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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 3, अध्याय 39 - Sanhita 3, Adhyaya 39

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भीलस्वरूप गणेश्वर एवं तपस्वी अर्जुनका संवाद

नन्दिकेश्वर बोले- हे सनत्कुमार! हे सर्वज्ञ ! अब परमात्मा शिवकी भक्तवत्सलतासे युक्त तथा उनकी दृढ़ भक्तिसे भरी हुई लीला सुनिये ॥ 1 ॥ उसके बाद उन शिवजीने अपना बाण लानेके लिये शीघ्र ही अपने सेवकको वहाँ भेजा और उसी | समय अर्जुन भी अपना बाण लेनेके लिये वहाँ पहुँचे। एक ही समय शिवका गण तथा अर्जुन बाण लेने हेतु वहाँ उपस्थित हुए, तब अर्जुनने उसे धमकाकर अपना बाण ले लिया ॥ 2-3 ॥तब शिवजीका गण उनसे कहने लगा-हे मुनिसत्तम ! यह बाण मेरा है, आप इसे क्यों ले रहे हैं, आप इसे छोड़ दीजिये। हे मुनिश्रेष्ठ! भीलराजके उस गणद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर उन अर्जुनने शिवजीका स्मरण करके उससे कहा- ॥ 4-5 ॥

अर्जुन बोले- हे वनेचर! बिना जाने तुम ऐसा क्यों बोल रहे हो? तुम मूर्ख हो; यह बाण अभी मैंने चलाया था, फिर यह तुम्हारा किस प्रकार हो सकता है ? इस बाणके पिच्छ रेखाओंसे चित्रित हैं तथा इसमें मेरा नाम अंकित है। यह तुम्हारा कैसे हो गया ? निश्चय ही तुम्हारा [यह हठी] स्वभाव कठिनाईसे छूटनेवाला है ॥ 6-7 ॥

नन्दीश्वर बोले- उनकी यह बात सुनकर गणेश्वर उस भीलने महर्षिरूपधारी उन अर्जुनसे यह वचन कहा - अरे तपस्वी! सुनो, तुम तप नहीं कर रहे हो, तुम केवल वेषसे तपस्वी हो, यथार्थरूपमें [ तपोनिरत व्यक्ति ] छल नहीं करते ॥ 8-9 ॥

तपस्वी व्यक्ति असत्य भाषण कैसे कर सकता है? तुम मुझ सेनापतिको यहाँ अकेला मत समझो ॥ 10 मेरे स्वामी भी वनके बहुत-से भीलोंके साथ यहाँ विद्यमान हैं। वे विग्रह तथा अनुग्रह करनेमें सब प्रकारसे समर्थ भी हैं। इस समय जिस बाणको तुमने लिया है, वह उनका ही है, तुम इस बातको अच्छी तरह जान लो कि यह बाण तुम्हारे पास कभी नहीं रहेगा ।। 11-12 ॥

हे तापस! [तुम असत्य बोलकर] अपनी तपस्याका फल क्यों नष्ट कर रहे हो, क्योंकि चोरीसे, छलसे, किसीको व्यथित करनेसे, अहंकारसे तथा सत्यको छोड़नेसे व्यक्ति अपनी तपस्यासे रहित हो जाता है। यह बात मैंने यथार्थ रूपसे सुनी है; तब तुम्हें इस तपस्याका फल कैसे मिलेगा ? ॥ 13-14 ॥

इसलिये यदि तुम बाणका त्याग नहीं करोगे, तो कृतघ्न कहे जाओगे; क्योंकि मेरे स्वामीने निश्चितरूपसे तुम्हारी ही रक्षाके लिये यह बाण [शूकरपर] चलाया था। उन्होंने तुम्हारे ही शत्रुको मारा है और तुमने उनके बाणको रख लिया; अत: तुम अति कृतघ्न हो, तुम्हारी यह तपस्या अशुभ करनेवाली है ॥ 15-16 ॥ जब तुम [ तपस्यायें निरत हो] सत्यभाषण नहीं कर रहे हो, तब तुम इस तपसे सिद्धिकी अपेक्षा कैसे रखते हो? यदि तुम्हें बाणकी आवश्यकता हो, तो मेरे स्वामीसे माँग लो ॥ 17 ॥

वे ऐसे बहुत-से बाण देनेमें समर्थ वै हमारे राजा हैं, फिर तुम उनसे क्यों नहीं माँग लेते हो? तुम्हें तो उनका उपकार मानना चाहिये, उलटे अपकार कर रहे हो, इस समय तुम्हारा ऐसा व्यवहार उचित प्रतीत नहीं होता, तुम इस चपलताका त्याग करो ।। 18-19 ।।

नन्दीश्वर बोले- तब उसकी यह बात सुनकर पृथापुत्र अर्जुन क्रोध करके पुनः शिवजीका स्मरण करते हुए मर्यादित वाक्य कहने लगे- ॥ 20 ॥

अर्जुन बोले - हे भील! मैं जो कहता हूँ, तुम उसे सुनो। हे वनेचर! जैसी तुम्हारी जाति है और जैसे तुम हो, मैं उसे [अच्छी तरह ] जानता हूँ ॥ 21 ॥

मैं राजा हूँ और तुम चोर हो। दोनोंका युद्ध किस प्रकार उचित होगा? मैं बलवानोंसे युद्ध करता हूँ, अधमोंसे कभी नहीं। इसलिये तुम्हारा स्वामी भी | तुम्हारे समान ही होगा। देनेवाले तो हम कहे गये हैं, तुम वनेचर तो चोर हो। मैं भीलराजसे किस प्रकार अयुक्त याचना कर सकता हूँ; हे वनेचर! तुम्हीं मुझसे बाण क्यों नहीं माँग लेते हो ? ॥ 22-24 ॥

मैं वैसे बहुत-से बाण तुम्हें दे सकता हूँ, मेरे पास बहुत-से बाण हैं। राजा होकर किससे याचना करे अथवा माँगनेपर न दे, तो कैसा राजा ? ॥ 25 ll

हे वनेचर! मैं क्या कहूँ? मैं बहुत से ऐसे बाण दे सकता हूँ; यदि तुम्हारे स्वामीको मेरे बाणोंकी | अपेक्षा है तो वह आकर मुझसे क्यों नहीं माँगता ? ॥ 26 ॥

तुम्हारा स्वामी यहाँ आये, वहाँसे क्यों बकवास कर रहा है ? यहाँ आकर मेरे साथ युद्ध करे और मुझे | युद्धमें पराजित करके तुम्हारा सेनापति भीलराज इस बाणको लेकर सुखसे अपने घर चला जाय, वह देर क्यों कर रहा है ? ।। 27-28 ।।

नन्दीश्वर बोले- महेश्वरकी कृपासे उत्तम बल प्राप्त किये हुए अर्जुनकी इस प्रकारकी बात सुनकर उस भीलने कहा- ॥ 29 ॥भील बोला- तुम ऋषि नहीं हो, मूर्ख हो, तुम अपनी मृत्यु क्यों चाह रहे हो, बाणको दे दो और सुखपूर्वक रहो, अन्यथा कष्ट प्राप्त करोगे ॥ 30 ॥ नन्दीश्वर बोले- शिवकी श्रेष्ठ शक्तिसे शोभित होनेवाले भीलकी बात सुनकर पाण्डुपुत्र अर्जुनने शिवजीका
स्मरण करते हुए उस भीलसे कहा- ॥ 31 ॥

अर्जुन बोले- हे वनेचर! हे भील! मेरी बातको भलीभाँति सुनो; जब तुम्हारा स्वामी यहाँ आयेगा, तब मैं उसको इसका फल दिखाऊँगा ॥ 32 ॥

तुम्हारे साथ युद्ध करना मुझे शोभा नहीं देता, अतः तुम्हारे स्वामीके साथ युद्ध करूंगा; क्योंकि सिंह और गीदड़का युद्ध उपहासास्पद होता है ॥ 33 ॥

हे भील तुमने मेरी बात सुन ली, अब [आगे] मेरा महाबल भी देखोगे। अब तुम अपने स्वामीके पास जाओ और जैसी तुम्हारी इच्छा हो, वैसा करो ll 34 ॥

नन्दीश्वर बोले- अर्जुनके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर वह भील वहाँ गया, जहाँ शिवावतार | भीलराज स्थित थे। तदुपरान्त उसने अर्जुनका सारा वचन भीलस्वरूपी परमात्मासे विस्तारपूर्वक निवेदन किया ।। 35-36 ll

किरातेश्वर शिव उसका वचन सुनकर अत्यन्त हर्षित हुए, फिर भीलरूपधारी सदाशिव अपनी सेनाके साथ [जहाँ अर्जुन थे,] वहाँ आये ॥ 37 उस समय पाण्डुपुत्र अर्जुन भी किरात सेनाको देखकर धनुष-बाण लेकर सामने आ गये ॥ 38 ॥

इसके बाद किरातेश्वरने पुनः भरतवंशीय महात्मा अर्जुनके पास दूत भेजा और उसके मुखसे अपना सन्देश उन्हें कहलवाया ॥ 39 ॥

किरात बोला- हे दूत ! तुम जाकर अर्जुनसे कहो, हे तपस्विन्! तुम मेरी इस विशाल सेनाको देखो, मेरा बाण मुझे लौटा दो और अब चले जाओ। स्वल्प कार्यके लिये इस समय क्यों मरना चाहते हो ? ॥ 40 ॥

तुम्हारे भाई दुखी होंगे, इससे भी अधिक तुम्हारी स्त्री दुखी होगी। मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि तुम्हारे हाथसे आज पृथ्वी भी चली जायगी॥ 41 ॥

नन्दीश्वर बोले- अर्जुनकी रक्षाके लिये और उनकी दृढ़ताकी परीक्षाके लिये किरातरूपधारी परमेश्वर शिवने इस प्रकार कहा। उसके ऐसा कहनेपर शंकरकेउस दूतने अर्जुनके पास जाकर सारा वृत्तान्त विस्तारपूर्वक निवेदन किया ॥ 42-43 ॥

उसकी बात सुनकर अर्जुनने पुनः आये हुए उस दूतसे कहा—हे दूत! तुम अपने स्वामीसे जाकर कहो कि इसका परिणाम विपरीत होगा। यदि मैं तुम्हें अपना बाण दे दूँगा, तो मैं कुलकलंकी हो जाऊँगा; इसमें सन्देह नहीं है। भले ही हमारे भाई दुखी हों, भले ही | हमारी विद्या नष्ट हो जाय, किंतु भीलराज मुझसे युद्ध करनेके लिये अवश्य यहाँ आयें। सिंह गीदड़से डर जाय, यह बात मैंने कभी नहीं सुनी, इसी प्रकार किसी वनेचरसे राजा डरे, ऐसा नहीं हो सकता ॥ 44–47॥

नन्दीश्वर बोले—पाण्डुपुत्र अर्जुनके इस प्रकार कहनेपर भीलने अपने स्वामीके पास जाकर अर्जुनद्वारा कहे गये सारे वृत्तान्तको विशेष रूपसे वर्णित किया। तब इस वृत्तान्तको सुनकर किरातवेषधारी महादेव सेनासहित अर्जुनके पास आये ॥ 48-49 ॥

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