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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 3, अध्याय 8 - Sanhita 3, Adhyaya 8

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भैरवावतारवर्णन

नन्दीश्वर बोले- हे सनत्कुमार! हे सर्वज्ञ अब आप भैरवकी कथा सुनें, जिसके सुननेमात्रसे शिवभक्ति सुस्थिर हो जाती है ॥ 1 ॥

भैरवजी परमात्मा शंकरके पूर्णरूप हैं, शिवजीको मायासे मोहित मूर्खलोग उन्हें नहीं जान पाते ॥ 2 ॥

हे सनत्कुमार! चतुर्भुज विष्णु तथा चतुर्मुख ब्रह्माजी भी महेश्वरकी महिमाको नहीं जान पाते हैं॥ 3॥

इसमें कोई आश्चर्य नहीं है; क्योंकि शिवजीकी माया दुर्ज्ञेय है। उसी मायासे मोहित होकर [ये] सभी [ संसारी] लोग उन परमेश्वरकी पूजा नहीं करते हैं ॥ 4 ॥ यदि वे परमेश्वर स्वयं ही अपना ज्ञान करा दें, तभी वे सभी लोग उन्हें जान सकते हैं, अपनी इच्छासे कोई भी उन्हें नहीं जान पाता है ॥ 5 ॥ यद्यपि महेश्वर सर्वव्यापी हैं, किंतु मूढ़ बुद्धिवाले उन्हें देख नहीं पाते हैं। जो वाणी एवं मनसे परे हैं, उन्हें लोग मात्र देवता ही समझते हैं ॥ 6 ॥

हे महर्षे! इस विषयमें पुराना इतिहास कह रहा हूँ। हे तात! आप उसको श्रद्धापूर्वक सुनिये। वह परमोत्तम और ज्ञानका कारण है ॥ 7 ॥

समस्त देवता और ऋषिगण परम तत्त्व जाननेकी | इच्छासे सुमेरुपर्वतके अद्भुत तथा मनोहर शिखरपर स्थित भगवान् ब्रह्माके पास गये ॥ 8 ॥

वहाँ जाकर ब्रह्माजीको नमस्कार करके वे सब | हाथ जोड़कर तथा कन्था झुकाकर आदरपूर्वक पूछने लगे - ॥ 9 ॥देवता तथा ऋषि बोले- हे देवदेव हे प्रजानाथ हे सृष्टिकर्ता हे लोकनायक आप हमें ठीक-ठीक बताइये कि अद्वितीय तथा अविनाशी तत्त्व क्या है ? ॥ 10 ॥

नन्दीश्वर बोले- शिवजीकी मायासे मोहित वे ब्रह्माजी परम तत्त्वको न समझकर सामान्य बात कहने लगे ॥ 11 ॥ ब्रह्माजी बोले- हे देवताओ तथा ऋषियो! आप सब आदरपूर्वक सद्बुद्धिसे मेरी बात सुनें। मैं यथार्थ रूपसे अव्यय परम तत्त्वत्को बता रहा हूँ ॥ 12 ॥ मैं जगत्का मूल कारण हूँ। मैं धाता, स्वयम्भू, अज, ईश्वर, अनादिभाकू, ब्रह्म, अद्वितीय एवं निरंजन आत्मा हूँ। मैं ही सारे जगत्का प्रवर्तक, संवर्तक तथा निवर्तक हूँ। हे श्रेष्ठ देवताओ! मुझसे बड़ा दूसरा कोई नहीं है ।। 13-14 ।।

नन्दीश्वर बोले- हे मुने जब ब्रह्माजी इस बातको कह रहे थे, उसी समय वहाँ स्थित विष्णुने सनातनी मायासे विमोहित होकर हँसते हुए क्रुद्ध होकर यह वचन कहा- ॥ 15 ॥

हे ब्रह्मन् ! योगसे युक्त होते हुए भी आपकी यह मूर्खता उचित नहीं है। परमतत्त्वको न जानकर आप यह व्यर्थ बोल रहे हैं ॥ 16 ll

सम्पूर्ण लोकोंका कर्ता, परमपुरुष, परमात्मा, यज्ञस्वरूप नारायण, मायाधीश एवं परमगति प्रभु मैं ही हूँ ॥ 17 ॥

हे ब्रह्मन् ! आप मेरी आज्ञासे ही इस सृष्टिकी रचना करते हैं। मुझ ईश्वरका अनादरकर यह जगत् किसी भी प्रकार जीवित नहीं रह सकता ॥ 18 ॥

इस प्रकार परस्पर तिरस्कृत होकर वे दोनों ही अर्थात् ब्रह्मा एवं विष्णु मोहवश एक-दूसरेको जीतनेकी इच्छाकर आपस में विवाद करते हुए अपने-अपने विषय वेदप्रामाण्यकी अपेक्षसे प्रमाणतत्त्वज्ञ, मूर्तिधारी चारों वेदोंके पास जाकर पूछने लगे ॥ 19-20 ॥

ब्रह्मा एवं विष्णु बोले- हे वेदो! आपलोगोंका सर्वत्र प्रामाण्य है और आपलोगोंको परम प्रतिष्ठा भी प्राप्त हुई है, अतः विश्वासपूर्वक कहिये कि एकमात्र अविनाशी तत्त्व क्या है ? ॥ 21 ॥नन्दीश्वर बोले- उन दोनों का यह वचन सुनकर ऋक् आदि सभी वेद परमेश्वर शिवका स्मरण करते. हुए यथार्थ बात कहने लगे ॥ 22 ॥ हे सृष्टिस्थितिकर्ता, सर्वव्यापी देवो ! यदि हम [ आपलोगोंको ] मान्य हैं, तो आपलोगोंक सन्देहको दूर करनेवाले प्रमाणको हमलोग कह रहे हैं ॥ 23 ॥ नन्दीश्वर बोले- वेदोंके द्वारा कही गयी विधिको सुनकर ब्रह्मा एवं विष्णुने वेदोंसे कहा कि जो कुछ भी आपलोग कहेंगे, वही प्रमाण हमलोग मान लेंगे, अतः तत्त्व क्या है, इसे भलीभाँति कहें ॥ 24 ॥

ऋग्वेद बोला- जिनके भीतर सम्पूर्ण भूत स्थित हैं, जिनसे सब कुछ प्रवृत्त होता है एवं जिन्हें परम तत्त्व कहते हैं, वे एकमात्र रुद्र ही हैं ॥ 25 ॥ यजुर्वेद बोला- मनुष्य योग एवं समस्त यज्ञोंके द्वारा जिन ईश्वरकी आराधना करता है और जिनसे निश्चय ही हमलोग प्रमाणित हैं, वे एकमात्र सबके द्रष्टा शिव ही परमतत्त्व हैं ॥ 26 ॥

सामवेद बोला- यह जगत् जिनके द्वारा भ्रमण कर रहा है, योगीजन जिनका चिन्तन करते हैं और जिनके प्रकाशसे यह संसार प्रकाशित हो रहा है, वे एकमात्र त्र्यम्बक शिव ही परमतत्त्व हैं ॥ 27 ॥

अथर्ववेद बोला- जिनकी भक्तिका अनुग्रह प्राप्तकर भक्तजन उनका साक्षात्कार करते हैं, उन्हीं दुःखरहित एवं कैवल्यस्वरूप एकमात्र शंकरको परमतत्त्व कहा गया है ॥ 28 ॥

नन्दीश्वर बोले- वेदोंका यह वचन सुनकर शिवजीकी मायासे अत्यन्त विमोहित ब्रह्मा एवं विष्णु अचेतसे हो गये, फिर मुसकराकर उन वेदोंसे कहने लगे - ॥ 29 ॥

ब्रह्मा एवं विष्णु बोले- हे वेदो! आपलोग चेतनाहीन होकर यह क्या प्रलाप कर रहे हैं? आज आपलोगोंको क्या हो गया है ? अवश्य ही आपलोगोंका सारा श्रेष्ठ ज्ञान नष्ट हो गया है ॥ 30 ॥

प्रमथनाथ, दिगम्बर, पीतवर्णवाले, धूलिधूसरित, निरन्तर पार्वती के साथ रमण करनेवाले, अत्यन्त विकृत रूपवाले, जटाधारी, बैलपर सवारी करनेवाले तथा सपका आभूषण धारण करनेवाले वे शिव निःसंग परम ब्रह्म किस प्रकार हो सकते हैं ? ।। 31-32 ।।उस समय उन दोनोंकी इस बातको सुनकर सर्वत्र व्यापक तथा निराकार प्रणवने मूर्तिमान् प्रकट होकर उनसे कहा- ॥ 33 ॥

प्रणव बोला - लीलारूपधारी, हर भगवान् रुद्र अपनी शक्तिके बिना कभी भी रमण करनेमें समर्थ नहीं होते ।। 34 ।।

ये परमेश्वर शिव सनातन तथा स्वयं ज्योतिःस्वरूप हैं और ये शिवा उन्होंको अह्नादिनी शक्ति हैं, अतः आगन्तुक नहीं हैं, अपितु उन्होंके समान नित्य [ तथा उनसे अभिन्न] हैं ॥ 35 ॥

नन्दीश्वर बोले- उस समय ॐकारके इस प्रकार कहनेपर भी शिवमायासे मोहित ब्रह्मा एवं विष्णुका अज्ञान जब दूर नहीं हुआ, तब उसी समय अपने प्रकाशसे पृथ्वी तथा आकाशके अन्तरालको पूर्ण करती हुई एक महान् ज्योति उन दोनोंके बीचमें प्रकट हो गयी ।। 36-37 ॥

हे मुने। उस ज्योतिसमूह के बीच स्थित एक अत्यन्त अद्भुत शरीरवाले पुरुषको ब्रह्मा एवं विष्णुने देखा ।। 38 ।।

तब क्रोधके कारण ब्रह्माजीका पाँचवाँ सिर जलने लगा कि हम दोनोंके मध्य यह पुरुषशरीरको धारण किये हुए कौन है ? ।। 39 ।।

जबतक ब्रह्माजी यह विचार कर ही रहे थे कि इतनेमें उसी क्षण वह महापुरुष त्रिलोचन, नीललोहित सदाशिव के रूपमें दिखायी पड़ा। हाथमें त्रिशूल धारण किये, मस्तकपर नेत्रवाले, सर्प एवं चन्द्रमाको भूषणके रूपमें धारण किये उन्हें देखकर मोहित हुए ब्रह्माजी हँसते हुए कहने लगे- ll 40-41 ।।

ब्रह्माजी बोले- हे नीललोहित! हे चन्द्रशेखर ! मैं तुम्हें जानता हूँ, डरो मत। तुम पूर्व समयमें मेरे ललाट प्रदेशसे रोते हुए उत्पन्न हुए थे। पहले मैंने ही रोनेके कारण तुम्हारा नाम रुद्र रखा था। हे पुत्र मेरी शरणमें आओ, मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा ।। 42-43 ।।

नन्दीश्वर बोले- हे मुने। उसके बाद ब्रह्माकी अहंकारयुक्त वाणी सुनकर शिवजी अत्यन्त क्रोधित हुए, उस समय ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो प्रलय कर देंगे ॥ 44 ॥उस समय परमेश्वर शिव अपने क्रोधके द्वारा परम तेजसे देदीप्यमान भैरव नामक एक पुरुषको उत्पन्न करके प्रेमपूर्वक [उससे कहने लगे-] ॥ 45 ॥ ईश्वर बोले- हे कालभैरव ! सर्वप्रथम तुम इस पद्मयोनि ब्रह्माको दण्ड दो, तुम साक्षात् कालके सदृश शोभित हो रहे हो, अतः तुम कालराज [ नामसे विख्यात] होओगे ॥ 46 ॥

तुम संसारका पालन करनेमें सर्वथा समर्थ हो, उसका भरण-पोषण करनेसे तुम भैरव कहे गये हो, तुमसे काल भी डरेगा। अतः तुम कालभैरव कहे जाओगे ॥ 47 ॥ तुम रूष्ट होनेपर दुष्टात्माओंका मर्दन करोगे, इसलिये सर्वत्र आमर्दक नामसे विख्यात होओगे ॥ 48 ॥ तुम भक्तोंके पापोंका तत्काल भक्षण करोगे, | इसलिये तुम्हारा नाम पापभक्षण भी होगा ॥ 49 ॥

हे कालराज सभी पुरियोंसे श्रेष्ठ जो मेरी मुक्तिपुरी काशी है, तुम सदा उसके अधिपति बनकर रहोगे। वहाँ जो पापी मनुष्य होंगे, उनके शासक तुम ही रहोगे, उनके अच्छे-बुरे कर्मको चित्रगुप्त लिखेंगे ॥ 50-51 ॥

नन्दीश्वर बोले- कालभैरवने इस प्रकारके वरोंको प्राप्तकर अपनी बाँध अँगुलियोंके नखोंके अग्रभागसे ब्रह्माका पाँचवाँ सिर तत्क्षण ही काट डाला ॥ 52 ॥

जो अंग अपराध करता है, उसीको दण्ड देना चाहिये, अतः जिस सिरने निन्दा की थी, उस पाँचवें सिरको उन्होंने काट दिया ll 53 ॥

उसके बाद ब्रह्माके सिरको कटा हुआ देखकर विष्णु बहुत भयभीत हो गये और शतरुद्रिय मन्त्रोंसे भक्तिपूर्वक शिवजीकी स्तुति करने लगे ॥ 54 ॥ हे मुने! तब भयभीत हुए ब्रह्माजी भी शतरुद्रिय मन्त्रका जप करने लगे। इस प्रकार वे दोनों ही उसी क्षण अहंकाररहित हो गये ॥ 55 ॥

उन दोनोंको यह ज्ञान हो गया कि साक्षात् शिव ही सच्चिदानन्द लक्षणसे युद्ध परमात्मा, गुणातीत तथा परब्रह्म हैं ॥ 56 ॥

हे सनत्कुमार! हे सर्वज्ञ मेरा यह उत्तम शुभ वचन सुनिये, जबतक अहंकार रहता है, तबतक विशेषरूपसे ज्ञान लुप्त रहता है ॥ 57 ॥ अहंकारका त्याग करनेपर ही मनुष्य परमेश्वरको जान पाता है। विश्वेश्वर शिव अहंकारी [के अहंकार] का नाश करते हैं, क्योंकि वे गर्वापहारक कहे गये हैं ॥ 58 ॥

इसके बाद ब्रह्मा तथा विष्णुको अहंकाररहित जानकर परमेश्वर महादेव प्रसन्न हो गये और उन प्रभुने उन दोनोंको भयरहित कर दिया ॥ 59 ॥

प्रसन्न हुए भक्तवत्सल महादेव उन्हें आश्वस्त | करके अपने दूसरे स्वरूप उन कपर्दी भैरवसे कहने लगे - ॥ 60 ॥

महादेव बोले – [हे भैरव !] ये ब्रह्मा एवं विष्णु तुम्हारे मान्य हैं। हे नीललोहित ! तुम ब्रह्माके [कटे हुए ] इस कपालको धारण करो और ब्रह्महत्याको दूर करनेके लिये संसारके समक्ष व्रत प्रदर्शित करो, कपालव्रत धारणकर तुम निरन्तर भिक्षाचरण करो ॥ 61-62 ॥

इस प्रकार [कालभैरवसे] कहकर उनके देखते ही ब्रह्महत्या नामक कन्याको उत्पन्नकर तेजोरूप शिवजीने उससे कहा- ॥ 63 ॥ तुम उग्र रूप धारण करनेवाले इन भयंकर कालभैरवके पीछे-पीछे तबतक चलो, जबतक ये वाराणसीपुरीतक नहीं जाते। इनके वाराणसीमें जाते ही तुम मुक्त हो जाओगी । वाराणसीपुरीको छोड़कर सर्वत्र तुम्हारा प्रवेश होगा ।। 64-65 ॥

नन्दीश्वर बोले- वे परम अद्भुत प्रभु भगवान् शंकर भी उस ब्रह्महत्याको [उस यात्राके लिये ] नियुक्त करके अन्तर्हित हो गये ॥ 66 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ऋषियोंके पूछनेपर वायुदेवका श्रीकृष्ण और उपमन्युके मिलनका प्रसंग सुनाना, श्रीकृष्णको उपमन्यसे ज्ञानका और भगवान् शंकरसे पुत्रका लाभ
  2. [अध्याय 2] उपमन्युद्वारा श्रीकृष्णको पाशुपत ज्ञानका उपदेश
  3. [अध्याय 3] भगवान् शिवकी ब्रह्मा आदि पंचमूर्तियों, ईशानादि ब्रह्ममूर्तियों तथा पृथ्वी एवं शर्व आदि अष्टमूर्तियोंका परिचय और उनकी सर्वव्यापकताका वर्णन
  4. [अध्याय 4] शिव और शिवाकी विभूतियोंका वर्णन
  5. [अध्याय 5] परमेश्वर शिवके यथार्थ स्वरूपका विवेचन तथा उनकी शरणमें जानेसे जीवके कल्याणका कथन
  6. [अध्याय 6] शिवके शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, सर्वमय, सर्वव्यापक एवं सर्वातीत स्वरूपका तथा उनकी प्रणवरूपताका प्रतिपादन
  7. [अध्याय 7] परमेश्वरकी शक्तिका ऋषियोंद्वारा साक्षात्कार, शिवके प्रसादसे प्राणियोंकी मुक्ति, शिवकी सेवा-भक्ति तथा पाँच प्रकारके शिवधर्मका वर्णन
  8. [अध्याय 8] शिव-ज्ञान, शिवकी उपासनासे देवताओंको उनका दर्शन, सूर्यदेवमें शिवकी पूजा करके अर्घ्यदानकी विधि तथा व्यासावतारोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] शिवके अवतार योगाचार्यों तथा उनके शिष्योंकी नामावली
  10. [अध्याय 10] भगवान् शिवके प्रति श्रद्धा-भक्तिकी आवश्यकताका प्रतिपादन, शिवधर्मके चार पादोंका वर्णन एवं ज्ञानयोगके साधनों तथा शिवधर्मके अधिकारियोंका निरूपण, शिवपूजनके अनेक प्रकार एवं अनन्यचित्तसे भजनकी महिमा
  11. [अध्याय 11] वर्णाश्रम धर्म तथा नारी-धर्मका वर्णन; शिवके भजन, चिन्तन एवं ज्ञानकी महत्ताका प्रतिपादन
  12. [अध्याय 12] पंचाक्षर मन्त्र के माहात्म्यका वर्णन
  13. [अध्याय 13] पंचाक्षर मन्त्रकी महिमा, उसमें समस्त वाङ्मयकी स्थिति, उसकी उपदेशपरम्परा, देवीरूपा पंचाक्षरीविद्याका ध्यान, उसके समस्त और व्यस्त अक्षरोंके ऋषि, छन्द, देवता, बीज, शक्ति तथा अंगन्यास आदिका विचार
  14. [अध्याय 14] गुरु मन्त्र लेने तथा उसके जप करनेकी विधि, पाँच प्रकारके जप तथा उनकी महिमा, मन्त्रगणना के लिये विभिन्न प्रकारकी मालाओंका महत्त्व तथा अंगुलियोंके उपयोगका वर्णन, जपके लिये उपयोगी स्थान तथा दिशा, जपमें वर्जनीय बातें, सदाचारका महत्त्व, आस्तिकताकी प्रशंसा तथा पंचाक्षर मन्त्रकी विशेषताका वर्णन
  15. [अध्याय 15] त्रिविध दीक्षाका निरूपण, शक्तिपातकी आवश्यकता तथा उसके लक्षणोंका वर्णन, गुरुका महत्त्व, ज्ञानी गुरुसे ही मोक्षकी प्राप्ति तथा गुरुके द्वारा शिष्यकी परीक्षा
  16. [अध्याय 16] समय- संस्कार या समयाचारकी दीक्षाकी विधि
  17. [अध्याय 17] पध्वशोधनका निरूपण
  18. [अध्याय 18] षडध्वशोधनकी विधि
  19. [अध्याय 19] साधक-संस्कार और मन्त्र-माहात्म्यका वर्णन
  20. [अध्याय 20] योग्य शिष्यके आचार्यपदपर अभिषेकका वर्णन तथा संस्कारके विविध प्रकारोंका निर्देश
  21. [अध्याय 21] शिवशास्त्रोक्त नित्य नैमित्तिक कर्मका वर्णन
  22. [अध्याय 22] शिवशास्त्रोक्त न्यास आदि कर्मोंका वर्णन
  23. [अध्याय 23] अन्तर्याग अथवा मानसिक पूजाविधिका वर्णन
  24. [अध्याय 24] शिवपूजन विधि
  25. [अध्याय 25] शिवपूजाकी विशेष विधि तथा शिव भक्तिकी महिमा
  26. [अध्याय 26] सांगोपांगपूजाविधानका वर्णन
  27. [अध्याय 27] शिवपूजनमें अग्निकर्मका वर्णन
  28. [अध्याय 28] शिवाश्रमसेवियोंके लिये नित्य नैमित्तिक कर्मकी विधिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] काम्यकर्मका वर्णन
  30. [अध्याय 30] आवरणपूजाकी विस्तृत विधि तथा उक्त विधिसे पूजनकी महिमाका वर्णन
  31. [अध्याय 31] शिवके पाँच आवरणोंमें स्थित सभी देवताओंकी स्तुति तथा उनसे अभीष्टपूर्ति एवं मंगलकी कामना
  32. [अध्याय 32] ऐहिक फल देनेवाले कर्मों और उनकी विधिका वर्णन, शिव पूजनकी विधि, शान्ति-पुष्टि आदि विविध काम्य कर्मोमें विभिन्न हवनीय पदार्थोंके उपयोगका विधान
  33. [अध्याय 33] पारलौकिक फल देनेवाले कर्म- शिवलिंग महाव्रतकी विधि और महिमाका वर्णन
  34. [अध्याय 34] मोहवश ब्रह्मा तथा विष्णुके द्वारा लिंगके आदि और अन्तको जाननेके लिये किये गये प्रयत्नका वर्णन
  35. [अध्याय 35] लिंगमें शिवका प्राकट्य तथा उनके द्वारा ब्रह्मा-विष्णुको दिये गये ज्ञानोपदेशका वर्णन
  36. [अध्याय 36] शिवलिंग एवं शिवमूर्तिकी प्रतिष्ठाविधिका वर्णन
  37. [अध्याय 37] योगके अनेक भेद, उसके आठ और छः अंगोंका विवेचनयम, नियम, आसन, प्राणायाम, दशविध प्राणोंको जीतनेकी महिमा, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधिका निरूपण
  38. [अध्याय 38] योगमार्गके विघ्न, सिद्धि-सूचक उपसर्ग तथा पृथ्वीसे लेकर बुद्धितत्त्वपर्यन्त ऐश्वर्यगुणों का वर्णन, शिव-शिवाके ध्यानकी महिमा
  39. [अध्याय 39] ध्यान और उसकी महिमा, योगधर्म तथा शिवयोगीका महत्त्व, शिवभक्त या शिवके लिये प्राण देने अथवा शिवक्षेत्रमें मरणसे तत्काल मोक्ष-लाभका कथन
  40. [अध्याय 40] वायुदेवका अन्तर्धान होना, ऋषियोंका सरस्वतीमें अवभूथ-स्नान और काशीमें दिव्य तेजका दर्शन करके ब्रह्माजीके पास जाना, ब्रह्माजीका उन्हें सिद्धि प्राप्तिकी सूचना देकर मेरुके कुमारशिखरपर भेजना
  41. [अध्याय 41] मेरुगिरिके स्कन्द-सरोवर के तटपर मुनियोंका सनत्कुमारजीसे मिलना, भगवान् नन्दीका वहाँ आना और दृष्टिपातमात्रसे पाशछेदन एवं ज्ञानयोगका उपदेश करके चला जाना, शिवपुराणकी महिमा तथा ग्रन्थका उपसंहार
  42. [अध्याय 42] सदाशिवके विभिन्न स्वरूपोंका ध्यान
  43. [अध्याय 43] दारिद्र्यदहन शिवस्तोत्रम्