक्ष दर्शन दिया है। हे नाथ! हे प्रभो। फिर भी यदि आप अपनी कृपासे वर देना ही चाहते हैं, तो मैं वरदाताओंमें श्रेष्ठ आपसे यही परम वर माँगता हूँ कि हे महेश्वर! हे नाथ! माताके साथ मेरे पिता वज्रबाहु तथा स्त्रीके सहित मैं आपके चरणोंका सदा सेवक बना रहूँ और हे महेशान! जो पद्माकर नामक यह वैश्य है तथा सनय नामक उसका पुत्र है - इन सबको सदा अपना पाश्र्ववर्ती बनायें ll 59-62॥
नन्दीश्वर बोले- तदनन्तर उस राजाकी | कीर्तिमालिनी नामक पत्नी भी आनन्दित होकर अपनी भकिसे शिवजी को प्रसन्नकर उत्तम वरदान माँगने लगी ।। 63 ।।
रानी बोली- हे महादेव! मेरे पिता चन्द्रांगद और मेरी माता सीमन्तिनी— इन दोनोंके लिये प्रसन्नतापूर्वक आपके समीप निवासकी याचना करती हूँ ॥ 64 ॥नन्दीश्वर बोले- भक्तवत्सल पार्वतीपति प्रसन्न होकर उन दोनोंसे 'ऐसा ही हो'–इस प्रकार कहकर उन्हें इच्छित वर देकर क्षणभरमें अन्तर्धान हो गये ॥ 65 ॥ भद्रायने भी प्रीतिपूर्वक शिवजीकी कृपा प्राप्तकर [ अपनी पत्नी ] कीर्तिमालिनीके साथ अनेक विषयोंका भोग किया ॥ 66 ॥
इस प्रकार अव्याहत पराक्रमवाले राजा दस हजार वर्षपर्यन्त राज्य करके पुत्रको राज्यका भार देकर शिवजीकी सन्निधिमें चले गये और राजर्षि चन्द्रांगद तथा उनकी रानी सीमन्तिनी भक्तिसे शिवजीका पूजनकर शिवपदको प्राप्त हुए । ll 67-68 ॥
हे प्रभो [सनत्कुमार!] इस प्रकार मैंने आपसे शिवजीके श्रेष्ठ द्विजेश्वरावतारका वर्णन किया, जिससे राजा भद्रायुको परम सुख प्राप्त हुआ॥69॥
पवित्र कीर्तिवाले द्विजेशसंज्ञक शिवावतारके इस परम पवित्र तथा अत्यन्त अद्भुत चरित्रको पढ़ने तथा सुननेवाला शिवपदको प्राप्त होता है ॥ 70 ॥
जो एकाग्रचित्त होकर इसे प्रतिदिन सुनता अथवा सुनाता है, वह अपने धर्मसे विचलित नहीं होता है और परलोकमें उत्तम गति प्राप्त करता है ॥ 71 ॥