सूतजी बोले – [हे महर्षियो!] अब मैं भीमशंकरके माहात्म्यको कह रहा हूँ, जिसके सुननेमात्रसे मनुष्य सभी प्रकारके अभीष्टको प्राप्त कर लेता है ॥ 1 ॥
कामरूप नामक देशमें लोकहितकी कामनासे साक्षात् कल्याण एवं सुखके भाजन शिवजी स्वयं प्रकट हुए थे।" हे मुनीश्वरो! लोककल्याण करनेवाले शंकरजीने [यहाँ] जिस लिये अवतार लिया, उसे आपलोग आदरपूर्वक सुनिये; मैं कह रहा हूँ ॥ 2-3 ॥ हे ब्राह्मणो! पूर्व समयमें सभी प्राणियोंको सदा दुःख देनेवाला एवं धर्मको नष्ट करनेवाला भीम नामका एक बड़ा बलवान् राक्षस हुआ था ॥ 4 ॥ महाबलवान् वह कुम्भकर्णके द्वारा कर्कटी नामक राक्षसीसे उत्पन्न हुआ था और अपनी माताके साथ सहा पर्वतपर निवास करता था ॥ 5 ॥
संसारको भयभीत करनेवाले कुम्भकर्णका रामके द्वारा वध कर दिये जानेपर वह राक्षसी स्वयं सह्य पर्वतपर अपने पुत्रके साथ निवास करने लगी ॥ 6 ॥
हे द्विजो! सारे प्राणियोंको दुःख देनेवाले प्रचण्ड पराक्रमी उस भीमने बाल्यावस्थामें किसी समय [ अपनी] माता कर्कटीसे पूछा- ॥ 7 ॥
भीम बोला- हे मातः! मेरे पिता कौन हैं, वे कहाँ रहते हैं और तुम अकेली ही यहाँ क्यों रहती हो? मैं वह सब जानना चाहता हूँ, तुम इस समय ठीक-ठीक बताओ ॥ 8 ॥सूतजी बोले- इस प्रकार अपने पुत्रके पूछने पर | उस दुष्टा राक्षसीने अपने पुत्रसे कहा- तुम सुनो, मैं सब कुछ कहती हूँ ॥ 9 ॥
कर्कटी बोली- तुम्हारे पिता रावणके छोटे | भाई महाबली कुम्भकर्ण थे, जिन्हें रामने उनके भाई रावणसहित मार डाला हे तात! पूर्वकालमें किसी समय वह बलवान् राक्षस कुम्भकर्ण यहाँ आया और उसने मेरे साथ बलपूर्वक सहवास किया। इसके बाद वह महाबली [कुम्भकर्ण] मुझे यहींपर छोड़कर लंकापुरी चला गया। मैंने वह लंका नहीं देखी है, अतः मैं यहीं निवास करती हूँ। मेरे पिताका नाम कर्कट है तथा मेरी माता पुष्कसी कही गयी है। मेरा पति विराध था, जिसे रामने पहले ही मार दिया था ॥ 10- 13 ॥
अपने प्रिय पतिके मारे जानेपर मैं अपने माता पिताके साथ यहाँ निवास करने लगी। मेरे माता पिताको (सुतीक्ष्ण) ऋषिने भस्म कर दिया और वे मर गये। [इसका कारण यह था कि] वे दोनों उनको खानेके लिये गये हुए थे, तब परम तपस्वी महात्मा अगस्त्यशिष्य सुतीक्ष्णने क्रोधित हो उन्हें भस्म कर दिया ।। 14-15 ।।
इस प्रकार मैं दुखी होकर बिना किसी सहायक एवं आश्रयके पहलेसे अकेली ही इस पर्वतपर निवास करने लगी। इस अवसरपर रावणके छोटे भाई राक्षस कुम्भकर्णने यहाँ आकर मेरे साथ सहवास किया और यह मुझे छोड़कर चला गया। [हे पुत्र!] उसके बाद महाबली एवं पराक्रमी तुम उत्पन्न हुए और अब मैं तुम्हारा सहारा लेकर समय बिता रही हूँ ।। 16-18 ॥
सूतजी बोले- माताके इस वचनको सुनकर प्रबलपराक्रमी भीम कुपित हो उठा और विचार करने लगा कि अब मैं हरिके प्रति क्या करूँ? इस रामचन्द्रने मेरे पिता तथा नानाका वध किया और इसने विराधका भी वध किया; इस प्रकार इसने बहुत अधिक दुःख दिया है। अतः यदि मैं कुम्भकर्णका पुत्र हैं, तो हरिको अवश्य पीड़ा पहुँचाऊँगा - ऐसा विचार करके भीम महान् तप करनेके लिये चल पड़ा ॥ 19 - 21 ॥उसने ब्रह्माको उद्देश्य करके मनसे उनका ध्यान करते हुए एक हजार वर्षतक महान् तप किया। वह राक्षसपुत्र भीम सूर्यकी ओर दृष्टि लगाये हुए दोनों हाथ ऊपर उठाकर एक पैरपर स्थित रहा ।। 22-23 ।।
[ इस प्रकार तपमें निरत उस राक्षसके] सिरसे अत्यन्त भयानक तेज उत्पन्न हुआ; तब उस तेजसे जलते हुए देवता ब्रह्माजीकी शरणमें गये ॥ 24 ॥ इन्द्रसहित उन देवताओंने ब्रह्माजीको प्रणाम करके अनेक प्रकारके स्तोत्रोंसे भक्तिपूर्वक उनकी स्तुति की। उसके अनन्तर वे ब्रह्माजी से अपना दुःख कहने लगे ॥ 25 ll देवता बोले- हे ब्रह्मन् ! उस राक्षसका तेज सभी लोकोंको पीड़ित करनेके लिये उद्यत है, अतः हे विधे! वह दुष्ट जो माँगता है, उसे वह वर दीजिये; नहीं तो आज हम सब उसके प्रचण्ड तेजसे दग्ध होकर नष्ट हो जायँगे, इसलिये उसकी प्रार्थना अवश्य स्वीकार कीजिये ll 26-27 ॥
सूतजी बोले- उनका यह वचन सुनकर लोकपितामह ब्रह्माजी उसको वर देनेके लिये गये और उन्होंने यह वचन कहा- ll 28 ll
ब्रह्माजी बोले- (हे राक्षस!] मैं प्रसन्न हूँ, तुम्हारे मनमें जो भी हो, वह वर माँगो ब्रह्माजीका यह वचन सुनकर उस राक्षसने कहा- ॥ 29 ॥
भीम बोला- हे देवताओंके स्वामी कमलासन ब्रह्माजी यदि आप [ मुझपर] प्रसन्न हैं तथा मुझे वर देना चाहते हैं, तो आज मुझे अप्रतिम बल दीजिये ॥ 30 ll
सूतजी बोले- ऐसा कहकर उस राक्षसने ब्रह्माजीको प्रणाम किया और ब्रह्माजी भी उसे वर देकर अपने धामको चले गये। तब ब्रह्मदेवसे अतुल बलका वरदान प्राप्तकर उस गर्वयुक्त राक्षस भीमने शीघ्र ही घर आकर माताको प्रणामकर कहा- ॥ 31-32 ॥
भीम बोला- हे माता! अब मेरे बलको देखना; मेँ इन्द्र आदि सभी देवताओं, विष्णु तथा उनके सहायकोंका घोर विनाश करूंगा ll 33॥
सूतजी बोले- इस प्रकार कहकर प्रचण्ड पराक्रमवाले उस भीमने सर्वप्रथम इन्द्रादि देवताओंको जीता और उन्हें अपने अपने स्थानसे हटाकर बाहर निकाल दिया ॥ 34 ॥इसके बाद [ सहायताहेतु] देवताओंके द्वारा | प्रार्थित विष्णुको भी उस दैत्यने जीत लिया। तदनन्तर उसने प्रसन्नतापूर्वक पृथ्वीको जीतनेका उपक्रम किया ॥ 35 ॥
वह पहले कामरूपके स्वामी सुदक्षिणको जीतने गया, वहाँ राजाके साथ उसका भयंकर युद्ध हुआ ॥ 36 ॥ असुर भीमने ब्रह्माके वरदानके प्रभावसे उस महावीर तथा शिवभक्त महाराजाको [युद्धमें] जीत लिया ॥ 37 ॥
तब उस महाभयंकर पराक्रमवाले भीमने | प्रभावशाली कामरूपेश्वरको जीतकर बाँध लिया और क्लेश देने लगा। हे द्विजो ! उस दुष्ट भीमने उस |शिवभक्त राजाका सामग्रीसहित राज्य तथा सर्वस्व छीन लिया। उसने उस धर्मात्मा, शिवभक्त तथा धर्मप्रिय राजाको बेड़ियोंसे बाँध दिया और एकान्तमें बन्द कर दिया ।। 38-40 ॥
तब वहाँ उसने अपने कल्याणकी इच्छासे उत्तम पार्थिव लिंग बनाकर शिवजीका भजन करना प्रारम्भ किया। उसने अनेक प्रकारसे गंगाजीकी उस समय स्तुति की। मानसिक स्नान आदि कर्म करके उस नृपश्रेष्ठने पार्थिव विधानसे शिवका पूजन किया। जिस प्रकारका ध्यान विहित है, वैसा ही ध्यान विधिपूर्वक करके प्रणाम, स्तोत्रपाठ, मुद्रा, आसन आदिके साथ सब कुछ करते हुए उसने प्रसन्नतापूर्वक शिवजीकी उपासना की ll 41-44 ॥
वह प्रणवके सहित पंचाक्षरी विद्याका जप करता था। उस समय उसे अन्य कार्य करनेके लिये कोई अवकाश न रहा। राजाको [अत्यन्त ] प्रिय उसकी पतिव्रता पत्नी, जिसका नाम दक्षिणा था, प्रेमपूर्वक सविधि पार्थिव पूजन किया करती थी ।। 45-46 ।।
इस प्रकार उन दोनों पति पत्नीने शिवाराधनमें तत्पर हो भक्तोंका कल्याण करनेवाले शंकरकी तन्मयता सेवा की वरदान के अभिमानसे मोहित हुए उस राक्षसने सम्पूर्ण यज्ञकर्मादि धर्मोका लोप कर दिया और सब कुछ मुझे ही समर्पण करो' - वह इस प्रकारका प्रचार करने लगा ।। 47-48 ।।हे महर्षियो ! उसने दुष्ट राक्षसोंकी बहुत बड़ी अपनी सेना लेकर सारी पृथ्वी अपने वशमें कर ली और शक्तिसम्पन्न होकर वेदधर्म, शास्त्रधर्म, स्मृति धर्म एवं पुराणधर्मका लोपकर स्वयं वह सबका भोग करने लगा। हे द्विजो उसने इन्द्रसहित समस्त देवताओं तथा ऋषियोंको पीड़ा पहुँचायी और उन्हें अत्यन्त दुःखित करके उनके स्थानोंसे निकाल दिया ।। 49-51 तब व्याकुल हुए इन्द्रसहित देवता तथा ऋषि ब्रह्मा और विष्णुको आगेकर शंकरकी शरण में गये ॥ 52 ॥
उन लोगोंने महाकोशी नदीके उत्तम तटपर लोकका कल्याण करनेवाले शंकरकी अनेक स्तोत्रोंसे स्तुतिकर उन्हें प्रसन्न किया और पार्थिव मूर्ति बनाकर विधिपूर्वक उनकी पूजा करके क्रमसे अनेक प्रकारके स्तोत्रों तथा नमस्कारादिसे उन्हें प्रसन्न किया। इस प्रकार देवगणोंकी स्तुति आदिसे स्तुत हुए शिवजीने अत्यन्त प्रसन्न होकर उन देवताओंसे यह कहा- ॥ 53-55 ॥
शिवजी बोले- हे विष्णो! हे ब्रह्मन् हे समस्त देवताओ एवं ऋषियो! मैं प्रसन्न हूँ, आपलोग वर माँगिये मैं आपलोगोंका कौन सा कार्य करूँ ? ॥ 56 ॥
सूतजी बोले- हे द्विजो! तब उन शिवजीके द्वारा यह वचन कहे जानेपर देवता लोग हाथ जोड़कर भलीभाँति प्रणाम करके शिवजीसे कहने लगे - ॥ 57 ॥
देवता बोले- हे देवेश! आप सबके मनमें स्थित सारी बातें जानते हैं; आप अन्तर्यामी हैं, अतः कोई भी बात आपसे छिपी नहीं है। हे नाथ! फिर भी सुनिये; हमलोग आपकी आज्ञासे अपना दुःख निवेदन करते हैं। हे महादेव! आप [अपनी] कृपादृष्टिसे हमें देखिये ।। 58-59 ।। कुम्भकर्णसे उत्पन्न कर्कटीका बलवान् पुत्र राक्षस भीम ब्रह्माके द्वारा दिये गये वरदानसे उन्मत्त होकर देवताओंको निरन्तर पीड़ा पहुंचा रहा है॥ 60॥ हे महेश्वर ! आप दुःख देनेवाले उस भीम नामक राक्षसका वध कीजिये। कृपा कीजिये। हे प्रभो! इसमें विलम्ब न कीजिये ॥ 61 ॥सूतजी बोले- इस प्रकार सभी देवताओं द्वारा कहे जानेपर भक्तवत्सल शिवजी- 'मैं उसका वध
करूँगा' – ऐसा कहकर पुनः देवताओंसे कहने लगे ॥ 62 ॥ शम्भु बोले - हे देवताओ ! राजा कामरूपेश्वर मेरा उत्तम भक्त है, आपलोग उससे यह कहिये, तब कार्य शीघ्र पूरा होगा। [ शंकरजीने तुमसे कहा है कि] हे सुदक्षिण ! हे महाराज ! हे कामरूपेश्वर! हे प्रभो! तुम मेरे विशेष रूपसे भक्त हो, प्रेमपूर्वक मेरा भजन करते रहो। मैं ब्रह्मासे प्राप्त वरसे शक्तिमान् तथा तुम्हारा तिरस्कार करनेवाले भीम नामक दुष्ट राक्षसका वध करूँगा, इसमें संशय नहीं है ॥ 63-65 ॥
सूतजी बोले- इसके बाद उन सभी देवताओंने हर्षित हो वहाँ जाकर शिवजीने जो कहा था, वह सब उस महाराजासे कह दिया। उससे यह कहकर वे सभी देवता तथा महर्षि परम आनन्दित हुए और शीघ्र ही अपने- अपने आश्रमोंको चले गये ॥ 66-67 ॥