सूतजी बोले- हे महर्षियो। भस्म सम्पूर्ण मंगलोंको देनेवाला तथा उत्तम है, उसके दो भेद बताये गये हैं। मैं उन भेदोंका वर्णन करता हूँ, आप लोग सावधान होकर सुनिये ॥ 1 ॥एकको 'महाभस्म' जानना चाहिये और दूसरेको 'स्वल्पभस्म'। महाभस्मके भी अनेक भेद हैं। वह तीन | प्रकारका कहा गया है— श्रौत, स्मार्त और लौकिक। | स्वल्पभस्मके भी बहुत-से भेदोंका वर्णन किया गया। है। श्रौत और स्मार्त भस्मको केवल द्विजोंके ही उपयोगमें आनेके योग्य कहा गया है। तीसरा जो लौकिक भस्म है, वह अन्य लोगोंके भी उपयोग में, सकता है । ll 2-4 ॥
श्रेष्ठ महर्षियोंने यह बताया है कि द्विजोंको वैदिक मन्त्रके उच्चारणपूर्वक भस्म धारण करना चाहिये। दूसरे लोगोंके लिये बिना मन्त्रके ही केवल धारण करनेका विधान है ॥ 5 ॥
जले हुए गोबरसे उत्पन्न होनेवाला भस्म आग्नेय कहलाता है। हे महामुने! वह भी त्रिपुण्ड्रका द्रव्य है-ऐसा कहा गया है ॥ 6 ॥
अग्निहोत्रसे उत्पन्न हुए भस्मका भी मनीषी पुरुषोंको संग्रह करना चाहिये। अन्य यज्ञसे प्रकट हुआ भस्म भी त्रिपुण्ड्रधारणके काममें आ सकता है ॥ 7॥
जाबालोपनिषद् में आये हुए 'अग्निः' इत्यादि सात मन्त्रोंद्वारा जलमिश्रित भस्मसे धूलन (विभिन अंगोंमें मर्दन या लेपन) करना चाहिये ॥ 8 ॥
महर्षि जाबालिने सभी वर्णों और आश्रमोंक लिये मन्त्रसे या बिना मन्त्रके भी आदरपूर्वक भस्मसे त्रिपुण्ड्र लगानेकी आवश्यकता बतायी है ॥ 9 ॥
समस्त अंगोंमें सजल भस्मको मलना अथवा विभिन्न अंगों में तिरछा त्रिपुण्ड्र लगाना- इन कार्योंको मोक्षार्थी पुरुष प्रमादसे भी न छोड़े- ऐसा श्रुतिका आदेश है ॥ 10 ॥
भगवान् शिव और विष्णुने भी तिर्यक् त्रिपुण्ड् धारण किया है। अन्य देवियोंसहित भगवती उमा और लक्ष्मीदेवीने भी वाणीद्वारा इसकी प्रशंसा की है ॥ 11 ॥ ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, शूद्रों, वर्णसंकरों तथा |जातिभ्रष्ट पुरुषोंने भी उद्धलन एवं त्रिपुण्ड्रके रूपमें भस्मको धारण किया है ॥ 12 ॥
जो लोग श्रद्धापूर्वक शरीरमें भस्मका उद्धलन (लेप) तथा त्रिपुण्ड्र धारण करनेका आचरण नहीं करते। हैं, उनमें वर्णाश्रम-समन्वित सदाचारकी कमी है ॥ 13 ॥जिनके द्वारा श्रद्धापूर्वक शरीरमें भस्मलेप और त्रिपुण्डधारणका आचरण नहीं किया जाता है, उनकी विनिर्मुक्ति करोड़ों जन्मोंमें भी संसारसे सम्भव नहीं है । ll 14 ।।
जो श्रद्धापूर्वक शरीरमें भस्मलेप और त्रिपुण्ड्र धारणका आचारपालन नहीं करते हैं, उन्हें सौ करोड़ कल्पोंमें भी शिवका ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता ।। 15 ।। जो श्रद्धापूर्वक भस्मलेप तथा त्रिपुण्ड्रधारण नहीं करते हैं, वे महापातकोंसे युक्त हो जाते हैं, ऐसा शास्त्रोंका निर्णय है ll 16 ll
जो श्रद्धापूर्वक भस्मोद्धूलन और त्रिपुण्ड्रधारण नहीं करते हैं, उन लोगोंका सम्पूर्ण आचरण विपरीत फल प्रदान करनेवाला हो जाता है ॥ 17 ॥
हे मुनियो ! जो महापातकोंसे युक्त और समस्त प्राणियोंसे द्वेष करनेवाले हैं, वे ही त्रिपुण्ड्रधारण तथा भस्मोद्धलनसे अत्यधिक द्वेष करते हैं ॥ 18 ll
जो आत्मज्ञानी मनुष्य शिवाग्नि (अग्निहोत्र) का कार्य करके 'त्र्यायुषं जमदग्नेः ' इस मन्त्रसे भस्मका मात्र स्पर्श ही कर लेता है, वह समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ 19 ॥
जो मनुष्य तीनों सन्ध्याकालोंमें श्वेत भस्मके द्वारा त्रिपुण्ड्र धारण करता है, वह समस्त पापोंसे मुक्त होकर शिवसान्निध्यका आनन्द भोगता है ॥ 20 ॥ जो व्यक्ति श्वेत भस्मसे अपने मस्तकपर त्रिपुण्ड्र धारण करता है, वह अनादिभूत लोकोंको प्राप्तकर अमर हो जाता है ॥ 21 ॥
बिना भस्मस्नान किये षडक्षर ['ॐ नमः शिवाय'] मन्त्रका जप नहीं करना चाहिये। | विधिपूर्वक भस्मसे त्रिपुण्ड्र धारण करके ही इसका जप करना चाहिये ॥ 22 ॥
दयाहीन, अधम, महापापोंसे युक्त, उपपापोंसे युक्त, मूर्ख अथवा पतित व्यक्ति भी जिस देशमें नित्य भस्म धारण करते रहते हैं, वह देश सदैव सम्पूर्ण तीर्थों और यज्ञोंसे परिपूर्ण ही रहता है। 23-24 ।। त्रिपुण्ड्रधारण करनेवाला पापी जीव भी समस्त देवों और असुरोंके द्वारा पूज्य है। यदि पुण्यात्मा त्रिपुण्ड्रसे युक्त है, तो उसके लिये कहना ही क्या ॥ 25 ॥भस्म धारण करनेवाला शिवज्ञानी जिस देश | स्वेच्छया चला जाता है, उस देशमें समस्त तीर्थ जाते हैं ॥ 26 ॥
इस विषयमें और अधिक क्या कहा जाय। विद्वानोंको सदैव भस्म धारण करना चाहिये एवं लिंगाचन | करके षडक्षर मन्त्रका जप करना चाहिये ॥ 27 ॥
ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, मुनिगण और देवताओंके द्वारा भी भस्म धारण करनेके महत्त्वका वर्णन किया जाना सम्भव नहीं है ॥ 28 ॥
जिसने अपने वर्ण तथा आश्रमधर्मसे सम्बन्धि आचार तथा क्रियाएँ लुप्त कर दी हैं, यदि वह भी त्रिपुण्ड धारण करता है, तो समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ 29 ॥
जो भस्मधारण करनेवालेको त्यागकर धार्मिक कृत्य करते हैं, उनको करोड़ों जन्म लेनेपर भी संसारसे मुक्ति प्राप्त नहीं हो पाती है ॥ 30 ॥
जिस ब्राह्मणने भस्मसे अपने सिरपर त्रिपुण्ड्र धारण कर लिया है, उसने मानो गुरुसे सब कुछ पढ़ लिया है। और सभी धार्मिक अनुष्ठान कर लिये हैं॥ 31 ॥
जो मनुष्य भस्म धारण करनेवालेको देखकर उसे कष्ट देते हैं, वे निश्चित ही चाण्डालसे उत्पन्न हुए हैं ऐसा विद्वानोंको जानना चाहिये ॥ 32 ॥
भक्तिपरायण ब्राह्मण और क्षत्रियको 'मा नस्तोके तनये0 '- इस मन्त्रसे अभिमन्त्रित भस्मको शास्त्रसम्मत कहे गये अंगोंपर धारण करना चाहिये 33 ॥ वैश्य 'त्र्यम्बकं यजामहे' इस मन्त्रसे और शूद्र शिवाय नमः - इस पंचाक्षरमन्त्रसे भस्मको अभिमन्त्रितकर धारण करे: विधवा स्त्रियोंके लिये [भस्म |धारणकी] विधि शूद्रोंके समान कही गयी है ॥ 34 ॥ पाँच ब्रह्मादि मन्त्रों से [ अभिमन्त्रित भस्मके द्वारा] गृहस्थ त्रिपुण्ड्र धारण करे। ब्रह्मचारी 'त्र्यम्बकं यजामहे' इस मन्यसे [भस्मको अभिमन्त्रित करके] और वानप्रस्थी 'अघोरेभ्योऽथ0' इस मन्त्रसे भस्मको यति अभिमन्त्रित करके त्रिपुण्ड्र धारण करे, किंतु [संन्यासी] प्रणवके मन्त्रसे [भस्मको अभिमन्त्रित करके] त्रिपुण्ड धारण करे ।। 35-36 ।।जो वर्णाश्रम धर्मसे परे है, वह 'शिवोऽहं' इस भावनासे नित्य त्रिपुण्ड्र धारण करे और जो शिवयोगी है, वह 'ईशानः सर्वविद्यानाम्'- इस भावनाको करता हुआ त्रिपुण्ड्र धारण करे ॥ 37 ॥
सभी वर्णोंके द्वारा भस्म धारण करनेके इस उत्तम कार्यको नहीं छोड़ना चाहिये; अन्य जीवोंको भी सदा भस्म धारण करना चाहिये-ऐसा भगवान् शिवका आदेश है ॥ 38 ॥
भस्म-स्नान करनेसे जितने कण शरीरमें प्रवेश करते हैं, उतने ही शिवलिंगोंको वह धारक अपने शरीरमें धारण करता है ॥ 39 ॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, वर्णसंकर, स्त्री (सधवा), विधवा, बालक, पाखण्डी, ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थी, संन्यासी, व्रती और संन्यासिनी स्त्रियाँ ये सभी भस्मके त्रिपुण्ड धारणके प्रभावके द्वारा मुक्त हो जाते हैं, इसमें संशय नहीं है ।। 40-41 जैसे ज्ञानवश या अज्ञानवश धारण की गयी अग्नि सबको समान रूपसे जलाती है, वैसे ही ज्ञान या अज्ञानवश धारण किया गया भस्म भी समानरूपसे सभी मनुष्योंको पवित्र करता है ॥ 42 ॥
भस्म तथा रुद्राक्ष धारणके बिना जल अथवा अन्नको अंशमात्र भी नहीं खाना चाहिये। गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यासी और वर्णसंकर जातिका व्यक्ति यदि भस्म एवं रुद्राक्षको धारण किये बिना भोजन करता है, तो वह मात्र पाप ही खाता है और नरककी ओर प्रस्थान करता है। ऐसे समयमें उक्त वर्णधर्मोका वह व्यक्ति गायत्री मन्त्रके जपसे तथा यति (संन्यासी) | मुख्य प्रणवमन्त्रके जपसे प्रायश्चित्त करके मुक्ति प्राप्त कर सकता है ॥ 43 ॥
जो त्रिपुण्ड्रकी निन्दा करते हैं, वे साक्षात् शिवकी ही निन्दा करते हैं और जो त्रिपुण्ड्रको धारण करते हैं, वे साक्षात् उन्हीं शिवको ही धारण करते हैं ॥ 44 ॥
भस्मरहित भालको धिक्कार है, शिवालय (शिवमन्दिर) -रहित ग्रामको धिक्कार है, शिवार्चनसे रहित जन्मको धिक्कार है और शिवज्ञानरहित विद्याको धिक्कार है ।। 45 ।।जो लोग तीनों लोकोंके आधारस्वरूप महेश्वर | भगवान् शिवकी निन्दा करते हैं और त्रिपुण्ड्र धारण | करनेवालेकी निन्दा करते हैं, उनको तो देखनेसे ही पाप | लगता है। वे वर्णसंकर, सुअर, असुर, खर (गधा), श्वान (कुत्ता), क्रोष्टु (सियार) तथा कीड़े-मकोड़े के समान ही उत्पन्न होते हैं और उन नरकगामी व्यक्तियोंका [यह] जन्म मात्र पाप करनेके लिये ही होता है ॥ 46 ॥
भगवान् शिवकी तथा त्रिपुण्ड्र धारण करनेवाले उनके भक्तोंकी जो निन्दा करते हैं, उन्हें रातमें | देखनेपर चन्द्रमाके दर्शनसे और दिनमें देखनेपर सूर्यके दर्शनसे शुद्धि प्राप्त होती है। [मात्र इतना ही नहीं स्वप्नमें भी उन्हें देखनेसे पाप लगता है, अतः ] स्वप्नमें जो उन्हें देखे, उसको अपनी शुद्धिके लिये श्रुतिमें कहे गये रुद्रसूक्तका आदरपूर्वक पाठ करना चाहिये, तभी उससे छुटकारा मिल सकता है। उनसे बात करनेसे नरक होता है। उस नरकसे मुक्ति प्राप्त करना असम्भव है। जो भस्म त्रिपुण्ड्र आदि धारण करनेवाले पुरुषकी निन्दा करते हैं, वे निश्चित ही मूर्ख हैं ll 47 ॥
हे मुने तान्त्रिक, ऊर्ध्वत्रिपुण्ड धारण करनेवाले तथा तपाये हुए चक्र आदि चिह्नोंको धारण करनेवाले इस शिव के अधिकारी नहीं हैं, वे इस बसे बहिष्कृत हैं ॥ 48 ll
बृहज्जाबालोपनिषद्में कहे गये वे लोग ही उस यहमें अधिकारी हैं। प्रयत्नपूर्वक उन्हें शिवयज्ञके कार्यमें सम्मिलित करना चाहिये। उन्हें भस्म लगाना चाहिये ।। 49 ।।
विभूतिका चन्दनसे या चन्दनमें विभूतिका मिश्रणकर बनाये गये मिश्रित भस्मसे (मस्तकपर] त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिये। कुछ भी हो मस्तकपर विभूति धारण करना आवश्यक है। यदि बुद्धि नहीं है, तो भी यह करना सदा लोगोंके लिये आवश्यक ही है ॥ 50 ॥
ब्रह्मचारिणी, सधवा तथा विधवा स्त्रियों और ब्राह्मणादि द्विजोंको केशपर्यन्त भस्म धारण करना चाहिये। इसी प्रकार ब्रह्मचर्यादि आश्रमवालोंको भी स्वच्छ विभूति धारण करना उचित है; क्योंकि विभूति मोक्ष देनेवाली और समस्त पापोंका नाश करनेवाली है ॥ 51 ॥जो भस्मद्वारा विधिपूर्वक त्रिपुण्ड्र धारण करता है. वह [ब्रह्महत्यादि] महापातकसमूहों और [उच्छिष्ट अन्नादिभक्षण] उपपातकोंसे मुक्त हो जाता है ॥ 52 ॥ ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थी और संन्यासी [ये चारों आश्रम ]; ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा अन्य वर्णसंकर [ये चारों वर्ण और उपवर्णके लोग]; पतित अथवा नीच मनुष्य भी विधिपूर्वक शरीरपर भस्म उद्भूलन और त्रिपुण्ड धारण करके शुद्ध हो जाते हैं; [क्योंकि] सम्यक् रूपसे [धारण की गयी] भस्मसे [तत्काल ही] पापराशिसे मुक्ति प्राप्त हो जाती है ।। 53-54 ॥
भस्म धारण करनेवाला व्यक्ति विशेष रूपसे स्त्रीहत्या, गोहत्या, वीरहत्या और अश्वहत्या आदि पापोंसे मुक्त हो जाता है; इसमें संशय नहीं है ॥ 55 ॥ दूसरेके द्रव्यका अपहरण, परायी स्त्रीका अभिमर्शन, दूसरेकी निन्दा, पराये खेतका अपहरण, दूसरेको कष्ट देना, फसल और बाग आदिका अपहरण, घर फूँकना (जलाना) आदि कर्म, नीचोंसे गाय, सोना, भैंस, तिल-कम्बल, वस्त्र, अन्न, धान्य तथा जल आदिका परिग्रह, दाश (मछुवारा), वेश्या, मतंगी, (चाण्डाली), शूद्रा, नटी, रजस्वला, कन्या और विधवा [स्त्रियों ] से मैथुन, मांस, धर्म, रस तथा नमकका विक्रय, पैशुन्य (चुगली) और अस्पष्ट बात, असत्य गवाही आदि देना इस प्रकारसे अन्य असंख्य विभिन्न प्रकारके पाप त्रिपुण्ड्र धारण करनेके प्रभावसे तत्काल ही नष्ट हो जाते हैं ॥ 56-60 ll
भगवान् शिवके द्रव्यका अपहरण और जहाँ कहीं शिवकी निन्दा करनेवाला तथा शिवके भक्तोंकी निन्दा करनेवाला व्यक्ति प्रायश्चित्त करनेपर भी शुद्ध नहीं होता है ॥ 61 ॥
जिसने शरीरपर रुद्राक्ष और मस्तकपर त्रिपुण्ड्र धारण किया है, ऐसा मनुष्य यदि चाण्डाल भी है, तो भी वह सभी वर्णोंमें श्रेष्ठतम और सम्पूज्य है॥ 62 ॥
जो मस्तकपर त्रिपुण्ड धारण करता है, वह इस संसारमें जितने भी तीर्थ हैं और गंगा आदि जितनी नदियाँ हैं, उन सबमें स्नान किये हुएके समान [पुण्यफल प्राप्त करनेवाला] होता है ॥ 63 ॥पंचाक्षरमन्त्रसे लेकर सात कराड़ महामन्त्र और अन्य करोड़ों मन्त्र शिवकैवल्यको प्रदान करनेवाले होते हैं ॥ 64 ॥ हे मुने! [विष्णु आदि] देवताओंके [लिये प्रतिपादित] अन्य जो मन्त्र हैं, वे सभी सुखोंको | देनेवाले हैं, जो त्रिपुण्ड्र धारण करता है, उसके वशमें वे सब मन्त्र स्वतः ही हो जाते हैं ॥ 65 ॥
त्रिपुण्ड्र धारण करनेवाला मनुष्य अपने वंश और गोत्रमें उत्पन्न हजारों पूर्वजोंका और भविष्यमें उत्पन्न | होनेवाली हजारों सन्तानोंका उद्धार करता है ॥ 66 ॥
जो त्रिपुण्ड्र धारण करता है, उसे इस लोकमें | रोगरहित दीर्घ आयु प्राप्त होती है और वह सम्पूर्ण भोगोंका उपभोग करके जीवनके अन्तिम समयमें सुखपूर्वक ही मृत्युको प्राप्त करता है। वह मृत्युके पश्चात् अणिमा, महिमा आदि आठों ऐश्वर्यों और सद्गुणोंसे युक्त दिव्य शरीरवाले शिवको प्राप्त करता है और दिव्यलोकके देवोंसे सेवित दिव्य विमानपर चढ़कर शिवलोकको जाता है ।। 67-68 ।।
वहाँपर वह सभी विद्याधरों और महापराक्रमी गन्धवों, इन्द्रादि लोकपालोंके लोकोंमें क्रमशः जाकर बहुत-से भोगोंका उपभोग करता हुआ प्रजापतियोंके पदों तथा ब्रह्माके पदपर आसीन होकर वहाँ [दिव्यलोककी] सैकड़ों कन्याओंके साथ आनन्दित होता है । ll 69-70 ॥
वह उस लोकमें ब्रह्माकी आयुके बराबर आयुको प्राप्तकर अनेक सुखोंका भोग करके विष्णुलोकको | जाता है और ब्रह्माके सौ वर्षोंतक सुखोंका भोग प्राप्त करता है । तदनन्तर वह शिवलोकको जाकर इच्छानुकूल अक्षय कामनाओंको प्राप्तकर शिवका सान्निध्य प्राप्त कर लेता है; इसमें सन्देह नहीं है ॥ 71-72 ॥ सभी उपनिषदोंके सारको बार-बार सम्यक् रूपसे देखकर यही निर्णय लिया गया है कि त्रिपुण्ड्र धारण करना ही परम श्रेष्ठ है ॥ 73 ॥
जो ब्राह्मण विभूतिकी निन्दा करता है, वह ब्राह्मण नहीं है, अपितु अन्य जातिका है और विभूति निन्दाके कारण उसे चतुर्मुख ब्रह्माकी आयुसीमातक नरक भोगना पड़ता है ॥ 74 ॥श्राद्ध, यज्ञ, जप, होम, बलिवैश्वदेव और
देवपूजनके समय जो पूतात्मा मनुष्य त्रिपुण्ड्र धारण
करता है, वह मृत्युको भी जीत लेता है ॥ 75 ॥ मलत्याग करनेपर [ शुद्धिके लिये] जलस्नान किया जाता है, भस्मस्नान करनेपर सदा पवित्रता आती है, मन्त्रस्नान पापका हरण करता है और ज्ञानरूपी जलमें अवगाहन करनेपर परमपदकी प्राप्ति होती है ॥ 76 ॥ समस्त तीर्थों में [स्नान करनेसे] जो पुण्य और फल प्राप्त होता है, वह फल, भस्मस्नान करनेवालेको प्राप्त हो जाता है ॥ 77 ॥ भस्मस्नान ही परम श्रेष्ठ तीर्थ है, जो प्रतिदिन गंगा (तीर्थ) स्नानके समान है। भस्म तो भस्मरूपी साक्षात् शिव है, जो त्रैलोक्यको पवित्र करनेवाला है ॥ 78 ll
बिना त्रिपुण्ड्र धारण किये हुए जो ब्राह्मण स्नान, ध्यान, दान और जप आदि अनुष्ठान कर्म करता है, वह न तो स्नान है, न ध्यान है, न दान है और न जप आदि अन्य अनुष्ठित कर्म ही है ॥ 79 ॥ वानप्रस्थ, कन्या और दीक्षारहित मनुष्योंको मध्याह्नके पूर्व ही जलसे युक्त त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिये, किंतु मध्याह्नके पश्चात् जलरहित भस्मसे त्रिपुण्ड्र धारण करना उचित है। इस प्रकार श्रद्धापूर्वक दृढ़ निश्चयवाला जो व्यक्ति नित्य त्रिपुण्ड्र धारण करता है, उसे ही शिवभक्त जानना चाहिये। उसीको भुक्ति तथा मुक्ति भी प्राप्त होती है ।। 80-81 ॥
जिसके अंगपर प्रचुर पुण्य देनेवाला एक भी रुद्राक्ष नहीं है और वह त्रिपुण्ड्से भी रहित है, उसका
जन्म लेना व्यर्थ है ॥ 82 ॥
[इसके पश्चात् भस्मधारण तथा त्रिपुण्ड्रकी महिमा एवं विधि बताकर सूतजीने फिर कहा- हे महर्षियो ! ] इस प्रकार मैंने संक्षेपसे त्रिपुण्ड्रका माहात्म्य बताया है। यह समस्त प्राणियोंके लिये गोपनीय रहस्य है। अतः आपको भी इसे गुप्त ही रखना चाहिये ॥ 83 ॥
मुनिवरो! ललाट आदि सभी निर्दिष्ट स्थानोंमें जो भस्मसे तीन तिरछी रेखाएँ बनायी जाती हैं, उन्हींको विद्वानोंने त्रिपुण्ड्र कहा है ॥ 84 ॥भौहोंके मध्य भागसे लेकर जहाँतक भीहांका अन्त है, उतना बड़ा त्रिपुण्ड्र ललाटमें धारण करना चाहिये ।। 85 ।।
मध्यमा और अनामिका अंगुलीसे दो रेखाएँ करके बीचमें अंगुष्ठद्वारा प्रतिलोमभावसे की गयी। रेखा त्रिपुण्ड्र कहलाती है अथवा बीचकी तीन अँगुलियोंसे भस्म लेकर यत्नपूर्वक भक्तिभावसे ललाटमें त्रिपुण्ड्र धारण करे। त्रिपुण्ड्र अत्यन्त उत्तम तथा भोग और मोक्षको देनेवाला है । ll 86-87 ।।
त्रिपुण्ड्रकी तीनों रेखाओंमेंसे प्रत्येकके नौ-नौ देवता हैं, जो सभी अंगोंमें स्थित हैं, मैं उनका परिचय देता हूँ, सावधान होकर सुनें ॥ 88 ॥
हे मुनिवरो! प्रणवका प्रथम अक्षर अकार, गार्हपत्य अग्नि, पृथ्वी, धर्म, रजोगुण, ऋग्वेद, क्रियाशक्ति, प्रातः सवन तथा महादेव - ये त्रिपुण्ड्रकी प्रथम रेखाके नौ देवता हैं, यह बात शिवदीक्षापरायण पुरुषोंको अच्छी तरह समझ लेनी चाहिये ॥ 89-90 ॥
हे मुनिश्रेष्ठो! प्रणवका दूसरा अक्षर उकार, दक्षिणाग्नि, आकाश, सत्त्वगुण, यजुर्वेद, माध्यन्दिनसवन, इच्छाशक्ति, अन्तरात्मा तथा महेश्वर- ये दूसरी रेखाके नौ देवता हैं- ऐसा शिवदीक्षित लोगोंको जानना चाहिये ।। 91-92 ।।
हे मुनिश्रेष्ठो ! प्रणवका तीसरा अक्षर मकार, आहवनीय अग्नि, परमात्मा, तमोगुण, द्युलोक, ज्ञानशक्ति, सामवेद, तृतीय सवन तथा शिव-ये तीसरी रेखाके नौ देवता हैं- ऐसा शिवदीक्षित भक्तोंको जानना चाहिये ।। 93-94 ।।
इस प्रकार स्थानदेवताओंको उत्तम भक्तिभावसे नित्य नमस्कार करके स्नान आदिसे शुद्ध हुआ पुरुष यदि त्रिपुण्ड्र धारण करे, तो भोग और मोक्षको भी प्राप्त कर लेता है ।। 95 ।।
हे मुनीश्वरो! ये सम्पूर्ण अंगोंमें स्थान-देवता बताये गये हैं, अब उनसे सम्बन्धित स्थान बताता हूँ, | भक्तिपूर्वक सुनिये ॥ 96 ॥बत्तीस, सोलह आठ अथवा पाँच स्थानों में मनुष्य त्रिपुण्ड्रका न्यास करे। मस्तक, ललाट, दोनों कान, दोनों नेत्र, दोनों नासिका, मुख, कण्ठ, दोनों हाथ, दोनों कोहनी, दोनों कलाई, हृदय, दोनों पार्श्वभाग, नाभि, दोनों अण्डकोष, दोनों ऊरु, दोनों गुल्फ, दोनों घुटने, दोनों पिण्डली और | दोनों पैर ये बतीस उत्तम स्थान हैं; इनमें क्रमशः अग्नि, जल, पृथ्वी, वायु, दस दिक्प्रदेश, दस दिक्पाल तथा आठ वसुओंका निवास है । ll 97 - 100 ॥
धरा (धर), ध्रुव, सोम, आप, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभास-ये आठ वसु कहे गये हैं। इन सबका नाममात्र लेकर इनके स्थानोंमें विद्वान् पुरुष त्रिपुण्ड धारण करे। अथवा एकाग्रचित्त होकर सोलह स्थानोंमें ही त्रिपुण्ड्र धारण करे ।। 101-102 ॥
मस्तक, ललाट, कण्ठ, दोनों कन्धों, दोनों भुजाओं, दोनों कोहनियों तथा दोनों कलाइयोंमें, हृदयमें, नाभिमें, | दोनों पसलियों में तथा पृष्ठभागमें त्रिपुण्ड्र लगाकर वहाँ दोनों अश्विनीकुमारों, शिव, शक्ति, रुद्र, ईश तथा नारदका और वामा आदि नौ शक्तियोंका पूजन करे। ये सब मिलकर सोलह देवता हैं। अश्विनीकुमार युगल कहे गये हैं-नासत्य और दस्र ॥ 103 - 105 ॥
अथवा मस्तक, केश, दोनों कान, मुख, दोनों भुजा, हृदय, नाभि, दोनों ऊरु, दोनों जानु, दोनों पैर और पृष्ठभाग इन सोलह स्थानोंमें सोलह त्रिपुण्ड्रका न्यास करे। मस्तकमें शिव, केशोंमें चन्द्रमा, दोनों कानोंमें रुद्र और ब्रह्मा, मुखमें विघ्नराज गणेश, दोनों भुजाओंमें विष्णु और लक्ष्मी, हृदयमें शम्भु नाभिमें प्रजापति, दोनों ऊरुओंमें नाग और नागकन्याएँ, दोनों घुटनोंमें ऋषिकन्याएँ, दोनों पैरोंमें समुद्र तथा विशाल पृष्ठभाग में सम्पूर्ण तीर्थ देवतारूपसे विराजमान हैं। इस प्रकार सोलह स्थानोंका परिचय दिया गया। अब आठ स्थान बताये जा रहे हैं। ll 106-109 ॥
गुह्य स्थान, ललाट, परम उत्तम कर्णयुगल, दोनों कन्धे, हृदय और नाभि-ये आठ स्थान हैं। इनमें ब्रह्मा तथा सप्तर्षि ये आठ देवता बताये गये हैं। हे मुनीश्वरो ! भस्मके स्थानको जाननेवाले विद्वानोंने इस तरह आठ स्थानोंका परिचय दिया है। अथवामस्तक, दोनों भुजाएँ, हृदय और नाभि- इन पाँच | स्थानोंको भस्मवेत्ता पुरुषोंने भस्म धारणके योग्य बताया है। यथासम्भव देश, काल आदिकी अपेक्षा रखते हुए उद्धूलन (भस्म) को अभिमन्त्रित | करना और जलमें मिलाना आदि कार्य करे। यदि | उद्भूलनमें भी असमर्थ हो, तो त्रिपुण्ड्र आदि लगाये ॥ 110 - 113 ॥
त्रिनेत्रधारी, तीनों गुणोंके आधार तथा तीनों | देवताओंके जनक भगवान् शिवका स्मरण करते हुए 'नमः शिवाय' कहकर ललाटमें त्रिपुण्ड्र लगाये। 'ईशाभ्यां नमः ' - ऐसा कहकर दोनों पार्श्वभागों में त्रिपुण्ड्र धारण करे। 'बीजाभ्यां नमः ' - यह बोलकर दोनों प्रकोष्ठोंमें भस्म लगाये। 'पितृभ्यां नमः'' कहकर नीचेके अंगमें, 'उमेशाभ्यां नमः' कहकर ऊपरके अंगमें तथा 'भीमाय नमः' कहकर पीठमें और सिरके पिछले भागमें त्रिपुण्ड्र लगाना चाहिये ।। 114 - 116 ॥