ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार भगवान् सदाशिव जब सन्ध्याको वर प्रदानकर अन्तर्धान हो गये, तब सन्ध्या वहाँ गयी, जहाँ महर्षि मेधातिथि थे ॥ 1 ॥ वहाँपर भगवान् सदाशिवकी कृपासे उसे किसीने नहीं देखा। उसने उस समय तपस्याके विषयमें उपदेश करनेवाले उन ब्रह्मचारीका स्मरण किया ॥ 2 ॥
हे महामुने! वे ब्रह्मचारी वसिष्ठ मुनि ही थे, जो ब्रह्माजीकी आज्ञासे ब्रह्मचारीका रूप धारणकर सन्ध्याको तपस्याके सम्बन्धमें उपदेश करने आये थे ॥ 3 ॥
तपश्चर्याका उपदेश करनेवाले उन्हीं ब्रह्मचारी ब्राह्मण [ वसिष्ठ] का पतिरूपसे स्मरण करके वह ब्रह्मपुत्री सन्ध्या प्रसन्नमनसे सदाशिवकी कृपासे मुनियोंद्वारा अलक्षित हो उस महायज्ञकी प्रज्वलित अग्निमें प्रवेश कर गयी ।। 4-5 ।।
उसका समस्त शरीर पुरोडाशके समान तत्क्षण ही जलकर राख हो गया, जिससे अलक्षित रूपसे पुरोडाशका गन्ध चारों ओर फैल गया ॥ 6 ॥
पुनः सदाशिवकी आज्ञासे अग्निने उसके शुद्ध शरीरको भस्मकर सूर्यमण्डलमें प्रविष्ट करा दिया ॥ 7 ॥ तदनन्तर सूर्यने उसके शरीरको दो भागोंमें विभक्तकर पितरों एवं देवताओंकी प्रसन्नताके लिये अपने रथमें स्थापित कर लिया ॥ 8 ॥ हे मुनीश्वर! उसके शरीरका जो ऊपरका भाग था, वही रात्रि तथा दिनके बीचमें होनेवाली | प्रातः सन्ध्या हुई ॥ 9 ॥जो उसके शरीरका शेष भाग था, वही दिन तथा रात्रिके बीचमें होनेवाली सायंसन्ध्या हुई, जो सदैव ही पितरोंकी प्रसन्नताका कारण होती है ॥ 10 ॥
सूर्योदयके पहले जब अरुणोदय होता है, तब देवताओंको प्रसन्न करनेवाली प्रातः सन्ध्याका उदय होता है ॥ 11 ॥
जब लाल कमलके समान सूर्य अस्त हो जाता है, तब पितरोंको प्रसन्न करनेवाली सायंसन्ध्याका उदय होता है ॥ 12 ॥
उसके मनसहित प्राणको परम दयालु शिवने शरीरभारियोंके दिव्य शरीरसे निर्मित किया था ।। 13 ।। जब मेधातिथिका यज्ञ समाप्त हो रहा था, तब उन्हें देदीप्यमान सुवर्णके समान कान्तिवाली वह कन्या यज्ञाग्निमें प्राप्त हुई ॥ 14 ॥
हे मुने! महामुनि मेधातिथिने यज्ञसे प्राप्त हुई उस कन्याको बड़ी प्रसन्नतासे ग्रहण किया और उसे स्नान कराकर अपनी गोदमें बिठाया ॥ 15 ॥
उन्होंने उसका नाम अरुन्धती रखा। [ उस कन्याको प्राप्तकर] वे शिष्योंके साथ बड़े ही हर्षित हुए ॥ 16 ॥
उसने किसी भी कारणके उपस्थित होनेपर अपने पातिव्रत्यधर्मका परित्याग नहीं किया, इसलिये त्रिलोकीमें उसने स्वयं यह प्रसिद्ध [ अरुन्धती] नाम धारण किया ॥ 17 ॥
[ब्रह्माजी बोले- ] हे सुरर्षे! यज्ञ समाप्त करनेके उपरान्त वे मुनि कन्यारूप सम्पत्तिसे युक्त हो अपने शिष्यों सहित अत्यन्त कृतकृत्य होकर अपने उस आश्रम में उसका लालन-पालन करने लगे ॥ 18 ॥
उसके बाद वह कन्या चन्द्रभागा नदीके तटपर श्रेष्ठ मुनिके तापसारण्य नामक आश्रम में बढ़ने लगी ॥ 19 ॥
वह सती पाँच वर्षकी अवस्थामें अपने गुणोंसे चन्द्रभागा नदी तथा तापसारण्यको पवित्र करने लगी ॥ 20 ॥
ब्रह्मा, विष्णु तथा महेशने ब्रह्मपुत्र वसिष्ठके साथ उस अरुन्धतीका विवाह करवाया ॥ 21 ॥हे मुने! उसके विवाहमें सुखदायक महान् उत्सव हुआ, जिससे सभी देवता तथा मुनिगण अत्यन्त प्रसन्न हुए ॥ 22 ॥
[उस विवाहमें] ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वरके हाथसे गिरे हुए जलसे शिप्रा आदि सात पवित्र नदियाँ उत्पन्न हुईं ॥ 23 ॥ हे मुने! साध्वी स्त्रियोंमें सर्वश्रेष्ठ महासाध्वी वह मेधातिथिकी कन्या अरुन्धती वसिष्ठको [पतिरूपमें] प्राप्तकर अत्यन्त शोभित हुई ॥ 24 ॥ हे मुनिश्रेष्ठ! उससे शक्ति आदि श्रेष्ठ तथा सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुए। इस प्रकार वसिष्ठको पतिरूपमें प्राप्तकर वह शोभा पाने लगी ॥ 25 ॥
हे मुनिसत्तम! इस प्रकार मैंने सन्ध्याका चरित्र कहा, जो अत्यन्त पवित्र, दिव्य तथा सम्पूर्ण कामनाओंका फल देनेवाला है ॥ 26 ॥
जो शुभ व्रतवाला पुरुष अथवा नारी इस चरित्रको सुनता है, उसके सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं, इसमें सन्देह नहीं है ॥ 27 ॥