नन्दीश्वर बोले- हे सनत्कुमार! हे सर्वज्ञ! अब आप महादोषोंको दूर करनेवाली और भक्तिको बढ़ानेवाली दूसरी भैरवी कथाको प्रेमपूर्वक सुनिये ॥ 1 ॥काशीका सान्निध्य प्राप्तकर वे कालभैरव कालके भी भक्षक महाकाल हुए। देवदेवके आदेशसे कापालिक व्रत धारण किये हुए वे विश्वात्मा भैरव हाथमें [ब्रह्माका] कपाल लेकर तीनों लोकोंमें घूमने लगे, किंतु उस दारुण ब्रह्महत्याने कहीं भी उन प्रभुका पीछा करना न छोड़ा ॥ 2-3 ॥
प्रत्येक तीर्थमें घूमते हुए भी वे ब्रह्महत्यासे नहीं मुक्त हुए, इसमें भी सभीको शिवकी अद्भुत महिमा ही जाननी चाहिये ॥ 4 ॥
एक बार प्रमथगणोंसे सेवित होते हुए भी कापालिक वेषवाले शिवजी [कालभैरव] विहार करते हुए अपनी इच्छासे विष्णुके निवासस्थानपर पहुँचे ॥ 5॥
उस समय महादेवके अंशसे उत्पन्न हुए, सर्पका कुण्डल धारण किये, त्रिनेत्र, महाकाल तथा पूर्णाकार उन भैरवको आता हुआ देखकर गरुडध्वज विष्णुने तथा देवों, मुनियों एवं देवस्त्रियोंने भी दण्डवत् प्रणाम किया। इसके बाद लक्ष्मीपति विष्णुने उन्हें तत्त्वतः जानते हुए पुनः प्रणामकर सिरपर अंजलि रखकर नाना प्रकारके स्तोत्रोंसे उनकी स्तुति की ॥ 6-8 ॥
हे महामुने! तदनन्तर आनन्दसे पूर्ण हुए विष्णु | प्रसन्नचित्त होकर क्षीरसागरसे उत्पन्न हुई कमलनिवासिनी लक्ष्मीसे प्रेमपूर्वक कहने लगे ॥ 9 ॥
विष्णुजी बोले- हे प्रिये! हे कमलनयने! हे सुभगे हे अनथे! हे देवि! हे सुश्रोणि! देखो, तुम धन्य हो और मैं भी धन्य हैं, जो कि हम दोनों जगत्पति [शिव] का साक्षात् दर्शन कर रहे हैं 10 ये ही धाता, विधाता तथा लोकके प्रभु, ईश्वर, अनादि, सबको शरण देनेवाले, शान्त तथा छब्बीस तस्योंके रूपमें भी ये ही अभिव्यक्त हो रहे हैं ॥ 11
ये सर्व सभी योगियोंके स्वामी, सभी प्राणियोंकि एकमात्र नायक, सर्वभूतान्तरात्मा एवं सबको सदा सब कुछ देनेवाले हैं ॥ 12
हे पद्ये निद्राको त्यागकर तथा श्वासको रोककर शान्त स्वभाववाले जन जिन्हें ध्यान लगाकर बुद्धिके द्वारा हृदयमें देखते हैं, वे ये ही हैं, आप उनको देखें ॥ 13 ॥
वेदतत्व एवं स्थिर मनवाले योगीजन जिन्हें जानते हैं, वे ही सर्वव्यापक शिव अरूप होते हुए भी स्वरूप धारणकर यहाँ आ रहे हैं ॥ 14 ॥
अहो, इन परमेष्ठीकी चेष्टा भी अद्भुत है कि जिनके चरित्रका वर्णन करनेवाला मनुष्य शरीरधारी होकर भी विदेह हो जाता है एवं जिनका दर्शन करनेसे मनुष्योंको पुनः पृथ्वीपर जन्म ग्रहण नहीं करना पड़ता, वे ही त्र्यम्बक शशिभूषण भगवान् शिव आ रहे हैं ।। 15-16 ॥
हे लक्ष्मि ! श्वेत कमलदलके समान बड़े-बड़े ये मेरे नेत्र आज धन्य हुए, जो इनके द्वारा महेश्वर महादेवका दर्शन किया जा रहा है ॥ 17 ॥
देवताओंके उस पदको धिक्कार है, जिन्होंने शंकरका दर्शन नहीं किया, जो समस्त दुःखोंका नाश करनेवाले तथा मोक्षदायक हैं ॥ 18 ॥
यदि देवदेवेश शिवका दर्शनकर हम सभीने मुक्ति न प्राप्त की, तो देवलोकमें देवता होनेसे बढ़कर और कुछ भी अशुभ बात नहीं है ॥ 19 ॥
नन्दीश्वर बोले- [लक्ष्मीसे] इस प्रकार कहकर रोमांचित शरीरवाले विष्णु वृषभध्वज महादेवको प्रणाम करके यह कहने लगे- ॥ 20 ॥
विष्णुजी बोले- हे विभो हे सर्वपापहर हे अव्यय ! हे सर्वज्ञ तथा संसारके धाता देवदेव! आप यह क्या कर रहे हैं ? ॥ 21 ॥
हे देवेश ! हे त्रिलोचन! हे महामते! यह आपकी क्रीड़ा किसलिये हो रही है? हे विरूपाक्ष ! हे स्मरार्दन! आपकी इस प्रकारकी चेष्टाका क्या कारण है ? ।। 22 ।।
हे भगवन्! हे शम्भो ! हे शक्तिपते! आप किस कारणसे भिक्षाटन कर रहे हैं? हे जगन्नाथ! हे त्रैलोक्यका राज्य देनेवाले! मुझे यह सन्देह हो रहा है ॥ 23 ॥
नन्दीश्वर बोले- विष्णु ने जब इस प्रकार शिवरूप भैरवसे कहा, तब अद्भुत लीला करनेवाले उन प्रभुने विष्णुजीसे हँसते हुए कहा- ॥ 24 ॥ भैरव बोले- मैंने अपने अँगुलीके नखाग्रसे ब्रह्मदेवका सिर काट लिया है, उसी पापको दूर करनेके निमित्त इस शुभ व्रतका अनुष्ठान कर रहा हूँ ।। 25 ।।
नन्दीश्वर बोले- महेशरूप भैरवके इस प्रकार | कहनेपर लक्ष्मीपति कुछ स्मरण करके सिर झुकाकर पुनः इस प्रकार कहने लगे- ॥ 26 ॥विष्णुजी बोले- सभी विघ्नोंका नाश करनेवाले हे महादेव! आपकी जैसी इच्छा हो, वैसी क्रीड़ा कीजिये, परंतु मुझे अपनी मायासे मोहित न करें ॥ 27 ॥ हे विभो आपकी आज्ञाशकि मेरे नाभिकमलके
कोशसे कल्प-कल्पमें करोड़ों ब्रह्मा पहले उत्पन्न हो चुके हैं ॥ 28 ॥
हे देव! आप पुण्यहीन मनुष्योंके लिये दुस्तर | इस मायाका त्याग करें। हे महादेव! आपकी मायामो ब्रह्मा आदि भी मोहित हो जाते हैं ॥ 29 ॥
सत्पुरुषोंको गति देनेवाले हे पार्वतीपते। हे शम्भो ! हे सर्वेश्वर ! मैं आपकी कृपासे ही आपकी समस्त चेष्टाएँ ठीक-ठीक जानता हूँ ॥ 30 ॥
। हे हर ! संहारकालके उपस्थित होनेपर जब आप समस्त देवताओं, मुनियों एवं वर्णाश्रमी जनोंको उपसंहृत करेंगे, तब भी हे महादेव! आपको ब्रह्मवध आदिका पाप नहीं लगेगा। हे शिव! आप पराधीन नहीं हैं। अत: | आप स्वतन्त्र होकर क्रीड़ा करते हैं।। 31-32 ॥
आपके कण्ठमें पूर्वमें उत्पन्न हो चुके ब्रह्माओंकी अस्थियोंकी माला भासित हो रही है, तब भी हे निष्पाप शिव! आपके पीछे ब्रह्महत्या लगी है ॥ 33 ॥
हे ईश ! जो मनुष्य महान् पाप करके भी आप जगदाधारका स्मरण करता है, उसका पाप नष्ट हो जाता है ॥ 34
जिस प्रकार सूर्यके समीप अन्धकार टिक नहीं सकता, उसी प्रकार जो आपका भक्त है, उसका पाप विनष्ट हो जाता है ॥ 35 ॥
जो पुण्यात्मा आपके दोनों चरणकमलोंका स्मरण करता है, उसका ब्रह्महत्याजनित पाप भी नष्ट हो जाता है। हे जगत्पते। जिस मनुष्यकी वाणी आपके नाममें अनुरक्त है, पर्वतसमूहके समान भारी से भारी पाप भी उसे बाधित नहीं कर सकता है ॥ 36-37 ll
हे परमात्मन्! हे परमधाम ! स्वेच्छासे शरीर धारण करनेवाले हे ईश्वर! यह भक्तोंकी अधीनता भी आपका कुतूहलमात्र है ॥ 38 ॥
हे देवेश! आज मैं धन्य हूँ; क्योंकि योगीजन भी जिन्हें नहीं देख पाते हैं, उन जगन्मूर्ति अव्यय | परमेश्वरका मैं दर्शन कर रहा हूँ ॥ 39 ॥आज मुझे परम लाभ मिला और मेरा परम कल्याण हो गया। उन आपके दर्शनसे मैं अमृतपानकर तृप्त हुएके समान तृप्त हो गया। मुझे स्वर्ग और मोक्ष तृणके समान ज्ञात हो रहे हैं ॥ 40 ॥
गोविन्द विष्णुके इस प्रकार कहने के पश्चात् उन महालक्ष्मीने अत्यन्त निर्मल मनोरथवती नामकी भिक्षा उनके पात्रों दे दी। तब लीलासे भैरवरूपधारी वे महादेव भी परम प्रसन्न हो भिक्षाटनके लिये अन्यत्र चलनेको उद्यत हो गये ।। 41-42 ।।
उस समय विष्णुने उनके पीछे-पीछे जानेवाली ब्रह्महत्याको बुलाकर उससे प्रार्थना की कि तुम इन त्रिशूलधारी भैरवको छोड़ दो ॥ 43 ॥
ब्रह्महत्या बोली- जिनका दर्शन करनेसे पुनर्जकी प्राप्ति नहीं होती, ऐसे वृषभध्वजकी सेवाकर इस बहानेसे मैं भी अपनेको पवित्र कर लूँगी ।। 44 ।।
नन्दीश्वर बोले- विष्णुके कहने से भी जब ब्रह्महत्याने भैरवका पीछा नहीं छोड़ा तब भैरव शम्भुने मुसकराकर हरिसे यह वचन कहा- ॥ 45 ॥
भैरव बोले- हे बहुमानद! आपके वचनामृतका पानकर मैं तृप्त हो गया। हे लक्ष्मीके पति ! सज्जनोंके स्वभावके अनुरूप ही आप वचन बोल रहे हैं ।। 46 ।।
हे गोविन्द ! तुम वर माँगो । हे निष्पाप ! मैं तुम्हें वर देनेवाला हूँ। हे विकाररहित हरे! तुम मेरे भक्तोंमें अग्रगण्य रहोगे ।। 47 ।।
भिक्षाटनरूपी ज्वरसे पीड़ित भिक्षु मानसुधाका पानकर जैसी तृप्ति प्राप्त करते हैं, वैसी तृप्ति अतिसंस्कृत भिक्षाओंसे भी नहीं प्राप्त करते हैं 48 ॥ नन्दीश्वर बोले- परमात्मा शम्भुके अवतार भैरवके इन वचनोंको सुनकर विष्णु परम प्रसन्न होकर महेश्वरसे बोले- 49 ॥
विष्णु बोले- हे देवदेव! मेरे लिये यही वह प्रशंसनीय है, जिससे कि मैं [आज] मन और वाणी से अगोचर देवताओंके स्वामी आपका दर्शन प्राप्त कर रहा हूँ ॥ 50
आपकी जो अमृतमयी पूर्ण दृष्टि [ मुझपर ] पड़ रही है, इसीसे मुझे महान् हर्ष हो रहा है। हे हर! सज्जनोंके लिये आपका दर्शन बिना यत्नके प्राप्त निधिके समान है ॥ 51 ॥हे देव! आपके चरणयुगलसे मेरा वियोग न हो, हे शम्भो ! यही मेरे लिये वरदान है। मैं किसी अन्य वरका वरण नहीं करता हूँ ॥ 52 ॥
श्रीभैरव बोले- महामते तात ! जैसा आपने कहा है, वैसा ही हो। आप सभी वर देनेवाले होंगे ॥ 53 ॥
नन्दीश्वर बोले - [ ब्रह्माण्डके] भुवनोंसहित केन्द्रभूत सुमेरुपर्वतपर विचरण करते हुए दैत्यशत्रु विष्णुको इस प्रकार अनुगृहीतकर भैरव विमुक्तनगरी वाराणसीपुरीमें जा पहुँचे ॥ 54 ॥
भयंकर आकृतिवाले भैरवके उस क्षेत्रमें प्रवेश करनेमात्रसे ही ब्रह्महत्या उसी समय हाहाकार करके पातालमें चली गयी ॥ 55 ॥
उसी समय भैरवके हस्तकमलसे ब्रह्माका कपाल पृथिवीपर गिर पड़ा। तबसे वह तीर्थ कपालमोचन नामसे प्रसिद्ध हो गया ॥ 56 ॥
अपने हाथसे ब्रह्माके कपालको गिरता हुआ देखकर रुद्र सबके सामने परमानन्दसे नाचने लगे ॥ 57 ॥
अत्यन्त दुस्सह जो ब्रह्माजीका कपाल [अन्य क्षेत्रोंमें] भ्रमण करते हुए परमेश्वरके हाथसे कहीं नहीं छूट पाया था, वह काशी में क्षणमात्रमें छूटकर गिर पड़ा। शूल धारण करनेवाले शिवकी जो ब्रह्महत्या कहीं भी नहीं दूर हो सकी, वह काशीमें आते ही क्षणभरमें नष्ट हो गयी, इसलिये काशीका ही सेवन करना चाहिये ॥ 58-59 ।।
जो मनुष्य काशीमें [स्थित] कपालमोचन नामक उत्तम तीर्थका स्मरण करता है, उसका यहाँ अथवा अन्यत्रका किया हुआ पाप भी शीघ्र ही नष्ट हो जाता है ॥ 60 ॥
इस श्रेष्ठ तीर्थमें आकर विधानके अनुसार स्नानकर देवताओं और पितरोंका तर्पण करनेसे ब्रह्महत्यासे छुटकारा मिल जाता है ॥ 61 ॥
कपालमोचन नामक तीर्थको समादृतकर भैरव भक्तोंके पापसमूहका भक्षण करते हुए वहींपर विराजमान हो गये ।। 62 ।।
सुन्दर लीला करनेवाले, सज्जनोंके प्रिय, भैरवात्मा | परमेश्वर शिव मार्गशीर्षमासके कृष्णपक्षको अष्टमी तिथिको आविर्भूत हुए ।। 63 ।।जो मनुष्य मार्गशीर्षमासके कृष्णपक्षकी अष्टमीतिथिको कालभैरवकी सन्निधिमें उपवास करके जागरण करता है, वह महान् पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ 64 ॥
जो मनुष्य अन्यत्र भी भक्तिपूर्वक जागरणके सहित इस व्रतको करेगा, वह महापापोंसे मुक्त होकर सद्गतिको प्राप्त कर लेगा ॥ 65 ॥
प्राणीके द्वारा लाखों जन्मोंमें किया गया जो पाप है, वह सभी कालभैरवके दर्शन करनेसे लुप्त हो जाता है। जो कालभैरवके भक्तोंका अपराध करता है, वह मूर्ख दुःखित होकर पुनः पुनः दुर्गतिको प्राप्त करता रहता है ॥ 66-67 ॥
जो काशी में रहकर विश्वेश्वरमें तो भक्ति करते हैं, परंतु कालभैरवकी भक्ति नहीं करते, वे विशेषरूपसे महादुःखको प्राप्त करते हैं ॥ 68 ॥
जो मनुष्य वाराणसी में रहकर [भी] कालभैरवका भजन नहीं करता है, उसके पाप शुक्लपक्षके चन्द्रमाके समान बढ़ते हैं ।। 69 ।।
जो मंगलवार, चतुर्दशी तथा अष्टमीके दिन | काशीमें कालराजका भजन नहीं करता है, उसका पुण्य कृष्णपक्षके चन्द्रमाके समान क्षीण हो जाता है ॥ 70 ॥ ब्रह्महत्याको दूर करनेवाले, भैरवोत्पत्तिसंज्ञक इस पवित्र आख्यानको सुनकर प्राणी सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ 71 ॥
कारागारमें पड़ा हुआ अथवा भयंकर कष्टमें फँसा हुआ प्राणी भी भैरवकी उत्पत्ति [के आख्यान] को सुनकर संकटसे छूट जाता है ॥ 72 ॥