सनत्कुमार बोले [हे व्यास!] अब मैं हिमालयके दक्षिण तथा समुद्रके उत्तर भागमें स्थित भारतवर्षका वर्णन करूँगा, जहाँ भारती सृष्टि है ॥ 1 ॥
हे महामुने ! इसका विस्तार नौ हजार योजन है, विद्वानोंने इसे स्वर्ग और मोक्षकी कर्मभूमि कहा है। मनुष्य यहींसे स्वर्ग तथा नरक प्राप्त करते हैं। मैं भारतवर्षके भी नौ भेदोंको आपसे कहता हूँ॥ 2-3 ॥
इन्द्रद्युम्न, कसेरु, ताम्रवर्ण, गभस्तिमान्, नागद्वीप, सौम्य, गन्धर्व तथा वारुण- [ ये आठ द्वीप हैं।] उनमें सागरसे घिरा हुआ यह [भारत] नौवाँ द्वीप है। यह द्वीप हजार योजन परिमाणमें दक्षिणसे उत्तरपर्यन्त फैला हुआ है, जिसके पूर्वमें किरात तथा दक्षिण और पश्चिममें यवन स्थित हैं। इसके उत्तरमें तपस्वियोंको स्थित जानना चाहिये। इसके मध्यमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र क्रमशः यज्ञ, युद्ध, व्यापार तथा सेवावृत्ति करते हुए स्थित हैं ॥4-7॥
इसमें महेन्द्र, मलय, सह्य, सुदामा, ऋक्ष, विन्ध्य एवं पारियात्र- ये सात कुलपर्वत हैं ॥ 8 ॥
हे मुने! वेद, स्मृति, पुराण आदि पारियात्रमें ही आविर्भूत हुए हैं, दर्शन तथा स्पर्शसे इन्हें सभी पापका नाश करनेवाला जानना चाहिये ॥ 9 ॥ नर्मदा, सुरसा आदि सात और इनके अतिरिक्त हजारों शुभ महानदियाँ विन्ध्यपर्वतसे उत्पन्न हुई हैं, जो सम्पूर्ण पापोंका हरण करती हैं ॥ 10 ॥गोदावरी, भीमरथी एवं तापी आदि प्रमुख नदियाँ ऋक्षपर्वतसे निकली हैं, जो शीघ्र ही पाप तथा भयका हरण करती हैं ॥ 11 ॥
इसी प्रकार कृष्णा, वेणी आदि नदियाँ सह्यपर्वतके चरणोंसे निकली हैं। कृतमाला, ताम्रपर्णी आदि [ नदियाँ ] मलयाचलसे निकली हैं ॥ 12 ॥
त्रियामा, ऋषिकुल्या आदि नदियाँ महेन्द्रपर्वतसे निकली हुई कही गयी हैं। ऋषिकुल्या, कुमारी आदि नदियाँ शक्तिमान् पर्वतसे निकली हैं ॥ 13 ॥
उन मण्डलोंमें अनेक जनपद निवास करते हैं, वे इन नदियों तथा अन्य सरोवरोंका जल पीते हैं ॥ 14 ॥ हे महामुने! इस भारतवर्षमें ही सत्ययुग आदि चारों युग होते हैं, अन्य द्वीपोंमें ये नहीं होते ॥ 15 यहीँपर यज्ञ करनेवाले पुण्यात्मा लोग श्रद्धापूर्वक दान करते हैं और यहींपर परलोककी प्राप्तिके लिये यतिलोग तपस्या करते हैं ॥ 16 ॥
हे महामुने ! जम्बूद्वीपमें यह भूमि ही कर्मभूमि है, और उसमें भी यह भारतवर्ष सर्वश्रेष्ठ है, इसके अतिरिक्त अन्य सभी भोगभूमियाँ हैं ll 17 ll
हे मुनिश्रेष्ठ ! यहाँपर जीव हजारों जन्मोंका पुण्यसंचय होनेपर कभी- कभी मनुष्यका जन्म प्राप्त करता है ॥ 18 ॥
स्वर्ग एवं मोक्षके साधनभूत इस भारतवर्षका गुणगान देवतालोग भी करते हैं। अहा! यह भारतभूमि धन्य है, जहाँ देवतालोग भी पुरुष बनकर जन्म ग्रहण करते हैं। हम देवतालोग कब इस भारत भूमिमें मनुष्य जन्म पाकर परमात्मस्वरूप शिवमें अपने सारे कर्मोंका फल समर्पितकर शिवस्वरूप हो जायँगे ॥ 19-20 ॥
सुखोंसे युक्त तथा कर्ममें निरत वे मनुष्य निश्चय ही धन्य हैं, जिनका जन्म भारतवर्षमें होता है; क्योंकि वे स्वर्ग तथा मोक्ष दोनोंका लाभ प्राप्त करते हैं ॥ 21 ॥
एक लाख योजन विस्तारवाले, सभी मण्डलोंसे युक्त तथा क्षारसमुद्रसे घिरे हुए इस जम्बूद्वीपका वर्णन मैंने किया ॥ 22 ॥हे ब्रह्मन् ! क्षारसमुद्रसे घिरा हुआ एक लाख योजन विस्तारवाला, जो जम्बूद्वीप है, उससे दुगुने परिमाणका प्लक्षद्वीप कहा गया है। यहाँपर गोमन्त, चन्द्र, नारद, दर्दुर, सोमक, सुमना तथा वैभ्राज नामके उत्तम पर्वत हैं । ll 23-24 ॥ इन मनोरम वर्षाचलोंमें प्रजाएँ, देवता एवं
गन्धर्व सुखपूर्वक नित्य निरन्तर निवास करते हैं ॥ 25 ॥ यहाँपर लोगोंको आधि-व्याधि कभी नहीं होती है और यहाँके मनुष्य दस हजार वर्ष जीते हैं ॥ 26 ॥ यहाँपर अनुतप्ता, शिखी, पापघ्नी, त्रिदिवा, कृपा, अमृता, सुकृता-ये सात नदियाँ हैं। छोटी नदियाँ तथा पहाड़ तो हजारोंकी संख्यामें हैं, यहाँके निवासी अत्यन्त प्रसन्न होकर इन नदियोंका जल पीते हैं ॥ 27-28 ll
हे महामुने! इन सातों स्थानोंमें चारों युगोंकी स्थिति नहीं होती, वहाँ सदा त्रेतायुगके समान काल व्यवस्था है। हे मुनिसत्तम! वहाँपर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र निवास करते हैं। उसके मध्यमें कल्पवृक्षके समान एक बहुत बड़ा वृक्ष है। हे द्विजश्रेष्ठ ! उसका नाम प्लक्ष है, इसी वृक्षके कारण इसका नाम प्लक्षद्वीप है। लोकका कल्याण करनेवाले भगवान् शंकर, भगवान् विष्णु तथा ब्रह्माकी पूजा यहाँपर वैदिक मन्त्रों तथा यन्त्रोंके द्वारा की जाती है। अब आप संक्षेपमें शाल्मलीद्वीपका वर्णन सुनिये ।। 29-32 ॥
वहाँपर भी सात वर्ष हैं, उनके नाम मुझसे सुनिये। श्वेत, हरित, जीमूत, रोहित, वैकल, मानस और सातवाँ सुप्रभ। हे मुने! शाल्मली वृक्षके कारण इस द्वीपका नाम शाल्मलीद्वीप है ।। 33-34 ॥
यह भी परिमाणमें दुगुने समुद्रसे निरन्तर घिरा हुआ स्थित है। वर्षोंको सूचित करनेवाली नदियाँ भी वहाँ विद्यमान हैं, उनके नाम मुझसे सुनिये। शुक्ला, रक्ता, हिरण्या, चन्द्रा, शुभ्रा, विमोचना और सातवीं निवृत्ति वे सब पवित्र तथा शीतल जलवाली हैं ॥ 35-36 ॥ वे सातों वर्ष चारों वर्णोंसे युक्त हैं, वे लोग विविध यज्ञोंसे सदा भगवान् शिवका यजन करते हैं ॥ 37 ॥
उस अत्यन्त मनोरम द्वीपमें देवताओंका सर्वदा सान्निध्य रहता है। यह द्वीप सुरोद नामक समुद्रसे घिरा हुआ है ॥ 38 ॥इसके बाहर चारों ओर उसके दुगुने परिमाणका कुशद्वीप स्थित है। वहाँपर मनुष्योंके साथ दैत्य, दानव, देवता, गन्धर्व, यक्ष, किम्पुरुष आदि निवास करते हैं। वहाँपर चारों वर्णवाले मनुष्य अपने- अपने कर्मानुष्ठानमें निरत रहते हैं ।। 39-40 ।। वहाँ कुशद्वीपमें लोग सम्पूर्ण कामनाओंको प्रदान करनेवाले ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वरका यजन करते हैं ॥ 41 ॥ वहाँ कुशेशय, हरि, द्युतिमान्, पुष्पवान्, मणिद्रुम, हेमशैल एवं सातवाँ मन्दराचल नामक पर्वत है। वहाँ सात नदियाँ भी हैं, उनके नामोंको यथार्थरूपमें सुनिये धूतपापा, शिवा, पवित्रा, सम्मिति, विद्या, दम्भा तथा मही- ये सम्पूर्ण पापोंको हरनेवाली हैं। इनके अतिरिक्त निर्मल जलवाली तथा सुवर्णबालुकापूर्ण अन्य हजारों नदियाँ भी हैं। कुशद्वीपमें घृतके समुद्रसे घिरा हुआ कुशोंका स्तम्ब है। हे महाभाग ! अब दूसरे विशाल क्रौंचद्वीपका वर्णन सुनिये ॥ 42-45 ll
यह दुगुने विस्तारवाले दधिमण्ड नामक समुद्रसे घिरा हुआ है। हे महाबुद्धे! उसमें जो वर्षपर्वत हैं, उनके नाम मुझसे सुनिये। क्रौंच, वामन, तीसरा अन्धकारक, दिवावृति, मन, पुण्डरीक एवं दुन्दुभि । चारों ओर सुवर्णके समान सुरम्य उन वर्षपर्वतोंमें मित्रों और देवगणोंके साथ प्रजाएँ निर्भय होकर निवास करती हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र यहाँ निवास करते हैं। यहाँपर सात महानदियाँ हैं, इनके अतिरिक्त अन्य भी हजारों नदियाँ हैं। गौरी, कुमुद्वती, सन्ध्या, रात्रि, मनोजवा, शान्ति तथा पुण्डरीका नामवाली जो [सात] नदियाँ हैं, उनका विमल जल लोग पीते हैं ।ll 46 - 50 ॥
वहाँपर योगरुद्रस्वरूपवाले भगवान् शिवकी पूजा की जाती है। उसके बाद दधिमण्डोदक समुद्र द्विगुणित शाकद्वीपसे घिरा है। यहाँ सात पर्वत हैं, उनके नाम मुझसे सुनिये। इसके पूर्वमें उदयगिरि और पश्चिममें जलधार पर्वत है। पृष्ठभागमें अस्तगिरि, अविकेश तथा केसरी पर्वत हैं। यहाँ शाक नामक महान् वृक्ष है, जो सिद्धों तथा गन्धर्वोंसे सेवित है ॥ 51-53 ॥वहाँपर चारों वर्णोंके लोगोंसे युक्त पवित्र जनपद हैं, वहाँ परम पवित्र तथा सभी पापोंको दूर करनेवाली सुकुमारी, कुमारी, नलिनी, वेणुका, इक्षु, रेणुका तथा गर्भस्ति नामक सात नदियाँ हैं। हे महामुने! इसके अतिरिक्त वहाँ हजारों अन्य छोटी नदियाँ हैं तथा सैकड़ों-हजारों पर्वत भी हैं ।। 54-56 ॥
उन वर्षोंमें धर्मकी हानि नहीं होती है। स्वर्गसे आकर उन वर्षोंमें पृथ्वीपर मनुष्य परस्पर विहार करते हैं ॥ 57 ॥
शाकद्वीपमें वहाँके संयमशील निवासी शास्त्रोक्त कर्मोंके द्वारा प्रेमपूर्वक सर्वदा सूर्य भगवान्का सम्यक् यजन करते हैं ॥ 58 ॥
वह शाकद्वीप चारों ओरसे दुगुने विस्तारवाले क्षीरसागरसे घिरा हुआ है। हे व्यास ! क्षीरसागर दुगुने विस्तारवाले पुष्कर नामक द्वीपसे घिरा हुआ है। वहाँ मानस (मानसोत्तर) नामक विशाल वर्षपर्वत प्रसिद्ध है। यह पचास हजार योजन ऊँचा है और लाख योजन वलयके आकारमें विस्तृत है। वलयाकृति पुष्करद्वीपको यह पर्वत मध्यमें दो भागों में विभक्त करके स्थित है। इसीसे इस द्वीपके दोनों भागोंकी आकृति कंकणके समान है । ll 59-61 ॥
यहाँके मनुष्य दस हजार वर्षपर्यन्त जीवित रहते हैं और रोग, शोक, राग तथा द्वेषसे रहित होते हैं। है मुने! इन लोगों में अधर्म, वध- बन्धन आदि कुछ नहीं बताया गया है। इनमें असत्य नहीं होता। केवल सत्यका ही वास होता है। सभी मनुष्योंका वेष एक समान होता है और वे सुवर्णके समान एकमात्र गौर वर्णवाले होते हैं ॥ 62-64 ॥
हे व्यासजी ! भौम पृथिवीमें अवस्थित यह वर्ष तो स्वर्गतुल्य है । यहाँका काल सबको तथा जरा रोगसे रहित है ॥ 65 ॥ सुख देनेवाला पुष्करद्वीपमें महावीत एवं धातकी नामक दो खण्ड हैं। यहाँ पुष्करद्वीपमें एक न्यग्रोधका वृक्ष है, जो ब्रह्माजीका उत्तम स्थान है। ब्रह्माजी देवताओं एवं असुरोंसे पूजित होते हुए उसमें निवास करते हैं। यह पुष्करद्वीप चारों ओरसे स्वादूदक नामक समुद्रसे घिरा हुआ है ।। 66-67 ॥इस प्रकार ये सातों द्वीप सात समुद्रोंसे घिरे हुए हैं। द्वीप एवं समुद्र संख्यामें समान हैं, किंतु क्रमशः एक-दूसरेसे द्विगुण विस्तारवाले हैं ॥ 68 ॥
इस प्रकार मैंने उनकी अतिरिक्तताको कह दिया। समुद्रोंमें जल सर्वदा समान रहता है, उनका जल कभी घटता नहीं है ॥ 69 ॥ हे मुनिश्रेष्ठ! जिस प्रकार अग्निके संयोगसे स्थालीमें रहनेवाला पदार्थ ऊपरकी ओर उबलकर आता है, उसी प्रकार चन्द्रमाकी वृद्धि होनेपर समुद्रका जल भी ऊपरको उठता है ॥ 70 ॥
चन्द्रमाके उदय तथा अस्तकालमें समुद्रोंका जल भी क्रमशः बढ़ता है और घटता है। इसलिये कृष्ण तथा शुक्लपक्षमें न्यूनाधिक्य होता रहता है ॥ 71 ॥
हे मुनिश्रेष्ठ! इस प्रकार समस्त समुद्रोंके जलके एक सौ दस उदय तथा क्षय देखे गये हैं, यह मैंने आपसे कह दिया ॥ 72 ॥ हे विप्र! सभी प्रजाएँ पुष्करद्वीपमें सर्वदा अपने
आप उपस्थित खाँड़ आदि [ मिष्टान्नोंका ] भोजन करती हैं ॥ 73 ॥
स्वादूदक समुद्रके आगे कोई भी लोक नहीं है। | यहाँकी भूमि सुवर्णमयी तथा पुष्करद्वीपसे दुगुनी है, यह सभी प्रकारके प्राणियोंसे रहित है ॥ 74 ॥
उससे आगे लोकालोक पर्वत है। वह पर्वत ऊँचाईमें एक हजार योजन है और उसका विस्तार दस हजार योजन है ॥ 75 ॥
हे महामुने! तमोमय ब्रह्माण्डरूप कटाहसे आवृत यह पृथ्वी द्वीपों तथा पर्वतोंसहित पचास करोड़ योजन विस्तारवाली है। हे व्यासजी ! सबकी आधारभूता यह पृथ्वीगुणमें सभी महाभूतोंकी अपेक्षा अधिक है और यह सभी लोकोंकी धात्री है ॥ 76-77 ॥