व्यासजी बोले- हे भगवन्! हे ब्रह्मपुत्र ! महानरकमें जानेवाले जो पापपरायण जीव हैं, उनका वर्णन कीजिये, आपको नमस्कार है ॥ 1 ॥
'बोले- हे व्यासजी! पापोंमें संलग्न सनत्कुमार जो महानरकगामी जीव हैं, मैं उनका संक्षेपमें वर्णन कर रहा हूँ, आप सावधानीपूर्वक सुनें। दूसरोंकी स्त्री तथा पराये धनकी इच्छा, मनसे दूसरोंका अनिष्टचिन्तन तथा बुरे कामोंमें प्रवृत्ति-ये चार प्रकारके मानस पापकर्म हैं ॥ 2-3 ॥
असम्बद्ध प्रलाप, असत्य, अप्रिय भाषण तथा पीठपीछे चुगलखोरी-ये चार प्रकारके वाचिक पापकर्म हैं। अभक्ष्यभक्षण, हिंसा, अनुचित कर्मके प्रति आग्रह एवं परधनका अपहरण - ये चार प्रकारके कायिक पाप कर्म हैं ।। 4-5 ll
इस प्रकार ये मन, वाणी तथा शरीररूप साधनोंसे | होनेवाले बारह प्रकारके पापकर्म कहे गये हैं, अब मैं इनके भेदोंका वर्णन करता हूँ, जिनके [ अनिष्ट ] परिणामोंका कोई अन्त नहीं है ॥ 6 ॥
जो संसारसमुद्रसे पार करनेवाले महादेवकी निन्दा करते हैं, नरकसमुद्रमें पड़नेवाले उन लोगोंको महापाप लगता है। जो उन्मत्त होकर शिवज्ञानके उपदेशक, तपस्वी, गुरुओं एवं पितृजनोंकी निन्दा करते हैं, वे नरकसमुद्रमें जाते हैं ।। 7-8 ॥
शिवनिन्दा करना, गुरुनिन्दा करना, शैवसिद्धान्तका खण्डन करना, देवद्रव्यका अपहरण करना, द्विजद्रव्यका नाश करना और मूर्खतावश शिवज्ञानविषयक पुस्तकका अपहरण करना-ये छ: अनन्त फल देनेवाले महापातक कहे गये हैं ।। 9-10 ॥जो लोग दूसरोंके द्वारा किये गये शिवपूजनको देखकर प्रसन्न नहीं होते, अर्चित शिवलिंगको देखकर नमस्कार नहीं करते और न उसकी स्तुति करते हैं, सदाशिवके आगे तथा गुरुके पास निःशंक होकर मनमानी चेष्टाएँ करते हुए बैठते हैं-क्रीडा- विनोद करते हैं और शिष्टाचारका अनुपालन नहीं करते हैं, जो लोग कर्मयोगमें स्थित रहते हुए अर्थात् उपासनापद्धतिके अनुरूप पर्वके दिनोंमें शिवजीके मन्दिरकी साफ- सफाई, पूजा आदि तथा गुरुओंकी विधिवत् पूजा नहीं करते, जो शिवाचारका त्याग करते हैं एवं शिवजीके भक्तोंसे द्वेष करते हैं, जो [ परम्पराके अनुसार इष्ट, गुरु आदिका] बिना पूजन किये शिवज्ञानका अध्ययन तथा बेचनेके लिये शिव ज्ञानसम्बन्धी ग्रन्थका लेखन करते हैं, जो अन्यायसे दान करते हैं, अन्यायसे कथा सुनते एवं सुनाते हैं, लोभवश तथा अज्ञानतावश शिवज्ञानका उपहास करते हैं, संस्कारविहीन स्थानोंमें इच्छानुसार शिवकी स्थापना करते हैं, जो शिवज्ञानकथामें आक्षेप करके दूसरी बात करता है, जो सत्यभाषण नहीं करता है और दान नहीं देता है, जो अपवित्र रहकर या अपवित्र स्थानमें शिवकथाका वाचन अथवा श्रवण करता है, जो गुरुकी पूजा किये बिना ही शास्त्रका अध्ययन करना चाहता है, भक्तिभावसे उनकी सेवा तथा आज्ञापालन नहीं करता है, उनकी आज्ञाका आदर नहीं करता है तथा उत्तर देता है, गुरुकार्यको असाध्य कहकर उसकी उपेक्षा करता है, जो पापपरायण व्यक्ति रोगी, अशक्त, परदेश गये हुए अथवा शत्रुओंसे प्रताड़ित गुरुको छोड़ देता है, जो उनकी भार्या, पुत्र तथा मित्रकी अवज्ञा करता है और इसी प्रकार श्रेष्ठ कथावाचक तथा धर्मोपदेशक गुरुकी भी आज्ञा नहीं मानता है- हे मुनिश्रेष्ठ! ये समस्त कार्य शिवनिन्दाके समान महापातक कहे गये हैं । ll 11 - 22 ॥
ब्रह्महत्यारा, सुरापान करनेवाला, चोर, गुरु पत्नीगामी एवं इनके साथ सम्पर्क रखनेवाला - ये महापापी होते हैं। क्रोध, लोभ, भय अथवा द्वेषवश ब्राह्मण वधविषयक मर्मान्तक कथनके अपराधसे भी मनुष्य ब्रह्मघाती होता है ॥ 23-24 ॥ब्राह्मणको बुलाकर उसे दान देकर जो पुनः उसे वापस ले लेता है और जो निर्दोष ब्राह्मणको दोष लगाता है, वह मनुष्य ब्रह्महत्यारा होता है ॥ 25 ॥
जो अपनी विद्या अभिमानवश उदासीन हुए अर्थात् तटस्थ भावसे व्यवहार करनेवाले श्रेष्ठ ब्राह्मणको सभामें हतप्रभ करता है, वह ब्रह्महत्यारा कहा गया है ।। 26 ।।
जो दूसरेके गुणोंपर आक्षेप करके हठपूर्वक अपने मिथ्या गुणोंके द्वारा अपनेको उत्कृष्ट प्रदर्शित करता है, वह भी ब्रह्महत्यारा कहा गया है॥ 27 ॥
वृषभोंके द्वारा बाही जाती हुई गायों और गुरुसे उपदेश ग्रहण करते हुए द्विजोंके कार्यमें जो विघ्न उपस्थित करता है, उसे भी ब्रह्महत्यारा कहा गया है। जो देवता, ब्राह्मण एवं गायोंके निमित्त दानमें दी गयी भूमिके उपेक्षित रहनेपर भी कुछ समय बाद उसका हरण करता है, उसे ब्रह्महत्यारा कहा गया है ।। 28-29 ।।
देवता एवं ब्राह्मणके धनका अपहरण एवं अन्यायद्वारा किया गया धनोपार्जन है, उसे ब्रह्महत्याके समान पाप समझना चाहिये, इसमें सन्देह नहीं है ॥ 30 ll
यदि कोई ब्राह्मण वेदका अध्ययनकर मोहवश शिवात्मक ब्रह्मज्ञानका त्याग करता है, तो यह सुरापानके समान [पाप] है ॥ 31 ॥
जिस किसी भी व्रत, नियम तथा यज्ञके करनेका संकल्पकर उसका त्याग करना तथा पंच [महा] यज्ञोंका त्याग करना सुरापानके समान [पाप] है ॥ 32 ॥
माता- पिताका त्याग करना, झूठी गवाही देना, ब्राह्मणसे मिथ्या भाषण करना, शिवभक्तोंको मांस खिलाना एवं अभक्ष्यका भक्षण करना तथा वनमें निरपराध प्राणियोंका वध करना - [ ये सभी पाप ब्रह्महत्याके ही तुल्य हैं।] साधुपुरुषको चाहिये कि वह ब्राह्मणके धनको त्याग दे तथा उसे धर्मके कार्यमें भी न लगाये [ अन्यथा उसे ब्रह्महत्याका दोष लगता है] ॥ 33-35 ॥
दीनोंके धनका हरण, स्त्री, पुरुष, हाथी, घोड़ा, गाय, भूमि, चाँदी, वस्त्र, औषधि, रस, चन्दन, अगुरु, कपूर, कस्तूरी एवं रेशमी वस्त्र आदि वस्तुओंका ब्राह्मणके द्वारा बिना आपतिके जान-बूझकर किया ● गया विक्रय, अपने पासमें रखी गयी धरोहरकाअपहरण करना - यह सब सुवर्णकी चोरीके समान माना गया है। विवाहके योग्य कन्याओंको योग्य वरको न प्रदान करना, पुत्र तथा मित्रकी स्त्रियोंसे, बहनसे तथा कुमारीके साथ गमन करना, मद्य पीनेवाली स्त्रीसे संसर्ग करना और समान गोत्रवाली स्त्रीसे संसर्ग करना - गुरुकी भार्याके साथ गमन करनेके समान कहा गया है। [हे व्यास!] मैंने महापातकोंको कह दिया, अब उपपातकोंका श्रवण कीजिये ॥ 36-40 ॥