ऋषि बोले हे महामते भक्तजनोंकी रक्षा करनेवाले महाकाल नामसे विराजमान ज्योतिलिंगके माहात्म्यका पुनः वर्णन कीजिये ॥ 1 ॥
सूतजी बोले- हे ब्राह्मणो भक्तोंकी रक्षा करनेवाले महाकाल नामक ज्योतिर्लिंगका भक्तिवर्धक माहात्म्य आदरपूर्वक सुनिये। उज्जयिनी नगरीमें चन्द्रसेन नामक एक महान् राजा था, जो सभी शास्त्रोंके तात्पर्यको तत्त्वतः जाननेवाला, शिवभक्त तथा जितेन्द्रिय था ॥ 2-3 ॥
उस राजाका मित्र महादेवके गणोंमें प्रमुख मणिभद्र नामक गण था; वह समस्त लोगोंद्वारा नमस्कृत था ॥ 4 ॥ किसी समय उदारबुद्धिवाले उस गणाध्यक्ष मणिभद्रने प्रसन्न होकर उसे चिन्तामणि नामक उत्तम मणि प्रदान की सूर्यसदृश प्रकाश करनेवाली वह मणि कौस्तुभमणिके समान ध्यान करने, दर्शन करने तथा सुननेमात्रसे निश्चय ही कल्याण प्रदान करती थी ।। 5-6 ॥
उसके प्रकाशतलका स्पर्श पाते ही काँसा, ताँबा, लौह, शीशा, पाषाण तथा अन्य [ धातु खनिज आदि] भी शीघ्र ही सुवर्ण हो जाते थे। उस चिन्तामणिको गलेमें धारण करके वह परम शिवभक्त राजा चन्द्रसेन इस प्रकार शोभित होता था, जैसे | देवगणोंके बीच सूर्य शोभित होते हैं॥ 7-8 ॥चिन्तामणिसे युक्त ग्रीवावाले नृपश्रेष्ठ चन्द्रसेनके विषयमें सुनकर पृथ्वीके समस्त राजा उस मणिको | लेनेके लिये आतुर मनवाले हो गये ॥ 9 ॥
उन मूर्ख एवं मत्सरग्रस्त राजाओंने देवलब्ध उस मणिको अनेक उपायोंके द्वारा चन्द्रसेनसे माँगा ॥ 10 ॥
किंतु हे ब्राह्मणो! महाकालमें दृढ़ भक्ति रखनेवाले उस चन्द्रसेनने सभी राजाओंकी याचना निष्फल कर दी। तब राजा चन्द्रसेनसे इस प्रकार तिरस्कृत हुए सभी देशोंके समस्त राजाओंने खलबली मचा दी। इसके बाद वे सभी राजा चतुरंगिणी सेनासे युक्त होकर उस चन्द्रसेनको युद्धमें जीतनेके लिये भलीभाँति उद्यत हो गये । ll 11-13॥
आपसमें मिले हुए उन सभी राजाओंने एक दूसरेको संकेतसे अपना मनोभाव समझाकर बहुत सारे सैनिकोंके साथ मिलकर उज्जयिनीके चारों द्वारोंको घेर लिया ll 14 ॥
तब अपनी नगरीको समस्त राजाओंके द्वारा घिरी देखकर वह राजा उन्हीं महाकालेश्वरकी शरण में गया। वह राजा निर्विकल्प होकर तथा निराहार रहकर दृढ़ निश्चयपूर्वक एकाग्रचित्त हो दिन-रात महाकालका अर्चन करने लगा ।। 15-16 ll
इसके बाद महाकाल भगवान् शिवजीने प्रसन्नचित्त होकर उस राजाकी रक्षा करनेके लिये जो उपाय किया, उसे आपलोग आदरपूर्वक सुनिये ॥ 17॥
हे विप्रो ! उसी समय कोई ग्वालिन बालकसहित उस उत्तम नगरमें घूमती हुई महाकालके निकट पहुँची ॥ 18 ॥
पाँच वर्षकी अवस्थावाले बालकको लिये हुए वह विधवा ग्यालिन राजाके द्वारा की जाती हुई महाकालको पूजाको आदरपूर्वक देखने लगी। राजाके द्वारा की गयी उस आश्चर्यजनक शिवपूजाको देख करके शिवजीको प्रणामकर वह पुनः अपने शिविरमें लौट गयी ।। 19-20 ॥
यह सब अच्छी तरह देखकर उस गोपीपुत्रने कौतूहलवश उस शिवपूजनको करनेका विचार किया ॥ 21 ॥उसने अपने शिविरके सन्निकट किसी दूसरे सूने शिविरमें अत्यन्त मनोहर पाषाण लाकर भक्तिपूर्वक उसे स्थापित किया और गन्ध, आभूषण, वस्त्र, धूप, दीप, अक्षत आदि कृत्रिम द्रव्योंसे शिवजीका पूजनकर | नैवेद्य भी चढ़ाया। पुनः मनोहर बिल्वपत्रों एवं पुष्पोंसे | बार बार शिवपूजनकर अनेक प्रकारका नृत्य करके शिवको बार- बार प्रणाम किया ॥ 22-24 ॥
उसी समय उस ग्वालिनने शिवमें आसक्त हुए श्रेष्ठ मनवाले अपने पुत्रको स्नेहसे भोजन के लिये बुलाया ।। 25 ।।
जब शिवभक्तिमें सने हुए चित्तवाले उस बालकने बार-बार बुलाये जानेपर भी भोजनकी इच्छा नहीं की, तब उसकी माता [स्वयं] वहाँ गयी ॥ 26 ॥
आँखें बन्द किये हुए उसे शिवजीके आगे बैठा हुआ देखकर उसका हाथ पकड़कर खींचा और क्रोधपूर्वक मारा। किंतु खींचने और मारनेपर भी जब उसका पुत्र नहीं आया, तब उसने शिवलिंगको दूर फेंककर उसकी पूजाको नष्ट कर दिया ॥ 27-28 ॥
इसके बाद 'हाय! हाय!' कहकर दुखी होते हुए अपने पुत्रको झिड़ककर क्रोधयुक्त वह ग्वालिन पुनः अपने घरमें प्रविष्ट हो गयी। तब वह बालक [अपनी] माताके द्वारा भगवान् शिवके पूजनको नष्ट किया गया देखकर देव! देव! इस प्रकार कहकर चीखने लगा और [ पृथ्वीपर] गिर पड़ा ॥ 29-30 ॥
इसके बाद शोकाकुल होनेके कारण वह सहसा मूच्छित हो गया; फिर दो घड़ी बाद चेतनामें आनेपर उसने अपने दोनों नेत्र खोले। शिवजीकी कृपासे उसी क्षण वहाँपर महाकालका सुन्दर शिविर (देवालय) बन गया, जिसे उस बालकने देखा ॥ 31-32 ॥
उस शिवालयके स्वर्णमय बड़े बड़े दरवाजे थे, उसमें सुन्दर किवाड़ तथा वन्दनवार लगे हुए थे और वह बहुमूल्य इन्द्रनील मणि तथा उज्ज्वल | हीरेकी वेदीसे सुशोभित हो रहा था। वह विचित्रतायुक्त बहुत से तप्त सुवर्णनिर्मित कलशोंसे युक्त था और मणिके खम्भोंसे जगमगाते हुए तथा स्फटिक) मणिके बने हुए भूतल (फर्श) से शोभायमान हो रहा था ।। 33-34 ॥उस गोपीपुत्रने उस (देवालय) के बीच कृपानिधि शिवजीका रत्नमय ज्योतिर्लिंग देखा, जो उसकी पूजन सामग्रीसे सर्वथा अलंकृत था ॥ 35 ॥
यह सब देख वह बालक सहसा उठकर खड़ा हो गया। उसे मनमें बड़ा आश्चर्य हुआ और वह उठकर आनन्दसागरमें मानो निमग्न हो गया ॥ 36 ॥ तदनन्तर बारंबार शिवकी स्तुति तथा प्रणाम करके सूर्यास्त होनेपर वह बालक शिवालयसे [अपने शिविरमें] चला गया। [ वहाँ जाकर] उसने शीघ्र ही इन्द्रनगरके समान सुवर्णसे बने हुए, विचित्रतासे युक्त तथा अत्यन्त उज्ज्वल अपने शिविरको देखा ।। 37-38 ।।
उसने सायंकालके समय प्रसन्न हो मणियों एवं सुवर्णसे रचित सर्वशोभासम्पन्न अपने भवनमें प्रवेश किया। वहाँ उसने दिव्य लक्षणोंवाली, रत्नालंकारोंसे जगमगाते हुए अंगोंवाली तथा साक्षात् सुरांगनाके समान [प्रतीत होती हुई ] अपनी माताको सोते हुए देखा ।। 39-40 ।।
हे विप्रो इसके बाद आनन्दसे परिपूर्ण हो शिवके कृपापात्र उस बालकने वेगपूर्वक अपनी माताको उठाया। जब वह उठी, तो सब अपूर्व अद्भुत दृश्य देखकर आश्चर्यचकित हो आनन्दमें निमग्न हो गयी और उसने अपने पुत्रका आलिंगन किया ।। 41-42 ।।
तब अपने पुत्रके मुखसे गिरिजापतिकी सम्पूर्ण कृपाको सुनकर उस ग्वालिनने उस राजाको, जो निरन्तर भगवान् शिवका पूजन कर रहा था, [सारा वृतान्त ] बताया। नियम समाप्त होनेके बाद राजाने रात्रिमें वहाँ सहसा आकर शिवको प्रसन्न करनेवाले गोपिका पुत्रके उत्तम [भक्ति] प्रभावको देखा ॥ 43-44 अमात्य एवं पुरोहितसहित वह धैर्यशाली राजा यह सब देखकर परमानन्दसागरमें डूब गया ॥ 45 ॥
वह राजा चन्द्रसेन प्रेमसे आँसू बहाता हुआ और 'शिव' नामका उच्चारण करता हुआ प्रेमपूर्वक उस बालकका आलिंगन करने लगा। हे ब्राह्मणो! उस समय वहाँ बहुत बड़ा उत्सव हुआ। सभी लोग आनन्दसे विभोर हो शिवजीका कीर्तन करने लगे ।। 46-47 ।।इस प्रकार अतीव अद्भुत लीलाओंवाले शिवजीके | माहात्म्यको देखनेसे आनन्दमग्न पुरवासियोंकी वह रात्रि क्षणमात्रकी भाँति बीत गयी ॥ 48 ॥
इसके बाद युद्धके लिये नगरको घेरकर हुए राजाओंने प्रातःकाल होते ही अपने गुप्तचरोंसे यह समाचार सुना। तब जो जो राजा वहाँ आये हुए थे, वे सब यह सुनकर अत्यन्त आश्चर्यचकित हो गये और एकत्रित हो आपसमें कहने लगे ॥ 49-50 ॥
राजागण बोले- यह महाकालपुरी उज्जयिनीका अधीश्वर राजा चन्द्रसेन शिवभक्त होनेसे निश्चिन्त तथा दुर्जेय है। जिसकी पुरीमें शिशु भी इस प्रकारके शिवभक्त हैं, वह राजा चन्द्रसेन तो महान् शिवभक्त होगा। निश्चय ही इसके साथ विरोध करनेसे तो शिवजी क्रुद्ध हो जायेंगे और उनके क्रोधसे हम सब लोग विनष्ट हो जायेंगे। इसलिये हमें इस राजासे मेल कर लेना चाहिये; ऐसा करनेपर शिवजी [हमलोगॉपर ] महती कृपा करेंगे ॥ 51-54 ॥
सूतजी बोले- इस प्रकार निश्चयकर उन राजाओ वैरभावको त्याग दिया, उनका अन्तःकरण पवित्र हो गया और उन लोगोंने परम प्रसन्न होकर अपने-अपने हाथोंसे अस्त्र-शस्त्रोंका त्याग कर दिया ॥ 55 ॥
उन राजाओंने महाकालकी रम्य पुरीमें प्रवेश किया और चन्द्रसेनकी आज्ञा लेकर महाकालका भलीभाँति पूजन किया। इसके बाद वे सभी राजा ग्वालिनके घर गये और दिव्य तथा महान् समृद्धिवाले उसके भाग्यकी प्रशंसा करने लगे ।। 56-57 ॥
चन्द्रसेनके द्वारा उन राजाओंकी अगवानी तथा भलीभाँति पूजा किये जानेके उपरान्त [ उसके द्वारा प्रदत्त ] बहुमूल्य आसनोंमें बैठे हुए वे राजागण [शिवजीकी महिमाको देखकर ] अत्यन्त विस्मित तथा प्रसन्न हो | गये। गोपपुत्रपर हुई कृपासे उत्पन्न हुए शिवालय तथा [ उसमें प्रतिष्ठित ] शिवलिंगको देखकर शिवजी के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा हो गयी ॥ 58-59 ॥
तब शिवकी कृपा प्राप्त करनेकी अभिलाषावाले उन सभी राजाओंने प्रसन्न होकर उस गोपकुमारको बहुत-सी वस्तुएँ दीं। उन राजाओंने समस्त देशोंमें जो जो बहुत-से गोप रहते थे, उन सबका उसे राजा बना दिया ।। 60-61 ॥इसी बीच सभी देवगणोंसे पूजित वानराधिपति तेजस्वी हनुमान्जी वहाँ प्रकट हुए ॥ 62 ॥
हनुमान्जीके प्रकट हो जानेसे सभी राजा आश्चर्यचकित हो गये और वे उठकर भक्तिभावसे समन्वित हो उन्हें प्रणाम करने लगे ॥ 63 ॥
उन सभीके बीचमें विराजमान हनुमान्जी उनसे पूजित हो उस गोपपुत्रका आलिंगनकर राजाओंकी ओर देख करके यह कहने लगे- ॥ 64 ॥
हनुमानजी बोले- हे राजाओ। आप सभी लोग तथा दूसरे देहधारी भी सुनें जो भी शरीरधारी प्राणी हैं, उनका शरणदाता शिवके अतिरिक्त अन्य कोई नहीं है। इसी प्रकार इस गोपपुत्रने भाग्यसे शिवपूजाको देखकर बिना मन्त्रके ही कल्याणकारी शिवका पूजनकर उन्हें प्राप्त कर लिया । ll 65-66 ॥
शिवजीका यह श्रेष्ठ भक्त गोपोंकी कीर्तिको बढ़ानेवाला होगा और इस लोकमें सम्पूर्ण भोगोंको भोगकर अन्तमें मोक्ष प्राप्त करेगा ॥ 67 ॥
इसके वंशकी आठवीं पीढ़ीमें महायशस्वी नन्द नामक गोप उत्पन्न होंगे, जिनके पुत्ररूपमें श्रीकृष्ण नामसे साक्षात् नारायण ही अवतीर्ण होंगे ॥ 68 ॥
आजसे लेकर यह गोपकुमार इस लोकमें 'श्रीकर' नामसे महती लोकप्रसिद्धि प्राप्त करेगा ।। 69 ।।
सूतजी बोले- ऐसा कहकर अंजनीपुत्र शिवावतार कपीश्वर हनुमानजीने सभी राजाओं तथा चन्द्रसेनको कृपादृष्टिसे देखा। इसके बाद उन्होंने बुद्धिमान् गोपपुत्र श्रीकरको प्रेमपूर्वक शिवजीको प्रिय लगनेवाले शिवाचारका उपदेश दिया ॥ 70-71 ॥
हे द्विजो उसके अनन्तर अति हर्षित हुए हनुमानजी सभी राजाओं, चन्द्रसेन तथा श्रीकर आदिके देखते-देखते वहीं अन्तर्धान हो गये। इसके बाद चन्द्रसेनके द्वारा सत्कृत हो प्रसन्न हुए सभी राजा उनसे आज्ञा लेकर अपने- अपने स्थानको चले गये ॥ 72-73 ॥
परम तेजस्वी श्रीकर भी हनुमान्जीसे उपदेश | पाकर धर्मज्ञ ब्राह्मणोंके साथ शिवपूजन करने लगा। [इस प्रकार] महाराज चन्द्रसेन तथा गोपपुत्र श्रीकर दोनों ही बड़ी प्रीतिसे महाकालकी उपासना करने लगे ।। 74-75 ।।कुछ समय बाद वह श्रीकर तथा राजा चन्द्रसेन भी महाकालकी आराधनाकर परम पदको प्राप्त हुए ।। 76 ।।
इस प्रकार महाकाल नामक ज्योतिर्लिंग सज्जनोंको शुभ गति देनेवाला, सभी दुष्टोंका वध करनेवाला, कल्याणकारी तथा भक्तोंके ऊपर दया करनेवाला है ॥ 77 ॥
[हे द्विजो!] मैंने अत्यन्त पवित्र, गोपनीय, सभी प्रकारके सुखोंको देनेवाले, स्वर्गको प्रदान करनेवाले तथा शिवमें भक्तिको बढ़ानेवाले इस आख्यानका वर्णन किया ।। 78 ।।