ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार मैंने सभी देवताओंके द्वारा की गयी शिवजीको उत्तम स्तुतिको आपसे कह दिया है मुने! सतीने जिस प्रकार शिवजीसे वर प्राप्त किया, उसे अब मुझसे सुनो ॥ 1 ॥
सतीने आश्विनमास के शुक्लपक्षको अष्टमी तिथिको उपवासकर भक्तिपूर्वक सर्वेश्वर शिवजीका पूजन किया ॥ 2 ॥
इस प्रकार नन्दाव्रतके पूर्ण हो जानेपर नवमी तिथिका कुछ भाग शेष रह गया था, उस समय ध्यानमें निमग्न उन सतीके सामने शिव प्रकट हो गये॥ 3 ॥
वे सर्वांगसुन्दर तथा गौरवर्णके थे, उनके पाँच मुख थे और प्रत्येक मुखमें तीन-तीन नेत्र थे। भालदेशमें चन्द्रमा शोभा पा रहा था, उनका चित्त प्रसन्न था, उनका कण्ठ नीला था और उनकी चार भुजाएँ थीं, उन्होंने हाथोंमें त्रिशूल-ब्रह्मकपाल वर तथा अभय मुद्राको धारण कर रखा था, भस्ममय अंगरागसे उनका शरीर उद्भासित हो रहा था, उनके मस्तकपर गंगाजी शोभा बढ़ा रही थीं तथा उनके सभी अंग मनोहर थे, वे परम सौन्दर्यके धाम थे, उनका मुख करोड़ों चन्द्रमाओंके समान प्रकाशमान था, उनकी कान्ति करोड़ों कामदेवोंके समान थी और उनकी आकृति स्त्रियोंको प्रिय लगनेवाली थी ॥ 4-6 ॥इस प्रकारके प्रभु महादेवजीको प्रत्यक्ष देखकर सतीने लज्जासे नीचेकी ओर मुख करके उनके चरणोंमें प्रणाम किया। तपस्याका फल प्रदान करनेवाले महादेवजी उत्तम व्रत धारण करनेवाली सतीको पत्नीरूपमें प्राप्त करनेकी इच्छा रखते भी उनसे कहने लगे- ॥ 7-8 ॥ हुए
महादेवजी बोले- हे दशनन्दिनि । मैं तुम्हारे इस व्रतसे प्रसन्न हूँ। हे सुव्रते! जो तुम्हारा अभीष्ट वर हो, उसे माँगो, मैं उसे प्रदान करूँगा ॥ 9 ॥
ब्रह्माजी बोले- [मुने!] जगदीश्वर महादेवने | सतीकी भावनाको जानते हुए भी उनकी बात सुननेकी इच्छासे 'वर माँगो'– ऐसा कहा ॥ 10 ॥
वे लज्जाके वशमें हो गर्यो और जो उनके मनमें था, उसे कह न सक। उनका जो अभीष्ट था, वह लज्जासे आच्छादित हो गया था। शिवजीका प्रिय वचन सुनकर वे प्रेममें विभोर हो गयीं। इसे जानकर भक्तवत्सल शंकरजी अत्यन्त हर्षित हुए। ll 11-12 ll
सत्पुरुषोंके शरणस्वरूप तथा अन्तर्यामी वे शिवजी सतीकी भक्तिके वशीभूत होकर वर माँगो, वर माँगो - ऐसा शीघ्रतापूर्वक बार-बार कहने लगे ॥ 13 ॥ उस समय सतीने अपनी लज्जाको रोककर शिवजीसे कहा- हे वरद! आप कभी भी न टलनेवाला यथेष्ट वर प्रदान करें ॥ 14 ॥
शिवजीने अनुभव किया कि सती अपनी बात पूरी नहीं कर पा रही हैं. एतदर्थ उन्होंने स्वयं ही | कहा- हे देवि! तुम मेरी पत्नी बनो ll 15 ll
अपने अभीष्ट फलको प्रकट करनेवाले शिवजीके वचनको सुनकर और अपना मनोगत वर प्राप्त करके सती प्रसन्न होकर चुपचाप खड़ी रहीं। वे सकाम शिवजीके | सामने मन्द मन्द मुसकराती हुई कामनाको बढ़ानेवाले अपने हाव-भाव प्रकट करने लगीं ।। 16-17 ।।
सतीद्वारा अभिव्यक्त हाव-भावको स्वीकारकर श्रृंगाररसने उन दोनोंके चित्तमें शीघ्रतासे प्रवेश किया ll 18 ॥
हे देवारके प्रवेश करते हो लोकलीला करनेवाले शिवजी तथा सतीको से युक्त चन्द्रमा समान विलक्षण कान्ति हो गयी ॥ 19 ॥काले तथा चिकने अंजनके समान कान्तिवाली सती स्फटिकमणिके सदृश कान्तियुक्त उन शिवजीको प्राप्तकर इस प्रकार शोभित हुई, जिस प्रकार अभ्रलेखा [मेघघटा] चन्द्रमाको प्राप्तकर शोभित होती हैं ॥ 20 ॥ तदनन्तर दक्षकन्या सती अत्यन्त प्रसन्न होकर दोनों हाथोंको जोड़कर भक्तवत्सल भगवान् शिवजी से विनम्रता पूर्वक कहने लगी- ॥ 21 ॥
सती बोलीं- हे देवदेव! हे महादेव! हे प्रभो ! हे जगत्पते। आप मेरे पिताके समक्ष वैवाहिक विधिसे मुझे ग्रहण कीजिये ॥ 22 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे नारद! इस प्रकार सतीकी बात सुनकर भक्तवत्सल महादेवजीने प्रेमपूर्वक उनकी ओर देखकर यह वचन कहा- ऐसा ही होगा ॥ 23 ॥
तब दक्षकन्या सती भी उन शिवजीको प्रणाम करके भक्तिपूर्वक विदा माँगकर और पुनः उनकी आज्ञा प्राप्त करके मोह और आनन्दसे युक्त हो अपनी माताके पास चली गयीं। शिवजी भी हिमालयके शिखरपर अपने आश्रममें प्रवेश करके दक्षकन्या सतीके वियोगके कारण | बड़ी कठिनाईसे ध्यानमें तत्पर हो सके ।। 24-25 ॥
देवर्षे मनको एकाग्र करके लौकिक गतिका आश्रय लेकर वृषध्वज शंकरने मन-ही-मन मेरा स्मरण किया 26 ॥
तब त्रिशूलधारी महेश्वरके स्मरण करनेपर उनकी सिद्धिसे प्रेरित होकर मैं शीघ्र ही उनके समीप पहुँच गया और हे तात! हिमालयके शिखरपर जहाँ सतीके वियोगजनित दुःखका अनुभव करनेवाले महादेवजी विद्यमान थे, वहाँ मैं सरस्वतीसहित उपस्थित हो गया ।। 27-28 ।।
हे देवर्षे तदनन्तर सरस्वतीसहित मुझ ब्रह्माको देखकर सतीके प्रेममें बँधे हुए शिवजी उत्सुकतापूर्वक कहने लगे - ॥ 29 ॥
शम्भु बोले- हे ब्रह्मन् ! मैं जबसे विवाहके कार्यमें स्वार्थबुद्धि कर बैठा हूँ, तबसे अब मुझे इस स्वार्थमें ही स्वत्व-सा प्रतीत हो रहा है ॥ 30॥
दक्षकन्या सतीने बड़े भक्तिभावसे मेरी आराधना की है और मैंने नन्दावतके प्रभावसे उसे [अभीष्ट] वर दे दिया है ॥ 31 ॥हे ब्रह्मन् । उस सतीने मुझसे यह वर माँगा कि आप मेरे पति हो जाइये। तब सर्वथा सन्तुष्ट होकर मैंने भी कह दिया कि तुम मेरी पत्नी हो जाओ ॥ 32॥
तदनन्तर उस सतीने मुझसे कहा- हे जगत्पते ! मेरे पिताको सूचित करके [वैवाहिक विधिका पालन करते हुए] मुझे ग्रहण कीजिये हे ब्रह्मन् ! उसकी भक्तिसे सन्तुष्ट हुए मैंने उसे भी स्वीकार कर लिया। हे विधे! [ इस प्रकारका वर प्राप्तकर] सती अपनी माताके पास चली गयी और मैं यहाँ चला आया ।। 33-34 ll
इसलिये हे ब्रह्मन्! आप मेरी आज्ञासे दक्षके घर जाइये और वे दक्षप्रजापति जिस प्रकार मुझे शीघ्र अपनी कन्या प्रदान करें, उस प्रकार उनसे कहिये ॥ 35 ॥
जिस प्रकार मेरा सतीवियोग भंग हो, वैसा उपाय आप कीजिये। आप सभी प्रकारकी विद्याओं में निपुण है, अतः [इस बात के लिये] दक्षप्रजापतिको समझाइये || 36 ||
ब्रह्माजी बोले- यह कहकर वे शिवजी मुझ ब्रह्माके समीप स्थित सरस्वतीको देखकर शीघ्र ही सतीके वियोगके वशीभूत हो गये ॥ 37 ॥
उनकी आज्ञा पाकर मैं कृतकृत्य और प्रसन्न हो गया तथा उन भक्तवत्सल जगत्पतिसे यह कहने लगा- ॥ 38 ॥
ब्रह्माजी बोले- भगवन्। हे शम्भो आपने जो कुछ कहा है, उसपर भलीभाँति विचार करके हमलोगोंने [पहले ही] उसे सुनिश्चित कर दिया है। है वृषभध्वज इसमें देवताओंका और मेरा भी मुख्य स्वार्थ है। दक्ष प्रजापति स्वयं ही आपको अपनी पुत्री प्रदान करेंगे और मैं भी उनके समक्ष आपका वचन कह दूँगा ।। 39-40 ।।
ब्रह्माजी बोले- [हे नारद!] सर्वेश्वर प्रभु महादेवजीसे इस प्रकार कहकर मैं अत्यन्त वेगशाली रथसे दक्षके घर जा पहुँचा ॥ 41 ॥
नारदजी बोले - हे प्राज्ञ हे महाभाग हे विधे! हे वक्ताओंमें श्रेष्ठ [तपस्याके पश्चात्] घर लौटकर आयी हुई सतीके लिये दक्षने क्या किया ? ॥ 42 ॥ब्रह्माजी बोले- तपस्या करके मनोऽभिलषित वर प्राप्तकर तथा घर जाकर सतीने माता-पिताको प्रणाम किया। तत्पश्चात् सतीने अपनी सखीके द्वारा माता-पितासे वह सारा वृत्तान्त कहलवाया, जिस प्रकार उनकी भक्तिसे प्रसन्न हुए महेश्वरसे उन्हें वरकी प्राप्ति हुई थी ॥ 43-44 ।।
सखीके मुँहसे सारा वृत्तान्त सुनकर माता पिताको बड़ा आनन्द हुआ और उन्होंने महान् उत्सव मनाया ।। 45 ।।
उदारचित्त दक्ष और महामनस्विनी वीरिणीने ब्राह्मणोंको उनकी इच्छाके अनुसार धन दिया और अन्धों, दीनों तथा अन्य लोगोंको भी धन बाँटा ll 46 ll
प्रीति बढ़ानेवाली अपनी उस पुत्रीको हृदयसे लगाकर उसका मस्तक सूँघकर और आनन्दविभोर होकर वीरिणीने बार बार उसकी प्रशंसा की ॥ 47 ॥
कुछ समय बीतनेपर धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ दक्ष इस चिन्तामें पड़ गये कि मैं अपनी इस पुत्रीको शंकरको किस प्रकार प्रदान करूँ ? ।। 48 ।।
महादेवजी प्रसन्न होकर मेरी पुत्रीको वर देनेके लिये आये थे, किंतु वे तो चले गये, अब मेरी पुत्रीके लिये वे पुनः कैसे आयेंगे ? ।। 49 ।।
यदि मैं किसीको उनके पास शीघ्र भेजूँ, तो यह भी उचित नहीं है; क्योंकि यदि वे पुत्रीको स्वीकार न करें, तो मेरी याचना निष्फल हो जायगी ॥ 50 ॥ अथवा मेँ स्वयं उनका पूजन-अर्चन करूँ, जिससे कि वे मेरी पुत्रीकी भक्तिसे प्रसन्न होकर स्वयं इसे ग्रहणकर इसके पति बनें ॥ 51 ॥
उस सतीके द्वारा श्रेष्ठ प्रयत्नसे पूजित होकर वे भी उसको पाना चाह रहे हैं; क्योंकि वे 'मेरे पति शिवजी हों'- सतीको यह वर दे चुके हैं ॥ 52 ॥ इस प्रकारको चिन्तामें पड़े हुए दक्ष प्रजापति के सामने मैं सरस्वती के साथ एकाएक उपस्थित हुआ ॥ 53 ॥
मुझे अपने पिताको देखकर प्रणाम करके दक्ष विनीत भावसे खड़े हुए और उन्होंने मुझ ब्रह्माको यथोचित आसन दिया ॥ 54 ॥तत्पश्चात् चिन्तासे युक्त होनेपर भी हर्षित हुए वे दक्ष शीघ्र ही सर्वलोकेश्वर मुझ ब्रह्मासे आगमनका कारण पूछने लगे- ॥ 55 ॥ दक्ष बोले- हे जगद्गुरो हे सृष्टिकर्ता यहाँ आपके आगमनका क्या कारण है, मेरे ऊपर महती कृपा करके उसे कहिये ॥ 56 ॥ हे लोककारक! आप मुझ पुत्रके स्नेहवश अथवा किसी कार्यवश मेरे आश्रम में पधारे हैं, आपके दर्शनसे मुझे प्रसन्नता हो रही है ॥ 57 ॥ ब्रह्माजी बोले- हे मुनिसत्तम। अपने पुत्र दक्षद्वारा इस प्रकार पूछे जानेपर मैं उन प्रजापतिको प्रसन्न करता हुआ हँसकर कहने लगा ॥ 58 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे दक्ष! मैं जिस उद्देश्यसे यहाँ आपके पास आया हूँ, उसको सुनिये। जिसके करनेसे तुम्हारा तथा मेरा दोनोंका अभीष्ट सिद्ध होगा ।। 59 ।।
आपकी पुत्री सतीने जगत्पति महादेवजीकी आराधना करके जो वर प्राप्त किया है, उसका समय अब उपस्थित हो चुका है ॥ 60 ll
शम्भुने आपकी पुत्रीको पत्नीरूपमें प्राप्त करनेके लिये ही मुझे आपके पास भेजा है। अब [आपके लिये ] जो कल्याणकारी कार्य है, उसे कर डालिये ॥ 61 ll
जबसे रुद्र वर प्रदान करके गये हैं, तभीसे आपकी पुत्रीके वियोगके कारण उन शंकरको शान्ति नहीं मिल रही है ॥ 62 ॥
कामदेव अपने समस्त पुष्पबाणोंके द्वारा अनेक उपाय करके भी छिद्र न पा सकनेके कारण जिन्हें जीत न सका, वे ही शिवजी अब कामबाणसे विद्ध होकर अपना आत्मचिन्तन त्यागकर सतीकी चिन्ता करते हुए सामान्य प्राणीकी भाँति व्याकुल हो रहे हैं ।। 63-64 ।।
वे सुनी हुई वाणीको भी भूल जाते हैं तथा सतीके वियोगवश अपने गणोंके समक्ष ही 'सती कहाँ है'- इस प्रकारकी वाणी कहते हैं और किसी काममें प्रवृत्त नहीं होते हैं। हे सुत। मैंने, आपने, कामदेवने तथा मरीचि आदि श्रेष्ठ मुनियोंने जो पूर्व में चाहा था वह इस समय सिद्ध हो चुका है ।। 65-66 ।।आपकी पुत्रीने शम्भुको आराधना की है, इससे वे भी उसकी चिन्ता करते हुए उसको प्राप्त करने की इच्छासे युक्त होकर हिमालय पर्वतपर स्थित है। जिस प्रकार सतीने अनेक प्रकारके भावों और सात्त्विकतापूर्वक व्रतके द्वारा शिवजीकी आराधना की थी, उसी प्रकार [इस समय] वे भी सतीकी आराधना कर रहे हैं । ll 67-68 ।।
इसलिये हे दक्ष शिवके लिये ही रची गयी अपनी पुत्रीको आप अविलम्ब उन्हें प्रदान कर दीजिये, ऐसा करनेसे आप कृतकृत्य हो जायेंगे ।। 69॥ मैं नारदके साथ जाकर उन्हें आपके घर लाऊँगा और उन्हींके लिये रची हुई इस सतीको उन्हें अर्पित कर दीजिये ॥ 70 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे नारद! मेरी यह बात सुनकर मेरे पुत्र दक्ष परम प्रसन्न हुए और उन्होंने अत्यन्त हर्षित होकर मुझसे कहा- ठीक है, ऐसा ही होगा ॥ 71 ॥
उसके बाद हे मुने! मैं अत्यन्त हर्षित हो वहाँपर गया, जहाँ लोककल्याणमें तत्पर रहनेवाले शिवजी उत्सुक होकर बैठे थे ॥ 72 ॥ हे नारद! मेरे चले आनेपर स्त्री और पुत्रीसहित दक्ष भी अमृतसे परिपूर्ण हुएके समान पूर्णकाम [सफल मनोरथवाले] हो गये।। 73 ।।